૧/૮૦/૭-૧૨, ૧૯-૨૫.
૩/૪૦/૧૯-૨૨.
૪/૧૫/૨૯-૩૨
૪/૧૯/૯-૧૦.
૪/૪૩/૩૫-૩૬.
૪/૪૩/૪૬-૫૧.
૬/૨૬/૧૭-૨૪.
૬/૪૭/૧૧-૨૬.
૬/૭૭/૨૧-૨૯.
૬/૯૧/૧૨-૧૪.
૭/૯/૨૬-૨૮.
अनंतकोटि ब्रह्मांड को सुखा । सत्संग आगे कहत सब लूखा ॥
सत्संग में मिलत फल भारी । कबहु न होवत कोई भिखारी ॥
सत्संग करे में परे दुःख हिता । आनंद में निगमना तेता ॥
मिथ्या संसार सुख के हिता । कोटि दुःख जन करत सहिता ॥
हरिजन सम जग में न केहा । निश्चल हरि सें कियेउ नेहा ॥
संसार में रहि तिन से न्यारे । सत्संग विन और रखे न प्यारे ॥
(૮/૪/૧૭-૩૨)
૮/૨૦/૨૯-૩૬.
૮/૩૮(૩૭)/૨૨-૨૬.
૮/૩૮(૩૭)/૩૧-૩૭.
૯/૪૩/૭-૧૫.
૯/૪૫/૩-૨૧.
૧૦/૫/૨૨-૩૦.
૧૦/૨૭/૧૫-૨૪.
૧૦/૩૩/૨૭-૩૪.
૧૦/૪૮/૩૫-૪૦.
૧૧/૫૨/૩૦-૪૦, ૫૩/૧-૨૬.
૧૧/૬૦(૫૦-બ)૩૪-૩૭.
૧૧/૮૨(૭૨)/૧-૨૨.
प्रगट हरि वा संत हि ताके । वा हरिजन कोउ मिलत वाके ॥
तेहि कर सत्संग को होत जोगा । चोराशि जमपुरि भागत रोगा ॥
अलौकिक सुख लहन को जेहु । सत्संग विन उपाय न केहु ॥
हरिजन संत कहावत जेते । एसी वात नित करना तेते ॥
(૧૨/૨૧(૨૦)/૩૫-૩૬)
૧૨/૩૭(૩૬)૮-૧૨.
૧૨/૩૮(૩૭)૭-૧૩.
૧૨/૪૯/૩-૧૨.
૧૨/૫૬/૧૦-૩૦.
૧૩/૩૧/૩૪-૩૮.
૧૩/૬૭/૧-૭.
૧૪/૪૦/૩૩-૩૯.
असत हि करना त्याग, सत को रखना जोग हि ।
तेसे जन बड भाग, सत्संग कहत ताहि कुं ।
हरि हरि के जन जोउ, धर्म नियम जो जे ते तेउ ।
भक्ति ज्ञान जो सोउ, वैराग्य जो सत हि कहत ॥
श्रीहरि के संबंध कर जेहा । जितने तीर्थ व्रत रहे तेहा ॥
सत करिके ताहि कुं कहेना । असत हें कबु न उचरना बेना ॥
हरि के संबंध भये जो जाकुं । असत करि सो कहत हें ताकुं ॥
सत्संग में बड़े होय जोउ । असुर के भूप देखना तोउ ॥
धर्मनियम त्याग महिं केहा । अधिक रहे सब संत से एहा ॥
भक्ति ज्ञान करि अधिक देखावे । ध्यान महिं तत्पर रहावे ॥
आपके प्रतिपादन अपारा । संत जेहि करे वारमवारा ॥
तेसे संत के गुन मुख गावे । अवर के अवगुन कहि देखावे ॥
जितने संत हरिजन जो एसो । कालनिमि जानना तेसो ॥
संत हरिजन निरमल तेते । सरल स्वभाव वरतत तेते ॥
(૧૪/૪૨/૨૭-૩૬)
૧૪/૬૩/૩૨-૪૦.
૧૪/૮૨/૧-૧૦.
૧૪/૮૩/૨૪-૩૩.
૧૫/૪૦/૧૪-૨૩.
૧૫/૪૭/૨૦-૨૬.
૧૫/૬૭/૧૩-૨૧.
૧૫/૭૭/૩૧-૩૬.
૧૬/૨૭/૨૬-૪૧.
૧૬/૪૦/૩૨-૩૭.
૧૬/૪૧/૨૨-૪૨.
૧૬/૬૯/૧૯-૩૩.
૧૭/૧૧/૧૯-૩૮.
૧૭/૧૯/૨૭-૩૬.
૧૯/૧૬/૨૧-૩૪.
૨૨/૪૯/૫-૭.
धर्म भक्ति वैराग्य जो ज्ञाना । भगवान संबंध जामें रहाना ॥
जीव जुत तेहि रहेउ बाता । जामहिं छलकपट न रहाता ॥
छलकपट जामें रहे जेता । निरजीव बात तितनी हि तेता ॥
मोक्षरूप फल हि जेही । निरजीव बात तामें तेहि ॥
होवत हि नहि कबहु रहाते । निरजीव बात एसी कहाते ॥
इतनि करी हरि बात, गरबि ताकेउ पद पिछे ।
बोलायेउ रहात, संत जीते बोलत भये ॥
(૨૮/૨૧/૨૨-૨૪)
૬/૨૧/૩૨-૩૮.
૩/૩૬.
૪/૫૧/૧૩-૨૦.
૬/૫૦/૧૨-૨૧.
૬/૫૦/૧૯-૨૦.
૬/૬૦/૩૨-૩૪.
૮/૩૭/૧૪-૧૭.
૮/૪૦/૨૩.
૧૦/૨/૨૧,૨૫.
૧૦/૨૫/૨૭-૩૬.
૧૦/૪૨/૩૪-૩૬.
૧૦/૫૨/૨૫-૩૧.
૧૨/૨૬/૭-૧૦.
૧૩/૪૯/૩૦-૪૧.
૧૩/૫૫/૨૫-૨૮.
૧૩/૫૭/૨૩-૪૦.
૧૪/૧૫/૧૫-૨૪.
૧૪/૧૯/૨૨-૨૭.
૧૫/૧૦/૨-૧૬.
૧૫/૨૯/૧૫-૨૧.
૧૫/૪૪/૫-૧૧.
૧૭/૮/૧૦-૧૭.
૧૮/૩૭/૩૪-૩૬.
૧૮/૪૧/૩૪-૩૬.
૨૭/૪૫/૨૯-૩૦.
૨૮/૪૨/૧૯-૨૧.
૧/૫૫/૩-૬.
૨/૫૦/૨૩-૨૪.
૩/૧૫/૩૫-૩૬.
૪/૫/૧૬-૨૧.
૪/૩૨/૩૫.
पंच महापापी जन होई । हरिजन को करे विनय सोई ॥
सत्संग में सो अन्न कुं पाई । अंत्ये महाशुद्ध हो जाई ॥
जन्म मृत्यु कुं छुटि के ऐहू । अक्षरधाम में जावहि तेहू ॥
(૪/૩૫/૮-૨૨)
૪/૩૭/૨૦-૩૬.
૪/૬૬/૮-૨૦.
૫/૨૨/૫-૧૦.
૫/૩૭/૨૫-૨૮.
૫/૩૮/૧૨.
हमारो प्रताप कहावत जेता । नियम में सब रखे हे तेता ॥
समाधिनिष्ठ होय ब्रह्म हि वेत्ता । एसे संत हरिजन केता ॥
नियम अरु निश्वय विन तेहू । विमुख असुर जानना एहू ॥
नियम-निश्चे में न डंभ रहावे । जेसो अंतर तेसो कलावे ॥
तेहि कारन हम बांधे निमा । सब के मोक्ष करन हित सीमा ॥
(૫/૪૨/૨૧-૨૪)
૫/૫૦/૨૫-૨૮.
૫/૭૨/૨૬.
शाहुकार को चोर धरिके बानां । कितनेक धन सो लावत छानां ॥
तेहि कर चोर शाहुकार न होवे । बुद्धिमान तपासि जोवे ॥
नियम धर्म शाहुकार सो जानो । बिन नियम हि चोर प्रमानो ॥
देहकि स्मृति न रहे जाहि । नियम धर्म न रहे ताहि ॥
ज्ञान चक्षु हिन अंध कहावे । विषयरूप जाल में बंधावे ॥
ज्ञानि गुरु को संग करे जबहि । मोह जालसें छोरे तबहि ॥
(૬/૨/૧૮-૨૨)
૬/૨૬/૫-૧૨.
૬/૩૭//૨૨-૨૪.
૬/૫૦/૧૧-૧૬.
स्त्रिरूप माया विकट, इतने कुं घीरत नाहि ।
हरिअग्या में वर्तहि, तेहिकर कुशल रहाहि ॥
हरिअग्या रूप कोट में, वसत सो कुशल रहात ।
जो जो निकसे बार हि, देखे तर्त सो खात ॥
कलिकाल मध्य घोर, तामें हम प्रगट भयेउ ।
अधर्म को महाजोर, धर्मसैन्य विन न हठहि तेऊ ॥
धर्मरुप हथियार, संत-हरिजन कुं देत रहत ।
अधर्म सैन्य देवे माट, ज्ञानरुप तोप चढाइकर ॥
(૬/૫૨/૩૭-૪૦)
૬/૬૮/૪-૬.
૬/૭૮/૧૦-૧૫.
૬/૯૧/૫-૬.
૬/૯૨/૧૮-૨૨.
૭/૮/૨૭-૩૯.
૮/૧૭/૨૯-૩૨.
૮/૪/૧૫.
૮/૧૮/૧૭-૩૬.
૮/૨૦(૧૯)/૩૮-૪૦.
૮/૨૮/૪૦.
૮/૪૭/૧૨-૩૦.
૮/૬૧/૩૩.
૯/૮/૯-૧૩.
૯/૪૮(૪૯)/૨૨-૨૫.
धर्म तिहां भक्ति ज्ञान, ज्ञान तिहां वैराग्य रहेउ ।
वैराग्य तिहां भगवान, भगवान तिहां मोक्षपद ॥
भगवान तिहां धर्म, कुटुंब सहित सो निवास करत ।
अलौकिक यह मर्म, वेद स्मृति पुराण तिहां ॥
(૯/૪૯/૨૭-૨૮)
૯/૫૭(૫૮)/૯-૨૪.
૧૦/૯/૨૮-૩૯.
૧૦/૨૭/૨૯-૪૧.
૧૦/૪૧/૩૫-૪૦.
૧૦/૪૯/૨૦-૩૩.
૧૧/૨/૧૫-૩૩.
૧૧/૧૨/૭-૧૭.
૧૧/૨૪/૧૯-૨૫.
૧૧/૩૩/૩૩-૩૮.
૧૧/૩૮/૧૭-૨૩.
૧૧/૬૧/(૫૧-બ)/૧-૧૫.
भागवत धर्मनिष्ठ हि, त्यागी गृही जेते ।
श्रीहरि प्रसन्न करन हित, साधन करत हें तेते ॥
तेहि साधन कि लव सम, ओर साधन अपार ।
समता लहे नहि कबहु, जानत शुद्ध विचार ॥
(૧૨/૧૫/૩૧-૩૮)
૧૨/૨૫/૭-૧૦.
૧૨/૨૯/૧૩-૨૩.
૧૩/૪૭/૮-૨૦.
૧૪/૧૭/૩૩-૪૦.
૧૪/૨૭/૨૨-૨૮.
૧૪/૨૯/૩૨-૩૫.
૧૪/૬૭/૨૦-૨૨.
૧૪/૮૬/૧૭-૨૯.
૧૪/૮૭/૨૭.
૧૫/૩/૧૩-૧૭.
૧૫/૧૯/૩-૧૦.
૧૫/૪૪/૩૯-૪૦.
૧૫/૫૪/૩૦-૪૦.
૧૫/૬૪/૩૫-૪૦.
૧૫/૭૭/૩૭-૪૦.
૧૫/૭૯/૨૨-૨૭.
૧૫/૮૧/૩૯-૪૨.
૧૫/૯૧/૧૯-૨૪.
૧૫/૯૭/૩૪-૪૧.
૧૬/૩૮/૧૭-૪૧.
૧૬/૪૨/૨૭-૩૬.
૧૬/૪૫/૩૭-૪૨.
૧૬/૬૪/૩૯-૪૦.
૧૬/૬૯/૨૧-૨૭.
૧૭/૬/૨૭-૩૭.
૧૭/૧૨/૫-૧૫.
૧૭/૧૪/૧૮-૨૪.
૧૮/૧૫/૧૨.
૧૯/૧૮(૧૭)/૨૦-૨૫.
हमारे वचन करत हि जितना । हमकुं पूजत रहाये तितना ॥
जितना कुतर्क करत यामें । हम नहि प्रसन्न होवत तामें ॥
हमारे बचन बिन और जेता । मानत हम मनमुखी कर तेता ॥
मनमुखी होय च्हाय जो जेसा । असुर की जाति देखना तेसा ॥
हमारी देशी असुर हि जितने । आचरण हमारे सुनि तितने ॥
लेवहि हमारे पिछे केते । असुर बड़े रहे जो एते ॥
मोक्ष ताके खप होय जेहा । असुर कुं नहि मानहि तेहा ॥
मोक्ष के खप न होय जाहि । च्हाय तेसे चलो ते ताहि ॥
ता उपर नहि हकम हमारे । असुर की बात असुर रहे धारे ॥
मोक्ष के रूप न रहेउ जाहि । च्हाय ते से चलहि यह ताहि ॥
(૧૯/૧૯(૧૮)/૨૦-૨૪)
૧૯/૩૬(૩૫)/૧૧-૧૨.
૨૭/૮૨/૨૮-૩૩.
૨૭/૮૫-૮૬.
૨૮/૮૮/(૮૭)/૧૯-૨૨.
धर्मकुल में रहे धर्म की रीता । सो धर्मवंशी जानहु पुनीता ॥
अधर्माचरण कर ही कोई । धर्मवंशी न जानना सोई ॥
प्रणट हरि का निश्चय जाकु । धर्मवंशी दृढ जानना ताकु ॥
ऐसे कह सहजानंद स्वामी । हरिजन संत प्रति अंतर जामी ॥
(૧/૪/૧૧-૧૨)
૨/૪૯/૩૮-૪૦.
૪/૯૭/૩૯-૪૦.
૫/૧૩/૩૭.
૫/૪૭/૩૪-૩૬.
૫/૪૮/૬-૭.
૫/૪૮/૧૭-૨૬.
૬/૫/૧૯.
૬/૪૨/૩૨-૩૭.
૬/૬૮/૧૯.
૬/૭૧/૭-૧૨.
૬/૭૧/૩૭-૪૦.
૮/૩૧/૭-૮.
૧૦/૧૧/૭,૧૦.
૧૦/૨૮/૨૯-૩૬.
૧૨/૨૬/૧-૪૦.
૧૩/૩૭/૨૨-૩૧.
૧૩/૫૩/૧૦-૧૧.
૧૩/૫૪/૨૧-૨૩.
૧૩/૬૪/૩૫-૩૯.
૧૪/૧૭/૨૩-૩૦.
૧૫/૮/૩૨/૩૭.
૧૫/૪૫/૨૬-૨૯.
૧૫/૪૭/૪૨.
૧૬/૬૬/૨૮-૩૬.
૧૭/૪૨/૨૨-૨૪.
૨૫/૬૩/૧૦-૧૬.
૨૭/૪૮/૧૪-૧૬.
૨૭/૫૦/૧૦-૧૧.
૩/૫૨/૨૬-૩૫.
૪/૩૫/૨૫-૩૩.
૫/૫૨/૧૪-૧૭.
भक्तजन संत की तुच्छता जेहि । कैसे समझना भक्त तेहि ॥
कोई भक्त की भार न लेशा । संतकुं गिने भिखारी जैसा ॥
आप में समझे अति मोटाई । मोटप के कोउ गुन न रहाई ॥
कहाँ लग मोटप रहावे एहा । और न मोटप समझत तेहा ॥
(૫/૫૨/૧૪-૨૧)
૫/૫૨/૨૪-૨૮.
अभाव उधेई लगे जेहि मूला । यो हरिजन जात समूला ॥
ब्हिते रहे हरिजन सें जेहि । आपसें अधिक जाने तेहि ॥
एक एक को महात्म्य जाने । घसातो वचन मुख न आवे ॥
तब असुर हो चले न लेशा । कोउ हरिजन में करे न प्रवेशा ॥
अभाव वचन में असुर करे जोरा । ता पिछे वात को रहे न ठोरा ॥
जाकुं सत्संग मरण प्रंजता । रखनो होय जो बुद्धिवंता ॥
बडे बडे हरिजन भये जेहि । ताकि रितकुं शीखना तेहि ॥
रित शिखे विन बढता न पावे । कोटि वर्ष सत्संग करावे ॥
सत्संग करनकि बात हें जेसि । कहि सुनावत हम हि तेसि ॥
त्यागि गृहि पर वात हें सबहि । समझे विन पार न परे कबहि ॥
समझे ताको हे सत्संगा । दिन दिन वृद्धि होय तेहि अंगा ॥
श्रेष्ठ में श्रेष्ठ यह बात हें, सत्संग करना जेह ।
सत्संग कियो तिन सब कियो, करन न रहे केह ॥
सत्संग हे परम चिंतामनि, चिंतामनि ओर न लेख ।
सबुद्धिमान सो जानहि, ओरकुं न आवत देख ॥
(૬/૧૦૨/૨૯-૩૬)
૮/૩૮(૩૭)/૨૩-૨૫.
૮/૫૦/૩૧-૩૪.
श्रीहरि कहे निज तन जेसा । संत हरिजन कुं जानना तेसा ॥
यामें जितनी रहे जो जुदाई । अपराध होवे कबहुक ताई ।
जितने करे अपराध हि जेहु । अवश पाप सो भुक्तत तेहु ॥
संत हरिजन ताहि की, अरुचि जितनी जाहि ।
ताको नाम अपराध हे, द्रोह हि होवत ताहि ॥
निज तन की अरुचि कबु, आवत नहि लगार ।
तन देहे कोटिक दुःख हि, राग होई वार हि वार ॥
सोहु करत हे जतन, धोवत तन मल नित नित ।
भरण हि करत पोषण, तोहु देत दुःख हमेश तेहि ॥
तन सें संत हरिजन, कोटि हें सुखदाई तेहु ।
मनात न त्यां लग मन, त्यां लग देह सो करत जन ॥
तेहि हित सत्संग, करनो सो वेर वेर सब ।
हरिजन को कोउ अंग, अरूचि द्रोह न होय कबु ॥
अंत समे हम आई, हरिजन कुं दरश देत सब ।
करत अति सहाई, यामें नहि हे फरक कछु ॥
(૯/૪/૩૩-૪૨)
૯/૪૦(૪૧)/૫-૧૬.
૯/૪૦(૪૧)/૨૮.
૯/૪૧(૪૨)/૩૯.
૧૧/૨૩/૧૭-૨૪.
૧૧/૬૦(૫૦-બ)/૩૨-૩૩.
૧૧/૮૬(૭૭)/૨૩-૨૪.
प्राकृतभाव ज्यां लगहि, गुन दोष त्यां लग ।
ब्रह्मभाव आवे जबहु, दोष न तब जो लग ॥
एक एक को दोष हि, देखत ज्यां लग जेहि ।
भक्त होई भगवान के, प्राकृत भक्त हे तेहि ॥
प्राकृतभाव हि जेते, कहे हें सत्ग्रंथ जो महि ।
जानि के सब तेते, त्याण करे हरिजन तेहि ॥
(૧૧/૮૬(૭૭)/૨૫-૨૭)
कलियुग पाप हि रूप, करत प्रवेश जब मुक्त महिं ।
तब सो होत विरुप, हरिजन के सो दोष कहत ॥
संत हरिजन के हरिजन ताके । दोष कहन लगे जब वाके ॥
हरिजन संत कल्पवृक्ष समाना । कल्पत जेसे आत देखाना ॥
हरिजन संत के जीय जेहा । शुद्ध काच सम सबके तेहा ।
तामें संकल्प कर हि जेसा । देखाई आवत सादृश्य तेसा ॥
परस्पर कुहेत जब होवे । गुण सब दोष करि तब जोवे ॥
कुहेत सो हे कलि को रुपा । स्वारथ भंग भये होत विरुपा ॥
परमारथ सें स्वारथ रहेउ । काम परे देखात तब तेउ ॥
परस्पर ज्यां लग रहे हेता । त्यां लग न होत कुहेता ॥
कलि करत प्रवेश जेहि वारा । हेत अपार करि देत खारा ॥
काजल सम यह लोक कहावे Iआकाश सम ताकुं दोष लगावे ॥
हरिजन के संग ज्यां लग हि । हेत रहत जीय में त्यां लगहि ॥
एक एक को हेत इच्छत अपारा । दोष न देखत कबहु लगारा ॥
हेत को जब हि होवत नासा । अपार गुण को रहत न पासा ॥
जितने गुण देखे दोष रूपा । अभाव सें गुण होत विरूपा ॥
(૧૨/૧૭(૧૬)/૧૬-૩૦)
૧૨/૩૦/૩૫-૩૬.
૧૨/૪૮/૫-૧૧.
૧૨/૫૧/૯.
૧૨/૫૧/૨૩-૪૦.
૧૨/૭૧/૩૫-૩૬.
૧૩/૬૫/૨૧-૩૩.
हरिजन गुरु - संत, मोक्ष के हें जो द्वार यह ।
अवगुन ताके कहंत, एसे कुं द्रोही कहत हम ॥
नियम धर्म यथार्थ रखे जोउ । तप करिके शुद्ध होव हि तोउ ॥
बद्रिधाम श्वेतद्विप मांहि । शुद्ध जब होवत रहाहि ॥
हरिजन संत गुरु ताके । अल्प गुन हि जेहि वाके ॥
मेरु सम गुन गावहि जबहि । हरि सो शुद्ध भये मानहि तबहि ॥
कपट कुटिलता रहे ज्यां लगहि । हरि सो तप करात त्यां लगहि ॥
नियम में जेति रहत कचाई । तितनी खोट सो जानत ताई ॥
हरिजन संत गुरु तिनके । दासानुदास होई वरते इनके ॥
अल्प गुन तेहि मेरु से भारी । मुख से कहेवे वार हि वारी ॥
तप सें गुन के बल अपारा । जानत द्रोह न करत को वारा ॥
सरल होइ सत्संग करहि । भवसिंधु सो सहज हि तरहि ॥
(૧૪/૩૧/૨૮-૩૫)
૧૪/૬૨/૭-૧૨.
एक हि दिन के साधु ताके । रंच जो दोष आवे वाके ॥
कोटि कल्प के रहे सत्संगा । तरत ताके होई जावत भंगा ॥
भगवान बडे संत से जोउं । पाप नहि छुटत हें सोउ ॥
जाको अपराध किने जाई । निष्कपट होई नमे ताई ॥
फेर न करे कोईको अपराधा । तब ताकुं न रहत तेहि बाधा ॥
ता विन करे कोटि उपाया । दोष न रतिभर जात रहाया ॥
जाहि हरिजन जितने, सत्संग के प्रताप ।
समाधि होय जद्यपि तोउ, संत जोनां अमाप ।
संत संत के दास होई, वरतहि जो जितने जेहु ।
मोटप से मोटप एहि हें, सबसें अधिक तेहुं ॥
(૧૪/૮૩/૩૪-૩૮)
૧૫/૧૯/૨૮-૩૯.
૧૫/૨૩(૨૨-બ)/૨૯-૩૭.
૧૫/૫૧/૨૦-૨૫.
૧૫/૬૪/૧૭-૨૧.
૧૬/૫૭/૨૯-૩૨.
૧૭/૬૫/૧૫-૧૮.
૨૦/૧૬/૨૪.
૨૨/૯૨/૩૦-૪૦.
निष्कपट जिहां लगहि, एसी बुद्धि रहात ।
तन छुटत रहे इनमें, निश्चे मोक्ष हो जात ॥
हरिजन में देखत दोष हि, चाय तेसे रहेउ ।
देह छते सत्संग में, विमुख होवत हि तेउ ॥
(૨૩/૫૮/૩૪-૩૬)
૨૩/૮૩/૩૩-૩૬.
भगवान, भगवान के जेता । भक्त जेते रहाये तेता ॥
दिन दिन अधिक महात्म्य ताके । जानत रहे धर्मजुत हि वाके ॥
ताके अभाव न कबु लहाता । धर्म की ज्यां लष्ण रीत चलाता ॥
सत्संग की ज्यां लग चलत रीता । त्यां लग रहे यह परम पुनिता ॥
सत्संग की ऐसे रीत रहाते । जानत तेहि हरिजन कहाते ॥
रीत जाने विन हरिजन तिनके । महात्म्य नहि रहावत इनकें ॥
महात्म्य बिन एक एक के जेहा । अभाव लेवत रहेउ तेहा ॥
हरिजन होय हरिजन के जितनां । अभाव लेवत रहेउ तितनां ॥
बाल मति रहे इतनां ताकि । सत्संग करेउ तोउ वाकि ॥
जितने दिन श्रीनगर तामें । श्रीहरि रहत भये जो यामें ॥
तितने दिन ऐसि बात अपारा । कहत भये न आयत पारा ॥
(૨૮/૧૧/૭-૧૧,૧૯)
૪/૧૮/૪૧-૪૬.
ब्रह्मविद्या के अंग हे अनंता । सो जानत बेठे बुद्धिमंता ॥
अंतर्दृष्टि बिन बुद्धिवाना । ब्रह्मविद्या को न होवत ज्ञाना ॥
(૪/૮૯/૧૯-૨૨)
૫/૫/૨૯.
૫/૭૨/૨૦-૨૪.
૬/૬૪/૨૫-૩૦.
हमारे जो वचन ही जितना । हमकुं सो जानना तितना ॥
हमकुं जानी पालही जोहि । वचनरूप ता पास हें सोहि ॥
हमारि पास रहत दिन रेनां । सेवा करत रहत प्रवेनां ॥
वचन में न वरतहि जोउ । हमसे दूर तेहि जानना सोउ ॥
हमारो मत नकि हे एहु । सब हरिजन सो जानि के लेहु ॥
हमसे वचन हम मुख्य हि माने । वचन में हम अखंड ठाने ॥
(૬/૭૩/૨૦-૨૪)
૮/૪/૧૫.
૧૦/૩૩/૩૫-૪૦.
૧૧/૭૮/૫-૮.
૧૨/૧૭(૧૬)/૧૦-૧૨.
૧૨/૨૫/૭.
૧૩/૬૧/૧૭-૨૩.
संत होई हमार, नारी सन्मुख देखे जोउ ।
ताकुं कहत लबार, हरिजन जानत बात सब ॥
हमारे संत होई कर जेहा । नारि के सन्मुख बैठे तेहा ॥
नारि को रखे प्रसंग कोउ रीता । मति ताकि जानना विपरीता ॥
हमारे वचनरूप कोट जेता । उल्लंघन ताको करे तेता ॥
द्वार विन चले कोटकुं तोरि । ताकि महोबत न रखत थोरि ॥
संत वर्णि संन्यासि जेहु । पदाति तोरि रितकुं तेहु ॥
ताकुं करत सत्संग ब्हारा । ऐसि कि म्होबत न रखत लगारा ॥
गमे तेसे होय गुनवाना । जीय गये पिछे काय रहाना ॥
हरिजन सबकि रीत हें जैसे । तपास करिके चलत तैसे ॥
चलने कि रीत हि चलत जोउं । द्वार सडक यह कहत सोऊ ॥
द्वार सडक विन चले जीतनां । गुनेगार हि होवे तितनां ॥
बायुं के सत्संग हि जेतो । विवेक विन हि रहे सब तेतो ॥
मान देई बोलावे जाहि । तरत ताके आधिन हो जाहि ॥
अपमान करे नारि को जेऊ । कलंक दिये विन रहे न तेऊ ॥
सिता सम नहि कोउ नारि । लछ्मन सें बोले विन विचारि ॥
ओर नारि मात्र कि जोउ, कहाँ रहे अब बात ।
दूर रहे जब तिनसें जेहु, बचे में तेहि आत ॥
(૧૪/૭૨/૧૬-૨૫)
૧૫/૩/૧૫.
૧૫/૭૮/૧૨-૨૮.
૧૭/૬/૩૭.
૧૭/૧૦/૩૫-૩૬.
૧૮/૬૫/૧૮-૨૦.
૧૮/૬૭/૩૫-૩૬.
૨૦/૧૫/૨૧-૨૬.
૨૨/૩૯/૨૭-૨૮.
૨૨/૮૭/૧૭-૨૯.
૨૨/૯૨/૨૧.
૨૩/૧૫/૧૯-૨૨.
૨૩/૭૮/૩૦-૪૦.
૨૭/૮૨/૨૮-૨૯.
૨૭/૮૬/૬-૮.
ऐसे अक्षरधाम निवासी । महा समर्थ रहेउ अविनाशी ॥
अलौकिक महास्वरूप रहाये । अक्षरादि के आत्मा कहाये ॥
अक्षर तिनसें परहि रहाना । सब जीय अंतरजामी कहावा ॥
सर्वोपरी श्रीहरि नाम जाही । चरित्र गुन अपार हैं ताही ॥
(૧/૫૮/૩૧-૩૨)
૧/૬૦/૪૦-૪૨.
૪/૧૧/૧-૧૬.
૫/૧૬/૨૫-૨૭.
हम मनुष्य न जानत केहा । तुमारि गत तुम जानो तेहा ॥
तब श्रीहरि बोलत भयेउ । इहां धाम सर्वोपरि रहेउ ॥
अब हरि इच्छा कर ताई । देखे में न आत रहाई ॥
इतने में हैं मुक्त अपारा । ताकी नहि है वार हि पारा ॥
आप आपको ज्ञान न केहू । मनुष्यभाव होई वर्तत तेहू ॥
सो तुमको सब होवहि ज्ञाना । तब तुमारे आवहि जाना ॥
(૫/૬૨/૪-૧૦)
૬/૨૬/૨૪-૪૨.
૭/૪/૧૧-૧૯.
जाकुं मिले अवतार, ताकुं हे सो सर्व पर ।
तेसे हें निरधार, पतिव्रत भक्त को पक्ष तेहि ॥
देखे सुने में भेद अनंता । एक हि एक बात रहंता ॥
देखि पारखना साचे सोउ । पारख बिन परखात न सोउ ॥
पारख कुं परखना जेहा । थोरे मनुष्य हें एसे तेहा ॥
हिरा से हिरा जात विंधाई । ता बिन कोटि चले न पाई ॥
श्रीहरि होवत प्रगट जबहि । आप दिये ज्ञान मनात तबहि ।
और जन देवे ज्ञान हि जेहु । आप गुन तामें लावे तेहु ॥
दरपन सम कहे जो बाता । वर्तन में आव देखाये ताता ॥
हरि महिमा आप जाने जैसे । सर्वोपरि सो माने तैसे ॥
और जाने न हरि महिमा जेता । तामें कसर देखावत तेता ॥
पाताल से अक्षर प्रजंता । सबमें कसर देखावे रहंता ॥
हरिमुख बात सो शोभे तेहि । सब अवतार कारन हें एहि ॥
देखादेखी बोले युं जाहि । अवतार के चोर होत ताहि ॥
अपनो मोक्ष हे ताके हाथा । प्रगट भोमि पर विचरत नाथा ॥
प्रगट विन नहि मोक्ष तत्काला । बात करना जिमि लणे रसाला ॥
अवतार आगे अवतारा । हो गए कछु वार न पारा ॥
प्रगट कुं जन माने जबे, तब तेहि प्रसन्न होत ।
एसे कहेना विवेक तेहि, विवेक बिन बात बिगोत ॥
उपासना जाकुं नेह, भगवान के अवतार हु की ।
प्रतिपादन करना तेह, प्रगट पर भाव सी करे तबे ॥
ओर कुं रखिये सत, आपकुं माने सब तबे ।
जो कहिये असत, तब सो कहे असत कर ॥
अपनी बानी आपे पुजावे । पूज्य करि जो ओर कुं गावे ॥
हरि अवतार चरित्र हि ताके । खंडन करे असुर हें पाके ॥
जाकुं मिले प्रगट अवतारा । एसे भक्त भये अनंत अपारा ॥
ताकि रीत जोई के चलना । ता उपरि पाव न धरना ॥
मुख से चरित्र को करे गाना । ता उपर रीझत भगवाना ॥
प्रगट सो करना गान हि जोउ । सत्य सो मोक्षदाई हे सोउ ॥
सब अवतार के भक्त हें जेहु । ताको एसो तान हे तेहु ॥
आप आपके घर को सबहु । जनमात्र तान रखत हें अबहु ॥
सुबुद्धि जन सो जानना, घर पर रखे जो तान ।
निज घर पर नहि तान जेहि, अंत्ये सो होत हेरान ॥
त्रिशंकु गुरु कुं छोरि के, और गुरु किये जोय ।
अधर लटकत हें अबहि, सब जग जानत सोय ॥
(૮/૧૩/૧-૪૦)
सबसे पर सत्संग में, मैं रहूँ करि निवास ।
जथार्थ मम स्वरूप को, चितवन करत मम दास ॥
जो जो करत मैं वारता, मेरी हें यह तान ।
मूर्ति सम रहे न कोउ कबु, पदार्थमात्र हि आन ॥
मूर्ति विन नहि चित, चिंतवन करत न जाहि को ।
ता पर हे मोय प्रीत, ओर प्रीत नहि अक्षरलग ॥
(૯/૨૭/૨૫-૨૭)
૯/૩૨/૨૧-૨૬.
भचाउ गाम प्रति हरि आये । तिहां लुवार हरिजन रहाये ॥
ताके भुवन उतरे हरि आई । हरिजन सो अति निर्मल रहाई ॥
रामकथा तुलसीकृत जेहु । हरिजन सो पढे हें तेहु ॥
रामचंद्र के चरित्र हि जेते । हष्टि वंचावने लगेउ तेते ॥
हरि में रामचंद्र को रूपा । देखत भये हरिजन अनूपा ॥
एसो दरश भये जेई वारा । नेत्र से नीर वहन लगे धारा ॥
गद्गद कंठ मुन भये बेना । अचेतन भये देह रहे न चेना ॥
तब श्रीहरि रूप लीन कीने । अक्षरधाम में दर्शन दीने ॥
अवतार अनंत तेहि धाम में, हरि के देखे हजुर ।
ताके देखे सब भक्त हि, आनंद भये अति उर ॥
देखाये घडि चार हि, भये श्रीहरि में लीन ।
सब कारन अवतार यह, जानत भये प्रवीन ॥
श्रीहरि कहत न बात, में भगवान जो प्रगट भयेउ ।
प्रताप जाकुं देखात, प्रताप सो कहत रहत ॥
(૧૦/૨૯/૩૧-૩૯)
૧૨/૩૧/૭-૧૨.
૧૩/૩૦/૧-૧૧.
૧૫/૫૩/૬-૨૫.
૧૫/૫૫/૧-૩૨.
૧૫/૫૬/૧-૩૪.
सहजानंद स्वामी जो, मुक्तमुनि कह रहे बात ।
पिछे सो बोलत भयेउ, सर्वेश्वर साक्षात् ॥
अक्षरधाम के धामी जो, प्रगट मिले जब जाहि ।
वेद पुरान साधन सब, आई रहे ता मांहि ॥
पिछे करना जेहि, ताकि कहत हें बात अब ।
तत्पर सुनो मुनि तेहि, सुनि के करना मनन नित ॥
हमारो मत हे जेह, तेसे समझना तुम सब ।
साधन के सार हे एह, ता विन साधन निर्जीव रहे ॥
गुरु संत हरिजन जेहा । भजना प्रगट हरि कुं तेहा ॥
चैतन चैतन जो ता मांहि । एसे एक से अधिक रहाहि ॥
सब हि सम समझना नाहि । तारे से चंद्र अधिक कहाहि ॥
चंद्र से सूर्य अधिक देखाते । चैतन में एसे भेद रहाते ॥
पशु करते मनुष्य जो तामें । अधिक ज्ञान रहाये हे यामें ॥
मनुष्य से देव अधिक रहाये । देव से ईश्वर अधिक कराये ॥
ईश्वर से परमेश्वर जेहु । अति अधिक सो रहाये तेहु ॥
संत-असंत तामें जोउ । अपार भेद रचे हें सोउ ॥
गंगोदक मदिरा जो जेसे । संत-असंत में भेद हें तेसे ॥
जब जब जाकुं मिले भगवाना । ताके भजन जेते करत रहाना ॥
सो सब जन हरिजन रहेउ । ताकि तुल्य ओर जन न कहेउ ॥
च्हाय तेसे साधन करावे । तोउ मायिक जन सो कहावे ॥
भगवान अरु भगवान ताके । मिलनवार मिले संत वाके ॥
वा ताके मिलनवार मिलेउ । एक एक संबंध कर तेउ ॥
हरि के निश्चय आश्रय करहि । अपार जन भवसिंधु तरहि ॥
लीला सुंदर में प्रगट करेउ । के’ना सुनना आनंद भरेउ ॥
अंतकाल जब होव हि, मेरे आश्रित ताहि ।
रथ अश्व विमान लेइकर, लेइ जावहि याहि ॥
दास के दास होई के, करना नीत सत्संग ।
भक्ति प्रमान करहि तब, कीर्ति बढ़हि अभंग ॥
मम मूर्ति मम धाम, मेरे संत हरिजन तेहि ।
जपत जो मेरे नाम, गुणातीत हि रहे एहि ॥
ताकुं जो असत् कहत, असत् कर जान हि जेउ ।
तेह जन सबहि मरंत, जम जोरे ले जात पकड ॥
ऊंधे सिर तेहि खेंचत जाई । श्वपच श्वान जिमि खेंचत ताई ॥
धारत में दिल बात हि जेता । असत् होई जावत तेता ॥
मेरे गुन कहावत हि जितने । साम्रथि जुत गवावत तितने ॥
मेरी दृष्टि करिके जोउ । समय पर ब्रह्मांड यह सोउ ॥
उपजत लीन हि होई जाते । कोउ के तर्क में यह न आते ॥
सत्संग तामें रहत सदाई । हरिजन पर हि राचत रहाई ॥
प्रेम रंग हरिजन जो केरा । रंगात रहत में वेर हि वेरा ॥
हरिजन के द्रोह करत जितना । जम के किंकर होवत तितना ॥
अखंड यह ब्रह्मांड तामें । रहत मैं निवास कर यामें ॥
जोगि नृप विप्र रूप धारी । विचरत रहत हें वार हि वारी ॥
मेरी रीत हें जेहि प्रकारा । तुम कुं कहे सब करिके प्यारा ॥
एसि रीत जानिकर जन जेहा । मेरे कुं जेते भजहि तेहा ॥
मेरे सुख रहाये जितनी । निश्चे पाव हि जन जो तितनो ॥
इतनी बात हरि कर रहे जबहु । संत हरिजन सुनि के तबहु ॥
प्रसन्न भये कोउ वार न पाया । हरि एसे सुख दिने अपारा ॥
अपार मरजी देखे हरि केरी । हृरिजन शीघ्र सबहि ते वेरी ॥
(૧૫/૫૭/૧-૨૪)
૧૫/૭૭/૧-૭.
૧૬/૨૭/૧૯-૨૧.
श्रीहरि पुनि कहत भये, हरिजनहि प्रति बात ।
साचे सत्संग जोग बिन, बात नहि समझात ॥
परब्रह्म भगवान के, ज्ञान बिन कोउ दिन ।
ब्रह्मरुप जीव न होत कबु, सिद्धांत बात हि किन ॥
परब्रह्म की उपासना बिन हि । ब्रह्मस्थिति न होवत किनहि ॥
ब्रह्मस्थिति सिद्ध होवत जेहा । चाय तामें प्रवेश करे तेहा ॥
इहां बैठे जेते लोक की बाता । देखत रहत हि जिमि साक्षाता ॥
(૧૬/૪૬/૧-૬)
૧૬/૫૯/૨૯-૩૦.
૧૮/૪૩/૩૪-૩૬.
૧૯/૪૦(૩૯)/૩૫-૪૦.
श्री पुरुषोत्तम ऐसे जेउ । भगवान जेहि कहावत तेउ ॥
ताके शरीर आत्मा कहेउ । तथा अक्षर ताकुं कहेउ ॥
आत्मा अरु अक्षर पण जेहु । माया तिनमें पर रहे तेहु ॥
एसे आत्मा रू अक्षर जोउ । भगवान के शरीर सोऊ ॥
आत्मा अरु अक्षर हि ताके । विषे व्यापक रहाये वाके ॥
अरु यह दोनु व्याप्य रहाते । भगवान के आधिन कहाते ॥
अरु भगवान स्वतंत्र रहेउ । आत्मा अरु अक्षर जो तेऊ ॥
भगवान के रहे आधिनां । परतंत्र रहेउ होय दीनां ॥
प्रेरक स्वतंत्र नियंता रहाते । सकल ऐश्वर्य संपन्न कहाते ॥
पर ऐसे जो अक्षर कहिता । तेहिसें पण पर सो कहिता ॥
ऐसे जो पुरुषोत्तम कहीजे । भगवान जाके नाम लहिजे ॥
सो जीवके कल्यान कहीता । कृपाये करीके परमप्रीता ॥
पृथ्वीके विषे वेर हि वेरा । मनुष्य जेसे फेट हि फेरा ॥
जनाई आवत हें जो ताकुं । ऐसि रीते सदा दिव्य वाकुं ॥
मूर्तिमान जानिके ताकि । उपासना भक्ति करत वाकि ॥
तेहि यह भगवान ताके । सामर्थ्यपनाकुं पावत वाके ॥
अनंत ऐश्वर्य रहे जो तिनकुं । पावत रहे सहज हि ईनकुं ॥
अरु ब्रह्मभाव तिनकुं जोऊ । पाये निजके आत्मा सोऊ ॥
(૨૧/૬૫/૧૮-૩૬)
૨૬/૧૧/૩૭-૩૮.
૨/૯/૩૦-૩૧.
૨/૧૮/૧૦-૧૧.
धन्य आज आश्रम को भागा । धन्य धन्य यह बद्रितर जागा ॥
तरु यह सब भये बड़ भागी । तुमकुं न जाने सोहि अभागी ॥
हमकुं कृतार्थ करन हित, तप के मिस ले आये ।
निज सामृथी अनंत ही, फिरत हो छिपाये ॥
तुम सें जो अधिक कोउ हि, हम हि देखत नाहि ।
तुम सें अधिक हि कहत हैं, देव नर पशु कहाहि ॥
तुम जैसे तुम एक हो स्वामी । ऐसे हम जानत बहुनामी ॥
तुम से अधिक कहत हें जाही कोटि वेर नरक सो भुक्तत ताही ॥
तुमकुं लई मोटप करे जाकी । पाप मिट सद्बुद्धि होय ताकी ॥
तुम्हारे प्रताप न जानत जोई । हमकुं अधिक कर मानत सोई ॥
अधिक में अधिक कियेउ आई । हमकुं दरस दिये हित लाई ॥
(૨/૧૮/૨૩-૨૯)
माया काल नियंता कहीये । क्षरअक्षर पर्यंत हि लहिये ॥
कर्मके फलप्रद सबके ऐहा । एहि सम कोउ न और हि जेहा ॥
सब कारन के कारन हैं ताई । अनंतशक्ति धर ईश्वर जाई ॥
सब प्रेरक परब्रह्म कहाउ । साकार सदा ब्रह्मपुर रहाउ ॥
मुक्तकोटि जेहि चरनकुं सेवे । निशदिन नामरटन मुख लेवे ॥
अक्षर मुक्त ईश्वर जीय जोउ । सब कर ध्येय कहावत सोउ ॥
(૩/૨/૧૯-૨૨)
नारायन बोलत भये, सुनो नर तुम भ्रात ।
अवतार अनंत भये, ऐसी न सुनि कोउ बात ॥
अवतार अनंत कारन यह, अक्षरपति अविनाश ।
श्री पुरुषोत्तम प्रगटे, अधर्म के करन नास ॥
तब बोले मुनि तेहि जोई । हम जानत है तुम हो सोई ॥
तब बोले नारायनदेवा । हम जैसे सो अनंत हें एवा ॥
एहि सम ओर न कोउ कहावे । आदि नारायन एक रहावे ॥
हम इनको नित करत हें ध्याना । उरमें दर्श कब देवत बखाना ॥
हमकुं अगम हें ओर क्या बाता । मरजी में इनकी हम रहाता ॥
इनकी अग्या हम रती न तोरे । हमारे विचार सो तोरे जोरे ॥
ईनकी मरजी होय त्यां लग हमही । सब जग मानत हें तबही ॥
(૪/૧૨/૩૬-૪૭)
तब बोले मुनि मुसकाई । सर्वोपरि बात हम पाई ॥
सब सुखकारन जोई कहावे । सोउ श्रीहरि यहाँ रहावे ॥
इनसें पर न कोउ अधिकाई । ऐसी बात हम निश्चय पाई ॥
बदरिकाश्रम गये हरि संगा । रामानंद स्वामी देखे उमंगा ॥
हरि मूर्ति अदृश्य भइ तबहि । बदरिकाश्रम गये हम जबहि ॥
नरनारायण दर्श भयो, हमकुं बेठाये पास ।
हरिचरित्र पुछन लगे, मन में होय हुलास ॥
तब हम तिन सें पुछत भयेऊ । सुने अवतार तुमहि लियेऊ ॥
सो तुम अखंड बेठे हो आंही । यह बात हम जानत नांही ॥
हम पुछे यह बातहि जबही । नरनारायण बोले तबही ॥
श्रीहरि अक्षरपति जोई । एहि सम समर्थ अवर न कोई ॥
एसे यह नहि हरि अवतारा । यह सबके हें कारन वारा ॥
इनके माथे नहि कोउ ओरा । एहि सब के हें माथे जोरा ॥
अनंत भये अवतार, तिनके भक्त अनंत जेहि ।
दर्श हि एकहि बार, निशदिन इछत रहत तेहि ॥
हमकुं दुर्लभ एह, इनको दरश एक वेर हि ।
सो नरतनु धरे देह, अब भरतखंड को भाग्य महा ॥
अनंतकोटि जन होवेंगे, भव पार अबे ।
हरि करि प्रसन्न, एसो समो न आये कबु ॥
(૪/૧૪/૮-૩૯)
संत हरिजन प्रेमी जेते । समाधि कर रहे हें तेते ॥
ताकु देखत हरि कर प्रीति । अवतार सें कबु न भई यह रीति ॥
अवतार अवतारी में भेद रहेऊ । सामर्थ्य करके जान परेऊ ॥
समाधिवारे कहत सो बाता । ओरकुं न आवे समझाता ॥
(૪/૫૯/૨૦-૨૨)
૪/૫૯/૨૭.
૫/૭૪/૩૦.
ओर अवतार भये जितने । दश अरु चोविस हि तितने ॥
श्रीहरि में सब हि हो गये लीना । एक रहे श्रीहरि सुख दिना ॥
स्वामिनारायण नाम, तामें नाम अनंत जेहि ।
सब भये विश्राम, तिनसे अधिक न रहे कोउ ।
विप्र देखे प्रताप, ऐसो आपके उर महिं ।
जपन लगे सो जाप, अनंत साम्रथ जानकर ॥
(૬/૧૩/૩૧-૪૦)
पुरुषोत्तम भगवान की, करत सहाय न कोई ।
सब की सहाय सो करत हे, ऐसे सम्रथ हे सोई ।
आनंदमय तेहि धाम हे, आनंदमय तेहि भोग ।
आनंदमय मूर्ति तेहि, सदा परम अरोग ॥
(૬/૨૧/૯-૧૪)
श्रीहरि आये जेतपुर, भद्रावति गंगा पास ।
रामानंद स्वामी नाये जिहां, संग ले हरिजन दास ॥
रामानंद स्वामी देखे ईहां, मूर्तिमान साक्षात् ।
श्रीहरि उतरे अश्व सें, चरन परे सो आत ॥
भेष धरे अद्भुत, ओर जन न कले कोउ ।
लगाये अंग विभूत, श्रीहरि देखिके आनंद भयेउ ॥
श्रीहरि कुं कहत, दरश करन कुं आये हम ।
केसे तुम विचरत, जन मनोरथ पूरे करन ॥
ओर भये अवतार अनंता । गिनत गिनत न पार लहंता ॥
जितनो जामें प्रताप रहाये । तितनो सबने साम्रथ जनाये ॥
दिपक मशाल हुताशन जेता । अति साम्रथ देखाये तेता ॥
केतने विद्युत वडवानल जेते । अति प्रताप देखाये तेते ॥
केतने तारा-चन्द्र समाना । इतनो प्रताप देखाये बलवाना ॥
केतने एक सूर्य प्रमाना । साम्रथ में साम्रथ इतनो देखाना ॥
आगे भये अवतार हि जितना । ताको साम्रथ देखे तितना ॥
महाप्रले आगे प्रले ओरा । देखे में न आवे कोउ ठोरा ॥
अनंत अवतार को साम्रथ जितनो । यामें आई गये सब तितनो ॥
विचरन में सो आत देखाई । असुर जन नहिं देखत ताई ॥
सत धर्म के पुत्र तुम, भक्ति सत् मात हि तोर ।
ज्ञान वैराग्य सत बंधु तव, देखे में आये मोर ॥
धर्मकुल हि जितनो, विचरत सत्संग माहि ।
सत्संग हे एक आधार तेहि, तेहि विन ठोर नाहि ॥
धर्म, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य चारु अंग जुत ।
धर्मवंश कुं जान, मानहि संतसें मुख्य कर ।
धर्म भक्ति वैराग्य रु ग्याना । तेहि जुत संत को करहि सन्माना ॥
चार में मुख्य हरिज्ञान जो होवे । ता विन संत को मुख न जोवे ॥
हरि के ग्यान बिन धर्मवंशि भारी । एक वेर अन्न देवे को अधिकारी ॥
मानने को नहि तेहि अधिकारा । बांझ गाउ से कहां होय विस्तारा ॥
संत हरिजन की एसी रीति । बांझ जोई के न कर हि प्रीति ॥
हरि के ग्यान जुत जन फलवाना । ताको करहि धर्म जोई सनमाना ॥
तुम जानत हरि सबहि बाता । इतनो संकल्प भयो सो कहाता ॥
(૬/૫૨/૧-૨૦)
महा तखत छोरि इहाँ आये । सत्संग को अति भाग्य रहाये ॥
तुमारी येवा-पूजा जोऊ । करने मुक्त इहां आवत सोऊ ॥
रहेवत धाम में आवत आंहीं । तब ताके उर शान्ति रहा हि ॥
फेर न आवनो परे यह ठोरा । एसो मोक्ष को करनो नोरा ॥
धर्म-भक्ति वैराग्य हि जेहा । जिरनता कबउ न पावे तेहा ॥
एसो कछु करो उपाया । तुमारी नजर में सबहि रहाया ॥
मंदिर करब देश हि देशा । तुमारो दरश महिं होय हमेशा ॥
तुमारो स्थान रखे सदाई । एसो एक धर्मवंश रहाई ॥
(૬/૫૨/૨૦-૨૪)
हरि विन और हरि होई आवे । चमत्कार अनंत देखावे ॥
बाजीगर सम जाने ताकुं । विमुख करिके लेखे वाकुं ।
हरि जनु बोलत तेहि संग, देशि लावत तेसि ।
हरि के जंबुरिये संत हि, तामें लोभात न लेसि ॥
हरिजन में जो पर्वतभाई, जंबुरिये भये एक ।
हरि विन हरि अवतार हि, देखे में आवे अनेक ॥
हरि कहे में हु तेह, तोहु न डगे मन लवलेश कबु ।
अवतार सब हि जेह, पर्वतभाई के पिछे हि फिरत ॥
खेत में खेति करत, पर्वतभाई सो जाई कर ।
अवतार सो पिछे फिरत, पांच वर्ष लग रहेउ इमि ॥
पांच वर्ष लग वढे हरि ताहि । अवतार कुं क्युं न मानत रहा हि ॥
हरि वढत तब हसत तेउ । अवगुन कबहु न लेवत एहु ॥
बोत वढत तब बोलत तेहा । सब कारन तुम मिले हो एहा ॥
कारन में कारन रहे अनंता । तुमारो पार हि कोउ न लहंता ॥
हम हें जीव एक मति वारे । तुमारे सामर्थ्य को नहि पारे ॥
एक तरु के थड सें जोउ । डारे पात फल अनंत हि होउ ॥
सो सब नहि बाथ में आवे । तरु विस्तार अपार रहावे ॥
थड कुं लिये बाथ हि जबहु । कोउ बाहिर न रहे तबहु ॥
हमारे थड तुम हि मनाये । तुम में थड सब हि जो आये ॥
दृढाव करे हम वज्र समाना । कोटिभुज आवे भगवाना ॥
तुमारो सो सामर्थ्य हम देखे । तुमसे विशेष कोउ न लेखे ॥
मन में करत हम घाट हि जेसा । तर्त दरश देत तुम तेसा ॥
तुम बिन कहत न बात हि ओरा । हरिजन भये तदपि रहे भोरा ॥
कारन छोड कार्य में धावे । एसि मति जीय की रहावे ॥
पुरन कृपा जब होत तुमारी । तुम में एकमति रहे हमारी ॥
सामर्थ्य तुमारे अपार हि, देखत न आवे पार ।
अनंत कोटि ब्रह्मांड हि, एक रोम रहे द्वार ॥
ब्रह्मा अनंत ब्रह्मांड में, एक एक से अपार ।
तुम सें सामर्थ्य ताहि को, देखे में न आवत पार ॥
चिंतामनि के मांहि, पदार्थ एक न देखात तेहि ।
ता महिं सब हि रहा हि, समय में आत देखाई सब ॥
(૮/૨૫/૨૪-૪૦)
૯/૨૪/૨૯-૩૫.
तुमारी मूर्ति अवतार अनंता । अंतर में देखत रहंता ॥
सूर्य मशाल में फेर हि जितना । तुम अरु अवतार में फिर हें तितना ॥
सूर्य में प्रताप रहे हें जेसा । सबके देखे में आवत तेसा ॥
तेसे हें हरि प्रताप तुमारा । कहे न आवे कबु मुख से बारा ॥
श्रीहरि कहे हरिजन से, प्रताप जामें जेतो ।
छपाये छपि न रहत हें, कस्तूरी गंध तेतो ॥
(૧૧/૧૪/૨૧-૩૭)
अवतार धरत हरि जब हि, आगे के प्रताप ।
खेंचे लेवत निज मूर्ति में, तापर थापत आप ॥
सर्वोपरि अवतार, जो भक्त कुं मिले जेहि ।
ऐसे करे निरधार, एकांतिक जो जो भक्त तेहि ॥
(૧૧/૧૭/૩૮-૪૦)
रामनौमि की रात्रि में, जाग्रन सारी रात ।
प्रेमी भक्त जो करत भये, सर्वोपरि जानत वात ॥
सर्वोपरि हरि कुं कहत हें, तन पर अधिक तान ।
कथनमात्र सो ज्ञान है, मानत नहि बुद्धिमान ॥
हरि को निश्चय अपार, जनकुं देखावे वात कर ।
ता पर रखे जन प्यार, इतनो फल तेहि मिले रहेउ ॥
जो जो करे वात, तन ब्रह्मांड से पर जेहि ।
सन्मान तन को न च्हात, इतनो फल सो माने तेहि ॥
सर्वोपरि हरि कुं जानि । साचे जो जो संत विज्ञानी ॥
निज तन गिनत तृण तेहि जेसा । राग द्वेष न कोई से लेशा ॥
ईर्ष्या असूया जन पर त्यागे । पद पंकज हरि के अनुयागे ॥
अपमान करे कोउ दुःख न ताको । समझ बल अगाध हि वाको ॥
तन ब्रह्मांड से वरते बारा । कबु तेहि दुःख न आवे लगारा ॥
मायिक जन को व्यवहार हि जेता । बालक खेल सम समझे तेता ॥
बुद्धिवंत यह संत अपारा । ऐसे संत न भये कोउ वारा ॥
वर्णि हरिजन कहावत जेते । समझ अपार हि पाये तेते ॥
ज्युं ज्युं तन में परे अति दुःखा । त्युं त्युं मानत भयेउ सुखा ॥
दुःख में हरिगुन गहत अपारा । एसे पायेउ पर विचारा ॥
तन ब्रह्मांड से वर्तना न्यारा । ऐसी समझ जन पाये हजारा ॥
समझ रूप सुख सागर जेहा । आश्रित कुं हरि देखाये तेहा ॥
समझ करि जन मगन रहावे । हरि विन ओर में नहि लोभावे ॥
पाताल से पुरुष लग हि जोउ । जो जो सुख कहावत सोऊ ॥
अधिक से अधिक सुख हि जेता । अधिक अधिक विष समझत तेता ॥
श्रीहरि की एसि समझ देखाई । यह सुख से न लोभावे ताई ॥
स्वप्न में सत्य न माने तेहि, असत जाने जो भोग ।
सर्प अनल विष को जिमि, तन करि करत न जोग ॥
(૧૧/૧૮/૧-૧૩)
हरिजन संत सो दिव्य कहावे । स्वामिनारायण मुख जो गावे ॥
अवतार भये अनंत अपारा । इनसे कोउ न देखे पारा ॥
सबको सामर्थ्य कहावत जेतो । इनमें सबहि समझे तेतो ॥
इनसे परे न देखे एका । परे कहे ताकुं न विवेका ॥
अवतार को द्रोह करे ज्यां लगहि । सत्संग करने कसर त्यां लगहि ॥
अवतार के द्रोह करे जितना । असुर मति सो कहावे तितना ॥
द्रोह तजी अवतार को जेता । प्रगट में तोडे तान हि तेता ॥
द्रोह विन करे वात हि जेहि । अति हित लाई के तेहि ॥
संत मति ताकि सो कहावे । सर्वोपरि तेहि समझ रहावे ॥
दिव्यभाव करि समझे तेते । तेसे अवतार के भक्त हि जेते ॥
(૧૧/૪૨/૧૭-૨૧)
समाधिवारे जन जेहि, देखत भये सब तेह ।
ता विन जन देखत नहि, अलौकिक वात हे एह ॥
वैकुंठ गोलोक धाम जो, सर्वोपरि अक्षरधाम ।
श्रीहरि समीप रहत तेहि, देखत जन निष्काम ॥
(૧૧/૮૮/૨૫-૨૬)
धर्म भक्ति वैराग्य हुं ज्ञाना । सदा साकार माने भगवाना ॥
पंच तत्त्व कहावत जेहु । सर्वोपरि हम माने हें तेहु ॥
अनंत बातन के मूल हे एहि । वात और शाखा पत्र हे तेहि ॥
ताके पुष्प हे अक्षरधामा । फल साकार हे श्रीघनश्यामा ॥
धाम को त्याग सो करत न कबहु । अनंत तन धरत तौ तबहु ॥
जोगकला हें तामें अनंता । ब्रह्मादिक पार न लहंता ॥
पंडित पुरानी और हि ज्ञानी । बडे बडे मुक्त सिद्ध ध्यानी ॥
अकल कले में कबहु न आवे । भक्ति होवे ताकु देखावे ॥
भक्ति विन वश होवे न ओरा । एसे हें अकल बड़ जोरा ॥
तुम नजर कर देखो आगे । ऐसे ये नहि आवत लागे ॥
भक्तिवंत होय जेहि पूरा । सो नहि देखत नजर से दूरा ॥
सत्संग भक्ति विन जन जेते । वात माने में न आवत तेते ॥
(૧૨/૫૪/૬-૨૩)
૧૪/૩૩/૧૪-૪૦.
૧૫/૨૩/૧૨,૨૫.
૧૫/૪૫/૨૦-૪૦.
सर्वोपरि जानत हरि कुं जेता । सर्वोपरि होई जावत तेता ॥
भगवान ताकुं जिस रीता । जानत जन होत तिस रीता ॥
जेसे पात्र दिवेल हि ताको । बाती के जोग रहे वाको ॥
जोग तेसे होवत प्रकाशा । तितनो तम को होत नाशा ॥
(૧૫/૮૪/૧૧-૧૨)
अपार ताहि समाधि भयेउ । वैकुंठ गोलोक में जाय रहेउ ॥
केते जन गये अक्षरधामा ॥ शोभा देखत भये तेहि ठामा ॥
जेते अवतार के हरिजन जेता । दिव्यतन देखे सबहि तेता ॥
पृथक् पृथक् रहे भवन हि ताके । स्फटिक मनि बिन एक न वाके ॥
अक्षर तासु अपार रहाये । ब्रह्मा वेद कुन लेख में कहाये ॥
हरि की जोगकला रहे अपारा । क्षुद्रजन कैसे करे निरधारा ॥
हरि की समझ बिन समझ जितना । जन के बंधनरूप रहे तितना ।
आपकी बुद्धिबल चले जेता । तितना दुःख प्राप्त भये तेता ॥
हरि की समझ पर चले जेउ । अपार सुख तेहि पावे तेउ ॥
तितनी कीर्ति गवावत ताकी । हरि की समझ पर चले वाकी ॥
(૧૭/૬/૭,૮,૧૭,૨૪)
૧૭/૨૫/૧૬-૧૮.
૪/૪૮/૧૧-૨૧.
૫/૩૩/૨૬-૩૦.
૯/૨૯/૧-૮.
૧૦/૫/૩૨-૩૫.
૧૦/૯/૧૯-૨૦.
૧૦/૩૦/૯-૨૪.
૧૦/૪૯/૩૯-૫૦.
૧૪/૩૧/૮-૧૨.
૧૪/૩૭/૩૪-૩૫.
૧૫/૪૩/૫-૭, ૧૦-૧૨.
૧૫/૫૪/૧૨-૧૪.
૧૫/૫૫/૩૫-૪૦.
૧૫/૯૭/૨૫-૩૩.
૧૫/૧૦૦/૨૯-૩૩.
૧૬/૩૮/૭-૩૮.
૧૯/૧૬/૫-૨૦.
૧૯/૫૭(૫૬)/૧૮-૨૪.
૨૦/૬૮/૨-૧૨.
૪/૭૨/૨૦-૨૧.
૬/૩૭/૬.
૭/૩૧/૩૮-૩૯.
૮/૨૫/૭-૧૪.
૮/૫૫/૧૮-૨૪.
૯/૪૧(૪૦)/૫-૭.
૧૦/૪૬/૧૮-૨૮.
૧૨/૬૦/૧૭-૨૯.
૧૩/૨૫/૧૦-૨૪.
૧/૬૭/૨૪-૨૫.
૩/૪૯/૨૨-૨૬.
दिव्य ज्ञान देन जीव अनंता । च्यार धाम में फिरत विचरंता ॥
दिव्य हि मेरो ज्ञान कराई । दिव्य धाम में पोंचाये ताई ॥
मोक्ष भागि तेहि जन हमारा । तेहि लगत हमकुं बहु प्यारा ॥
कोईके न होवत हम आधिना । श्रद्धा ज्युं ज्युं वृद्धि होय तेहा ॥
माया को बंधन जबहि लग, जीय ब्रह्मरूप न होत ।
ब्रह्मरूप हि होय बिन, वृथा जन्म सब खोत ॥
ब्रह्मरूप जीय करन हित, में धारे अवतार ।
साधुरूप धरि फिरत हें, करन अनंत उध्धार ॥
जो जो अवतार होत हें मेरा । मानत सो साधुकुं घनेरा ॥
मेरो दिव्य हे अक्षरधामा । अपार पार्षद रहत सो ठामा ॥
तेहि सब सुख सें संत पद भारि । सो पद अबहि रहे में धारि ॥
सबसें रुचि मोय संतकि मांई ॥ संतकि आगे दीन होइ जाई ॥
संतके पद सम पद न कोई । सार में सार जोई कहे सोई ॥
संत पद में होत जब रुचि । और पदकि होवत अरुचि ॥
अरुचि होत तब रुचि होत मोरि । रुचि जोई तेहि दियुं न छोरि ॥
अखंड रहत में संतकि पासा । मो बिन जेहि नहि मन आसा ॥
मो बिन आस नहि जो संता । तिनके गुनको को लहेउ अंता ॥
परम एकांतिक संत कहाई । इनसें पर न कोउ रहाई ॥
सो परमपद देन हि काजा । अब में भयोहुं संत हि आजा ॥
ब्रह्मरूप अनंत हि, किन शरन भये मोर ।
अबहि करन कुं अनंत हें, माया बंधन तोर ॥
ब्रह्मरूप हि करन हित, मेरो लहि चरित ।
देश देश उच्छव करत महा, हरिजन के हित ॥
संत हरिजन सोय, तिनको करे दरश कोउ ।
तेहि ब्रह्मरूप होय, ऐसो संकल्प किन मोइ ॥
संकल्प सत्य होत मोर, ओर असत् होई जात सबे ।
काल को चले न जोर, थर थर ध्रुजत रहत हें ॥
(૩/૪૯/૩૨-૫૨)
૪/૭૪/૫-૧૬.
जितनो निश्चे उर में, भयो हे दृढ जाहि ।
तितनो केफ सत्संग को, वर्तत जीय में ताहि ॥
मृत्यु में घर छोडना, कठिन अति रहाय ।
भगवान जाने सब पर जेहि, कछु कठिन न ताय ॥
(૬/૪/૧-૨૬)
૬/૨૬/૧૨-૧૭.
૬/૪૪/૧૦-૧૫.
૬/૯૮/૧૧-૨૦.
૭/૩૧/૧૪.
૯/૪/૨૫-૨૬.
૧૧/૩૩/૧૫-૨૧.
अमायिक कर देखे सब तेहु । अमायिक जो कहावत जेहु ॥
सुलट समझ मोक्षदायी जेती । ब्रह्मविद्या सो कहावत तेती ॥
हरि संबंध जेति जेहि बातां । यह लोक परलोक हि रहाता ॥
ब्रह्मविद्या हें ताके नामा । अर्थ जान बिन लहत न ठामा ॥
(૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૩૫-૩૬)
भगवान में मोह न होवे जेसे । भक्त में मोह न होवे तेसे ॥
मोक्ष के मग में विघ्न जेता । तरत भये सो पार हि तेता ॥
भगवान अरु भगवान के दासा । ब्रह्मरूप रहे दिव्य प्रकाशा ॥
प्राकृतभाव आवे ज्यां लगहि । प्राकृत भक्त कहे त्यां लगहि ॥
(૧૧/૮૬(૭૭)/૨૩-૨૪)
हरि कहे मान देखूँ में जेहा । पाव कबु में लागूँ न तेहा ॥
हरि हरिजन के दास हि जितने । सर्वोपरि में मानत तितने ॥
सर्वोपरि हरिधाम जो कहावे । हरिजन ताके निवासी रहावे ॥
एसी मति सदा हरिजन में । मान न आवे कबु तेहि तन में ॥
काम क्रोध लोभ उर मांही । वेर वेर तनावत रहा हि ॥
इहां के हरिजन जानत जेहु । अधर्मवंश दुःखि करत हें तेहु ॥
परस्पर हरिजन में जेहि । विरोध होइ जावत अति तेहि ॥
इहां की मति रखे होवत क्लेशा । हम जानत त्युं कहे तेसा ॥
संत बाई-भाई सब, ब्रह्मचारी पदाति ।
इहां के जानत जाहि लग, तिहां लग सुख न रहाति ॥
सत्संग भये जाहि कुं, ताके जन्म भये ओर ।
हरिजन परे नाम तेहि, कुसंग तजे कुनोर ॥
सत्संगरूपी धाम, सर्वोपरि सो धाम रहेउ ।
हरिजन जितने नाम, तामें किये हें निवास सब ॥
संत वर्णि हरिजन, एक घर के भये तेहि ।
एक रहे एसो मन, करे क्लेश न होय तब ॥
(૧૧/૮૭(૭૮)/૩૨-૪૦)
हमारो संत हरिजन ताके । जे जन बोलत गुन हि वाके ॥
ताके सद्य हम करत उद्धारा । एसी हम टेक रखे यह वारा ॥
भूमि पर जन हि रहे जेता । उद्धार करन हम आये तेता ॥
हमारे संत हरिजन के जेहि । अवगुन कहत सुनत तेहि ॥
ताको उद्धार होत न कबहि । ऐसे जमपुरी जावत सबहि ॥
मोक्ष होत न होवत जेहु । प्रगट वात कहि दीने तेहु ॥
इतनि वात उरमें दृढ रखना । तुमकु कहे हम एक हि वचना ॥
(૧૨/૪૦/૭-૧૦)
૧૨/૭૧/૩૬-૩૯.
૧૩/૨૯/૯-૧૪.
૧૩/૩૯/૨૯-૩૧.
यह सत्संग कहावत जेता । चिंतामनि हम देखत तेता ॥
हरिजन जो कहावत हि जेते । कल्पवृक्ष हम देखत तेते ॥
परस्पर जो हरिजन जितना । मनुष्यभाव देखत हें तितना ॥
मनुष्यभाव करिके कबहु । एक एक के द्रोह होवे तबहु ॥
द्रोह से बुद्धि आसुरि होवे । महात्म्यरूप भाव हि खोवे ॥
जिनसे माने मोक्ष को भावा । ताके बोलत पिछे अभावा ॥
मनुष्यभाव नहि जिहां लगहु । परमभाव वरतत तिहां लगहु ॥
परमभाव है मोक्ष को द्वारा । मनुष्यभाव तमद्वार नकारा ॥
तम में निवास हम करे न कबहि । हरिजन सुहृद रखना सबहि ॥
सुहृद तितनो हमारे हें प्राना । अरुचि दंभ शत्रु हम माना ॥
सर्वोपरि हरिजन जो ताकी । सुरीत यह सो कहत हें वाकी ॥
हरिजन संत भगवान तामें । सबसें भाव अधिक रहे यामें ॥
जाके नियम कहे हें जेसे । तत्पर तामें वरते तेंसे ॥
तिहां लग तामें अभाव न लेना । नियमभंग ताकुं भाव न देना ॥
हरिजन कहे वरते ज्यां लगहि । निभाव ताहि करना त्यां लगहि ॥
त्यां लग ताके होत कल्याना । नियमभंग के नाहि ठिकाना ।
नियमभंग करे जितनो, तितनो द्रोही हे तेह ।
साचे संत हरिजन मे, कुमेल द्रोही हे एह ॥
साचे संत हरिजन से, जितनो चित्त चोरात ।
तितनो वगल हे ताहि में, प्रसिद्ध आत देखात ॥
साचे संत हरिजन, तिनसे जितने सरल रहत ।
शुद्ध हि जानत मन, सत्संग में मोज करत ॥
हरिजन शुद्ध संत, मोक्ष के हे जो द्वार यह ।
अवगुन ताके कहंत, एसे कुं द्रोही कहत हम ॥
(૧૪/૩૧/૧૭-૨૮)
૧૪/૮૪/૧૫-૧૬.
૧૫/૨૫/૨૯-૩૨.
૧૫/૪૯/૩૪.
૧૫/૫૮/૨૮-૩૫.
૧૫/૮૮/૧૬-૨૧.
૧૫/૯૮/૨૯-૩૪.
૧૫/૯૮/૩૫-૪૧.
अलौकिक जो फल रस, श्रद्धा आदर प्रीत रहेउ ।
सरस में अति सरस, उत्तम में हें उत्तम यह ॥
श्रेष्ठ में इतनो श्रेष्ठ, अलौकिक जितनो भाव जो ।
नेष्ठ में अति नेष्ठ, लौकिक समझ रहे जेति सो ॥
अलौकिक में लौकिक भावा । हमकुं जब आवत देखावा ॥
तरत उदास होवत तबहु । समझावत तोउ समझत न कबहु ॥
(૧૬/૧૪/૨૭-૨૯)
૧૬/૨૪/૩-૯.
૧૬/૫૫/૧૩-૧૫.
अक्षरधाम से आये ताकि । आश्चर्य बात रहाये वाकि ॥
हमारी सेवा दुर्लभ माने । मन में तेहि आश्चर्य जाने ॥
यह सब संत की सेवा जोउ । थोरे पुन्य न मिलत सोउ ॥
आश्चर्य दुर्लभ मानत रहाहि । जीवन बात हि समझे ताहि ॥
भगवान के माहात्म्य जेसे । जथार्थ जाने चैये तेसे ॥
जथार्थ जाने बिन हि ताई । सत्संग में निभत न रहाई ॥
संत हरिजन रहाये केसे । यथार्थ जाने बिन तेसे ॥
भगवान के निश्चय होय पूरा । तोउ हो जावे अति दूरा ॥
भगवान संत हरिजन तामें । समझवे में तिलभर यामें ॥
कसर रतिभर होय न तोउ । परमाद जितनो रखत कोउ ॥
निश्चय रखत रखत उड जावे । माया के बल अपार रहावे ॥
इन्द्र भव ब्रह्मादिक जेहु । नारद भगवान के मन तेहु ॥
(૧૬/૫૮/૮-૧૩)
૧૬/૫૮/૨૩-૨૬.
૧૬/૭૦/૧-૨૨.
૧૭/૪/૩૪-૩૭.
૧૭/૯/૫-૧૧.
૧૭/૨૦/૧-૯.
૧૭/૨૫/૩-૪.
૧૮/૮૩/૧૨-૧૬.
૧૯/૧૨/૨૭-૨૮.
सत्संग में हित जिहां लगहु । अलौकिक हि रहे तिहां लगहु ॥
तन छूटत ताके होत कल्याना । यामें जूठ न रंच रहाना ॥
साधन कोटि कबु करे केहा । भगवान के धाम न पावत तेहा ॥
जन्म मरन चोराशी केरा । दुःख न छूटत कोउ वेरा ॥
(૨૩/૫૮/૨૯-૪૧)
૨૫/૧૧/૨૯-૩૪.
૩/૩/૧૯-૨૦.
૪/૨૬/૧૮-૩૨.
૮/૪૨/૧૧-૧૩.
૧૦/૩/૩૬-૩૭.
૧૦/૪૬/૩૧-૩૪.
૧૦/૪૬/૩૦-૪૧.
૧૧/૩૨/૨૫-૨૯.
૧૫/૪/૧૫-૨૮.
૧૫/૧૦/૨૯-૩૬.
૧૫/૬૫/૨૧-૨૪.
૧૫/૬૯/૧૫-૧૬.
आवन-जावन जनावत जेतो । अलौकिक यब रहाये तेतो ॥
कोइ के तरक में न कबहि । आये नहि हरि अब लगहि ॥
हरि की गति इस रीत रहावा । साचे भक्त बिन न आत देखावा ॥
छलकपट करि के त्यागा । प्रथम भक्त जो होत बडभागा ॥
साचे संत के संग बिन हि । साचे भक्त न होवत किनहि ॥
(૧૫/૬૯/૩૨-૩૪)
૧૭/૧૩/૨૯-૩૭.
૧૭/૨૫/૧૦.
૧૭/૩૬/૨૧-૨૪.
૧૭/૯૦/૨૩-૨૪.
૧૮/૩૭/૭, ૧૯-૨૧.
૨૨/૮૯/૩૧-૪૦.
૨૩/૬૯/૫-૭.
૩/૪૮/૪૬-૪૯.
૩/૫૨/૧૭-૧૮.
૩/૬૦/૧૭-૧૮.
૪/૫/૧૯.
૪/૩૭/૧૫-૧૮.
૪/૫૧/૨-૧૦.
૫/૧૬/૩૨.
૬/૪૩/૩૫-૩૬.
૬/૪૪/૧૭-૧૯, ૨૬-૨૭.
૬/૯૧/૩૨, ૩૫.
૬/૧૦૨/૧-૪૦.
૮/૩/૨૫-૩૩.
૮/૯/૧૮-૨૩.
૮/૨૦(૧૯)/૨૯-૩૦.
૮/૨૧(૨૦)/૧૭-૨૦.
૮/૪૪(૪૫)/૨૪-૨૬.
૮/૬૮(૬૭)/૪૦.
૯/૨૭/૧૯.
૯/૪૦(૪૧)/૨૯-૩૩.
૧૦/૨૦/૨૩-૩૨.
૧૧/૨૨/૪૦.
૧૧/૫૯/૧૦-૧૨.
૧૨/૧૬(૧૫-બ)/૨૧-૨૪.
૧૨/૧૭(૧૬)/૧૩-૧૫.
૧૨/૩૮(૩૭)/૯-૧૪.
૧૩/૫૦/૨૩-૩૬.
૧૪/૨૦/૧૫-૧૬.
૧૪/૬૪/૨૮-૩૦.
૧૪/૭૮/૩૨-૩૮.
૧૪/૮૪/૧૬-૨૪.
૧૫/૫૨/૩૩-૩૪.
૧૭/૪૧/૧૩-૧૫.
૧૯/૨૭(૨૬)/૩૨-૩૬.
૧૯/૨૪(૨૩)/૩૫-૪૦.
૧૯/૪૧(૪૦)/૧૧-૧૪.
૧૯/૫૮(૫૭)/૧-૧૨.
૨૮/૫૪/૨૬-૨૭.
૮/૨૫/૧૫-૧૮.
૮/૬૬(૬૫)/૨૪-૨૬.
૯/૧૮/૧૪-૧૮.
૧૦/૪૮/૮-૧૯.
૧૫/૪૧/૨૫-૨૮.
૨૭/૫૩/૧૫-૧૬.
नारी धन त्याग कर हि जितने । त्यागी जेते कहावत तितने ॥
ताकुं घर में रहेउ जेते । घरबारी रहाये जो तेते ॥
त्यागी कुं धन देवत हि जेता । नरक में परत गृहस्थ तेता ॥
त्यागी होय धन जेते दिन हि । पोताके करी के रखहि तिनहि ॥
तेते दिन गाउ एक एक हि । वध करन पाप जो यह तिनहि ॥
लगत रहे इमि त्यागी ताके । धर्म शास्त्र में कहे कर वाके ॥
रखहि रखावहि त्यागी हि जेहू । धन नाम धरावत यह तेहू ॥
त्यागी कुं पाप लगत अपारा । कहत ताके न आवत पारा ॥
त्यागी का धन रखत हें जितने । गृहस्थ नाम धरावत तितने ॥
एसे त्यागी गृहस्थ तिनके । नर्क में निवास होवत इनके ॥
(૨૮/૯૮/૫-૧૦)
૩/૫૨/૨૨.
૩/૫૬/૪૧-૪૨.
૪/૭/૪૪-૫૧.
૪/૮/૧-૧૪.
૪/૩૫/૪૬-૪૮.
૪/૧૦૪/૧-૧૦.
૪/૧૦૯/૨૪-૨૬, ૩૮.
૬/૮/૫-૬.
૬/૮૧/૨૮.
૭/૩૬/૩૬-૪૨.
૭/૪૫/૩૫-૪૦.
૯/૫૯/૨૭-૨૯.
૧૧/૬૮(૫૮-બ)/૧૮-૨૦.
૧૩/૬૩/૨૮-૩૨.
૧૪/૯૩(૯૪)/૩૯-૪૦.
૧૫/૨૩(૨૨-બ)/૨૯-૩૭.
૧૬/૪૬/૨૩-૨૮.
૧૭/૯૨/૩૭-૩૮.
૨૩/૫૮/૩૧-૩૪.
संत हरिजन के दास जेहि । मन क्रम बचन होई के तेहि ॥
निष्कपट वरतत रहे ताकुं । बडे करी सब मानत वाकुं ॥
बडता के गुन रहाये जामें । छिपाये कबहु न रहत तामें ॥
पोताकि इच्छा कर जे तें । बडे बडता कुं न इच्छत तेते ॥
सत्संग कि बडता इनकुं । आवत रहत हें सहज तिनकुं ॥
भगवान संत हरिजन में जितनां । निष्ठा वरतत रहत हें तितनां ॥
(૨૩/૮૨/૧૪-૧૮)
तापर सर्वाधार कहावे । सब व्यापक दिव्य रहावे ॥
पूर्व कहे जो लोक सब जोऊ । तिनसें विलक्षन जानो सोउ ॥
परम चैतन्य सत्य हि ज्ञाना । अनंत हें जाको न कशी प्रमाना ॥
अक्षरब्रह्म कहत वेद जाकु । पुरुषोत्तम स्थान कहिये वाकु ॥
प्रकाश कुं चित्त व्योम कहावे । अरु अक्षरधाम रहावे ॥
अद्भुत उपमा करिके कहाई । भूतिक उपमा न संभवे ताई ॥
अनंतकोटि जोजन विस्तारा । ऐसि काचकि भुमि होय सारा ॥
स्थावर जंगम कहावत जेहु । सबहि काचके होवे तेहु ॥
तारामंडल हें नभमें जेता । सूर्य सबहि होवे तेता ॥
तिनको प्रकाश होत ज्युं अपारा । तेसो धामको कहे निरधारा ॥
कोटि सूर्यसम कांति हि, एक एक रोमके मांहि ।
ऐसे भक्त अनंत हि, रहत अलौकिक तांहि ॥
तेहि तेज सितल महा, सुखमय अनंत अपार ।
काल को नहि प्रवेश तिहां, पुरुषोत्तम एक सिरदार ॥
(૩/૨૫/૮-૧૫)
૪/૪/૪૬.
अनंतकोटि ब्रह्मांड के सुखा । हमकुं सुलि सम लगत हे दुःखा ॥
हमारे दास हे अक्षर जेहा । ताके दास बहु पुरुष तेहा ॥
ताके संकल्प करिके जोऊ । अनंत ब्रह्मांड हि होत हे सोउ ॥
ताकि नहि है गनति हमारे । अल्प सुख गनति हे तुम्हारे ॥
(૫/૨/૧૦-૧૨)
हमकुं मिले तुम जितने आई । ब्रह्मस्वरूप करना हे ताई ॥
मायिक भाग मिले हे एका । तासें जुदे करने हे छेका ॥
खबडदार अब रहेना तुम्हारे । नहि तो पाव न टिकनेवारे ॥
(૫/૧૬/૨૨-૨૩)
भक्त करन लगे हरि से बाता । भगवान प्रगटे तुम साक्षाता ॥
यामें नहि संदेह हि लेशा । हमकुं दृढ जनाये एसा ॥
ओरकुं करत तुमारी बाता । तरत नहिं आत मनाता ॥
संत की बात करत हे जबहि । तर्त माने में आवत तबहि ॥
तुमारो लेवत जब नामा । तब थडकत नर अरु वामा ॥
तुमकुं जाने विन मोक्ष न होई । हम एसे मन जानत सोई ॥
श्रीहरि तब बोलत भयेउ । सनातन रीत एसि रहेउ ॥
आज नहिं हे नई यह रीति । तुमकुं बात करत कर प्रीति ॥
भगवान जांने के दो हे द्वारा । प्रसिद्ध सब जानत संसारा ॥
वज्र को कोट रचाये जेहा । तोप करि न परे तेहा ॥
द्वार विन पेठाय न तामें । कोटि उपाय ओर करे यामें ॥
सिद्ध अरु पंछी ताकुं । अंतराय करे न वाकुं ॥
भगवान के भक्त अनादि जेई । पंछि सिद्ध हि जानना तेई ॥
अने निश्चयरूप कोट हि जेऊ । ताकुं अंतराय न करे तेऊ ॥
भगवान की सुनत बात हि, तर्त निश्चय हो जाय ।
ता विन जितने जन हि, संत द्वार हे ताय ॥
(૬/૮૪/૬-૧૩)
૭/૧૫/૨૪-૩૯.
प्राकृत देह यह जिय को जेहा । जिय को स्वरूप न मानना तेहा ॥
अक्षर शुद्ध रूप हें अपना । एसी स्वरूप जियको चिंतवना ॥
अक्षरभावना जिय में लाई । चिंतवन करना चित्त में ताई ॥
अक्षरभाव जब जिय में आवे । प्राकृतभाव तब दूर रहावे ॥
अक्षर में हरि रहे हें सदाई । दिव्यमूर्ति अलौकिक जाई ॥
सत्संग में विचरत मूर्ति जेहि । एहि एक जिय में रहे तेहि ॥
(૮/૨૦/૨૨-૨૪)
हमारे निवास हे अक्षरधामा । तेहि सम सुख न अवर कोउ ठामा ॥
गोलोक वैकुंठ श्वेतद्विप सुखा । अक्षरधाम के आगे सो लूखा ॥
बदरिकाश्रम को सुख जोउ । देव के सुख से अधिक हें सोउ ॥
सो सुख को अनुभव होत जेहा । प्रकृतिपुरुष लग सुख हि तेहा ॥
सोवर्ण आगे पित्तल हि जेसा । अक्षरधाम आगे सुख सब तेसा ॥
अनुभव विन आत न देखाई । जेसो सुख हें अपरमताई ॥
सो सुख हम संभारत जबहु । हमारो दिल इहाँ टकत न तबहु ॥
भगवान के भक्त सत्संग मांहि । बडे बडे रहे जानत ताहि ॥
हित करि के सो जियकु हमारा । सत्संग में रखे हें कर प्यारा ॥
सत्संग से वेर वेर हि जोई । हम उदास अति होवत सोई ॥
(૯/૨૭/૨૦-૨૪)
૧૦/૩૭/૮-૩૬.
૧૨/૧૬(૧૫-બ)/૨૨-૨૭.
मायिक विद्या जोउ, अभ्यास विन न रहत कोउ ।
ब्रह्मविद्या यह सोउ, कछु न रहे अभ्यास विन ॥
सत्संग को अभ्यास, करना सो सब से अधिक ।
प्रगट हरि को निवास, होवत हें तेहि उर बीच ॥
(૧૨/૨૧(૨૦)/૩૫-૪૦)
૧૨/૫૨/૩૨-૩૪.
૧૨/૫૩/૧૪-૨૪.
૧૨/૬૫/૭-૧૩.
૧૩/૭/૩૦-૩૪.
हरि के चरित्र हि नाम, परम मोक्ष हि कहत तेहि ।
अक्षर कहत जो धाम, चरित्र नाम तामहिं रहेउ ॥
आंब पत्र मोर फलहि जेहा । रस ओर कहावत जेहा ॥
सबहि रहे हें बीज के मांहीं । ताके समय देख परत रहां हि ॥
यामें फारफेर नहि लेशा । चरित्र में धाम फल रहे एसा ॥
ज्ञानी संशय न रहावे । ज्ञानरूप चक्षु कर देख आवे ॥
दिव्य वात कहावत जेती । दिव्य नेंन देख परत तेती ॥
मायिक दृग सें कबु न देखावे । मनुष्य के जन्म कोटि धरावे ॥
(૧૩/૩૧/૨૬-૩૬)
૧૩/૪૮/૨૦-૨૩, ૨૯-૩૧.
૧૪/૪/૧૭-૨૯.
हरिभक्त विवेकी जितने, भये समर्थ जो जेह ।
असत मानत हि देह कुं, जीय मानत सत तेह ॥
परब्रह्म भगवान के, जोग करि के जोउ ।
ब्रह्मरूप जाने जीय कुं, पृथक् तन देख हि सोउ ॥
(૧૫/૯૬/૨૧-૨૬)
૧૫/૧૦૦/૧૨.
૧૬/૨૭/૧૪-૧૮.
૧૬/૪૭/૧-૧૦.
૧૬/૪૭/૪૦.
૧૬/૪૯/૩-૧૧.
૧૬/૫૪/૧૯-૨૪.
अक्षर के एक रोम रोम तामें । ब्रह्मांड की कोटि कोटि वामें ॥
रहाये अक्षर रहे ऐसे । हरि के दास होई कर तेसे ॥
हरि के दास होई वर्तत तिन में । ऐश्वर्य अनंत अपार इनमें ॥
श्रीहरि के जिहां लगहि जेहा । होवत नाहि दास जन तेहा ॥
च्हाय तेसे यह ज्ञानी होउ । शुष्क ज्ञानी रहावत सोउ ॥
हरि के दास दिन च्हाय तितना । ज्ञातिजन में होवे जितना ॥
श्रीहरि ताके दास हि तेहि । रोम एक सम होत न एहि ॥
(૧૮/૫૩/૨૭-૩૨)
૨૧/૫/૩૦-૩૧.
૨૧/૮/૩૮-૪૦.
भगवान के अक्षर हि धामा । पावत हे भक्त जो अकामा ॥
अक्षरधाम के स्वरुप दोउ । निराकार एक कहत हे सोउ ॥
एक रस चैतन्य चिदाकाशा । ब्रह्ममहोल कहत उजासा ॥
दूजे रूप कर अक्षर जेहु । पुरुषोत्तम की सेवा में तेहु ॥
अखंड रहे पल होत न दूरा । दास होइ कर होत हजूरा ॥
अक्षरधाम कुं पावत जितना । एकांतिक भक्त जो तितना ॥
अक्षर के साधर्म्य जो ताकु । एकांतिक गुन कर पावत वाकुं ॥
भगवान की अखंड जो एहि । सेवा में रहत भये तेहि ॥
पुरुषोत्तम नारायण स्वामी । विराजमान रहे बहुनामी ॥
अक्षर यह धाम जो तामें । अक्षर के साधर्म्यपना यामें ॥
पाये अनंतकोटि हि एसा । मुक्त जो रहाये सबहि तेसा ॥
पुरुषोत्तम के दास हि भावा । वरतत रहे सहज स्वभावा ॥
पुरुषोत्तम नारायण जेउ । सबहि के स्वामि रहेउ तेउ ॥
अनंतकोटि ब्रह्मांड के, राजाधिराज रहेउ ।
एसि वातकुं समज कर, सत्संगि आपनेउ ॥
निश्चे करना इस विध हि, अपने अक्षर रुप ।
मुक्त ताकि पंक्ति में जो, मिलना बात अनूप ॥
अक्षरधाम तामें जाय, अखंड भगवान की ।
हजुर रहिके यामें, सेवा करना भाव कर ॥
नाशवंत तुच्छ जेह, ऐसे मायिक सुख जोउ ।
इच्छत नहि कबु तेह, लोभावत न यामें कबु ॥
(૨૧/૧૬/૪૨-૫૨)
૨૧/૩૮/૧૮-૨૪.
૨૧/૪૮/૩૯-૪૧.
अनंत कोटि ऐसे ब्रह्मांड एक एक रोमे ।
प्रत्ये अणु जेसे, उडत फिरत हि रहे तेहि ॥
ऐसे भगवान ताके, अक्षर यह जो धाम रहे ।
धाम के विषे वाके, पुरुषोत्तम भगवान यह ॥
सूक्ष्म अरु कारन रहेउ, एह सब मूर्तिमान ।
भगवान के अक्षर जोऊ, धाम हि बडे रहान ॥
जाके एक एक रोम हि, अनंतकोटि जोऊ ।
ब्रह्मांड अणु सम हि जो, उडते फिरत हि सोऊ ॥
जीमि कोउ करी बडेउ, हस्ति होय शरीर यह ।
किडि चलत हि रहेउ, गणति में कहां रहे तेऊ ॥
तिमि यह अक्षर ताकि, मोटाई आगे ओर सब I
गणतिमें न आवत वाकि, अक्षर रहे सबसें अधिक ॥
एहि सबके कारन जो, अक्षरब्रह्म रहेउ ।
अक्षर पुरुषोत्तम हुके, धाम रहाये तेऊ ॥
एह अक्षर जो तिनकि, संकोच अरु विकास ।
अवस्था होवत नहि हें, एक रूप रहे तास ॥
अक्षर कहे जो जेह, मूर्तिमान हि रहे तेहि ।
अति बडे रहे तेह, कोईकि नजरे रूप यह ॥
आवत नहि ताके, जिमि चोविश तत्त्व तिनके ।
कारज्य जेहि वाके, ब्रह्मांड पुरुषावतार हि ॥
तिमि अक्षरधाम पण जेहु । मूर्तिमान रहायेउ तेहु ॥
पण कोई कि नजर नहि आते । सबसें बडे सुक्ष्म रहाते ॥
शा माट हि ऐसे हि एसेउ । ब्रह्मांड एक एक रोम तेहु ॥
असंख्यात उडत फिरेउ । ताके पार को न लहेउ ॥
एसे बडे जो अक्षरधामा । ताके विषे पुरुषोत्तम नामा ॥
भगवान पोते सदा रहाता । महाराजाधिराज कहाता ॥
महिमा किमि हि के’वाय ताके । अपार ऐसे प्रताप रहे जाके ॥
अति समर्थ ऐसे हि भगवाना । यह आप अक्षरमें रहाना ॥
(૨૧/૬૪/૩૭-૭૭)
૨૧/૬૪/૫૧-૫૨.
૨૧/૬૪/૫૮-૬૩.
૨૧/૬૪/૬૮-૭૧.
अरु यह ब्रह्म सें जोउ, परब्रह्म यह जेहु ।
पुरुषोत्तम नारायण हि, पृथक रहाये तेहु ॥
एह ब्रह्म ताके, कारण रु आधार रहेउ ।
अरु प्रेरक हें वाके, ऐसे समझ जीवात्मा ॥
यह ब्रह्म के संग, एक हिता करीके जोउ ।
परब्रह्म सें अभंग, स्वामि सेवक भाव कर ॥
उपासना यह जेउ, करना ऐसि समझ कर ।
ब्रह्मज्ञान तब तेउ, परम पद मिलन हुके ॥
निरबिघ्न जउ तेहु, मारग रहेउ श्रेष्ठ यह ।
ऐसि रीत करहि जेहु, प्रश्र के उत्तर करत हरि ॥
(૨૨/૯/૮૪-૯૨)
अक्षर के एक एक जोउ । रोम ताके हि माहिं सोउ ॥
अनंत अनंत कोटि हि जाही । ब्रह्मांड उडत अणु जीमी ताही ॥
ऐसे अक्षर के रहे ईशा । ब्रह्मांड की मोटप कोन दीशा ॥
मनुष्याकृति धरे कहा होई । जेसे के तेसे रहे सोई ॥
इहां हरि रहे जिस रीता । अक्षर तामें रहे तिस रीता ॥
अक्षर तामें रहाये जीमी । इहां बिचरत रहाये तीमी ॥
(૨૫/૨૮/૯-૧૨)
૨૬/૪૭/૧૩-૨૪.
ईश्वर रहे अक्षर मांहि, अक्षर रहे सो ईश्वर मांहि ।
जुदे कबु रहत नाहिं, अखंड के अखंड रहत सदा ॥
माया अनंत कहावत तेहा । अक्षर आगे लेश चलत न ऐहा ॥
अक्षर लग दृष्टि जेहि जावे । ताकुं अगम कोउ न रहावे ॥
अप्राप्य न रहे कोउ ताई । अक्षर में बात सबहि आई ।
अनंत कोटि ब्रह्मांड को सुखा । अक्षर आगे सब लगत हें लुखा ॥
ऐसो सुख अक्षर में रहेउ । अनंत सुख न बनत कियेउ ।
अनंत कोटि सुख अक्षर केरा । हरि के एक अंग में हें घनेरा ॥
मूर्ति में ऐसो सुख हें अपारा । सो जानत कोउ जाननहारा ॥
(૧/૫૨/૩-૮)
૩/૨/૧૫-૧૭.
૩/૩૧/૫-૧૪.
૫/૧૭/૩૯-૪૪.
विषय को बीज रहत ज्यां लगहि । अधर्मवंश न जात त्यां लगहि ॥
काम, क्रोध, लोभ, ईर्षा माना । मत्सर असूया, कपटछल नाना ॥
डंभ, हिंसा, अभक्ष्य हि खाना । अपेय वस्तु को करना पाना ॥
केफ करना रूचि बहु जेहा । ए आदिक अधर्मवंशी तेहा ॥
संत में सो कबु नहि आवे । तेहि करि गुणातीत कहावे ॥
प्रगट हरि की संबंध जोउ । गुणातीत कहावत सोउ ॥
हरि के संबंध करि हरिजन जेते । गुणातीत सो कहे तेते ॥
(૧૧/૧૫/૨૯-૩૨)
૧૨/૭૫/૩૨-૩૪.
૨૬/૪૭/૧૪-૧૬.
૩/૫૬/૩૭-૩૯.
૪/૩૫/૩૪-૩૭.
૪/૪૩/૩૫-૫૨.
૪/૧૦૨/૪૩-૪૪.
૬/૮૦/૩૪-૪૦.
૬/૧૦૨/૧૫-૨૦.
૯/૪૧(૪૦)/૨૫-૨૮.
૯/૫૮(૫૭)/૧૩-૧૪.
૧૦/૨૩/૧૫-૨૧.
૧૧/૩૬/૧-૨.
૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૧૯-૨૨.
૧૧/૮૪(૭૪)/૧૧-૧૪.
૧૨/૩૫/૭-૧૪.
૧૨/૪૩/૧૮-૧૯.
૧૫/૫૯/૮-૧૦.
૧૫/૭૯/૨૭-૩૦.
૧૫/૮૦/૧-૪.
૧૫/૮૮/૨૭-૨૮.
૧૭/૯૪/૧૯-૨૬.
૨૪/૫૬/૨૨-૩૧.
૨૭/૮૬/૧૫-૨૧.
૨૭/૮૬/૩૨-૩૬.
૧/૬૮, ૬૯.
चिंतामनि कल्पवृक्ष हि जोई । सबको सार इच्छते हें सोई ॥
जेसो भाव जो पात्र के मांई । तेंसे फल तेहि देवत हें ताई ॥
चिंतामनि में गुन सार सदाई । असार गुनसें में नांहि कराई ॥
सदाय गुन यामें रहत एका । विविध पात्र में शुन हें अनेका ॥
स्वच्छ एक गुन रहे काचमें छाई । जेसो पात्र तिहां सो देखाई ॥
मेरे अवतार के गुन हें ऐसा । जेसो पात्र तेहि फल दिये तेसा ॥
मोक्ष गुन हें मोये अखंडा । तेहि गुन कबहु न होवे खंडा ॥
जेसो पात्र त्यां तेसो फल दाया । निर्दोष गुन अखंड रहाया ॥
एक गुन के भये नाम अनंता । कहत कहत न आवत अंता ॥
पूर्ण मनोरथ सहज स्वभावु । शांत स्वरूप सदा सुखदावु ॥
नरोत्तम पुरुषोत्तम नामा । नारायन पुरन जन कामा ॥
मेरो भक्त उत्तम हें जेउ । उत्तम मोय जानत हें तेउ ॥
मोरे चरित्र कहावत जेता । दिव्य मोक्षदाई मानत तेता ॥
प्राकृत बुद्धि कबु न ल्यावे । दिव्य अलौकिक करिके गावे ॥
मोर मूर्ति मनुष्य सम जेसि । तामें दिव्य मति रहे तेसि ॥
संबंध भया मूर्ति का जाकु । दिव्य करिके मानत ताकुं ॥
सो उत्तम महा भक्तहि, उत्तम गति लहे तेहु ।
उत्तम मोरे वचन गनि, लेश न लोपे केहु ॥
अंतरजामि जानि मोय, छलकपट करे त्याग ।
छल कपट रखि मोय भजे, तेहिसुं न मोय अनुराग ॥
(૩/૪૯/૧૭-૨૬)
૪/૧૮/૨૯-૪૭.
૪/૧૯/૧૭-૧૮.
૪/૨૨/૩૯.
૪/૨૯/૩૮-૪૦.
૪/૩૫/૨૫-૩૩.
૪/૭૪/૨૯-૩૧.
૪/૮૩/૫-૭.
૫/૨/૨૫-૨૮.
૫/૫/૨૯-૩૨.
૫/૩૯/૧૦-૩૪.
૬/૫/૩૭-૩૮.
हरि हरिजन के जोग, गोकुल मथुरा अवध्यपुर ।
काशी जावत लोग, सो सब आये हें तव घर ॥
जगन्नाथ सो आये, बदरीनाथ सो आये तेहि ।
मुक्तनाथ हि ताय, द्वारापुरी लग आये सब ॥
वचन नहि मानो जो हमारा । फेर नहि आवो घर द्वारा ॥
(૬/૩૧/૧૫-૧૬)
૬/૬૫/૨૪-૨૫.
૬/૯૧/૧૪-૧૮.
सत्संग चांद उर रहे ज्यां लग हि । शांति उर में वरते त्यां लग हि ॥
कुसंग अंधतम जोग जब होवे । विक्षेप चित्त होई शांति कुं खोवे ॥
संसारिक सुख में हे रुचि जेसी । सत्संग में जो होवे तेसी ॥
ताकुं शांति सदा उर रहेवे । वेद शास्त्र संत इमि सब केवे I
(૬/૯૮/૨૧/૨૨)
૭/૯/૧૭-૨૪.
सत्संग निमित्त खर्च करे, सो हरिजन हे मुखी ।
यह लोक परलोक में, कबहु न होवे दुःखी ॥
धनाढ्य हरिजन होई, सत्संग निमित्त जानकर ।
खरच करे न कोई, शोभा नहिं हे सत्संग में तेहि ॥
(૭/૯/૩૦-૪૦)
૭/૧૦/૧-૭.
૧૦/૭/૩, ૪, ૪૦.
૧૦/૯/૨૪-૨૮.
૧૦/૩૪/૧૧-૪૦.
૧૧/૧૩/૧૬-૨૨.
૧૫/૮૪/૧૦-૧૧.
૧૫/૯૯/૨૦-૩૦.
૧૫/૯૯/૩૧-૪૧.
श्रीहरि पुनि कहत भयेउ, प्रसन्न होई बात ।
उत्तम भक्त कुं कहे अब, मध्यम कहत साक्षात् ॥
धन-त्रियादिक पदार्थ जेहा । मूर्ति कुं धारत बिच में तेहा ॥
धारे में आवे अंतर में जबहु । ताकी दाझ अंतर होय तबहु ॥
मूर्ति के ध्यान छोरे नहि तोउ । घाट संकल्प खोटे करे सोउ ॥
असाधारण हित हि जो जेही । भगवान में रहाये तेही ॥
आत्मा-अनात्मा के विवेका । कछु जन जो जानत नहि छेका ॥
मुवे पिछे भक्तजन हि ताकुं । गोलोक की प्राप्ति होत वाकुं ॥
(૧૫/૧૦૦/૫-૭)
૧૫/૧૦૦/૭-૧૨.
૧૫/૧૦૦/૧૩-૧૯.
भगवान बिन नहि इच्छा जाहि । ऐसे भक्त उत्तम रहे ताहि ॥
अक्षरधामकुं पावत तेहु । भगवान के सुख लहत हें ऐहु ॥
पुरुषोत्तम परब्रह्म जेहि । परमात्मा कहावत तेहि ॥
ताके भये सत्संग जो, ऐसे भक्त हि जोउ ।
पोताके आत्मस्वरूपकुं, ब्रह्म हि मानत सोउ ॥
आपकुं ब्रह्म मानिके, भगवान कि करत सेव ।
सेवा सम प्राप्ति कोउ, देखत नहि रहेव ॥
(૧૫/૧૦૦/૨૩-૨૬)
૧૫/૧૦૦/૨૭-૨૮.
૧૬/૪૮/૫-૧૬.
૧૮/૧૯/૨૩-૨૬.
૨૧/૮૮/૫-૬.
૨૬/૧૯/૪૭-૫૦.
૨૮/૬૫/૨૯-૩૧.
૨૮/૧૩૦/૭-૧૦.
૪/૫૭/૧૧-૧૪.
૪/૫૮/૨૧-૨૨.
૪/૬૧/૧૮.
૫/૭૪/૩૯-૪૦.
૬/૧૧/૨૨-૨૬.
૬/૨૧/૧૮-૨૭.
૬/૫૧/૨૫-૨૬.
૬/૫૧/૩૨-૩૬.
૯/૩૨/૩૧-૩૬.
૧૦/૨૨/૨૭-૪૦.
૧૦/૪૫/૯-૧૧.
૧૦/૫૪/૧૭-૩૬.
૧૧/૪૬/૨૫-૪૦.
૧૧/૫૬/૩૧-૪૦.
૧૨/૧૯/૧૯-૨૦.
૧૯/૫/૧૧, ૧૪, ૨૪-૪૦.
૨૦/૨૯/૧-૧૬.
૨૨/૬૪/૪-૨૬.
૨૫/૧૧/૯-૧૨.
૨૭/૫૨/૧૨-૧૭.
૧/૬૭/૧૨-૨૨.
૩/૫૬/૨૯-૩૬.
अल्प संत होय ताहि के, रेहेना दास हि होय ।
अल्पाग्नि ब्रह्मांड को, नाश करे पल सोई ॥
अभिमान कोई गुन को, संत से रखना नाहि ।
अभिमानी जन उपरि, अरुचि अमार रहाहि ॥
सर्ल चित्त होय जाहि, अनन्त गुन को मुर एहि ।
ता विन और न रहाहि, मेरु सम होय गुन तेहि ॥
(૫/૧૩/૬૧-૬૩)
૫/૫૩/૧-૨૪.
૬/૬૦/૧૧-૧૨.
૯/૮/૩૩-૪૦.
૯/૩૨/૮-૧૬.
૯/૪૨/૧૪-૧૫.
૧૦/૯/૨૨-૨૫.
૧૦/૧૭/૧૩-૨૫.
ताके दास हि होई कर, ब्रह्मांड देह सें पर ।
वरते जन यह जब हि तब, ब्रह्म होवत हि वर ॥
आत्मा अरु परमात्मा, ताके भक्त हि जेह ।
दिव्य हरि के धाम जो, सत्य हि जाने तेह ॥
ता विन ओर आकार, देखे सुने यह श्रवण कर ।
सत्य न माने लगार, नास भये न शोक करत ॥
नाशवंत की शोक, करे जन ज्यां लग जेहि ।
ज्ञान ताको सब फोक, कथे विविध प्रकार कर ॥
(૧૧/૩/૩૬-૪૦)
૧૧/૬૦(૫૦-બ)/૨૧-૨૮.
૧૧/૫૭/૨૫.
हरिजन सेवक कर इस रीता । गुरु संत की परम रस प्रीता ॥
जो जो सेव करे जिस रीति । भये सो हरिजन तिस रीति ॥
हरि गुरु संत की बात जेहु । अमृत तुल्य जानना तेहु ॥
भगवान के भक्त अपार, हो गये सेव करत जेहि ।
करना तेहि प्रकार, सेव सो शुद्ध मन होई ॥
सत्संग में अब वार, धाम के बडे मुक्त जेहु ।
आये वार न पार, नारद शुक आदिक अनंत ॥
(૧૧/૫૮/૨૯-૪૦)
૧૧/૭૦(૬૦)/૧૩.
૧૨/૪૩(૪૨)/૩૩-૩૯.
૧૨/૭૧(૭૦)/૩૬-૪૭.
૧૩/૧૫/૧૨-૧૬.
૧૩/૪૬/૨૨,૪૦.
૧૩/૫૯/૨૦-૨૮.
प्रधान में प्रताप हि जेता । मूलपुरुष के एक रोम तेता ॥
मूलपुरुष में प्रताप हि जेतो । अक्षर के एक रोम हि तेतो ॥
अक्षर में प्रताप हें जेहि । भगवान के एक रोम हि तेहि ॥
तिलभर पिछे ताके तेहु । महत्ता कछु न रहत एहु ॥
अकल रहत ज्यां लग जो वाता । महत अल्प जो जो रहाता ॥
तिहां लग वात रहत अतोला । कले होत जरूर तोला ॥
अकल बात अकल एक जाने । भव ब्रह्मा न कलत रहाने ॥
देखावे न देखावे तोउ । अखंड सदा रहे सोउ ॥
(૧૩/૬૦/૩૦-૩૮)
हरि हरिजन-संत जो ताकी । सेवा करना मन क्रम वाकी ॥
आत्मा से अधिक जानना ताहि । यामें दंभ के न माग रहा ही ॥
सेवा बिन आत्मसुख जेहा । नीरस सो सब बात हे तेहा ॥
बड़े सिद्ध की हें बड़ाई । बड़े सिद्ध जिहां लग रहाई ॥
बड़े सिद्ध जब ध्यान में जावे । पिछे दंभ सब बात रहावे ॥
दंभ से मोक्ष न होवत कबहि । बात निश्चे कर जानना सबहि ।
हरि सम कहे न कोई, हरि के रहे दास होई ॥
मोक्ष रहत हें सोई, करिके निवास तहां ॥
(૧૪/૨૯/૩૧-૪૦)
૧૫/૧૩/૩૨-૩૬.
૧૫/૪૬-૪૭/૫.
૧૫/૭૨/૩૧-૩૪.
૧૬/૩૯/૬-૧૬.
૧૬/૫૮/૧-૭.
૨૦/૬૦/૧-૧૬.
भगवान के दासदास ताके । चरनसेवक होई वर्तत वाके ॥
भगवान के साचे संत सो ताकि । भाव सहित सेवा जो वाकी ॥
रात-दिन सेवा करे तामें । अरुचि न होवे कबु यामें ॥
एसी समझ रहायेउ जाकी । सर्वोपरी मोटप रहे वाकी ॥
(૨૭/૪૭/૮-૯, ૧૨)
૯/૨૨/૩૧-૩૫.
૯/૨૪/૩૪-૩૮.
૯/૩૧/૩૩-૩૪.
૧૧/૮/૨૮-૪૦.
૧૫/૫૯/૩૨-૩૬.
૧૫/૬૫/૩૦-૩૬.
૧૯/૯/૨૯-૩૬.
૨૨/૪૨/૩૬-૪૦.
૩/૩૭/૪૬-૪૮.
૪/૪૧/૧-૨૪.
निष्कामी धर्म दृढता ताकी । श्रीहरि वात करन लगे वाकी ॥
त्यागि रु गृहस्थ कहावत जेते । निष्कामि नियम दृढ रखना तेते ॥
तामे फेर पार हि जेहि । ताकुं विमुख करहि तेहि ॥
ताको लोभ न रखहि लेशा । जग में वड़ो होवहि केसा ॥
निष्कामी धर्म रखे सो हमारा । ओर सत्संग से करहि बारा ॥
निष्कामी नियम रखे जाई । सो सत्संग में बडो रहाई ॥
निष्काम में फेर पार हि जेहा । जाने में जेहि आवे तेहा ॥
हमकुं तेहि केना आई । तर्त विमुख हम करतहि ताई ॥
(૫/૧૦/૬-૧૨)
૮/૧૮/૨૯-૩૧.
૮/૫૩(૫૨)/૧૬-૪૦.
૮/૫૪/૧-૨, ૧૦.
૯/૪૪/૨-૫.
૯/૫૬(૫૭)/૫-૧૧.
૧૦/૪૧/૨૦-૨૪.
૧૩/૬/૨૩-૪૦.
नारी-धन कहावत जोउ । नर्क के द्वार देखत हें दोउ ॥
नारी-धन में मन ज्यां लगहु । नर्क परे देखत त्यां लगहु ॥
जन्म-मरण वेर हि वेरा । नारी धन करी होत फेर फेरा ॥
चोराशी के दुःख हि जितना । धन-नारी में रहे तितना ॥
जो जो दुःख कहात वो, धन-नारी में रहाय ।
धन-नारी करे त्याग जेहि, ब्रह्मादि वंदत ताय ॥
धन-नारी को त्याग जेहि, देह को जेहि अभाव ।
भगवान संत ताहि कुं, प्रसन्न करत मन भाव ॥
एसे जेते जन, त्यागी अरु हरिजन जेहि ।
मुक्त मनुष्य रहे तन, मायिक जन न होय अरु ॥
एसे जन कर जोउ, सत्संग सबसे अधिक ।
ब्रह्मांड में नहि कोउ, ब्रह्मा से सत्संग अधिक ॥
(૧૩/૬૬/૩૫-૪૦)
૧૭/૩૯/૧૭-૧૮.
૧૯/૧૮(૧૭)/૨૬-૩૬.
૧૯/૩૬(૩૫)/૧૭-૧૮.
૨૦/૩૦/૩૩-૩૬.
૨૭/૪૭/૩૫-૩૬.
૨/૪૯/૩૫-૩૬.
૪/૫૫/૩૪-૩૬.
૯/૬૧(૬૨)/૩૯-૪૧.
૧૦/૪૦/૨૦-૨૬.
बडे बडे गुन कहावत जेते । निष्कामादिक कर जो तेते ॥
ब्रह्मादिक कुं दुर्लभ तेहा । संत में स्थापे हरि गुण एहा ॥
देव से दुर्लभ संत कर दीन्हे । गुण करिके आवत चीन्हे ॥
ब्रह्मांड से शोभा न एसी कोई । निष्कामादिक रखना सोई ॥
गुणातीत यह गुण कहावे । अल्पजन में कबहु न आवे ॥
चौद लोक जो भये वश ताई । निष्कामादिक गुण वरतत जाई ॥
निष्कामादिक गुण कुं पाई । तृष्णा रहत मायिक की आई ॥
मायिक की तृष्णा जेती जेऊ । संतता में कसर तेती तेहु ॥
सहज मिले करत गुदराना । ऐसे संत सब पर रहाना ॥
श्रीहरि वात करत नित ऐसि । माया को पास लगे न लेशि ॥
माया के पास लगन के द्वारा । श्रीहरि बंध किये अब वारा ॥
(૧૧/૧૫/૧૯-૨૪)
૧૫/૪૫/૨૨-૩૨.
૧૭/૨૪/૨૪-૨૫.
बायुं बायुं में चलत रहेउ । भाई भाई में चलत हे तेउ ॥
सत्संग ताकि प्रथा एसी । पुरुषोत्तम आप बांधे तेसी ॥
निष्काम धर्म रहे जिस रीता । श्रीहरि कुं रहे तामे मीता ॥
निष्काम धर्म न देखत जामें । श्रीहरि प्रीत न रखत हि तामें ॥
निष्काम धर्म नहीं जो जिनमें । एकाकार रहे जो तिनमें ॥
धर्म बिन जितने रहेउ ताकु । अधर्म मानत रहे हरि वाकुं ॥
दारू तामें अनल जबहु । रत्तीभर जब परजावे तबहु ॥
उडे बिन कबु न रेवे ताई । नारी-पुरुष संग एसे रहाई ॥
ब्रह्मा लग हरि देखे विचारी । नारी संग, जोगवृत्ति धारी ॥
(૧૭/૨૬/૩૧-૩૬)
बंधे के शरन बंधे गयेउ, छोडत एसे न देखे तेउ ।
बंधे कुं निरबंध रहे जेहा, छोड देवे पलक महिं तेहा ॥
धन त्रिया जो तिन महिं, राजा रंक फकीर ।
देव लग बंधाये सब, निरबंध तुम हो वीर ॥
धन त्रिया उहे जक्त हि, त्याग हि ताके किन ॥
जग सब जीत हि लिन तेहि । कहत हि इमि प्रवीन ॥
(૨૦/૪૬/૩૭-૪૦)
૨૫/૬૨/૨૨-૩૩.
૨૮/૫૫/૩૭-૩૮.
૧/૫૩/૩૧-૩૩.
૧/૫૪/૧-૬૩.
भक्त एकांतिक जेउ, स्वधर्म, ज्ञान, वैराग्य कर ।
भक्त रहाये तेउ, श्रीहरि के महात्म्य जुत ॥
भक्ति रहाये जेहु, ताके विषे निष्ठा रहेउ ।
तेहि सम श्रेष्ट न केहु, दंभ कपट न रखे तोउ ॥
दंभ रहित एकांतिक तामे । भक्त जो रहायेउ यामे ॥
श्रीहरि निरंतर रहे तेहा । यामे नहि रंच संदेहा ।
तेहि कर एकांतिक हि जेते । भक्त सो श्रेष्ठ रहावे ते ते ॥
एकांतिक धर्म जितना जिनमें । श्रेष्ठ भक्त रहे तितना तिनमें ॥
एकांतिक धर्म में कसर जितना । उतरते भक्त रहेउ तितना ॥
एकांतिक धर्म जामें जेसा । भगवान के निवास तामे तेसा ॥
(૧/૫૬/૬૫-૬૯)
૨/૧૦/૩૦-૩૭.
૨/૫૦/૩૬-૩૮
૩/૧/૫૫-૫૮.
૩/૪૯/૪૪-૪૮.
૩/૫૧/૪૦-૫૦.
૩/૫૨/૨૨-૨૫.
૩/૫૬/૧૭-૨૩.
तेहि गामके जन सब, भाविक देखि अपार ।
श्रीहरि बात करन लगे, मोक्षके देखाये द्वार ॥
अधर्म पाप हि करत जन, यह लोक में जोय ।
जमपुर सो दुःख पावहि, अति अपार हि सोय ॥
एक एक जनके शिर, पापको नहि परमान कछु ।
देखत नाहि लगिर, एहि सम नहि अग्यानि कोउ ॥
कंई जुगको अग्यान, सो मेटन हें मनुष्य तन ।
शुद्ध जब पावे ज्ञान, तब अग्यान को होत हरन ॥
निशि को तम कहावत जोउ । सूर्य उदे विन नाश न होउ ॥
कोटि पतंग करे प्रकाशा । तेहिसें न होवत निशिको नाशा ॥
चित्र के सूर्य कोटिक करावे । तेहि कर राति अंधकार न जावे ॥
सूर्य सम साचे गुरु मिले जबहि । अनंत पापकुं टारे तबहि ॥
अब साचे गुरु कि कहत हें बाता । जीन करि ज्ञान होवे साक्षाता ॥
धन त्रिया दोउ विकट पासा । तिनको जेहि किये नाशा ॥
अष्ट प्रकारे करे जो त्यागा । संत तोहि साचा वैरागा ॥
स्वादु अन्न कहावत जेता । प्रथम हरिकुं धरे तेता ॥
निस्वाद कर ताकु खावे । उपाधवत करिके पावे ॥
दैहिक सुख न इच्छे कबहु । युं विचार करे दिन सबहु ॥
देहको जब कोउ करे अपमाना । तबहि हर्ष पावे सुजाना ॥
करे सन्मान देह को कोउ । मनमें पावे शोक हि सोउ ॥
हरिके घाट अनंत प्रकारा । करहि निरंतर वार हि वारा ॥
अनित घाट कहावत जोइ । तिनको करत त्यागहि सोई ॥
अनीत घाट विष सम जाने । हरि के घाट अमृत प्रमाने ॥
अमृत तजी करे विष को पाना । सो मलिन मृतक समाना ॥
हरि अमृत रस पान हि, करे निरंतर जोय ।
सो साचे संत जानिये, हरि के सानिध सोय ॥
पंच विषय गने विष सम, तिनकुं न कबु सुनात ।
साचे संत सो कहत हें, वेद पुरान गुन गात ।
हरि जीन व्यसन ओर, सबहि किने त्याग तेहि ॥
हरि में वृत्ति जोर, रहवत हें अहुनिश जेहि ॥
ऐसे साधु जानि, तिनको करना संग सदा ।
पाप भयंकर आनि, जमपुर दुःख विचार कर ॥
यह ब्रह्मांड के जीव हें जेहा । दो दिन आगे पाछें तेहा ॥
मरना यामें नहि संदेहा । तुम जान लियो सब ऐहा ॥
वारवार तन ऐसो न आवे । हरि भजे अपार सुख पावे ॥
अपार सुख कि इच्छा जाकुं । सत्संग सब करना ताकुं ॥
(૪/૩૯/૧-૧૮)
शुक सनकादिक नारद जेसे । साचे संत मिले जब ऐसे ॥
सत्य प्रतिति आवे जब तामे । अति प्रित प्रथम करे यामे ॥
ताके वचन लगे हितकारि । स्वारथ न जनाय लगारि ॥
परम परमारथि संतकु जाने । निज बुद्धिकुं तुच्छ प्रमाने ॥
व्यवहारिक बुद्धि होय अपारा । मोक्ष में काम न आत लगारा ॥
खानपान मिले सन्माना । इतनो फल यामें रहाना ॥
दुषित बुद्धि जो होवे जाई । इहाँ के इहाँ दुःख फल मिले ताई ॥
परलोक में सुख मिले अनंता । ऐसि बुद्धि कर बुद्धिवंता ॥
संत समागम करिके प्रीता । सत्संग करे अति हिता ॥
सत्संग को ऐसो है प्रतापा । जाने में आवे धर्म रु पापा ॥
पाप धर्म को फल विचारे । सुखदुःख दृढ दिलमें धारे ॥
मोक्ष अंकुर उदे तब होवे । विघ्न करन ताकुं पिछे जोवे ॥
रात-दिन तेहि करे जतनाई । जत्न विन न उदे होय ताई ॥
उत्तम में उत्तम जो वृक्ष कहावे । जत्न विना न कबु रहावे ॥
उधेइ के कुसंग, ताको न करे विश्वास कबु ।
निरदोष जानि सत्संग, दिन-दिन गुन ग्रहे हितकर ॥
तबहि मोक्ष अंकुर, उदे होवे अधिक अधिक ।
धारे विचारे उर, ऐसे उत्तर कियेउ तेहि ॥
(૪/૬૮/૩૦-૪૦)
૪/૧૦૩/૧૧-૧૨.
૫/૧૩/૨૦-૫૩.
૫/૧૩/૫૩-૬૦.
मोक्ष को अर्थ एक अर्थ न ओरा । ऐसे जन ही निकसे थोरा ॥
ऐसे संत हरिजन में जेते । अनादि मुक्त जानना तेते ॥
संत की सेवा करना जोऊ । मोक्ष पद से अधिक हे सोऊ ॥
यूँ समझी सेवा करे जेहि । अनादि मुक्त समझना तेहि ॥
स्वारथ सें सेवा करे जेऊ । आधुनिक जन जानना तेऊ ॥
(૫/૧૬/૩૨-૩૬)
श्रीहरि कहत नृप प्रति, पुनि हित हि लाय ।
यह संत को चिंतवन, करना हित लगाय ॥
या को करत चिंतवन तेहि, चारुं दुख टरि जात ।
जन्ममरण जमपुरि हि, चोराशी न रहात ।
याकुं जेंवावत जेहि, अति करि कें भाव मन ।
पूजत वेरवेर ते हि, चंदन पुष्प वसन करि ॥
ताकुं पूजत देव, जो जो भुवन में जाय तेउ ।
वचन सत्य हे एव, समे में फल देखात तेहि ॥
या को वचन मांनत जेहा । तत्काल धर्म में वर्तत तेहा ॥
प्रगट हरि कहावत जोउ । एसे संत मध्य राजत सोउ ॥
ताकि जो आवे प्रतिता । अक्षयधाम सो सद्य लहिता ॥
संत समागम करे जेहि । ताकुं दूर नहि हे तेहि ॥
(૫/૩૦/૧-૬)
૫/૪૪/૨૧-૨૫.
૫/૨૭/૧૧-૨૧.
૫/૩૭/૩૭-૩૯.
૫/૩૯/૨૯-૩૯.
श्रीहरि प्रीति जोई के तेहि । वात करन कु लगे एहि ॥
साचे संत मिलत जब आई । जिय के बंधन देत छोराई ॥
हरि विन ओर में प्रीति जो, सो बंधन हे ताय ।
जिय तेहि जानत हित कर, अज्ञान सो अति रहाय ॥
अनंत हि पाप करिके, मोह छाये मति माहिं ॥
विषे में होवत राग अति, मुवे छूटत नाहिं ॥
संत मिले तेहि साचे जबहि । हित करि कहे जिय कुं तबहि ॥
धनवंतरि वैद्य है तेहा । असाध्य रोग हे टारि एहा ॥
संत विन मोक्ष न दाता कोई । आपे विषे से छुट गये सोई ॥
छुटे होय ओरकुं छोरावे । ताकि वात माने में आवे ॥
धन त्रिय रसास्वाद में, आसक्ति हे जाहि ।
करे सो जन वारता, माने में न आवे ताहि ॥
त्याग बिन विषय का, कबहु न होवे त्याग ।
विषय कु जेहि त्याग करे, सोई संत बड़ भाग ॥
हरि बिन जितनो सार, सो सब माने असार तेहि ॥
करि के दृढ़ निरधार, लाभ अलाभ विचार कर ॥
(૫/૪૫/૨૪-૪૦)
हरि विन सार न देखत कोऊ । साचे संत समझना सोऊ ॥
साचे संत सो रहत न छाने । वर्तन में तेहि आत पिछाने ॥
साचे वर्तन होवे जेहा । छपाये सो छपात न तेहा ॥
अंध होय सो देखे नाहि । बेरे होय शब्द न सुनत ताहि ॥
संत कुं देखि न माने जेहू । अंध बेरे समझना तेहू ॥
(૫/૬૯/૧,૩૨)
૫/૭૧/૧૬.
संत होय निःस्पृह रहावे । नारि धन में नहि लपटावे ॥
नारि धन कि करे निंदा जेही । साचे संत हि जानना तेहि ॥
विषयमात्र कहावत जेता । ताकुं जानत विष सम तेता ॥
ताको संग न करत कबऊ । देह में प्राण रहे त्यां लगऊ ॥
(૬/૩૭/૩૪-૩૬)
૬/૬૯(૬૮)/૩૦.
૬/૮૧/૨૭.
संत सरल जोई चित्त, तापर रुचि होवे सबे ।
रुचि विन होय न प्रीत, कोटि करो उपाय कोउ ॥
संत हे सबके मित्र, मित्र होई कर वचन वदत ।
त्रिलोक करत पवित्र, गंगा ज्युं करत पवित्र जग ॥
आप रहे पवित्र हि जेहा । ओरकुं करे पवित्र हि तेहा ॥
आप में होवे गुन हि जेसा । ओर में सो देखहि तेसा ॥
ओर के अवगुन हो अपारा । संतजन न देखत लगारा ॥
अवगुन देखे असंत स्वभावा । ता पर कोई कुं न होवे भावा ॥
खानपान हे विविध प्रकारा । ताकुं छोडि करे मल अहारा ॥
कुकर शूकर गर्दभ माना । काक चारनि सम प्रमावा ॥
हंस सम सो गुन न कहावे । बक सम तेहि संत दरसावे ॥
वज्र सम वचन संत न उचारे । वचनवृष्टि करे अमृत धारे ॥
वात सुनत तेहि गुन कर आवे । अगुन अनंत हि दूर बहावे ॥
दोष होय जेहिकर नासा । हितकर एसे सिखवे अभ्यासा ॥
ओरकुं करना सुख हि जोउ । एसे वचन वदत संत सोउ ॥
कटुक वचन उचरे संत होई । ताकुं संत न जानत कोई ॥
संत-असंत वचन कहि देवे । वचन कबु छपाई न रहेवे ॥
संत भये संतगुन न आवे । वेर वेर जन कुं बात उपजावे ॥
साधुता विन संत व कहावे । कोटि प्रकार हि बात बतावे ॥
निष्कपट गुन देखे जामें । जग सब लोभात हे यामें ॥
निष्काम निष्कपट हि, शांत शुन रहे धार ।
छिद्र न प्रकाशे शत्रु को, सो संत जग-आधार ॥
शुभ गुन हरिगुन कहत हे, प्रगटहि मोक्ष हित ।
हरि को अक्षरधाम तेहि, संत एसे शोभित ॥
शुभ गुन अक्षरधाम, श्रीहरि ताकुं न तजत कबु ।
अगणित धरत हे नाम, अवतार सो अनंत लेई कर ॥
जिहां जेसो काम, तिहां तेसो अवतार धरत ।
अंतरजामी श्याम, करत चरित्र सो अनंतविध ॥
प्रगट होई अदृश हि होना । सो सब चरित्र कर जोना ॥
आवत जावत चरित्र हे ताके । चरित्र कले में न आवत वाके ॥
आवन-जावन नहि हे तेहा । जेसे के तेसे सदा हे एहा ॥
आत-जात देखावत जोउ । ताके एसे चरित्र हे सोउ ॥
भक्त कुं चरित्र देखावन काजा । वेर वेर करत रहत महाराजा ॥
अनादि जुग जन के अग्याना । चरित्र करि टालत भगवाना ॥
अज्ञान टालने याकुं न वारा । एसो नहि हे याको धारा ॥
संत के द्वारा करते तेऊ । अज्ञान टालने रखे हे एऊ ॥
आप महिमा जथार्थ जेता । संत में जाने में आवे तेता ।
हरि करे तामें भूल न कोई । एसे समझे एकांतिक सोई ॥
जग के समज आवो न आवो । श्रीहरि कुं नहि माको दावो ॥
समजे ताको होवे कल्याना । न समजे सो दुःख सहे नाना ॥
पके हरिजन की यह रीति । हरि संत सम ओर में न प्रीति ॥
हरि संत में करे विघ्न जेहि । शत्रु जानि करे दूर हि तेहि ॥
चौद लोक को जो जो सुखा । सत्संग आगे लगे सब लूखा ॥
एक को एक रंग रहे एसा । दिन दिन चढे खसे नहि लेशा ॥
एसे संत-हरिजन को, हरि न करे कबु त्याग ।
मोक्षभागि युं जानि के, संत में करे अनुराग ॥
संत हरि के वचन हि, विधि निषेध हि जोउ ।
सामान विशेष सहि, प्रगट हरि देखे सोउ ॥
लिंख प्रजंत से जंत, अनंत कोटि ब्रह्मांड भर ।
भूले नहि दुखवंत, मन वच कर्म संत कबु ॥
संत के जितने गुन, वेद जथार्थ वात कर ॥
क्रिया न करे नून, जग करे उपहास जिमि ॥
(૬/૮૪/૧૨-૪૦)
श्रीहरि से भक्त तेहि, फेर पुछत कर जोर ।
संतमात्र के गुन हि, देखात नहिं एक नोरा ॥
तब श्रीहरि बोलत भये, सुनिये भक्त हि वात ।
विन बुद्धि होय जांहि लग, तिहां लग एक देखात ॥
जिहां लग एक देखाय, विन बुद्धि समजना तांहि लग ।
मोक्ष न होवे ताय, मोक्षद्वार अटकाई दियेउ ॥
व्यावहारिक जितनी वात, बुद्धि विन नहिं करत कोउ ।
तब तेहि सुख पात, विन बुद्धि दुखि सो होत तेहि ॥
सार-असार गुन हि जितना । बुद्धि में सहज रहे हे तितना ॥
ओर बुद्धि जन सिखे अनेका । मोक्ष के काम न आवे सो एका ॥
मोक्ष की बुद्धि जन सिखे जबऊ । सत्संग से सो आवत हे तबऊ ॥
सत्संग विन मोक्षबुद्धि न आवे । मोक्षबुद्धि विन दुख न जावे ॥
शास्त्र में मोक्ष कहत हे सबऊ । खप विन सुमझत न कबऊ ॥
संसार में सुख लेवन हिता । कोउक दिन शास्त्र सुनिता ॥
जप तप तीर्थ व्रत करे जेता । दान पुण्य यज्ञ करे केता ॥
संसार सुख को करन भोगा । अभ्यास करत केते हठ जोगा ॥
मरिके सुख हरिधाम हि केरा । कबु न नास होवे कोउ फेरा ॥
एसो सुख न इच्छत कोऊ । एकमति सब जग की सोउ ॥
हरि वा साचे संत हि, प्रगट होत जेहि वार ।
तेहि मुख सुनत शास्त्र जब, तब जन होत भवपार ॥
(૬/૮૫/૧-૧૩)
૬/૮૯/૧૪-૨૧.
जोग विना सत्संग न रहावे । जत्न विन ज्युं ईक्षु न पावे ॥
विद्या पढे रखे न अभ्यासा । तर्त विद्या सो होवे नासा ॥
ब्रह्मविद्या सत्संग को नामा । विन आदर न रहे तेहि ठामा ॥
मोक्ष अंकुर देखे जा माहीं । ब्रह्मविद्या सो रहत ताहीं ॥
ब्रह्मविद्या कुं पाये जन जेहि । विद्यामात्र हि पाये तेहि ॥
ब्रह्मविद्या में तेज अपारा । पापमात्र होई जावे छारा ॥
(૬/૯૧/૮-૧૦)
૬/૯૨/૨૯-૩૬.
निर्बन्ध को जो करे बिसवासा । बन्धन मात्र सो करे खुलासा ॥
माया से समर्थ जीव अपारा । ज्ञाननेत्र बिन भयो अंधकारा ॥
ज्ञाननेत्र माया किये नासा । माया को एक रहे अभ्यासा ॥
ज्ञाननेत्र हि पावे जबहि । निरबंध होई जावे तब हि ॥
निर्बन्ध मिले बिन मोक्ष न होई । कोटि उपाय करे ओर कोई ॥
निर्बन्ध को विश्वास न होई । ताके वचन न ले मानि सोई ॥
(૬/૯૬/૩૩-૩૬)
हरि की रखे उपासना जेहा । सेवक होई के वतें तेहा ॥
हरि के दास ताके रहे दासा । हरि बिन और नहीं जेहि आसा ॥
हरि मानत अति दुर्लभ ताको । पल एक दूर रहत न वाको ॥
जन मानो न मानो केहा । तजत न तोहु जनसें नेहा ॥
उद्धार करन सब जगको धारे । अपमान करे तिनसे न हारे ॥
मेघ वर्षात करत हे जबऊ । ठोर-कुठोर न गिनत हे तबऊ ॥
पापी के दोष गिनत न लेशा । समय पर वर्षत रहत हमेशा ॥
पापी धर्मी दोई कुं, मेघ विन नहिं सहाय ।
समर्थ सो जानत वात सब, बडी हे समझन ताय ॥
पाप करत करत हि, कोइक दिन हि ताहि ।
साचे संत मिले आई कर, पाप पल में छुट जाहि ॥
एक ब्रह्मांड भराय, इतनो करत नित पाप जिय ।
हरि से विमुख रहे जाय, ताकी कहे बात सो यह ॥
साचे मिलत जब संत, जिय कुं करत हे बात तब ।
ज्ञान देत बलवंत, जेसो जन अधिकारी जोई ॥
संत वचन के द्वार करि के । हरिउर बसे कोउ मुद भरिके ॥
तब तेहि तर्त होवे सत्संगा । पाप अनंत पल में होय भंगा ॥
मोक्ष को माराग अभंग रहावे । जिहां सत्संग सत्य रहावे ॥
सत्य सत्संग विन मोक्ष न होवे । कोटिक तन व्रत तप करि खोवे ॥
वेदपुराण को सिद्धांत हे एहा । संतजन हि कहत सब तेहा ॥
(૬/૯૯/૯-૨૨)
संत हे शांत अत्यंत, बावने चंदन से अधिक ।
निष्कलंक हि रहत, सो देखि जन शुद्ध होत तेहि ॥
केसो है बसन मलिन, शुद्ध नीर सो शुद्ध करत ।
जानत जन प्रवीन, जन्ममरन दुःख छुटत तेहि ॥
(૭/૫૯/૨૭-૨૮)
૮/૪/૪-૮.
૮/૧૦/૨૦-૩૦.
૮/૧૭/૮-૧૧.
सत्संग में करे समास, कुसंग में करे समास तेहि ।
संत के रहि सो पास, रीत सो सीखना तेउ ॥
जाकि क्रिया देख, सत्संगी कुं प्रीति होय ।
जानना मुनि अलेख, भगवान वश वर्तत तेहि ॥
मुक्त सिद्ध होय ब्रह्म समाना । शुक सनकादिक जेसे रहाना ॥
प्राकृत देह में विचरे जहाँ लगहि । उन्मत्त होई न फिरे त्यां लगहि ॥
प्राकृत देह सिद्ध पाये जितना । नियम विन भ्रष्ट हो गये तितना ॥
नियम होय तोउ त्यागी जेता । ब्रह्मचर्य में वर्ते दृढ तेता ॥
(૮/૨૦(૧૯)/૨૭-૩૪)
धर्म भक्ति ज्ञान वैराग्य चारि । तिनमें पूर्ण हि वरते बारि ॥
केफ, व्यसन, फेल करे न केहु । देह को भाव तजे हें एहु ॥
विषयमात्र कहावत जेता । पाताल खे प्रकृति लग तेता ॥
काक विष्टा सम जाने ताकुं । जन तब सत्य माने मत वाकुं ॥
सत मारग में चलत जेहु । सत्पुरुष सो कहावत तेहु ॥
चोरी अवेरी न करे कबहु । सत्पुरुष सो कहे जन सबहु ॥
मांस मदिरा को करे जे त्यागा । हरि बिन रखे न कोई में रागा ॥
हरि बिन जावे काल चविना । सत्पुरुष जानना प्रविना ॥
पाताल से प्रकृति प्रजंता । बडे बडे भोग जो रहंता ॥
बडे भोग बडे रोग हि जाने । सत्पुरुष सो जन तेहि माने ॥
हरि विन भोग जो जितने, विष से अधिक हि जेहु ।
सत्य हि समझे तेहि विध, सत्पुरुष सत्य एहु ॥
सत्पुरुष सत् मग प्रथम, चले आप हि जोउ ।
पिछे चलाबे शिष्य कुं, सत्पुरुष सत् सोउ ॥
(૮/૨૭(૨૬)/૨૦-૨૬)
जिय को करना हित, सत्पुरुष विन करत नहि ।
संत हें परम हि मित, खचित कर समझना तेहि ॥
जग के संत अरु विप्र हि जेते । जग कुं प्रिय बतावत तेते ॥
वेदपुराण सो पढे कहा होई । जाकुं जग आसक्ति जोई ॥
तिन सें जन्म मरन न छुटाई । मरि के जमपुरी में सो जाई ॥
सो नहि जानत जग सब कोई । सत्पुरुष मिले विन सोई ॥
(૮/૪૮(૪૭)/૨૮-૩૨)
૮/૬૨/૧-૬.
૯/૩/૧૩-૧૮, ૨૯.
૯/૪/૧૬-૧૮.
૯/૨૭/૪૦.
૧૦/૧૫/૨૦-૨૭.
૧૦/૧૭/૧૩-૨૪.
मोक्ष की वात कहावत जेती । अभ्यास करे विन रहे न तेती ॥
खप हि जितना जाकुं रहावे । तितनो अभ्यास सो तेहि करावे ॥
खप के अंकुर उदय होय जैसे । संत कुं वात सो आवत तैसे ॥
केतेक बीज के अंकुर जोउ । बहुत काल उदय होवे सोउ ॥
संत की वात रूप बीज जेहु । जाके श्रवन पे परत हि तेहु ॥
संत के दरस कहत जन जेता । जान अजान करिके तेता ॥
दरश रूप बीज हि जाकु । नेत्र के द्वार जेहि परत हि ताकुं ॥
दरश श्रवन बीज दोउ प्रकारा । मोक्ष अंकुर हें करन वारा ॥
कालरूप जो पक्षी ताको । नास कबु न कर सके वाको ॥
(૧૧/૧૨/૩૨-૩૬)
૧૧/૩૩/૨૭-૩૨.
૧૧/૫૯-બ/૧૩-૧૪.
बहोत अधर्म होत जेहि वारा । श्रीहरि जन के करन उधारा ॥
साचे संत सहित सो आई । धर्मस्थापन करत हें ताई ॥
साचे श्रीहरि-संत बिन, भक्ति जुत धर्म जोउ ।
स्थापन होत न ओर से, सत्य वात हे सोउ ॥
(૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૧૨-૧૩)
૧૨/૧૫/૩૭/૩૮.
૧૨/૩૧/૨૯-૩૩.
૧૨/૩૭/૬-૧૪.
૧૨/૪૯/૩૯-૪૦.
૧૨/૮૧/૫-૧૪.
संत हरिजन कुं पीडत जेते । असुर कलि के कहावत तेते ॥
संत की सेव करत हि काजा । छोड दीन्हे हम घर-समाजा ॥
संत की सेव करत न जेहु । घोर नर्क में परत हि तेहु ॥
तन धन संत अर्थ न आया । निष्फल हम जानत रहाया ॥
अपराध करत संत को कोई । जन्म जन्म तेहि दुःखी होई ॥
फेर नहि मनुष्य तन पावे । द्विपि व्याघ्र के तन धरावे ॥
हरिधाम सम श्रेष्ठ न कोउ । जज्ञ जाग्य सें न पावत सोउ ॥
जप तप से न मिलत सो, तीर्थ व्रत न मिलात ।
देवलोक पावत तेहि, कहां भूप हो जात ॥
कहां होत धनाढ्य महा, कहां द्विज ही होई ।
संत से मिले सत्संग हि, हरिधाम मिले सोय ॥
हरिधाम के द्वार, संत विन न अवर कोउ ।
वेद पुरान अढार, कहत हैं वेर वेर तेहि ॥
(૧૩/૧/૩૨-૩૯)
बडेसे बडे संत हें, पूज्य में पूज्य हें संत ।
हरिकुं सेवत संतहि, पाप जनके हरंत ॥
हरि पूज हें संतकुं, संत हित वारमवार ।
अवतार धरत हें भोमि पर, संतकि करत रखवार ॥
संतको करत अपमान, जीसविध यह लोक महिं ।
तेसे घटत तेहि मान, देव भूप, मनुष्य लग ॥
संतकु पूजत जेह, ताकुं पूजत देव सब ।
भूप हि पूजत तेह, मनुष्य पूजत रहत तेहि ॥
धन त्रियमें ब्रह्मांड जेता । देव मनुष्य देत हि तेता ॥
रचि पचि अति रहे हें यामें । सुख सबहि जो माने तामें ॥
अधिक तिनसें न देखत कोई । तेहि हित उद्यम करत हें सोई ॥
देश प्रदेश सेवत तेहि हिता । तिन हित साधन कोटि करिता ॥
धन त्रिय जनु मिले नहि कबहु । तेहि उदय में लगे जन सबहु ॥
धन में बंधाये जहां लग जेहु । संत न कहावत तिहां लग तेहु ॥
संत होई धन रखे रखावे । सो सब जगके मल कहावे ॥
धन हित संत होत हें जेते । साचे संत देखि जरत तेते ॥
साचे संतकि ऐसि हें रीता । धन त्रियेमें करत न प्रीता ॥
धन त्रिय देखत नर्क के द्वारा । त्याग करत तेहि जानि नकारा ॥
ऐसे संत हें जगके नावा । देव मनुष्य सें अधिक रहावा ॥
केफ व्यसन जे ते कहावे । जगमें जे ते फेल रहावे ॥
दूरसें त्याग करत हें ताके । साचे संत भये सो पाके ॥
संतके लछन करिके जोउ । संत पेचाने आवत सोउ ॥
हुतासन कसोटि जेहा । जेसो सोवर्ण कहत हें तेहा ॥
उपर संत भितर असंता । वर्तन नहि छपत रहंता ॥
धोरि जे ते मुलके, धर सो देखाई देत ।
वर्तन में जेति संतता, वर्तन परख हि लेत ॥
गुन गुन संत ग्रहत हें, अवगुन देवत त्याग ।
गुन त्यागि अवगुन लहत, असत तेहि निरभाग ॥
शस्त्र रखत हें जेते, धन नारि रखत जो ।
जगा बंधत तेते, ठाकर के हि ओड जेहि ॥
नारद शुकमुनि जेह, सनकादिक संत जोउ ।
दत्तात्रय मुनि तेह, जगे न बांधे निज हित ॥
लठियां हथियार रखे न तेहा । त्रिये धन में करे न नेहा ॥
व्यसन केफ फेल किये त्यागा । श्रीहरि पद में करे अनुरागा ।
मुखसें गारि न उचरे कबहु । जगको अपमान सहे सबहु ॥
अपमान सहन करना जोउ । संतको मुखय लछन हें सोउ ॥
(૧૩/૨/૧-૧૮)
૧૩/૧૩/૪-૭.
૧૩/૩૯/૫-૨૪.
उद्धव को मत इमि दिन दिन हि अधिक अधिक ।
भाव बढे ज्युं तिमि, संत-हरिजन करे जो तेहि ॥
धर्म भक्ति अरु ज्ञान वैरागा । संत से अधिक हि रखे त्यागा ॥
कथावार्ता अधिक ध्याना । दिनरात रखे ता पर ताना ॥
संत को भार रखे न लेशा । हरिजन हरिजन करे क्लेशा ॥
एक एक को च्हाय तिमि । बोले घसातो कुसंगी तिमि ॥
गज गंगा जिमि न्हावत जाई । तन पर रज सो डारत आई ॥
हडकाये श्वान जानना ताई । संत सुं प्रीत जो देत तोडाई ॥
दिन दिन प्रीत अधिक बढ़ावे । शुक्ल दिन के जिमि चंद रहावे ॥
ऐसे के कथावार्ता जेते । ध्यान कीर्तन भक्ति तेते ॥
धर्म ज्ञान वैराग्य हि जेतो । सबकु हे सुखदायक तेतो ॥
एसे संत हरिजन जितना । आकाश सम एकांतिक तितना ॥
(૧૩/૫૦/૨૯-૩૬)
૧૪/૨૪/૧૨, ૧૬-૧૭.
संत सरल जो जितने, अंतर बाहिर जेह ।
वरतत हें एक रीत हि, अमृत सम हें तेह ॥
सरल संत जे ताहि कुं, कोउ जन पर नहि खेद ।
बात करत न खेद रख, उर में रहत उमेद ॥
संत के गुन अपार, वार वार कहे मुखकर ।
अवगुन न करत उच्चार, साचे संत न छिप रहत ॥
नियम धर्म हि जेते, साचे संत हरिजन के ।
नित हि कहना तेते, श्रीहरि करे बात यह ॥
(૧૪/૪૨/૩૭-૪૦)
करत हें एसी बात, संत हि भेगे होत जब ।
हरि जब भेगे रहात, तब हरि एक बात करत ॥
हरि की बात हि एसी, जो आचार्य जैसे भयेउ ।
बात करत सो तेसी, रुचि में फरक देखाई देत ॥
जेसी रेचि ताके जेसे धामा । बात में देखात घनश्यामा ॥
धर्म, भक्ति, वैराग्य रु ज्ञाना । तामें जाकुं जेसो ताना ॥
तेसे बडे भये जो तेहा । तेसी कीर्ति बढे ताकी तेहा ॥
बत्ती जैसे दिवेल रहाये । दीपक प्रकाश तेसे कराये ॥
मशाल में जेतो प्रकाशा । तम को तेतो करत हि नाशा ॥
बिजली में दैवत रहे जैसा । प्रकाश सो देखावत तेसा ॥
वडवानल कहावत जेहुं । सिंधु में सो रहत हें तेहु ॥
तामें दैवत रहेउ एसो । सिंधु पवन से बुझात न तेसो ॥
हरि कहत हरिजन हि जेता । दीपक सम कहत हैं तेता ॥
भुवन में सो करत उजियारा । फूंक लगे बूझ जावे सारा ॥
थोर कुसंग के जोग ताई । सत्संग ताके मिट जावे भाई ॥
संत रहे मशाल समाना । मेघ से कबु न रहे ठिकाना ॥
बडे भूप आवट करे जबहु । समझ ताकी फरि जावे तबहु ॥
संतदास, रामदासजी जोउ । मुक्तानंद मुनि जैसे सोउ ॥
संत रहे सो विज हि जैसे । विजरी मेघ से बुझात न तेसे ॥
भगवान संत ताहि के, अवतार जो रहाय ।
वडवानल से अधिक हें, देव के देव कहाय ॥
अनंत ब्रह्मांड के देवा । रंक रहे ब्रह्मा जैसे तेवा
मनुष्य देह में आवत तोउ । वर्णि के वेश लेवत जोउ ॥
सर्वोपरि महिमा रहे तोई । साम्रथि तेति रखत हें गोई ॥
हरिजन कुं हरि एसे कहेऊ । तुमकुं मिले हे वस्तु जेउ ॥
कोईकु न मिले अब लगहु । सत्संग कुं रहेना वलगहु ॥
अपनो मन डगावे तोउ । सत्संग न छोडना कोउ ॥
अंत समे हरिजन कुं तेकुं । दर्शन देवत हरि तेतेकुं ॥
(૧૪/૫૦/૧૫-૩૬)
जन्म मरण जमपुरि जोउ । चोराशि जो कहावत सोउ ॥
जथार्थ मोक्ष के मारग जेउ । देखत मानेमें न आवत तेउ ॥
तेहि सम रोग असाध्य न केउ । सत्पुरुष मिटावत एउ ॥
सुकत विन सत्पुरुष तामें । जीय नहि चोंटत हें यामें ॥
सत्पुरुष रहे चमक समानां । केते जीय लोह सम रहानां ॥
सत्पुरुष समीप आत जबहि । अमृत सम वचन सुने तबहि ॥
सत्पुरुष में चोंटि हि जाते । छोरत नहि तेहि केहि वाते ॥
कारन तन रहे जीयमें जेसे । सत्पुरुष में चोंटत तेंसे ॥
सत्संग के जोग कर, कारन तन के नास ।
हो जावत नहि संदेह हि, बोले युं अविनाश ॥
कारन तनको नाश हि, जीतनो होवत जेह ।
तितनो चोंटत हरि बातमें, प्रगट देखना तेह ॥
निंद, आलस, प्रमाद, जीतनो होवत जेह ।
तितनो चोंटत हरि बातमें, प्रगट देखना तेह ॥
(૧૪/૬૪/૨૧-૨૭)
૧૪/૬૯/૩૦-૩૬.
जामें सामर्थ्य रहाये जेसा । गुन देखाई देवत तेसा ॥
सौवर्न में दैवत हि जेसे । अनल सो कहि देवत तेसे ॥
रुपिये की कीमत रहे जेसी । साचे पारख कहत हि तेसी ॥
हीरा मोती की कीमत जाई । झवेरी जो कहि देवत ताई ॥
हरिजन संत गुरु ताके । भगवान जो रहाये वाके ॥
जेसो दैवत जामें रहाये । गुन ताके न रहत छिपाये ॥
संत-असंत हि वरतन मांहि । तरत देखे में आवत ताहिं ॥
मोक्ष को खप होय जाकुं । मोक्षरूप संत रुचत ताकुं ॥
ब्रह्मांड में जन रहे जेते । विषय पर तान रहे सब तेते ॥
तेसे जो गुरु मिले जाहि । तरत ताकुं मानत रहा हि ॥
मिथ्या गुरु के फल यह । ऐसे परत जो काल ॥
श्रीहरि वात करत ईमि । निज जन प्रति पाल ॥
(૧૫/૧૨/૨૯-૩૭)
ठगावत हें ठग तेहि, ताकी गम नहि तेउ ।
अंते विमुख होवत हि, निश्चे बात हें एउ ॥
उपर तेंसे भीतर हि, साचे संत हें तेहु ।
दिन दिन एसे संत पर, रिझत हम जो रहेउ ॥
निष्कपट संत जेते । वर्णि पदाति जेते जोउ ।
हमारी सेवा में तेते । निरंतर मानत हम हि यह ॥
(૧૫/૪૩/૧૩-૧૫)
तीर्थ व्रत हि अपार, जोग जज्ञ अपार करे ।
दान पुण्य नहि पार, करे अपार जन्म लगहि ॥
हरि-संत एक वार, जेंवाये पूजे भाव कर ।
कर देखे विचार, तीर्थादिक सें अधिक रहे ॥
(૧૫/૫૭/૩૯-૪૦)
૧૫/૭૨/૧-૧૧.
૧૫/૭૫/૩૯-૪૦.
૧૫/૭૮/૨-૧૧.
૧૫/૮૦/૩૧-૩૭.
૧૫/૯૧/૫૪-૫૫.
श्रीहरि पुनि कहत भयेउ, हरिजन पर हित रहाय ।
जाग्रन करनां अवश्य हि, एक पोर हरिजन ताय ॥
जगको डर होय जीनकुं, गुप्त करनो जाग्रन ।
कोउ जाने नहि तिसविध, मनमें करना भजन ॥
परमहंस जे तेउ, सांख्यजोगि बाई भाई जोउ ।
चार पोर के एउ, जाग्रन करनां अवश्य यह ॥
बचन न मानहि जेहु, देहरूप देखना तेहि ।
ब्रह्मरूप नहि एहु, जरूर पावहि नर्क जेहि ॥
गद्य में नर्कके नाम कहेउ । पत्र में जोईके लिखे हम तेऊ ॥
नियम धर्म सत्संग के जेता । तामें तत्पर वरतत तेता ॥
वेद पुरान व्यास के जोई । जेसी जाकी रुचि रहे सोई ॥
ज्ञान अंश जामें रहे जेसे । समग्र ताकि रहाये तेसे ॥
धर्म भक्ति वैराग्य जो ग्याना । प्रतिपादन तिमि करत रहाना ॥
ज्ञान अंश हमारे में जेसा । अक्षरातीत पुरुषोत्तम तेसा ॥
हृदय हि प्रगट प्रमाना । प्रसन्न होई भये विराजमाना ॥
पुरुषोत्तम की मूरति, नख शिख तन के मांहि ।
देखात रहत हे अखंड हि, धाम देखात रहाहि ॥
धाम-मूर्ति बिन जितनेउ, ब्रह्मांड जेते रहात ।
पृथक् देखत हि तिनकुं, मूर्ति में कबु देखात ॥
अतर्क्य बात रहाये केती । तर्क में लावना जीय कुं तेती ॥
अतर्क्य स्थिति विन हुं पाये । अतर्क्य बात न आत देखाये ॥
अतर्क्य हम कहत हें बाता । वेद ताके रहस्य रहाता ॥
पुरुषोत्तम परब्रह्म जेहा । परब्रह्म जो कहावत तेहा ॥
ताके दोउ स्वरूप कहाते । जोग कला रूप दोउ रहाते ॥
जेसे अधिकारि जीय रहाये । तेसि रीत ताकुं देखन में आये ॥
जेहि बात देखना होय जबहु । तिनकि दृष्टि करि देखना तबहु ॥
अपार सिंधु रहाये ताकुं । उतरना होय जबहि वाकुं ॥
नाव बिन ओर कोटि उपाया । उतरे नहि जावत रहाया ॥
पांख विना आकाश तामें । गति कबहु न होवत यामें ॥
मनुष्य पंखि अल्प कहावा । आकाश में ताकि गति रहावा ॥
ब्रह्मविद्या कहावत जेती । जोगकला जुक्त रहे तेती ॥
जोग कला जाने बिन जोउ । चाय तेसे पंडित रहे तोउ ॥
शास्त्र में बात रहाये जेसी । माप करे में न आवत तेसी ।
पिछे शास्त्र तिनकुं यह, पढि के नास्तिक होत ।
आस्ता रहत न कोउकी, मनुष्य तन कुं खोत ॥
नास्तिक पंडित जितने, पढिकर होवत जेह ।
ब्रह्मराक्षस हि होत तेहि, सत्संग हि नहि तेह ॥
(૧૫/૯૮/૧-૨૭)
૧૬/૨૯/૧૯-૨૪.
भगवान वा भगवान के संता । दया जन पर लाये अत्यंता ॥
उद्धार करे तब होत उद्धारा । ता बिन बंध भये सब द्वारा ॥
बंधे आपसे छुटे ऐसे । आज दिन लग न देखे तेसे ॥
सिंह जेसे बलवंत न कोउ । लोह की अजारी में परे तोउ ॥
च्हाय तितने करे उपाया । आपके बल न चलत रहाया ॥
पाप ताके अज्ञान रूपा । अंधकार रहाये कूपा ॥
संत बिन ताके न कोउ उपाया । रातदिन इनसे डरत रहाया ॥
तीर्थव्रत दान पुन्य जेहा । करत रहे दिन दिन तेहा ॥
बंधन से अधिक बंधन होवे । एसे करत रहे पिछे न जोवे ॥
जे दिन ते दिन हि तेही । साचे संत तिन के एहि ॥
करहि विश्वास जबहु । बंधन से संत छोडहि तबहु ॥
बात रहे सिद्धांत यह, सिद्धांत ना फिर जेउ ।
बंधन जीय के रहे सब, तिलभर फेर न तेउ ॥
मोक्ष करन हित जीय के, अगनीत जो अब वेर ।
साचे संत जो जितने, जुदे रखे बहु पेर ॥
मिथ्या संत के माहि, साचे संत मिल जाय जब ।
सब एक मूल रहाहिं, मिथ्या कुन रहेउ तब ॥
दिनमें मिलत न रात, रातमें दिन न मिलत कबु ॥
विचार करे एहिभांत, एहिवेर हमहि जो अब ॥
रात-दिन रहे जिस रीता । सत्संग कुसंग तिस रीता ॥
जुदे हि तिहां लग भगवाना । सत्य वर्तन रूप रहाना ॥
सत्य वर्तन रहे जीहाँ जितना । भगवान के वास तिहां तितना ॥
रतिभर यामें न फेर रहाये । सिद्धांत यह बात ठेराये ॥
ब्रह्मा जेसे आवे अपारा । फिरे नहि जो बात लगारा ॥
एसी बात सिद्धांत कहाते । फिर जावे सिद्धांत न रहाते ॥
सत्संग के नियम में जेहु । जिहां लग जनहि वरतहि तेहु ॥
तिहां लग मोक्ष होवहि ताके । हमारे वचन करके वाके ॥
एसि हरि कहत रहेउ बाता । हरिजन जेते सुनत रहाता ॥
(૧૬/૪૫/૨૦-૩૫)
૧૬/૫૫/૧-૩.
૧૭/૧૭/૩૨-૩૫.
भगवान जो ताके, एकांतिक संतहु के ।
शरन बिन जो वाके, ज्ञान की गम न परत कबु ॥
भगवान अरु भगवान ताके । साचे संत रहाये वाके ॥
ज्ञान के दोनुं नेत्र रहाये । दोनुं नेत्र बिन अंध कहाये ॥
दो में एक के जोग बिन हि । ज्ञान साचे न पावत किनहि ॥
दो के जोग बिन विधि जैसे । समृथ भये तोउ कहा तैसे ॥
अज्ञान बंधन होत न नासा । अज्ञान के एसे रहे दृढ पासा ॥
सभा में जेते बैठे विद्वानां । हरि की बात सुनिके काना ॥
अति आश्चर्य पाये मनमांहि । बोलत भये तबहि तांहि ॥
तुमहि सत्य रहे भगवाना । बातमें हमारे आये जाना ॥
(૧૮/૫૦/૨૮-૩૨)
૧૯/૧૩/૩૯-૪૦.
૧૯/૫૯(૫૮)/૧૦-૧૬.
૨૧/૭/૧૦-૧૧.
૨૧/૩૩/૨૨-૫૦.
૨૧/૪૧/૪૨-૪૫.
૨૧/૪૪/૫૫-૫૬.
૨૧/૫૧/૯-૧૧.
૨૧/૬૨/૨૯.
૨૧/૭૧/૨૦-૨૪, ૩૩.
૨૧/૮૭/૫-૭.
૨૨/૨૭/૩૩-૩૬.
૨૨/૩૭/૩૩-૩૪.
૨૨/૧૦૩/૫૯-૬૬.
૨૪/૫૧/૧૫-૧૭.
૨૪/૫૧/૨૨-૨૮.
૨૬/૮/૩૪-૩૬.
૨૭/૪૬/૨૭-૩૨.
श्रीहरि तब बोलत हि भयेउ । सत्पुरुष के चिह्न हे तेउ ॥
संत के आश्रय करत जेता । नारी-नर कहावत तेता ॥
संत में अनंत तीर्थ रहीता । ताकि सेवा जेते करीता ॥
भाव, प्रीत, सेवा तामें । भगवान प्रगट रहायेक यामें ॥
चाय तितना जन पाप कराता । सेवा करत ताके बलि जाता ॥
सेवा में जितना मंद भावा । तितना पाप हि दुःख देखावा ॥
सत्पुरुष हि ताके, जोग बिन कोटि कल्प लग ।
असत् जन जो वाके, मोक्ष न सत्य बात कहत ॥
(૨૭/૬૨/૨૯-૪૦)
૨૭/૬૩/૨-૭.
૨૭/૭૯/૨૯.
૨૮/૫૦/૫, ૧૩-૧૫.
૧/૭૭/૨૬-૩૨.
૩/૩૬/૩૪-૩૬.
૩/૬૧/૪૩.
૪/૨૬/૩૫-૪૧.
૪/૩૧/૨૭-૩૫.
૪/૪૦/૪૧-૪૩.
૪/૪૫/૫૦-૫૨.
૪/૫૮/૧૬-૧૮.
૪/૫૯/૮-૧૨.
धर्म, भक्ति, वौराग्य हि ज्ञाना । ताको न रहत ठिकाना ॥
दिन दिन अधिक रहे हें चारी । हम अंतर में देखे धारि ॥
हरि लोक में श्रद्धा जाकुं । धाम के लोक समझना ताकुं ॥
लोक मानो न मानो कोई । तिन सें न झांखे परे सोई ॥
वखानो न वखानो कोउ । ता संग वैर न बांधे सोउ ॥
एसि रित के जन हि जेता । हरि के धाम के जानना एता ॥
(૪/૭૨/૬-૧૨)
हरिजन-नेत्र हैं संत, आत्यंतिक मोक्ष करन हित ।
संत बिना न देखंत, समय अलौकिक आवे यह ॥
भव-ब्रह्मादिक देव, जाकी पूजा सो चहत नित ।
ताकु मिलत न सेव, सो तुमने सेव कियेउ सब ॥
(૪/૭૮/૩-૪)
૫/૪૭/૩૬-૩૯.
૫/૨૮/૨૦, ૨૨.
૫/૬૬/૩૦-૩૨.
૭/૬૧/૨૩.
૮/૪૨/૮-૧૦.
हरि विन चाह न रखत जेहा । श्रीहरि निकट वसत तेहा ॥
हरि बिन चाह जितनो जाकु । तितनो दूर रखत हरि ताकु ॥
खातो जिय को तपासे जबहु । ऐसो हिसाब मिलत हें तबहु ॥
संत की करे सेव जेहि वारा । तर्त जिय को हरि करत उद्धारा ॥
मोक्ष होवन की नहि एक रीता । तीव्र, मध्य, मंद सेव लहिता ॥
जो समझु होई जेहि प्रकारा । ताको मोक्ष करे तेहि अनुसारा ॥
हरि में मोक्ष की रीत अनंता । अक्षर मुक्त न पार लहंता ॥
हरि की मरजी जानत जन जेहु । परम एकांतिक एसे हें तेहु ॥
हरि को रखत विश्वास हि एका । सब सें अधिक कहत जो विवेका ॥
हरि रखे जेहि विधि जाहि । तामें रहेनो मगन सदा हि ॥
इनसें पर नहि मोक्ष कोउ, ब्रह्मा कहे पोकार ।
शेष कहत पोकार के, निश्चे एही निरधार ॥
हरि की मरजी अनुसार हि, वरतना तत्पर होई ।
जिहां दिये निवास हरि, अक्षरधाम हें सोई ॥
हरि की मरजी जोई, अक्षर सें अनंत अधिक ।
रखे त्युं रहना सोई, कोटि गण दुःख सो सुख अनंत ॥
संत की करत सेव, दुःख आवो सो आवो अब ।
ताकु सुख मिलहि अभेव, चितवे विन सो आई कर ॥
(૯/૨૧/૨૭-૪૦)
૯/૩૬/૨૯-૪૨.
संत की सेव को फल हे भारी । कोटि कोटि अघ दिये जारी ॥
नारद दासीपुत्र रहाये । संत सेव कर संत कहाये ॥
प्रह्लाद दैत्य के सुत रहावा । संत प्रसंग से संत कहावा ॥
अक्षर से संतता गुन अधिकाई । संतता दुर्लभ कहत हरि ताई ॥
अनंत साधन कहावत जेते । संतता तामे रहे हें तेते ॥
अनंत गुन साधन अनंता । संतता से सब शोभा लहंता ॥
संतता न आई ज्यां लगहि । गुन साधन सो न सोहत त्यां लगहि ॥
संतता विन हरि रहत दूरा । उर में हें नहि भासत उरा ॥
(૯/૩૭/૨૧-૨૪)
संत मरजी तिमि चलत हें, संत करत प्रसन्न ।
सो जन हरि की हजूर हें, ऐसे अनेक वचन ॥
अल्प पुन्य नहि होत, साचे संत की जोग जोउ ।
तप से अनंत तन खोत, तब मिलत संत सेव तेहि ॥
संत को माहात्म्य जोउ, श्रीहरि विन जाने न कोउ ।
ओर जाने मति ज्युं सोउ, तिन गुन में वर्तत तेहि ॥
तिन गुन मति में आवे न जबहु । मति शुद्ध अति रहे सो तबहु ॥
तिन गुन पर संतकुं जब देखे । सेवा तब तिनकी आवे सब लेखे ॥
ता विन संत पर होये न भावा । गुन ज्यां लग आये देखावा ॥
(૯/૩૭/૨૬-૩૦)
૧૦/૫૨/૧૮-૧૯.
૧૧/૧૭/૪૦.
हरि बिन अधिक न कहे केहा । अनंत ब्रह्मांड के वैभव तेहा ॥
हरि के धाम विन वैभव जेता । मलवत देख सब जो तेता ॥
मलवत जानि भोगवे जितना । सत्पुरुष जानना तितना ॥
देह ब्रह्मांड लग कोउ मांहि । सुख न देखे भूले कबु तांहि ॥
जीय में होवे वरतन ऐसो । सत्पुरुष सो कहावत तेसो ॥
लोक कुं देखावन असत्य कहेवे । आपे द्रव्य वित्त ज्ञान कर लेवे ॥
असत्पुरुष सो कहत हि ऐसे । द्रव्य हित ज्ञान जानना तेसे ॥
(૧૧/૩૧/૧૮-૨૧)
૧૧/૩૧/૨૨-૨૪.
हरि विन रूप कहावत जितना । अति विष सम समझत तितना ॥
ओर न रखे हरि विन केहा । विषय में देखत दुख अति एहा ॥
रात दिन पंचविषय ताको । मूल उच्छेदत वेर वेर याको ॥
पंचविषय के मूल हि जोउ । पाताल से प्रकृति लग हें सोउ ॥
प्रकृति पर वरते ज्यां लगहि । पंचविषय न लोपे त्यां लग हि ॥
हरि संबंध कर क्रिया जितनी । प्रकृति पर जानना तितनी ॥
हरि सत्संग संबंध हे एका । जानत जाकुं परम विवेका ॥
गुरु संत हरिजन हि जेता । यामें आई गये सब तेता ॥
मोक्ष मति रखि सेवा करे याके । दूषित मति कबु होवे न ताके ॥
(૧૧/૪૧/૨૦-૨૫)
धर्मादिक हे वंश हि जेहि । तामें प्रगट रहत हें तेहि ॥
धर्मवंश हि अक्षर जो ताकु । एकता अखंड वर्तत वाकु ॥
ऐसे मत रहत कोउ ठोरा । हरि के संकल्प हे बड जोरा ॥
आरुणि उपमन्यु वेद जोहि । गुरु सेव से बडे भये तोहि ॥
(૧૧/૫૪/૩૦-૩૧)
सत्पुरुष की सेवा जोउ । असत्पुरुष कुं मिलत न सोउ ॥
सत्पुरुष भोमि विचरत जोहु । असत्पुरुष न देखत तोहु ॥
सत्पुरुष पर द्वेष उर लाई । वारि वार स्मरण करे ताई ॥
तो हुं मोक्ष फल ताकुं देवे । सत्पुरुष में गुन रहे एवे ॥
असत्पुरुष कुं सेवे अति भावा । कोई दिन न लेवे अभावा ॥
तोहु जावे सो नर्क में, जूठ न यामें लगार ।
प्रगट देखे आत तेहि, अंतर जेहि विचार ॥
कोटि कोटि करे पाप हि, सत्पुरुष एक वार ।
सेवे अति भाव कर, ताको करे उद्धार ॥
सत्पुरुष की सेव, अनल से कोटि प्रताप जुत ।
करत सद्य ही एव, उधार करत नहि वार लगत ॥
(૧૧/૬૩/૧૦-૧૫)
૧૩/૪૧/૨૧.
૧૪/૬૫/૧૮-૨૬.
सत्संग हि जो ताहि को, महिमा यथार्थ जोउ ।
जानत भयेउ देव सब, एसो न जानत कोउ ॥
हरिजन ते ते जानहि, संत के कर हि जोग ।
पढ़त और वेदपुरान हि, मिटत न भवदुःख रोग ॥
मिटत न भवदुःख रोग, साचे संत के जोग बिन ।
संत के कर हि जोग, भव भटकन तब रहत नहि ॥
सत्संग मोक्ष के द्वार, संत सो हरिजन जोउ ॥
प्रसिद्ध रहेउ धार, कुमति कुं नाहि देख परत ॥
(૧૪/૮૫/૩૭-૪૦)
૧૫/૧૦/૨૫.
बडे संत के करी प्रतापा । तरत जन हो जात निष्पापा ॥
साचे संत प्रताप हि जितना । भगवान के समझात तितना ॥
प्रताप संत में होवे अपारा । हरि के देखे न बुद्धि हि वारा ॥
आपमें प्रताप देखत जेते । मलिन संत अति जानना तेते ॥
मुवेकुं वचन करि के जिवावे । केतेक जनकुं सुत देवावे ॥
जो प्रताप आपमें देखावे । हरि के प्रताप मुख से गावे ॥
सनातन संत की रीत हि एसा । गरव कोउ वात के न लेशा ॥
अदने संत के दास रहावे । मन कर्म वचन एसे रखावे ॥
सब ब्रह्मांड के जन जेता । देवता के कहावत तेता ॥
पूजत आपकुं आई भावा । ताके गरव कबु न देखावा ॥
एसे संत मन धारत जेसे । होये विन निश्चे रहत न तेसे ॥
एसे संत कले नहि आते । दंभि कुं शिर नित फिरत लगाते ॥
भेट सामग्रि कहावत जेती । उपर उपर यह धरत तेती ॥
म्याना सुखपाल चारट लाई । गज तो रंग अच्छे जो ताई ॥
बेठावत अति भाव कर, साचे संत हि जानि ।
साचे संत रहे संग हि, पेचानत नहि प्रानि ॥
साचे संत प्रसन्न होत हि, जन के देख हि भाव ।
मन में खेद न पावहि, प्रबल रहे ठेराव ॥
पिंड-ब्रह्मांड से पर, वरतन निशदिन रहेउ ।
दुःख ताप गये तर, पिंड-ब्रह्मांड में दुःख रहे ॥
हरि के जेते संत, एसी वात में प्रित जेहि ।
समझ पाये बलवंत, ताप में देखात न, जरत तन ॥
(૧૫/૨૮/૩૦-૪૦)
૧૫/૪૩/૩૩-૩૪.
૧૮/૨૯/૫.
૧૮/૫૧/૮-૧૧.
૧૯/૩૮(૩૭)/૨૨-૨૩.
૨૦/૧૯/૨૯-૩૨.
૨૦/૪૭/૨-૩.
૨૨/૪૪/૨૧-૨૪.
तुमहि ग्रहेउ हाथ हमारा । उद्धार रहे अब हाथ तुमारा ॥
नृप प्रति हरि तब बोले ताई । हममें जेसे भाव रहाई ॥
साचे संतहि जितना, नारी हि धन से दूर ।
धर्म, भक्ति, वैराग्य जुत, हरि के ज्ञान हि उर ॥
चिन्तामनि कल्पतरु जो, ऐसे संत कहात ।
ता पर जैसे भाव यह, तेसे फल सो पात ॥
(૨૪/૬૭/૨૪-૨૬)
૨૫/૫૨/૧૪, ૧૭, ૧૮.
૨૫/૫૨/૨૪-૨૭.
૨૬/૧૦/૩૪-૩૫.
૨૬/૬૨/૨૨, ૩૬-૩૮.
૨૭/૩૩/૨૯-૩૦.
૨૮/૫૪/૭-૯.
૨૮/૧૧૦/૧૩.
૨/૩૮/૧૧-૧૫.
૩/૩૪/૪૨-૪૩.
૪/૧૦૯/૨૦-૨૩.
૫/૬/૩૧-૪૭.
૫/૩૬/૨૭-૩૬.
૬/૩૭/૭-૮.
૬/૭૯/૨૭-૩૩.
૮/૨૦(૧૯)/૩૧-૩૩.
૮/૨૧(૨૦)/૨૫-૨૬.
समर्थ संत मिलत हि जबहु । हित करि के जीय संग तबहु ॥
अजोग्य प्रकृति स्वभाव हि जेसा । त्याग करावत बोध दे तेसा ॥
अनंत वात से मोक्ष हि जेहु । ताको फल अपार हें तेहु ॥
सो फल को लोभ नकि जाहि । अंतर में होवे दृढ करि ताहि ॥
ताकुं प्रकृति स्वभाव हि, अजोग्य न रहे लगार ।
लोभ करिके मोक्ष के, देखे में आत अपार ॥
(૧૦/૭/૩-૧૨)
૧૦/૩૪/૧૩-૧૭.
૧૧/૫૬/૧૩-૧૬.
૧૧/૮૧(૭૧)/૮-૧૨.
૧૫/૫૯/૫-૧૪.
૧૭/૧૦/૫-૧૧.
૨/૬/૬, ૮.
૩/૩૦/૪૩-૪૮.
૪/૨૨/૧૩-૧૯.
૪/૩૬/૪૫-૪૮.
૫/૭૧/૨૮.
૬/૧/૩૭-૪૨.
૬/૫૪/૨૬-૩૬.
૮/૩/૪૧-૪૨.
૮/૩૨/૩૪-૩૮.
૧૦/૩૬/૧૬.
૧૧/૧૨/૧૬.
૧૧/૫૪/૬-૧૨.
૧૧/૮૨(૭૨)/૧-૧૨.
૧૧/૮૬-૮૭ [૭૭-૭૮].
सत्संग माने कुटुंब परिवारा । देह के कुटुंब दिये विसारा ॥
कुटुंब को त्याग किये जा दिन से । सुपने में न आये ता दिन से ॥
संत हरिजन कहावत जेता । सुपने में अखंड देखत तेता ॥
अक्षरधाम संत हरिजन जेहु । एक हि देखत इहां के तेहु ॥
(૧૨/૬૬/૫-૮)
૧૩/૫૪/૯-૧૧.
૧૬/૩૦/૧-૨૦.
૧૭/૪૩/૧૭-૨૦.
૨૭/૧૦૧/૬-૧૧.
૬/૪૩/૨૨-૨૫.
૬/૫૪/૧૯, ૨૪.
૮/૩૬/૯-૧૧.
૧૦/૨૬/૨૮-૩૦.
૧૫/૪૨/૧૬-૧૮.
संत से विरुद्ध वर्तन जाका । काव्य कीर्तन करे में पाका ॥
अहोनिश ध्यान करे मेरा । पलक न पारहि नेत्र हि केरा ॥
सो सब मोंसे विमुख कहावे । अंत समे तेहि हम नहिं आवे ॥
(૪/૧૮/૪૨-૪૬)
૪/૧૧/૨૨-૨૯.
૪/૭૪/૨૬-૨૮.
૫/૩૩/૧૭-૧૮.
૫/૪૨/૨૨-૨૪.
૬/૨૯/૩૧-૩૯.
૭/૧૦/૯-૨૩.
૯/૨૬/૩૫-૩૮.
૧૧/૮૦(૭૦)/૩૮.
૧૨/૪૮/૧૫-૧૯.
૧૪/૮૨/૧૨-૧૮.
૧૫/૮૧/૩-૫.
૧૮/૮૩/૨૧-૪૪.
૧૯/૨૨(૨૧)/૧૪-૨૭.
૧૯/૫૯(૫૮)/૨૯-૩૯.
૨૦/૧૫/૧૩-૧૪.
૨૫/૧૦(૧૧)/૧૨-૧૬.
૨૮/૫૪/૫-૧૩.
૫/૨૨/૩૦-૩૬.
૧૦/૫૨/૩૨-૪૦.
सूर्य रूप है धर्म की बाता | धर्म कुं हम माने हैं ताता ।
धर्म की पत्नी भक्ति जेहू । सो हम माने माता तेहू ॥
तिनके पुत्र जो ज्ञान-वैरागा । बंधु तेहि माने बड़भागा ।
तिनके वंश महा शांत कहावे । सो हमारो कुटुंब रहावे ॥
(૩/૩૩/૨૨-૨૫)
૩/૩૪/૫૧-૫૨.
૩/૪૧/૯.
तामें जन भ्रमात, निरधार होत न वात कोउ ।
जिहां तिहां लग जात, जेसे गुरु मिलहि तिमि ॥
गुरु को करे विश्वास, जाकि रूचि होय जीमि ।
गुरु बतावत तास, मोक्ष गुरु कि हें रिति भिन्नि ॥
हरि धरत अवतार जबहु । ता विन गम न परत कबहु ॥
पाखंड प्रभु कर होत अनंता। वर्तन करि आवत देखंता ॥
साचे कि दृढता होवत तबहि। जुठ प्रभु ओर चलत जबहि ॥
तेजवान काय हि केसा । साचे मति सम होत न तेसा ॥
लंबकर्ण पर होद्दा धारे । साचे गज न होत तेउ वारे ॥
सूर्य पतंग ओर पतंग अवंता । गनत ताको न आवत अंता ॥
ओर पतंग अंधकार न खोवे । नाम कर तेहि काम न होवे ॥
साचे सूर्य उदे होत जबहि। पतंग जुठ जनात तबहि ॥
धर्म कि करे वृद्धि जेहा । अधर्म के करे खंडन तेहा ॥
अदल नीति चलवे सुरिता । अनीति में न करे कबु प्रीता ॥
नारि, धन देखि न तनावे । चक्रवर्ति राज में न लोभावे ॥
पाताल सें पुरुष प्रकृति प्रजंता । बडे में बडो दुःख देखत रहंता ॥
ज्ञान विन कोई में न देखत लाभा । विन समझ सब कहत अलाभा ॥
ब्रह्मपुर में रहि मूर्ति जेहु । ताकुं साकार कहत तेहु ॥
स्वधर्म रखि ताको ज्ञान करावे । हरि बिन ऐसो कोउ न आवे ॥
उत्तम विषय प्राप्त होय तोउ । तिनसें अलग रहेवे सोउ ॥
अलग को हे ऐंधान यह, अति प्रसिद्धि हि जान ।
मनवांछित होय वास तब, रंच न दुःख उर मान ॥
खानपान धन नारि हित, कबहु न करहि जत्न ।
सन्मान कोउ न करत कबु, तोहु रहत हें मग्न ॥
ऐसो जीवसें न होय, ऐसो न होवत सिद्ध तेहु ।
मुक्त हि होवे जोय, तोहु मानकि रहत रुच ॥
एहि वर्तन हें ऐंधान, ओर सामृथ हें अनंत तेहि ।
एहि निश्चे भगवान, अंतर में एसे देखात सब ॥
(૪/૬૬/૨૭-૪૦)
૫/૧૯/૧૮-૨૪.
૫/૩૩/૧૭-૪૦.
૫/૭૨/૨૮-૩૦.
हरि वा साचे संत हि, प्रगट होत जेहि वार ।
तेहि मुख सुनत शास्त्र जब, तब जन होत भव पार ॥
नारी धन-संग्रह करत, ऐसे गुरु अपार ।
तिनसें न भवजल तरत कोउ, शरन लेत नरनार ॥
त्यागी गुरु सरस, शास्त्र में किये ठोर ठोर तेहि ।
तरत हो जावत नरस, धनत्रिया को होत जोग जबे ॥
गुरु होवे जेहि, धनत्रिया ताकुं प्रथम मिलत ।
ता विन जग में केहि, त्यागी गुरु धन त्रिय हीन ॥
धन त्रिया को जोग रहे जेहा । ईश्वर कुं डाग न लगे केहा ॥
धन त्रिय हे अनल समाना । भस्म करे संग करत माना ॥
अनल मादक विष हि व्याला । परस विन कबु चढि न हाला ॥
नारी धन देखत चढ़ि जावे । पलक में सुध बुद्ध भुलावे ॥
चढे पिछे नियम रहे न कोऊ । तर्त फजित कर डारे सोऊ ॥
बडे बडे त्यागिगृहि जेते । नारिधन फजित किये तेते ॥
नाम निमेष लिखे हे ताके । त्यागी जनकुं जनावन वाके ॥
ताकी रीत जोई कर त्यागी । नारी धन में न होवे अनुरागी ॥
गुरु वचन कहे सो वेरी । तोऊ त्यागी पिछें देवे फेरी ॥
तेहि कर गुरु वचन को कबसा । त्यागी पूरे सो त्यागे तबसा ॥
धन-त्रिय से त्यागी रहे दूरा । ताकुं त्यागी जानना पूरा ॥
ईश्वर की कछु बात न करना । ओर के दोष करे सब जरना ॥
आकाश सम सब गुन हे वाहि । कोउ न दाग लगे कबु ताहि ॥
भक्त बोले तेहि वार, बड़े बड़े संत अवतार जेहि ।
गनत न आवहि पार, सो सबके हो बीज तुम ॥
(૬/૮૫/૧૪-૪૦)
श्रीहरि घनश्याम हि, भक्तवत्सल कृपाल ।
हरिजन सें बोले हेत कर, दीनबंधु प्रतिपाल ॥
तुमारो धन्य भाग्य हि, मिले यह सत्संग ।
सत्संग बिन अभिमानी जन, लहत दुःख सो अभंग ॥
कुमारग में चलत, यह लोक में जन जोउ ।
केसो चहे सुख लहंत, नाक-कान शिर खोत तरत ॥
एसो दुःख गिने पार न आवे । यह लोक में प्रसिद्ध देखावे ॥
देखत दुःख तोहु त्रास न लेशा । कुमारग में चलत हमेशा ॥
आचार्यगुरु मत जग में जेते । कुमारग न निवारत तेते ॥
निजकुं रुचत कुमारग जबहु । शिष्य कुं निवारत नहि तबहु ॥
आचार्य गुरु भये फेल अपारा । फेल करन ब्रह्म बनत गमारा ॥
फेल करे सो ब्रह्म न होवे । गुरु होई ओर के जनम विगोवे ॥
गुरु होई ब्रह्मचर्य कुं रखावे । ऐसे गुरु सो ब्रह्म कहावे ॥
फेल रु केफ व्यसन हि जेता । गुरु न करे करावे तेता ॥
हिंसामात्र न करत, न करावे । ऐसे गुरु ब्रह्मरूप दरशावे ॥
भक्ति, धर्म, ज्ञान, वैराग्य पूरा । ब्रह्मरूप गुरु जानना शूरा ॥
दिन-रात हरिसंबंध हि ज्ञाना । कथा कीर्तन करत रहाना ॥
तामें तृप्ति कबहु न पावे । दिन दिन चढा रंग अधिक रखावे ॥
कामी अरु लोभी जन हि जेसे । तृप्ति न पावत पलहि तेसे ॥
हरि के चरित्र हि सागर मांहि । झिलत रहे बार निकसत नाहि ॥
मीन ज्युं मगन सिंधुके संगा । आनंद खेल महिं करत अभंगा ॥
तामें सुं निकसे पल हि बारा । तब आनंद न रहत लगारा ॥
ब्रह्मदशा के चिह्न हि, एसे हें जो अपार ।
भगवान विन नहि वात हि, करत न मुख उच्चार ॥
शुक सनकादिक शिव हि, ब्रह्मदशा शुद्ध पाये ।
जडभरत कपिल हि, दत्तात्रय श्रेष्ठ कहाये ॥
तिनको जोना एह, ग्रंथ में लिखे हें प्रसिद्ध तेहि ।
जाकुं होय उर चाह, ब्रह्मदशा में सो ग्रहन करत ॥
मुख से कहे में ब्रह्म, ऐसे ब्रह्म नहि होत कोउ ।
सबुद्धि लहत यह मर्म, कबुद्धि चलत नहि राह यह ॥
(૮/૨૬/૧-૧૬)
सो गुरु साचे जग में जानो । धन नारी में न मन बंधानो ॥
जग में गुरु हें दोउ प्रकारा । एक त्यागि एक गृहिधर्म धारा ॥
त्यागि गुरु की रीत हे ओरा । धन हित सो न करहि दोरा ॥
गृही होई धन-नारी हिता । उद्यम रहे सो जितनो करिता ॥
तितनो तामें दोष कहावे । लोभ ताकुं सो देखे न आवे ॥
निर्लोभ वर्तन रखत हि जाहि । शिष्य बहु धन देवत हें ताहि ॥
घर घर मागत धन हि जेहु । लोभी गुरु सब कहेवत तेहु ।
(૯/૪૦(૪૧)/૨૦-૨૪)
૯/૪૧(૪૦)/૨૦.
૧૧/૩/૩૧-૩૨.
क्षुधा तृषा सित घाम, सहन करि घरकाम करत ।
करत न पल विश्राम, गुरु सेव में प्रेम अधिक ॥
गुरु सुखदुःख हि पूछे न कबहु । गुरु के अवगुन लिये न तबहु ॥
प्रेम से सेवा करे बहु काला । ता पर गुरु तब रिझे तत्काला ॥
परम श्रेष्ठ मोक्ष तेहि दीने । वेदशास्त्र में सर्वज्ञता कीन्हे ॥
धर्म भक्ति जुत दिनेउ ज्ञाना । सेव में गुरु के मन जब माना ॥
जोग्य अजोग्य टेल जो जेती । करन परीक्षा कराये तेती ॥
गुरु के अभाव न लिए कोउ रीता । बहु बहु रीत परीक्षा करीता ॥
गुरु निर्दय होई सेवा कराये । कोई में पिछे पग न धराये ॥
गुरु के अभाव तोहु न लीन्हा । देव जानि के सेवा कीन्हा ॥
सेव से वेद तेहि ब्रह्म सम भयेउ । सेवा को माहात्म्य ऐसे रहेउ ॥
वेद सम हरिजन करे सेव जेता । ब्रह्मरूप हो जावे तेता ॥
गुरु संत के दोष लेत जाहि । सत्संग करत घटत हि ताहि ॥
गुरु संतकुं देखे जिस भाँति । हरिजन में गुन आवे तिस जाति ॥
गुरु संत कुं सेवे देव समाना । हरिजन बढे सो परम सुजाना ॥
धर्मभक्ति आदिक परिवारा । तामें वसत लगत न वारा ॥
पुरुषोत्तम के सदन सो होवे । गुरु संत के दोष न जोवे ॥
दिन दिन बढत सो जात अपारा । सत्संग करत जेहि शुभ विचारा ॥
(૧૧/૫૬/૪-૧૬)
૧૧/૫૮/૨૮.
जेसे जाकुं मिलत गुरु, तेसे ताकुं कर देत ।
दैवत ते तो मूल तेहि, बुद्धि जेसे जोई लेत ॥
ब्रह्मविद्या हे अपार हि, अमायिक सब हि तेह ।
अमायिक गुरु मिले विन, सिद्ध न होवत एह ॥
ब्रह्मविद्या की बात, जेति जेह कहात जोउ ।
अमायिक गुरु सिखात, मायिक गुरु न सिखात कबु ॥
पंचविषय चौद लोक के जेते । सार न माने एकहि ते ते ॥
प्रकृतिपुरुष लग कहावत जेतो । अधिक आश्चर्य मनात तेतो ॥
काल चविना देखत निहारि । ऐसि मति जाकि वर्तत भारि ॥
अमायिक गुरु कहत हें तेहा । श्रीहरि विन साच देखे न जेहा ॥
श्रीहरि धाम सामे रहे जेता । अमायिक सो कहावत तेता ॥
हरि इच्छाकर भोमि पर आवे । तोहु तेह अमायिक कहावे ॥
अमायिक हरि स्वरूप सदाई । ताके जो जो चरित्र हि ताई ॥
मायिक सम न कहे मुख कबहु । मायिक सम नहि देखे जबहु ॥
हरि अरु हरि के जेते चरिता । भक्त हित हि जेते करीता ॥
प्रगट हरि के भये जोग हि जाहि । संत हरिजन ते ते ताहि ॥
अमायिक कर देखे सब तेहु । अमायिक जन जो कहावत तेहु ॥
सुलट समझ मोक्ष दाई जेति । ब्रह्मविद्या सो कहावत तेति ॥
उपनिषद मात्र हि जितना । हरि के चरित्र कुं दीन होई तितना ॥
मगन होई कहत गुन गाना । तेहि करि तेहि अधिक रहाना ॥
हरिसंबंध हें ताके नामा । यह लोक परलोक हि रहाता ॥
ब्रह्मविद्या हें ताके नामा । अर्थ जान विन लहत न ठामा ॥
इतनी करि हरि बात, संत हरिजन मगन भयेउ ।
चले जन हरि गुन गात, श्रीहरि बैठे अश्व पर ॥
(૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૨૫-૪૦)
जो जिनसे समर्थ हि होवे । ताकी वात विचारी के जोवे ॥
तब ताकुं तेहि वात देखावे । ओरकुं नहि देखे में आवे ॥
जो समर्थ जब आवत जेहा । निज साम्रथ तब जनवत तेहा ॥
तेहि कर जिनमें साम्रथ जेता । देखाई प्रगट आवत तेता ॥
ताके नजर में आवत जेसे । फेरवत सो वर्तन हि तेसे ॥
वर्तन में जाकुं खप जेसो । प्रगट देखाई आवत तेसो ॥
सोवर्ण में दैवत जितनो, अनल कसोटी जोउ ।
कहि देवत हे तितनो, ता विन कहे न कोउ ॥
वर्तन हे अनल कसोटी ही, वर्तन से जन हि जेसो ।
देखे में आवत तर्त ही, तामें न रह हें अंदेशो ॥
एक धर में धोरी, जोरे होत न परख तेहि ।
विविध धर में जोरी, परखत होत हें जिमि जोउ ॥
तेसे आश्रित जन, त्यागी गृही जो कहात तेहु ।
प्रसन्न होई के मन, वर्तावहि गुरु समर्थ जोउ ॥
सोवर्ण आदिक धातु में जेहा । तामें एक घाट नहि तेहा ॥
काष्ट पाषाण मृत्तिका तामें । घाट एक न देखात यामें ।
कपास में घाट देखात न एका । ताके गुरु जब मिलत विवेका ॥
तब एक सें घाट अनेक रचावे । तेसे सम्रथ की रीत रहावे ॥
जग में क्रिया हें अनेक प्रकारा । सबके गुरु हें न्यारा न्यारा ॥
तेसे मोक्षदाता गुरु जोउ । प्रगट जग में एक हि सोउ ॥
मोक्षदाता गुरु ताके जेहि । जे जन शरण आवत हें तेहि ॥
त्यागी गृही जो जो जेता । भवतारन जनकुं होवत तेता ॥
वचन में एसो रहे प्रतापा । अनंत जन्म के छोरावत पापा ॥
समर्थ विन नहि पाप छुटावे । पाप छुटे सें परख हि पावे ॥
पाप छुटे की परख हें एसा । धर्म में मति करत प्रवेशा ॥
धर्म रुचे मोक्ष अनुसारी । मोक्षरुप भक्ति लगे प्यारी ॥
मोक्षरूप ज्ञान वैराग्या । तामें अति होवे अनुरागा ॥
तेहिकर दैहिक क्रिया जेती । पवित्र होइ जावत हे तेती ॥
बाहिर शुद्ध अंतर मलीना । क्रिया में सो आवत चीना ॥
(૧૨/૧૯/૧૦-૨૪)
पात्र विन ब्रह्म के गुन भारी । उन्मत्त होइ जावत नरनारी ॥
पाप मात्र कहावत जेते । ब्रह्म कुं कहत अडे न तेते ॥
मांस मदिरा परत्रिय संगा । निर्भय करत भये अभंगा ॥
ब्रह्म को गुन हि हें एसा । विषय मारग न चलना तेसा ॥
विषय में जब देखे असारा । तब ब्रह्म के गुन आये सारा ॥
विषयासक्त ब्रह्मज्ञानी जोई । कृष्ण कहे मम दास न सोई ॥
ब्रह्मद्रोही मम द्रोही तेहु । श्रीकृष्ण मुख से कहे एहु ॥
एक से साधन बहु को, इतनो फल कहेउ ।
विषय से तोडी राग सब, आत्मा होना तेउ ॥
आत्मनिष्ठ होई कर, भगवान में करना प्रीत ।
ब्रह्मनिष्ठ हम कहत तेहि, इतनी बात हि नवीन ॥
(૧૨/૫૩/૬-૧૪)
૧૩/૫૮/૩૩-૩૬.
૧૫/૩/૨૯-૩૩.
૧૫/૧૯/૧૩-૧૫.
૧૬/૩૬/૧૮-૨૯.
૧૬/૪૩/૩૪-૩૫.
૧૬/૫૦/૩૮-૩૯.
૧૮/૨૧/૧૯-૨૨.
गुरु बिन कोउ बात के ज्ञाना । होवत नहि रहत अज्ञाना ॥
हरि बिन देखत ओर में सुखा । सुख एहि रहाये दुःखा ॥
साचे संत मिलतहि जबहि । मोक्ष के मग देखावत तबहि ॥
विद्या अपार रहेउ तामें । मोक्ष की विद्या अधिक हें यामें ॥
जो जो बात रहाये तिनमें । मोक्ष मग अधिक रहे इनमें ॥
मोक्ष के मग न चले जिहां लगहि । एक बात न किये तिहां लगहि ॥
(૧૮/૩૨/૨૦-૨૪)
૨૪/૫૧/૧-૧૪.
૨૫/૪૦/૩૪-૩૮.
૨૬/૨૭/૩૩-૩૮.
(૨૬/૩૯/૧૫-૧૬)
(૨૭/૪૮/૧૯)
(૨૮/૫/૧૮-૨૬)
૧/૭૨/૩૭-૩૮.
૧/૭૨/૨૯-૪૨.
૪/૧૦૮/૩-૪.
૮/૬૦/૧૫-૩૬.
૯/૧૧/૭-૧૩.
नियम सत्संग के जितने, तामें रहि तत्पर ।
हरि के वचन जिसविध, तेंसे सेवे गुरुवर ॥
जेसे सेवक को भाव हि, गुरु उपरि रहाय ।
तेसे गुरु तेहि शिष्य की, संभावना रखे सदाय ॥
गुरु-शिष्य को नेह, दिन-दिन सो बढत अति ।
तामें मन चोरे जेह, तब सो घटत घटत अति ॥
गुरु के लच्छन यथार्थ जेहा । पाले सो साचे गुरु तेहा ॥
त्यागी की रीत सो त्यागी रहावे । शास्त्र में प्रसिद्ध सो कहावे ॥
तामें धन त्रिय वंत गुरु जेही । भव ब्रह्मा सम समर्थ तेहि ॥
तोहु बंधे गुरु कहावत तेहु । शास्त्र को सिद्धांत सब एहु ॥
(૯/૨૩/૨૫-૩૧)
गुरु होई बैठे जग में जेहा । रहस्य न समझे मोक्ष को तेहा ॥
सो गुरु अंध हि तम कहावे । नियम धर्म विन जमपुर जावे ॥
गुरु के मोक्ष हि होवत जेसा । शिष्य के मोक्ष हि होवत तेसा ॥
यामें संशय कछु न रहाये । सो कहत नजर हि देखाये ॥
गुरु कुं जथार्थ होय हरिज्ञाना । धर्मनियम ता पर होय ताना ॥
धर्मनियम में शिष्य कुं चलावे । आपे वर्ते शिष्य कुं वरतावे ॥
ऐसे गुरु शिष्य को होत उद्धारा । यामें संशय नहि लगारा ॥
ऐसो सत्संग होवे जेहि ठोरा । हरि निश्चय प्रगट तेहि कोरा ॥
आचरण करि देखे में आवे । जेतो जामे दैवत रहावे ॥
चक्रवर्ति करि के जो नामा ॥ चक्रवर्ति न होत कोउ ठामा ॥
हरि किये हरि होत नहि, गुरु किये गुरु न होत ।
संत भये संत न होत हि, गुन कर होत उद्योत ॥
जेसे गुन रहे जाहि में, एसी हे वात अपार ।
तेसे प्रकाश हि होत तेहि, सूर्य जैसे उजियार ॥
(૯/૨૪/૧૭-૨૭)
सब जनको कल्याण हि इच्छे । जो जन आई प्रीत से पीछे ॥
आपको बुरो करन कोउ धारे । तोहु ताको हित विचारे ॥
हरि कुं लगत सो प्रिय भारी । देखत समीप तेहि वार हि वारी ॥
निष्कपट निरदंभ हि, कुटिलता नहि मन लेश ।
ईर्षा मत्सर विन मान हि, धर्म जुक्त विन क्लेश ॥
निष्काम रहे निर्लोभ, निःस्पृह रहे सरल चित्त ।
निःस्वाद इन्द्रि सब माहि, परम गुरु के चिह्न यह ॥
ताके मन जो वचन, श्रीहरि मोक्ष सो करत तेहि ।
होवत अति प्रसन्न, मोक्षरूप गुन हि जानिकर ॥
मोक्षरूप गुन के जेहा । जन को मोक्ष हि होवत तेहा ॥
कल्यान मोक्षधाम एक कहावे । नाम करि भिन्न भिन्न रहावे ॥
सब के कारन हें हरि प्रधाना । शुद्ध धर्म तहां हरि रहाना ॥
दूर जो निकट हरि रहत तब हि । ज्ञानी गुरु सो जानत सब ही ॥
दूर निकट हें भक्त के भावा । भाव तेंसे आवत देखावा ॥
निकट देखावो न देखावो कबहु । निकट तोकुं हरिकुं देखत दिलहुं ॥
ताके निकट हरि को वासा । प्रेमीजन जानत ऐसे दासा ॥
उद्धव स्वामी को मत है जेहु । हमकुं प्रिय लगत हे तेहु ॥
धर्म, भक्ति, ज्ञान, वैराग्या । धन त्रिय ही त्यागी कुं हे त्यागा ॥
जथार्थ शास्त्र में कहे जेहि भाँति । शुद्ध रीत जो यामें रहाती ॥
(૯/૨૬/૨૩-૩૫)
૧૧/૭૦/૩૩-૩૭.
૧૩/૩૦/૨૧-૨૪.
नियमधर्म विन जितने जेहि । गुरु देखे में आवे तेहि ॥
ढिमर सम देखत सो पापी ताकु । शुद्ध अंकुर उर रहे जाकुं ॥
नियमधर्म जुत जितने, प्रगट हरि पर तान ।
साकार रूप कुं मान हि, सो गुरु मोक्ष आन ॥
(૧૩/૪૧/૩૬-૩૭)
૧૪/૨૭/૨૯-૩૦.
૧૯/૪/૯-૧૨.
૧૯/૪/૧૪-૧૬.
૧૯/૩૧(૩૦)/૨૩-૨૮.
૧૯/૩૨(૩૧)/૧૩-૧૯.
૨૦/૬૬/૨૫-૨૮.
संतता कि लोपत न रीता । संतता में जेहि मानत हिता ॥
संत साचे रहे जो जेता । भगवानकुं अधिक देखत तेता ॥
भगवानकुं अधिक जिहां लगहि । देखत संत तिहां लगहि ॥
भगवान तामें निवास करीता । पलक एक न दूर रहिता ॥
भगवान निवास करत जामें । प्रगट देखावत वरतन तामें ॥
नैन बेन में आत देखाई । पदार्थ हित न क्षोभ कराई ॥
जन मानो न मानो कोई । जन ताके माने कहा होई ॥
प्रतिष्ठा आप कि जो लगारा । बढावन हित न करत विचारा ॥
संत हरिजन कि प्रतिष्ठा जीमि । दिन दिन अधिक बढे तिमि ॥
मगन मगन मन रहे अपारा । ज्ञान ताके जेहि खोले द्वारा ॥
(૨૨/૪૩/૩૦-૩૫)
૧/૫૭/૫૭-૬૬.
૨/૪૩/૩૦-૩૧.
૩/૧/૫૬.
૩/૫૬/૧૫-૨૪.
૩/૫૮/૪૯-૫૦.
૪/૧૮/૪૯-૫૨.
૪/૩૩/૧-૧૭.
૪/૩૩/૨૭-૪૧.
૪/૩૫/૪૪-૫૩.
૪/૭૪/૩૩-૩૪.
૪/૮૩/૩-૭.
૪/૧૦૭/૧૯-૩૧.
૫/૧૨/૧-૧૦.
૫/૧૬/૯-૩૫.
૫/૩૬/૨૦-૪૦.
૫/૬૮/૩૮-૪૦.
૫/૩૦/૧-૬.
૬/૪/૨૫-૪૦.
૬/૮૨/૧-૨૭.
तेहि जानि साम्रथ रखे हे गोई । प्रभुता जिरवना कठिन हे जोई ॥
सब हि मद में मद हे भारी । प्रभुता जिरवना लगारी ॥
शास्त्र के वचन में वर्तना जेऊ । बडी प्रभुता समझना तेऊ ॥
शास्त्र कुं लोपि चले जाहि । अगम निगम बात कहेता हि ॥
कुकर शूकर गर्दभ की नाई । एसे कुं समझना मन मांई ॥
(૬/૯૯/૨-૯)
૭/૯/૨-૧૪.
सर्वोपरि है साधुगुन भारी । भगवान शिर हृदय रहे धारी ॥
साधु आगे भगवान हि जेहा । दीनाधीन रहत हे तेहा ॥
गुन अनंत कहावत जेते । साधुता में रहत हे तेते ॥
माया से पर अक्षर सुख रूपा । पुरुषोत्तम तेहि पर अनूपा ॥
पुरुषोत्तम साधु कुं जोई । आपसे पर मानत हे सोई ॥
साधु कुं हरि विन न अधिकाई । हरिचरन रहत लपटाई ॥
संत कुं हरि विन पूज्य न जोहुं । हरि कुं संत विन पूज्य न कोहुं ॥
भव ब्रह्मा अरु विष्नु हि, इन्द्रादिक देव जोउ ।
सिद्ध मुक्त गुन देत हरि, साधु गुन देत न सोउ ॥
साधु भये ताहि कुं, उद्वेग होत न चित्त ।
हरिमूर्ति रखे चित्त में, रहत हे सबके मित ॥
शांत सुखी कहे संत, संत विन नहि शांत कोउ ।
संत गुन है बलवंत, बलवंत गुन सो देना अबे ॥
(૭/૧૩/૫-૨૮)
भूमि पर संत धरत जे चरना । पाप तितनो होत निकंदना ॥
संत के चरण करि प्रतापा । तीर्थ अनंत होत निष्पापा ॥
तीर्थ सन्मुख संत चलत जबहु । सन्मुख तीर्थ आवत तबहु ॥
संत के चरण करत निवासा । होई के मन परम हुलासा ॥
संतचरण प्रताप अनूपा । जिय मात्र कुं करे पावन रूपा ॥
(૭/૪૩/૨૮-૩૨)
दोष आवत बड़े संत को जबहु । भ्रष्टमति हो जात हें तबहु ॥
कोउ संत को न गमत स्वभावा । रातदिन बोले अभावा ॥
तोहु न लहे शांति मन, ऐसो होत अपराधि ।
संतजन रक्षा करे तोहु, वधत हें पाप की व्याधि ॥
एसे होत विमुख तेहि, जग में होत फजीत ।
आदर देत जन अवर, मरत दुःखि होय चित्त ॥
मन बदले तब हो गये ओरा । एक स्थिति को रहे न ठोरा ॥
हरि अग्या को करत हे भंगा । तेहि कर बदल जात है अंगा ॥
संत कुं नमे वारमवारा । खप अंतर में होय जो लगारा ॥
खपवंत निज भूल विचारे । संतकुं नमी देत तेहि वारे ॥
संत को अभाव लेत तेहि करि के । सत्संग में सो न टके फरि के ॥
संत के भेले रहे दिनराती । नमे न सो जानना कुजाति ॥
(૮/૧૪(૧૩)/૮-૨૦)
૮/૩૪(૩૨)/૫-૬.
૮/૪૪(૪૩)/૪-૧૦.
૮/૪૯(૪૮)/૧૭-૩૫.
૧૦/૨૩/૨૨-૨૪.
૧૧/૧૨/૨૯-૩૩.
૧૧/૩૦/૨૯-૩૧.
૧૧/૩૬/૩-૨૮.
૧૧/૫૬-બ/૩૫-૪૦.
૧૧/૭૮(૬૮)/૩૦-૩૬.
૧૨/૫/૧૬-૩૫.
૧૨/૧૫/૧૫-૨૮.
૧૨/૧૭/૧૫-૧૬.
૧૨/૩૯(૩૮)/૧-૯.
૧૨/૭૪/૬-૯, ૩૮.
૧૨/૭૭/૨૧-૨૩.
૧૩/૫/૧૭-૨૪.
૧૩/૭/૧-૯, ૩૦-૩૮.
૧૩/૧૫/૧૫-૨૧.
૧૩/૨૨/૨૯, ૩૬.
૧૩/૨૪/૨૯-૩૮.
जिहां लग जीव सोउ, माया को संबंध रखत तेहि ।
मायारूप हि होउ, माया में रहत लीन होई ॥
माया को संबंध जीय जेसे । कर रहे एक रस होई तेसे ॥
तेसो जो रखे अक्षर हरि केरा । छुट जावे चोराशी फेरा ॥
(૧૩/૩૪/૮-૧૭)
૧૩/૫૦/૧૩-૨૨.
૧૩/૬૮/૨૮-૩૦.
૧૪/૨૦/૧૭-૨૨.
૧૪/૭૧/૧૩-૪૦.
संत होई हमार, नारी सन्मुख देखे जोउ ।
ताकुं कहत लबार, हरिजन जानत बात सब ॥
हमारे संत होई कर जेहा । नारी के सन्मुख बैठे तेहा ॥
नारी को रखे प्रसंग कोउ रीता । मति ताकी जानना विपरीता ॥
हमारे वचनरूप कोट जेता । उल्लंघन ताको करत तेता ॥
संत वर्णि संन्यासी जेहु । पदाति तोरि रीत कुं तेहु ॥
ताकुं करत सत्संग ब्हारा । एसि की म्होबत न रखत लगारा ॥
गमे तेसे होय गुनवाना । जीय गये पिछे काय रहाना ॥
(૧૪/૭૨/૧૬-૨૦)
૧૪/૭૨/૨૩-૩૭.
૧૪/૮૨/૧૫-૨૬.
मुक्तमुनि ब्रह्ममुनि हि, शिरोमनि संत दोउ ।
लोभ न रखत हें जाहि लग, शिष्य हि को जो सोउ ॥
शिष्य को लोभ जब कर लिन, परस्पर हित हि जेह ।
अमी दूर तबहि होवहि सो, अलौकिक हित नहि तेह ॥
(૧૪/૮૪/૧-૧૪)
૧૪/૮૪/૧૯-૨૩.
૧૫/૧૫/૯-૨૮.
૧૫/૫૩/૩૨-૪૦.
૧૫/૬૫/૨-૧૦.
૧૬/૧૩/૩૪-૩૯.
૧૬/૫૩/૨૮-૩૩.
૧૬/૫૫/૩૧-૩૪.
૧૭/૪૮/૧૬-૨૪.
૧૭/૭૮/૧૮-૩૭.
૧૭/૯૨(૯૩)/૧-૬.
૧૮/૧૪/૫-૨૫.
૧૮/૩૦/૪-૩૪.
૧૮/૪૮/૭-૧૬.
૧૮/૭૩/૧-૭.
૧૯/૭/૧-૪૦.
૧૯/૩૭(૩૬)/૧૩-૨૨.
૧૯/૫૬(૫૫)/૧૩-૨૩.
૨૦/૬૦/૧૫-૩૪.
૨૧/૬૩/૪૩-૪૪.
૨૧/૮૬/૧-૧૧.
૨૧/૮૭/૫.
૨૧/૮૮/૨-૨૦.
૨૧/૮૯/૨૫-૨૯.
૨૨/૧૧૧/૨૩-૨૫.
૨૫/૯/૨૪-૩૪.
૨૫/૧૦(૧૧)/૧-૧૯.
૨૬/૧૧/૩૫-૩૬.
૨૬/૪૩/૨૦-૨૪.
૨૭/૧૬/૨-૪.
૨૭/૧૬/૯-૧૪.
૩/૩/૩૨-૩૪.
૩/૫૮/૩૯-૪૨.
૫/૩૫/૨૯-૩૯.
૭/૫૮/૨૨-૨૬.
૮/૩૩/૧૦-૨૪.
૮/૪૫/૫-૧૫.
૮/૫૦/૧૭-૨૩.
૧૦/૨૪/૪-૭.
૧૦/૪૩/૧૭-૨૫.
૧૦/૪૪/૨૫-૨૮.
૧૧/૧૫/૯-૨૮.
૧૧/૨૦/૮-૩૧.
૧૧/૨૩/૨૯-૩૩.
૧૩/૮/૩-૨૯.
૧૪/૨૧/૨૯-૪૦.
૧૪/૨૩/૨૪-૨૬.
सत्संग में जेते, संत वर्णी रहे जो तेहु ।
अष्ट प्रकर के तेते, त्रिया का रखत त्याग हि ॥
धातु अष्ट प्रकार, ताके रखत हि त्याग यह ।
उच्छेदत वार हि वार, असत जितनी रीत रहेउ ॥
वर्तन शुभ होय जेहि ठोरा । हरि की बात विन जाय न पहोरा ॥
निश्चे तिहां जानना एसे । भगवान प्रगट रहे तेसे ॥
भगवान विन वर्तन हि जेता । साचे न रहावे कबहु तेता ॥
(૧૪/૪૮/૩-૧૦)
૧૪/૭૫/૨૨-૨૬.
૧૫/૭/૩૫-૪૦.
૧૫/૨૯/૯-૧૪.
૧૫/૩૨/૨૮-૩૫.
निरदंभ कपट रहित संत जेते । साचे संत कहावत तेते ॥
साचे संत हि हरिजन ताके । सत्संग के मूल रहेउ वाके ॥
साचे संत के हरि रहे मूला । एसे वात रहेउ अमूला ॥
माया के जीय में अनादि तेहु । माया सन्मुख दोर रहे एहु ॥
हरि अरु हरि के संत बिन कबहि । शुभ मग पर मति होत न किनहि ॥
तेहि हित वेर वेर हरि, जन के गिनत न दोष ।
अनंत जन तारन हित हि, प्रगट होत अदोष ॥
अदोष संत ले आत संग, हरि के करिके बचन ।
उद्धार करत अपार जन, शुद्ध करि तेहि मन ॥
(૧૫/૬૧/૨૪-૩૮)
૧૬/૬૨/૩૩-૩૯.
૧૭/૯-૧૦/૧-૫.
૧૮/૫૧/૨૯-૪૦.
૧૮/૭૬, ૭૭, ૭૮.
૨૨/૮૮/૧૨-૩૮.
૨૩/૮૧/૪૫-૪૮.
૨૬/૭/૩૧-૩૪.
૨૫/૫૧/૯-૧૧.
૨૬/૫૧/૨૭-૨૮.
तेहि भक्त सर्वोपरि, प्रगट स्वरूप में भाव ।
प्रगट स्वरूपकुं तज के, भजे सो कुमति कहाव ॥
मात तात जीव किन बहु, गिनत न आवे पार ।
जन्म लियो तेहि तजके, और पर रखे बहु प्यार ॥
सोई कुमति जन, जन्म भयो तेहि छोर देत ।
हो गये तेहि जोरे मन, परम सेव ओरकी करे ॥
पतिव्रता की रीत, प्रगट स्वरूप में बांधनो जीव ।
भक्त सो परम पुनीत, तेहि बिन भक्त व्यभिचारी सब ॥
(૪/૨૮/૪૯-૫૨)
૪/૨૯/૧-૨૮.
૪/૧૧/૪૫-૪૮.
૪/૪૨/૪૩-૪૮.
૪/૫૬/૧૧-૧૩.
तामें धर्म भक्ति वैरागा । अरु ज्ञान को चहिए अनुरागा ॥
ता बिन ब्रह्मविद्या जोऊ । फलीभूत न होवे सोऊ ॥
प्रगट उपासना दृढ जेहू । सबको मूल बीज हें तेहू ॥
मूल बीज से रहे अधीना । सोचत मोक्ष लहे कोउ दिना ॥
(૪/૮૯/૨૨-૨૩)
૫/૫૯/૧૪-૨૪.
૫/૭૨/૧-૨૪.
हरि कहे हम पिछें जेहा । सत्संग में आवहि तेहा ॥
हमारे वचन कुं मानहि जाहि । मोक्ष सो हम करहि ताहि ॥
हमारे चरित्र सुनहि जेहि । अति सुख हम देवहि तेहि ॥
हमारे जो वचन हि जितना । हमकुं सो जानना तितना ॥
हमकुं जानि पालहि जोई । वचनरूप ता पास हें सोई ॥
हमारि पास रहत दिन रेनां । सेवा करत रहत प्रवेनां ॥
वचन में न वरतहि जोउ । हमसें दूर तेहि जानत सोउ ॥
हमारो मत नकि हे एउ । सब हरिजन सो जानिके लेउ ॥
हमसें वचन हम मुख्य हि माने । वचन में हम अखंड ठाने ॥
यह तन जितनो काज रहावुं । सो पुरे करि कें चलि जहावु ॥
परोजन हित हे तन यह, परोजन भये न रहात ।
वचनरूप तन रहहि सदा, सिद्धांत कहि यह बात ॥
(૬/૭૩/૨૨-૨૭)
श्रीहरि मुक्तमुनि कुं, देह में लाए ततखेव ।
मुक्तमुनि सें कहत भये, वचन अमृत सम एव ॥
हमारो प्रगट चरित्र, तुमारे करना चिंतवन ।
सबसें परम पवित्र, प्रगट भये जांइ से अब ॥
एहि सम शांति न कोई, ब्रह्मसुख सें कोटि गनि हे यह ।
वचन हम कहत सोई, काव्य कीर्तन एहि करनो सदा ॥
(૬/૮૦/૨૬-૨૮)
૬/૧૦૧/૨૬-૩૨.
૯/૪૦(૪૧)/૩૪-૪૦.
૧૦/૯/૩-૧૨.
૧૧/૩૮/૨૨-૩૨.
૧૨/૩૭(૩૬)/૨૨-૨૪.
प्रगट हरि को निश्चय नाहि । शुभ आचरण केसो रहे ताहि ॥
शुभ जोनि कुं पावे तेहा । जन्ममरण न छूटे कबु एहा ॥
प्रगट हरि को निश्चय जाकुं । मुख्य शुभ मारग कहत ताकुं ॥
श्रीहरि को प्रगट निश्चय, हरि प्रगट जब जाहि ।
कहत है हरिजन तितने, कहावत हें भक्त ताहि ॥
जो जो समय भगवान जो, प्रगट होत जेहि वार ।
प्रगट हरि सो जानना, बात कहे निरधार ॥
भगवान प्रगट जिहां लगहुं, फेर होवहि तिंहा लग ।
प्रगट हरि तेहि रहत हि, समर्थ हि तारन जग ॥
ऐसी करत हरि बात, सत्संग में फिरत जिहां ।
सुनत जो जन रहात, धन्य धन्य भये भाग्य तेहि ॥
(૧૫/૩/૪૭-૫૩)
૧૫/૪૪/૩૭-૩૮.
૧૫/૬૯/૨૭-૩૦.
૧૫/૮૬/૩૫-૩૮.
૧૫/૯૧/૨૫-૩૩.
૧૫/૯૯/૨૮-૪૦.
૧૬/૪૩/૧૦-૧૨.
૧૭/૫૦/૧-૨૧.
૧૭/૮૨/૩૯-૪૨.
हिंडोरे बैठेउ, श्रीहरि तेहि आइ कर ।
प्रश्न हि पूछत भयेउ, संत सब ताकुं हितकर ॥
संत-हरिजन जेते, ध्यान, स्मरन, पूजन सबहि ॥
हमारो करत तेते, तामें मानत मोक्ष तुम ॥
हमारे बचन हि जेहि, हम संबंधि वस्तु कोउ ।
मोक्षरूप हि तेहि, मानत हो मन, क्रम कर ॥
हम हि न होवे जबहि, मुक्तानंद मुनि के जन ।
ध्यान करे यह तबहि, मोक्ष होय न होय कहो ॥
(૧૭/૮૨/૩૯-૪૨)
संत बोले तेहि वार सब, श्रीहरि से कर जोरि ।
उत्तर सूझत नहि प्रश्न के, हमारी मति हे थोरि ॥
श्रीहरि तब बोलत भये, संत प्रति तेहि वार ।
मंडल में मुखि संत जो, बोले करि के विचार ॥
एसि रीत के जीतने संता । प्रबल महा रहे बुद्धिवंता ॥
एक कोर बैठो तुम जाई । उत्तर विचारो सबहि ताई ॥
आशंका अरु उत्तर तामें । बुद्धि की परीक्षा होत यामें ॥
व्यावहारिक बुद्धि जिहां लगहु । रहत हे जनकी तिहां लगहुं ॥
जन्ममरण रहत तिहां लगहि । दुःख अति पावत इहां लगहि ॥
मोक्षभागि संत मिले जबहु । व्यावहारिक बुद्धि कुं तबहु ॥
मोक्ष परक बुद्धि कर देवे । मन, कर्म, वचन संतकुं सेवे ॥
भगवान ताकुं मिलन के, संत प्रथम हे द्वार ।
संत के समागम बिन हि, कोउ न भये भव पार ॥
तुम हो सबहि तिनकुं जो, पेले मिले जब संत ।
निश्चय जो हमारो तेहि, कराये बुद्धिवंत ॥
भगवान में गुन रहे एसे । अनंत ब्रह्मांड में केसे ॥
पाप होत तेहि देत जारी । पलभर में लगत नहिं वारी ॥
दारू ताके पुंज होय जेता । तिलभर अनल परे जो तेता ॥
जारि देवे एक पलक मांहि । प्रगट अनल के जोग कराहि ॥
हरि हरिनाम चरित्र हि जितने । प्रोक्ष कबु नहि होवत तितने ॥
मूर्ति प्रत्यक्ष प्रोक्ष कबहि । देखे में आत जबहि जबहि ॥
आश्चर्य चरित्र रहे तेहु । ब्रह्मादिक कुं गम परत न तेहु ॥
ओर जनकी रहे कहां बाता । कोइ कुं न आवत देखाता ॥
आप आपकी बात ताकी । कोउ कुं गम न रहे वाकि ॥
भगवान जितने देवे जाहि । तितनि गम कबु परे ताहि ॥
इतनि बात हि जोउ, श्रीहरि कर रहेउ जब ।
संत सब उठे सोउ, बैठे जाई दूर तबहि ॥
हरि के प्रश्न ताके, उत्तर परस्पर करत भये ।
निश्चय करि के वाके, सभा में बैठे आईकर ॥
(૧૭/૮૩/૧-૪૦)
श्रीहरि ताके प्रश्न कुं, भमते जितने संत ।
समजे नहि पुरे मर्म कुं, समझे तिमि उचरंत ॥
पढनेवारे संत में, नित्यानंद मुनि जेह ।
जथार्थ प्रश्न समझे यह, भमते न समझे तेह ॥
रमते साधु जो मांहि, समाधिनिष्ट जो संत जेहि ।
कृष्णानंद रहां हि, कृपानंद हि मुनि रहेउ ॥
कृष्णानंद हि जेहु, शुरवीर बोलत भये ।
सबसे प्रथम तेहु, प्रश्न के मर्म न जाने कछु ॥
प्रश्न कुं आप समझे जिस रीता । उत्तर करत भये तिस रीता ॥
तुम बिन हि ध्यान करे जेहा । व्यभिचारि ताकुं कहत तेहा ॥
ओर जन के नहि काम हमारे । हमारी समझ त्युं कहत प्यारे ॥
तुम सम ओरकुं समझे जबहि । हमारे जन्म व्यर्थ भये तबहि ॥
भमते संत रहाये जितना । एक रीत सब बोलेउ तितना ॥
पढने वारे संत जो तामें । नित्यानंदमुनि मुख्य यामें ॥
प्रश्न श्रीहरि पुछे जो ताके । ज्यार्थ तान हि जानत वाके ॥
प्रश्न के तान जानना जोउ । कठिनतर हि बात रहे सोउ ॥
तान निशान एक हि कहाते । ता बिन प्रश्न निर्जीव देखाते ॥
जिनकरि अपार जन जो केरा । मिट हि जावे चोराशि फेरा ॥
प्रगट हरि रहे जिस रीता । पिछे रहेउ एसे उदीता ॥
हरिकुं मिले जितने जो, बाई भाई संत ।
वर्णि संन्यासि पदाति हि, सनातन मुक्त रहंत ॥
हरि के संबंध भये बिन, बाई भाई जेउ ।
त्यागि संबंध बिन जीतने, तापर प्रश्न हे तेउ ॥
नित्यानंद मुनि जेउ, ताके उत्तर करत भये ।
जेसे सुझेउ तेउ, श्रीहरि सुनि प्रसन्न भयेउ ॥
जेसे प्रश्न रहेउ, तेसे उत्तर करत रहे ।
बडे संत रहे तेउ, ताके बचन सें मोक्ष होत ॥
वडे संत रहायेउ जेते । भगवान के बचन में तेते ॥
वरतत रहत मोक्षरूप मानी । बचन बिन मानत रहे हानी ॥
प्रगट मिले भगवान तिनके । ध्यान स्मरन करत रहे इनके ॥
जन्म से इनके चरित्र जीतने । स्वधाम जावत तिहां लग तितने ॥
निशदीन हि करत रहे गानां । चरित्र तामें अधिक रहे तानां ॥
ऐसे संतकुं मिलत न जेता । भोमि पर जन रहेउ तेता ॥
संतकुं मानत यह जीस रीता । मोक्ष ताके होत तिस रीता ॥
परिक्षित शुकके बचन करिके । चोराशिके दुःख गये तरिके ॥
प्रियवृत प्रल्हाद हि जेहा । उत्तानपाद ध्रुव सम हि तेहा ॥
दक्ष ताके पुत्र हि केता । नारद के बचन कर एता ॥
परम मोक्ष तेहि पावत रहेउ । चित्रकेतु आदिक हितेउ ॥
नारद दासिपुत्र जब भयेउ । संतकि सेवा बचन कर एउ ॥
केतके जन उध्धार करेउ । कहे में सब न आत बनेउ ॥
संत सें उध्धार भये जीतनां । शास्त्र में सब हि लिखेउं तितनां ॥
गोपिगोप श्रीकृष्ण तामें । हितकर मोक्ष भयेउ यामें ॥
उध्धव, पांडव, द्रुपहि ताके । मोक्ष हरिके संबंध भये वाके ॥
पुतना अघासुर, बकासुर, दंतवक्र शिशुपाल ।
सालव्य कंस वैर भाव कर, मोक्ष भये तत्काल ॥
वैर भाव कर संतसुं, एक हि जनके जोउ ।
मोक्ष भयेउ सुने वहि, सेवा सें भये सोउ ॥
संतके धर्म हि जे ते, तामें वरत हि दृढकर ।
हरि के दास जे ते, ताके दास वर्तत रहत ॥
संत हि ताके जोउ, श्रेष्ठ श्रेष्ठ रहे गुन जेहि ।
भंडार रहाये सोउ, गुन के नहि अभिमान कछु ॥
एसे संत की सेवा जितना । माहात्म्य रु श्रद्धा जुत तितना ॥
प्रगट मोक्ष रहाये एहा । समझ में तरत न आवत तेहा ॥
समझ में आये बिन उछाहा । आत न चलत प्राकृत राहा ॥
प्राकृत राह चलत जिहां लगहु । प्राकृत मति रहत तिहां लगहुं ॥
प्राकृत मति से प्राकृत सुखा । पावत रहे ते ता महिं दुःखा ॥
संत में दोष न रहे तिल भारा । जन में दोष रहे अपारा ॥
हरि बोले यह प्रश्न ताके । जथार्थ उत्तर भये अब वाके ॥
(૧૭/૮૪/૧-૩૧)
श्रीहरि हरिजन सब जो ताकु । संत की सेवा के अधिक वाकुं ॥
माहात्म्य कहत देखावत भारी । संत की सेवा करत अपारी ॥
स्नेह सहित बहु करी देखाते । जब जब संत कुं पास बोलाते ॥
श्रीहरि कहेउ वेर हि वेरा । जन्म केति रीत कही फेर फेरा ॥
सत्संग में यह संत तामें । जन्म लइ संग इच्छत यामें ॥
भगवान के धाम जो तिनसें । संत के संत के समागम इनसे ॥
अधिक रहेउ अपार हि ताई । रुचि हमारि एसी ही रहाई ॥
भगवान के धाम सम कोउ । और कोउ न रहाये सोउ ॥
मायिक जन रहाये जेते । भगवान के धाम कुं तेते ॥
कोटि जन्म लग पावत नाहीं । सत्संग जोग विन हि ताहि ॥
धाम करते संत के जो, समागम के अपार ।
माहात्म्य हम जानत रहे, ओर हि गम न लगार ॥
भगवान की जेति बात हि, कहावत हि जोउ ।
संत में रहे निवास कर, तिन करी अधिक ही सोउ ॥
जग के जन हि तामें, जग की जौसे बात रहेउ ।
संत हि जेते यामें, हरि की तेसें बात रहे ॥
भगवान प्रगट कर बसत जिनके । भगवान की बात में तिनके ॥
रुचि होवत रहेउ अपारा । ता बिन ओर करत न उच्चारा ॥
भगवान संबंध बिन बात तामें । चित कबहुं न प्रोवत यामें ॥
भगवान की करि के बाता । संत के महिमा अपार रहाता ।
भगवान की बात अधिक जामें । भगवान के निवास हि तामें ॥
अधिक हम जो जानत रहाते । ओर कुं आप सम देखाते ॥
तिन करी संत की मोटप जेती । देखे में लेश न आवत तेती ॥
भेगे रहे सेवा करे तोउ । साधारण मति रहेवे सोउ ॥
जेसी मति मोक्ष रहे तेसे । शास्त्र सब कहत रहे एसे ॥
एसी बात हरि वेर हि वेरा । अपार करत रहे बहु फेरा ॥
प्रसन्नता में वर्तन जिस रीता । तेसि बात हरि तब उचरिता ॥
दिशमात्र यह कहि देखाये । सबहि बात कहे में न आये ॥
कनक की भोमि यहाँ सबहि । कनक के आश्चर्य तिहां न कबहि ॥
(૧૯/૬/૨૯-૪૬)
૧૯/૪૦(૩૯)/૩૫-૩૬.
अनेक जीव के कल्यान हित, भोमि पर सब जन कुं ।
प्रत्यक्ष दर्शन देत हें तब, जन संत जो तिनकुं ॥
मिलत समागम करत, पुरुषोत्तम भगवान के ।
महिमा समझत हें अविध, अंतरबुद्धिमान के ॥
इन्द्रियों अंतःकरन, सब हि पुरुषोत्तमरूप हि ।
होई जावत तेहि करीके, महा परम अनूप हि ॥
(૨૧/૪૮/૫૩-૫૫)
૨૧/૭૫/૭૭-૮૦.
૨૨/૧૦૦/૧૭-૨૮.
कथा, कीर्तन, चिंतवन, ध्याना । भजन, स्मरन, पूजन रहाना ॥
भगवान संबंधि सेवा बाता । ऐह सबहि संबंध रहाता ॥
प्रगट यह भगवान ताके । ईतना संबंध रहाये वाके ॥
याकुं प्रोक्ष समझत जाहि । प्रोक्ष भक्त यह रहेउ ताहि ॥
प्रत्यक्ष प्रोक्ष भक्त जीनहि । समझ में देखावत ईनहि ॥
प्रत्यक्ष जो भगवान भयेउ । ताकि बात हि जेते रहेउ ॥
यह सब बात प्रत्यक्ष रहाते । याकुं प्रोक्ष करि जे ते कहाते ॥
प्रोक्ष भक्त कहावत तावु । समझ ताकि करिके रहावु ॥
प्रत्यक्ष भगवान कि जेति । बातहि जीतनी कहावत तेति ॥
प्रत्यक्ष समझत जीतनां, भक्त जेते हि जाहि ।
प्रत्यक्ष के भक्त ऐहि, रहायेउ यह ताहि ॥
प्रत्यक्ष कि जेति बात, प्रत्यक्ष मुख्य रहे तिनमें ।
मानत जेहि रहात, भक्त तेहि सब सें अधिक ॥
(૨૨/૧૦૧/૩૨-૩૯)
૨૩/૫૮/૧૪-૩૫.
૨૪/૫૦/૩૨-૩૬.
૨૭/૩૧/૧૪-૨૪.
૨૮/૧૦/૨૧-૩૭.
૪/૩૧/૩૮-૩૯.
૬/૫/૨૯-૩૦.
सत धर्म के पुत्र तुम, भक्ति सत मात हि तोर ।
ज्ञान वैराग्य सत बंधु तव, देखे में आये मोर ॥
हरि को ज्ञान बिन धर्मवंशि भारि । एक वेर अन्न देवे को अधिकारि ॥
मानने को नहि तेहि अधिकारा । वर्ल गाउ सें कहा होय विस्तारा ॥
(૬/૫૨/૧-૧૯)
तप व्रत तीर्थ विविध नाना । यह मूर्ति हित करत रहाना ॥
तप व्रत तीर्थ को फल इता । प्रगट मूर्ति कबहु मिलिता ॥
तप व्रत तीर्थ करे बिन कबहु । मूर्ति मिलत नहि सबहु ॥
प्रगट मिले जब मूर्ति आई । मूर्ति कहे त्युं करना ताई ॥
मूर्ति को कह्यो न करे जेहा । मूर्ति मिले की फल नहिं तेहा ॥
(૭/૩૮/૨૯-૩૧)
असत नाम रहाये जितना । कुसंग मोक्षभागी कहत तितना ॥
असत नाशवंत जेहि जेता । देह गेहादिक पदार्थ तेता ॥
देह के संबंधि जो जो कहावे । मात-तात हि कुटुंब रहावे ॥
सत्संग करत विघ्न करे जेते । पिंड ब्रह्मांडादिक तेते ॥
हरिजन एसो विचार, सार में सार हरि सर्वोपरि ।
सतसंग सत नरनारि, करत भये कुसंग तज ॥
माया के संबंधि रहे ज्यां लगहि । इन्द्रि अंतःकरण जो त्यां लगहि ॥
मोक्ष पर ग्रंथ में वचन जितना । असत कुसंग कहत तितना ॥
आत्मा परमात्मा हरिजन जितने । साचे संत सत वरणि तितने ॥
हरि के धाम जेते कहावा । निवास करि हरि जामें रहावा ॥
सत धर्म, सत भक्ति जो जेहा । सत वैराग्य सत ज्ञान तेहा ॥
जिहां लग वरतंत जेहि ठोरा । तिहां लग हरि रहत तेहि कोरा ॥
(૧૩/૪૧/૧૬-૨૧)
मोक्ष को काम जितनी जोउ । प्रत्यक्ष हरि से होवत सोउ ॥
प्रत्यक्ष हरि से मोक्ष होत जेसा । और कोई से न होत तेसा ॥
और से होवे मोक्ष हि जबहु । हरिकुं भजे नहि कोउ तबहु ॥
मोक्ष करन को काम जेहु । हरि आपमें रखे हें तेहु ॥
मोक्ष करन को वचन जेहि । जो जनकुं हरि देवत तेहि ॥
हरि के बचन से जन जेहा । कोटि जन के मोक्ष करे तेहा ॥
हरि के वचन में साम्रथ भारी । देखे आवत जोत विचारी ॥
(૧૫/૯/૫-૮)
૧૮/૪૪/૧૬-૧૮.
૧૮/૭૧/૨૬.
एसी रीत के जोउ, निशदिन हि वर्तन जिहां ।
प्रगट मोक्ष जो सोउ, प्रगट हरि यह ठोर रहत ॥
वर्तन में देखात, हरि की बात हरि रहत तिहां ।
हरि जिहां रहात, मोक्ष के रहे निवास इहां ॥
समझ में तिहां लगहि ताकुं । कसर रहाये तितनी वाकुं ॥
(૨૬/૮/૨૫-૩૧)
૨૭/૨૨/૧૪-૧૭.
सत्पुरुष होवत रहे जेते । सत्शास्त्र पर चलत हें तेते ॥
तिन करी सत्पुरुष हि कहाते । असत् शास्त्र के त्याग कराते ॥
इहां के सुख हि जेही, चाय तेसे मिलेउ तेहि ।
असत् रहाये तेहि, देह देह के संबंध सब ॥
ऐसे देखात जेहु, भगवान सत्य जनात रहे ।
सत्पुरुष रहे तेहु, प्रगट भगवान कर तेहि ॥
(૨૭/૨૨/૩૨, ૩૯-૪૦)
૪/૧૯(૧૮)/૩૩-૩૪.
૪/૨૮(૨૭)/૪૦-૪૯.
૫/૭૧/૧૬-૧૯.
हरि की रखे उपासना जेहा । सेवक होई के वर्ते तेहा ॥
हरि के दास ताके रहे दासा । हरि विन ओर नहिं जेहि आसा ॥
हरि मानत अति दुर्लभ ताकुं । पल एक दूर रहत न वाकुं ॥
जन मानो न मानो केहा । तजत न तोऊ जन से नेहा ॥
उद्धार करन सब जग को धारे । अपमान करे तिनसे न हारे ॥
(૬/૯૯/૯-૧૬)
૧૧/૭૩/૯-૧૨.
૧૧/૭૧(૬૧)/૩૨-૩૪.
श्रीहरि कहे हमारो जबहि । अवकाश महिं हो परत तबहि ॥
अखंड रहे थके अक्षरधामा । देखाई आत यह भोमि ठामा ॥
हमारि कलाकुं जाने जाहि । समझना कठिन नहि ताहि ॥
समझकि दश न ज्यां लग आवे । दुर्घट त्यां लग तेहि रहावे ॥
अनंत विद्या लौकिक जोउ । सिखने सब सुलभ हें सोउ ॥
हमारि विद्या अलौकिक जेहु । सिखने में दुर्लभ हें तेहु ॥
कपटि कुटिल, कुकर्मि, मिथ्या बोलन हार ।
ब्रह्म विद्या अति शुद्ध हि, ताकुं न आवे लगार ॥
(૧૨/૪૬/૩૪-૩૮)
૧૩/૪૫/૨૯-૩૧.
ब्रह्म होइके जेते, भगवान की करत सेव ही ।
साचे ब्रह्म हें तेते, ता विन जो पाखंड सब ॥
असत जेति जो बात, तामें धरत न पाव कब ।
साचे ब्रह्म कहात, परब्रह्म कुं भजहि नित ॥
परब्रह्म के उपासक जेते । ताकुं देखत ब्रह्म कर तेते ॥
धर्म के वचन कहे गुरु जेता । मानत शिर चढाइ के तेता ॥
वचन से ब्हार वरतहि न कबहु । संत की रीत संत चले तबहु ॥
गृही की रीत में गृही चलावे । माया ताकुं विघ्न न करावे ॥
वचन से अधिक चले जेहि । माया प्रवेश जानना तेहि ॥
वचन से न्यून वरतत जेतो । प्रवेश किये माया तेतो ॥
माया हें हरिवचन अधीना । वचन में चलना होइ के दीना ॥
विघ्न करत नहि माया ताकुं । रूप विन नहि मनावत वाकुं ॥
मन के कहे में वरतत जेहा । दिन दिन माया गलत तेहा ॥
संत वा हरिजन जो ताको । अभाव लेवहि निश्चे वाको ॥
सत्संग में पिछे पाव न टकहि । विमुख होइ चोराशि भटकहि ॥
समझना एसे दृढ करि के । बात कहत हम फरी फरी के ॥
खप विन जेते संत, खप बिन हरिजन जेहि ।
सत्संग में न रहंत, टिकवे को मुख्य रूप यह ॥
(૧૩/૬૧/૧૫-૨૭)
૧૪/૬૪/૨૮-૩૫.
महासिंधु तरना होय जबहु । आप बल कोउ न तरे कबहु ॥
गमे तेसे तारे जो होई । सिंधु में डूबे विन रहे न कोई ॥
सिद्धगति कुं पावत हि जेते । अगाध सिंधु उल्लंघन तेते ॥
जेते बैठत नाव, सिंधु तरे तहिं सहज तेहि ।
सत्संग नाव रहाव, तारत हें भवसिंधु यह ॥
शुभ सत बात रहे जो जेता । शुभ सत् मारग कहेउ तेता ॥
ताके नाम सत्संग कहावे । सत् तामें चले हरिजन रहावे ॥
तेसे जन जो हरिजन साचे । प्रगट हरि तामें मन राचे ॥
प्रगट हरि शुभ मारग तामें । निष्कपट होई चले यामें ॥
ऐसे संत हरिजन ताको । मन कर्म वचन संग करना याको ॥
प्रगट हरि को निश्चय नाहि । शुभ आचरण केसो रहे ताहि ॥
शुभ जोनि कुं पावे तेहा । जन्म मरण न छूटे कबु एहा ॥
प्रगट हरि को निश्चे जाकुं । मुख्य शुभ मारग कहत ताकुं ॥
श्रीहरि को प्रगट निश्चय, हरि प्रगट जब जाहि ।
कहत हें हरिजन तितने, कहावत हें भक्त ताहि ॥
जो जो समय भगवान जो, प्रगट होत जेहि वार ।
प्रगट हरि जो जानना, बात कहे निरधार ॥
(૧૫/૩/૩૧-૫૧)
૧૫/૨૩/૨૯-૩૯.
૧૫/૨૫/૧૯-૨૭
૧૫/૯૧/૨૮-૪૯.
૧૫/૯૬/૨૫-૨૯.
૧૬/૫૪/૧-૧૪.
૨૧/૫/૩૫-૩૬.
૨૨/૯/૮૯-૯૨.
૨૩/૧૨/૩૪-૪૦.
सत्संगकि सिखकर बाता । भगवान जेहि होत रहाता ॥
कसाई सें कोटि गन कसाई । रहाये ऐसे जन हि ताई ॥
सत्संग कि समझ रहे ऐसी । सत्संग कि बात सुनकर तेसी ॥
सत्संग में भगवान होउ । चलावन मत जावन कोउ ॥
दुरबुद्धि देख आवत ताकि । छाये में नहि दबावत वाकि ॥
अंतरकि के’वत रहे केते । बाई-भाई अगणित तेते ॥
तिन करिके तेहि भगवाना । होवत नहि कबु रहाना ॥
मनुष्य, दैत्य, देव अब ताकी । पशु पक्षी कहावत वाकी ॥
मनु, कश्यप, ऋषि पंचभूत तिनके । स्थावर जंगम अगणित इनके ॥
सूर्य, चंद्र भव तारे जेते । गनत पार न पावत हि तेते ॥
ब्रह्मा सबके कारन कहाते । ब्रह्मा के कारण वैराट रहाते ॥
अनंतकोटि वैराट तिनके । अनंत प्रधान पुरुष ईनके ॥
कारन यह कहावत रहावा । प्रकृति पुरुष ताके कहावा ॥
प्रकृति पुरुष के अक्षर रहेउ । अक्षर के पुरुषोतम कहेउ ॥
पुरुषोत्तम सें पर हि जो, कोउ हि नहि कहात ।
अज्ञानि रहे जीतना हि, चाय तेसे उचरात ॥
पुरुषोत्तम सें ओरें हि, जो जो जेते जेहि ।
पुषोत्तम के दास रहे, भजत रहत हें तेहि ॥
पुरुषोत्तम हि ताके, दासपना इच्छत रहत ।
बडता अति वाके, होवत रहे सबहि पर ॥
सत्संग ताकि ऐसि, समझ रहे निरबाध अति ॥
सामृथि पावे केसी, तोउ हरि के दास रहत ॥
(૨૫/૫૦/૨૯-૪૦)
ब्रह्मा जेसे कौन लेख रहेउ । अनंतकोटि ब्रह्मांड तेउ ॥
अक्षर के एक रोम तामें । उडत रहे अणु समहि यामें ॥
ऐसे अक्षरधाम जो, भगवान ताकि जेहु ।
मोटप आगे मोटप हि, कुछ न देखावत तेऊ ॥
तब भगवान के दास होई, भगवान जो ताकुं ।
भजत रहे बहु भाव कर, अल्प मानि निज वाकुं ॥
(૨૬/૨૩/૩૬-૩૮)
श्रीहरि खरडे तामे जोई । अलौकिक बात लिखाये सोई ॥
पोतामें ऐश्वर्य रहे जीमि । जे ते अवतार तामें तीमि ॥
सबके कारन हि आप हि, आप से अधिक केउ ।
जानत जेहि जीहां लग हि, तितनां कसर हि तेउ ॥
कुबुद्धि जन रहे जीतने, ज्ञान सिखि के जेहि ।
में रहे भगवान जोउ, ऐसे मानत तेहिं ॥
ज्ञान के पात्र बिन, ज्ञान सिख कर आप हु कुं ।
जितने मनमलिन, सबसे अधिक मानत यह ॥
अक्षर के एक एक रोम तामें । अनंत कोटि ब्रह्मांड वामें ॥
उडत रहे अणु उडत जेसे I मैं भगवान हूँ कहत न तेसे ॥
बडे बडे हि कहावत जेते । जाके आधार कर प्राणि तेते ॥
ब्रह्मा, कश्यप सृष्टि ताके । कर्ता रहायेउ जोउ वाके ॥
जीवत हि क्रिया करत रहाते | ताके अभिमान न ताकुं आते ॥
तोउ न कहत मैं भगवाना । भगवान के दास हि रहाना ॥
ऐसे पात्र भये यह जबहु । भगवान पोताके ऐश्वर्य तबहु ॥
देवत रहाये इच्छे बिन हि । छकि न जावत तिन करी तिनहि ॥
पात्र विन रहायेउ जितने । कीर्तन श्लोक बहु सिखत तितने ॥
भगवान ताकुं गिनत नाहि । नारकी जितने जीन रहाहि ॥
(૨૭/૮૫/૧૭-૨૨)
૨૮/૧૦/૨૯-૩૭.
૫/૭૧/૨૩-૨૪.
૬/૨૧/૩૩.
૬/૨૪/૨૨.
૬/૭૨/૩૬-૪૦.
हरि के गुन ओर मुक्त में, कबहु सो आवत नाहि ॥
ब्रह्मरुप होई वरते, बंधन होत हे तांहि ॥
नारद हरि के मन हि, ब्रह्मरूप सदाय ।
विषय को करे संकल्प हि, वानरमुख भये ताय ॥
(૮/૭૨/૩૭-૩૮)
૧૦/૫૪/૧૭-૩૬.
૪/૭૪/૧-૪.
૫/૧૯/૩૭-૪૮.
૫/૫૨/૨૯-૪૦.
૬/૪/૩૯-૪૦.
श्रीहरि तब बोलत भयेउ । अमृत वचन रस भरेउ ॥
सत्संग रूप मोक्ष वन जेहा । रामानंद स्वामी सुंपे तेहा ॥
तामें हरिजन रूपी हि जेहु । विविध कल्पतरु रहे हैं तेहु ॥
कितनेक के मूल गये हैं पाताला । ताको नहि हैं डर कोउ काला ॥
उपर छल्ले मूल रहे हैं जाके । अति डर रखत हैं वाके ॥
कुसंग रूप हि वायु जोरा । उखारि देवे रहे नहि ठोरा ॥
संत रहे चहु देश मांहि । फिरत रहत हैं जंपत नाहि ॥
नियम रूप वार विविध प्रकारा । करने लगे हैं वारम वारा ॥
काचे कोट पिछे करहि ताकु । अनल को भय न लगे वाकु ॥
पिछे वज्र कोट करहि पक्का । हाथी तोप को न लगे धक्का ॥
ज्युं ज्युं संत हरिजन ताई । खप रूप बात आत देखाई ॥
त्युं त्युं करहि नियम को दृढावा । एक स्थान पिछे सुखे रहावा ॥
(૬/૧૯/૭-૧૬)
૬/૨૬/૧૨-૧૩.
हरि कृपा विन दोष निज केरा । देखे में न आवे कोउ वेरा ॥
निज को दोष देखाय जाकु । हरि कि कृपा जानना ताकु ॥
निज को दोष जाने विन कबहु । मोक्ष रूप गुन न आवत तबहु ॥
मोक्ष रूप गुन विन गुन ओरा । सोहत नाहि देखे कोउ ठोरा ॥
पुरुष प्रकृति पाताल प्रजंता । मोक्ष रूप गुन विन लुखे देखंता ॥
देहिक सुख मिले वार न पारा । सोई दुःख रुप जीय के अपारा ॥
हरि विन चिंतवन जीय में जेता । सो गुन विन असार हैं तेता ॥
चिंतवन हरि विन जितनो जाई । दोष में दोष विकट यह ताई ॥
और चिंतवन काग विष्ट समाना । समजे तव तेहि भयो गुनवाना ॥
और में दोष होय अपरमपारा । तामें गुन तितनो ग्रहे सारा ॥
नखशिख देह अपार है एहा । सार मानत इतनो दोष है तेहा ॥
दोष, मोह, इहाँ कहत एका । बुद्धिमान सो जाने विवेका ॥
(૬/૩૯/૩૧-૩૯)
૬/૬૫/૨૮-૩૪.
૬/૮૦/૨૯-૩૩.
૭/૪/૧-૧૮, ૨૭-૨૮.
૯/૪૭/૯-૧૩.
૧૦/૭/૩૮-૩૯.
૧૨/૫૮(૫૭)/૧૦-૧૭.
૧૩/૨૧/૨૨-૨૬.
૧૪/૩૮/૩૦-૩૬.
૧૬/૫૫/૩-૧૩.
૩/૬૦/૧૮-૧૯.
૧/૮૦/૪૭-૪૯.
૩/૨૫/૩૭-૪૦.
रक्षा में करूँ तेह, रखे विश्वास जो मोर हि ।
इनमें नहि संदेह, पाप मात्र दिये छोरि के ॥
में हूँ धर्म के लाल, धर्म तिहाँ निवास मोर ।
जो वचन देहु रहे पाल, तब तेहि संग निवास करूँ ॥
मोरे भक्त हैं मोरे ही प्राना । तिनकुं तेसे करि में माना ॥
भक्त के मैं सदा आधिना । भक्त मोय तेहि बाँधि के लिना ॥
मो संग प्रीति करे जन कोई । तिन सें कोटि गनि करू सोई ॥
निष्कपट जो तेहि रहावे । तिन सें मेरी प्रीत न जावे ॥
रंच भर कपट देखुं में तामे । तो कबु न प्रीति रहे यामे ॥
एसो है मेरो सहज स्वभावा । सो तुमकुं सब कहि देखावा ॥
सुनि के मगन भये हरि वानी । मुनिवर लिये हित सो आनी ॥
निज मन में मुनि किन निरधारा । अपने एसो करनो निरधारा ॥
ज्युं हरि मरजी तैंसे करना । आप कि मरजी त्याग हि करना ॥
जब हरिकुं दिये तन मन प्राना । अपनो क्या अब रखना छाना ॥
मुक्तमुनि तेहि पर जोई । आठ पद बनाये सोई ॥
ऐसि भक्ति करो मन मिता । जाकर तरत होउ पुनिता ॥
(૩/૬૦/૧૫-૨૨)
૫/૩૮/૪-૫.
૬/૪૯/૨૯-૩૦.
૬/૫૦/૧-૨.
मैं निर्बंध हूँ आकाश हि जैसा । कोईके बंधन में आवे न ऐसा ॥
साधुता जामें देखूं अनंता । ताके बंधन में आई रहंता ॥
साधुता देखूं ज्या लगहि । तिहां से छुटाय न त्यां लगहि ॥
मोसंग वैर नहि है केहा । देव मनुष्य दैत्य लग तेहा ॥
साधु को रखूं पक्ष में जबहु । मो संग वेर बांधत तबहु ॥
(૬/૬૦/૧૭-૧૮)
૮/૨૦(૧૯)/૩૪.
૧૦/૨૬/૩-૧૨.
૧૨/૮૫/૨૬-૩૮.
૧૫/૪૭/૧૭-૨૧.
૧૮/૪૭/૯-૧૦.
૬/૫/૩૭-૩૮.
૭/૧૦/૨૨-૩૦.
૯/૪૧(૪૨)/૧૦-૨૮.
૧૧/૮૭/૩૦-૩૫.
૧૩/૩૧/૧૭-૨૨.
૧૪/૮૩/૩૦-૩૩.
૧૪/૯૪(૯૫)/૨૩-૨૪.
૧૪/૧૩/૨૯-૩૬.
૧૬/૩૯/૧-૩૭.
૧૬/૪૬/૧૨-૨૧.
૧૭/૪૧/૨૨-૨૪.
૨૪/૬૬/૩૪, ૪૦.
૫/૫૮/૩૧-૩૯.
૭/૩૫/૪-૧૨.
૮/૨૦(૧૯)/૧૯-૨૨.
૯/૩/૧૭.
૧૦/૪/૩૫-૪૨.
૧૦/૨૩/૯-૧૧.
૧૧/૧૩/૨૩-૨૮.
૧૧/૫૩/૨૨-૨૪.
૧૨/૩૦/૨૮-૩૪.
૧૨/૩૬(૩૫)/૩-૨૪.
૧૨/૫૦(૪૯)/૩-૩૦.
૧૩/૬/૧૭-૨૨.
૧૩/૪૬/૨૯-૩૯.
૧૪/૯/૨-૧૦.
૧૪/૯૧/૯-૧૪, ૨૦-૨૩.
૧૪/૯૨/૨૯-૩૮.
૧૫/૩૯/૩૬, ૩૯.
૧૫/૪૭/૧૦-૧૬.
૧૫/૮૬/૨૯-૩૬.
૧૬/૨૫/૧૨-૨૦.
૧૬/૪૮/૧૫-૨૫.
૧૭/૪૪/૫-૧૭.
૧૭/૫૭/૧૨-૨૧.
૨૨/૨૭/૩૧-૩૨.
૮/૭૩/૫-૭.
૧૪/૧૮/૨૪-૨૭.
૪/૭૧/૨૦-૨૬.
૫/૪૫/૨૪-૩૮.
૬/૭૯/૧૯-૨૨.
૬/૯૦/૨૮-૩૧.
૮/૯/૨૭-૨૮.
૮/૩૨/૫-૧૦.
૧૦/૩૯/૨૧-૨૫.
૧૪/૬૯/૨૪-૩૨.
૧૫/૪૯/૧૭-૨૩.
૧૬/૨૩/૬-૧૫.
૧૭/૯૦/૩૦-૩૧.
૧૭/૯૭/૩૬-૪૦.
૧૮/૫૦/૧૪-૩૧.
૨૭/૪૫/૨૧-૨૪.
૨૭/૪૮/૩૧-૪૦.
૨૭/૮૪/૩૧-૩૫.
૫/૪૭/૨૮-૩૨.
૧૫/૨૫/૩૨-૩૮.
૧૯/૩૩(૩૨)/૨૯-૩૬.
૧/૫૩/૩૦.
૫/૫/૩૪, ૩૫.
૬/૧૦૧/૧૫-૨૩.
૧૦/૬/૫-૨૦, ૩૫.
૧૦/૨૦/૨૯-૩૧.
૧૩/૩૪/૧૯-૪૦.
૧૪/૮૨/૨૯-૩૧.
૧૬/૪૮/૧૦-૧૭.
૧૭/૪૫/૩૦-૩૫.
૧૯/૩/૫-૬.
૧૩/૬૧/૨૧-૨૩.
૪/૨૬/૪૮-૫૨.
૯/૨૩/૧૭-૨૪.
૨૫/૫૮/૯-૧૬, ૨૩-૨૪.
૪/૭૪/૩૯-૪૨.
૫/૧૬/૨૯-૩૧.
૯/૪૫/૯-૧૩.
૧૦/૧૫/૨૮-૩૩.
साचे संत हरिजन से, जितनो चित्त चोरात ।
तितनो वगल हे ताहि में, प्रसिद्ध आत देखात ॥
साचे संत हरिजन, तिनसे जितने सरल रहत ।
शुद्ध हि जानत मन, सत्संग में मोज करत ॥
(૧૪/૩૧/૨૬-૨૭)
૧૫/૭૨/૨૧-૨૪.
૧૫/૮૪/૧૩-૧૬.
૧૬/૫૮/૧૮-૨૭.
૧૭/૩૨/૨૮-૨૯.
૧૮/૧૪/૨૭.
૧૯/૩/૯-૧૨.
૧૯/૧૨/૨૨-૨૬.
૧૯/૩૯(૩૮)/૨૧-૩૩.
૧૯/૬૦(૫૯)/૨૮-૩૪.
૧૯/૬૧(૬૦)/૩-૪, ૧૩-૧૯.
૨૭/૨૧/૧૪-૨૬.
૨૭/૯૯/૨૯-૩૨.
૧૭/૨૫/૩૩-૩૭.
૧૧/૧૦/૨૦-૨૩.
૧૫/૫૯/૩૬-૩૮.
૧૯/૨૬(૨૫)/૩૪-૩૮.
૧૯/૩૦(૨૯)/૩૬-૩૯.
૪/૯૯/૨૧-૩૬.
૫/૫૮/૨૫-૩૯.
૬/૬૪/૧૨-૪૦, ૬૫/૧-૨.
૪/૫૬/૧-૧૨.
૯/૫૧/૨૯-૩૭.
૧૧/૮/૨૩-૨૪.
૧૧/૮૦(૭૦)/૬-૧૧.
૧૨/૧૫/૨૬-૨૯.
૧૫/૧૩/૧૩-૧૯.
૧૫/૫૭/૧-૨૩.
૧૬/૫૫/૧૮-૩૫.
૧૭/૮૫/૨૭-૩૩.
૧૮/૧૪/૫-૭.
हम पर भाव रखत रतिभर हि । मेरू सम तेहि मानत कर हि ॥
एसे हमरे रहेउ स्वभावा । सहज स्वाभाविक जोउ रहावा ॥
हमारे चिंतवन करत जिनकुं । हम नहि भुलत रहे इनकुं ॥
हम चरित्र करत हें जितनां । अवतार जेते धरिके तितनां ॥
हरिजनकुं करने हित गानां । हरिजन सम कोउ न रहानां ॥
हरिजन पर हमारेउ तानां । रात दिन रहत जो कहानां ॥
हम बिन रहे न प्रीति जाही । हरिजन पुरे कहत हि ताही ॥
हम बिन जितनां रहे तामें । जितनां प्रीति वरतत यामें ॥
तितनां तामे कसर रहेउ । तितनां हमसें दूर रहे तेउ ॥
समिप दूर कि कहायेउ रीता । कहे बिन नहि जानत कीता ॥
(૨૮/૪૪/૬-૧૦)
૨૨/તરંગ: ૩૭-૩૯.
૪/૭૭/૭-૧૭.
૫/૭૧/૫-૧૦.
૬/૬૫/૧૪-૨૦.
૮/૧૧/૮-૧૨.
૧૧/૨૧/૧૭-૨૪.
૧૨/૪૪/૨૫-૩૦.
૨૫/૪૮/૧-૧૩.
૩/૫૬/૨૧-૨૨.
૬/૪૭/૯-૧૦.
૬/૮૯/૧૨.
૯/૪૮(૪૯)/૧૯-૨૧.
૧૦/૬/૨૨-૨૪.
૧૩/૬૩/૩૬-૪૦.
૧૧/૯/૧૦-૧૪.
૧૩/૬૬/૧૯-૩૭.
૯/૪૧(૪૦)/૨૪-૨૭.
૧૧/૯/૨૧-૩૫.
૧૪/૧૫/૧-૧૪.
૧૪/૪૩/૨૦-૨૮.
૩/૬૦/૧૫-૧૮.
૪/૭૧/૧૯-૨૫.
૧૪/૭૫/૩૧-૪૦.
૧૫/૪૭/૯.
૧૫/૯૨/૧-૪૦.
૧૫/૯૫/૮-૧૧.
भगवान संत हित हि जेता । ताकी सेवा में न आवत तेता ॥
चिंतामनि कल्पतरु सम होवे । भक्त ताकुं कुसंग सब जोवे ॥
(૧૫/૯૬/૧-૧૭)
૧/૬૧/૧૪-૨૬.
૧/૬૩/૧-૯.
૧૦/૧૫/૬-૧૦.
૩/૩/૩૯-૫૨.
૬/૧૨/૨૨-૨૮.
૧૧/૧૨/૨૨.
૧૩/૩૨/૫-૭.
૧૫/૯૬/૨૫-૩૮.
૧૫/૯૭/૧-૭.
૨૧/૫૫/૨૯-૩૦.
૪/૩૩/૧૭-૨૪.
૫/૫/૩૫.
૫/૩૬/૨૫-૨૬.
सत्संगमें अब लिखिये एसा । कागद एकहि सुंदर तेसा ॥
संत हरिजन कहावत जेते । बाई भाई आदिक तेते ॥
प्राकृत देह यह जीयेको जेहा । जीयको स्वरूप न मानना तेहा ॥
अक्षर शुद्ध रूप हें अपना । एसो स्वरूप जीयको चिंतवना ॥
अक्षरभावना जीयमें लाई । चिंतवन करनां चित्तमें ताई ॥
अक्षरभाव जब जीयमें आवे । प्राकृत भाव तब दूर रहावे ॥
अक्षरमें हरि रहे हैं सदाई । दिव्यमूर्ति अलौकिक जाई ॥
सत्संगमें विचरत मूर्ति जेहि । एकि एह जीयमें रहे तेहि ॥
देह अरु देह संबंधि जो, विजाति हें अपार ।
देह मरे जीय मरत नहि, छुटत नहि स्नेहतार ॥
मिथ्या स्वार्थ मानिके, अज्ञानरूप भये आप ।
सत्य में करे तिस विध, होई जावे सो अमाप ॥
(૮/૨૧(૨૦)/૧૭-૪૦)
૧૦/૫/૩-૬.
૧૧/૯/૩૨-૩૪.
૧૧/૩૮/૨૪-૨૮.
૧૩/૪૫/૨૯-૩૧.
૧૫/૬૪/૧૪.
૧૮/૪૩/૨૩, ૩૧-૩૩.
૨/૪૧/૨૦-૨૮.
૩/૫૬/૪૫-૪૮.
૫/૨/૨.
૭/૧૭/૨૬, ૪૦.
૭/૧૮/૩-૪.
૧૧/૫૩/૨૦-૨૧.
૧૬/૬૯/૯-૧૩.
૩/૪૮/૫૦-૫૨.
૫/૩૭/૩૭.
૫/૪૫/૨૮-૩૧.
૧૧/૫/૩૪-૩૯.
૧૭/૩૮/૩૦-૩૩.
૨૦/૧૬/૧૩-૧૪.
૫/૫૦/૯-૧૦.
૫/૬૯/૧-૧૦.
૬/૩૯/૩૫-૩૬.
૮/૫૦/૨૯-૩૬.
૧૨/૫૭/૩૧-૪૦.
૧૩/૬૩/૧૩-૨૦.
૧૬/૪૫/૬-૯.
૨૭/૫૦/૩૪-૩૮.
૧૧/૫૧/૮.
૧૪/૨૬/૧-૫.
૧૫/૮૦/૩૩-૩૪.
૧૫/૮૧/૩-૪.
૧૮/૨૮/૨૧-૨૩.
૩/૩૪/૪૪-૪૮.
૧૫/૭૯/૧૯-૨૫.
૧૫/૫૫/૩૫.
૧૫/૭૬/૧૧-૧૪.
૧૫/૮૯/૧-૨, ૨૫-૨૭.
૨૮/૬૫/૩૩-૩૬.
૧૧/૮૦/૧૩.
૧૨/૫૭/૧૦-૨૧.
૧૪/૩૧/૩૦-૩૩.
૧૫/૮૦/૫-૯.
૪/૧૦૩/૧૭-૨૬.
स्वामिनारायण उचरे जेहि । कंठ में प्रान जानना तेही ॥
जल अन्न ताकुं होवत रेना । कटु कुबेन दुखिन कुं न केना ॥
कटु कबेन दुःखी कुं केवे । ताके पाप सो सब लेवे ॥
ऐसे हे सत्संग की रीति । भावे तेसी करो अनीति ॥
नियम-धर्म कोटि रखे वर्षा । ता पर हरिकुं रहत अमर्षा ॥
कथा भजन करो दिन-राती । हरि कुं जोई न ठरत छाती ॥
यह लोक तेहि कीर्ति अपारा । पूज्य करिके मानहि सारा ॥
देह दुखी होवहि न पारा । अनाथ के जे दूभनहारा ॥
(૬/૬૫/૨૦-૨૪)
रमत भये हरि होरी जैसे । संतजन गावत भये सब तैसे ॥
गावत स्वामिनारायण सबहु । देव वाजित्र बजाई के तबहु ॥
चौद लोक में धाम हि जेता । स्वामिनारायण उचरत तेता ॥
स्वामिनारायण नाम को जोऊ । कलि में महिमा भयो है सोऊ ॥
अवतार मात्र कहावत जेऊ । आप आपके धाम में रहे तेऊ ॥
स्वामिनारायण नाम हि तेहा । भक्त सह उचरत भये एहा ॥
स्थावर जाति कहावत जेति । स्वामिनारायण उचरत तेति ॥
एसो नाम को भयो प्रतापा । श्रीहरि मुख जपत भये आपा ॥
स्वामिनारायण नाम में आई । नाम अनंत लीन होत दिखाई ॥
(૭/૫/૨૯-૩૬)
૧૦/૩૫/૩-૯.
૫/૬૬/૩૨-૪૦.
૧૫/૪૪/૧-૪.
૧૮/૩૭/૨૨-૨૬.
૪/૫૬/૩૬-૪૦.
૪/૧૦૭/૮-૧૨.
૧૧/૪૨/૧૧-૧૫.
૧૧/૮૧(૭૧)/૩૧-૩૯.
૧૨/૭૨/૨૩-૩૦.
૧૬/૭૦/૨૯-૩૬.
૫/૯/૪૨.
૫/૧૭/૬-૯.
૧૩/૬૬/૯-૧૦.
૧૮/૩૯/૪૦.
૨૨/૧૦૬/૫-૧૩.
૨૮/૧૩૦/૪૪.
૯/૬૧/૨૪-૨૬.
૧૬/૩-૪/૧-૪૦.
૧૬/૫-૬/૧૩-૪૦, ૧-૬.
૧૬/૬૧-૬૬.
૧૭/૮૬-૮૭.
૧૭/૯૫-૯૮.
૧૮/૧૭, ૧૮.
૨૨/૯૯.
૧૬/૫/૪-૧૦.
૨૦/૧૮/૨૩-૩૭.
૨૦/૬૨/૬-૧૨.
૨૩/૪.
૨૨/૯૯.
૨૧/૮૩-૮૫.
૨૨/૪૪-૪૬.
૨૨/૯૫-૯૮.
૧૬/૩-૪/૧-૪૦.
૧૬/૨/૧-૪૦.