પાદટીપો

પ્રકરણ ૧ની પાદટીપો

૧/૮૦/૭-૧૨, ૧૯-૨૫.

૩/૪૦/૧૯-૨૨.

૪/૧૫/૨૯-૩૨

૪/૧૯/૯-૧૦.

૪/૪૩/૩૫-૩૬.

૪/૪૩/૪૬-૫૧.

૬/૨૬/૧૭-૨૪.

૬/૪૭/૧૧-૨૬.

૬/૭૭/૨૧-૨૯.

૬/૯૧/૧૨-૧૪.

૭/૯/૨૬-૨૮.

अनंतकोटि ब्रह्मांड को सुखा । सत्संग आगे कहत सब लूखा ॥

सत्संग में मिलत फल भारी । कबहु न होवत कोई भिखारी ॥

सत्संग करे में परे दुःख हिता । आनंद में निगमना तेता ॥

मिथ्या संसार सुख के हिता । कोटि दुःख जन करत सहिता ॥

हरिजन सम जग में न केहा । निश्चल हरि सें कियेउ नेहा ॥

संसार में रहि तिन से न्यारे । सत्संग विन और रखे न प्यारे ॥

(૮/૪/૧૭-૩૨)

૮/૨૦/૨૯-૩૬.

૮/૩૮(૩૭)/૨૨-૨૬.

૮/૩૮(૩૭)/૩૧-૩૭.

૯/૪૩/૭-૧૫.

૯/૪૫/૩-૨૧.

૧૦/૫/૨૨-૩૦.

૧૦/૨૭/૧૫-૨૪.

૧૦/૩૩/૨૭-૩૪.

૧૦/૪૮/૩૫-૪૦.

૧૧/૫૨/૩૦-૪૦, ૫૩/૧-૨૬.

૧૧/૬૦(૫૦-બ)૩૪-૩૭.

૧૧/૮૨(૭૨)/૧-૨૨.

प्रगट हरि वा संत हि ताके । वा हरिजन कोउ मिलत वाके ॥

तेहि कर सत्संग को होत जोगा । चोराशि जमपुरि भागत रोगा ॥

अलौकिक सुख लहन को जेहु । सत्संग विन उपाय न केहु ॥

हरिजन संत कहावत जेते । एसी वात नित करना तेते ॥

(૧૨/૨૧(૨૦)/૩૫-૩૬)

૧૨/૩૭(૩૬)૮-૧૨.

૧૨/૩૮(૩૭)૭-૧૩.

૧૨/૪૯/૩-૧૨.

૧૨/૫૬/૧૦-૩૦.

૧૩/૩૧/૩૪-૩૮.

૧૩/૬૭/૧-૭.

૧૪/૪૦/૩૩-૩૯.

असत हि करना त्याग, सत को रखना जोग हि ।

तेसे जन बड भाग, सत्संग कहत ताहि कुं ।

हरि हरि के जन जोउ, धर्म नियम जो जे ते तेउ ।

भक्ति ज्ञान जो सोउ, वैराग्य जो सत हि कहत ॥

श्रीहरि के संबंध कर जेहा । जितने तीर्थ व्रत रहे तेहा ॥

सत करिके ताहि कुं कहेना । असत हें कबु न उचरना बेना ॥

हरि के संबंध भये जो जाकुं । असत करि सो कहत हें ताकुं ॥

सत्संग में बड़े होय जोउ । असुर के भूप देखना तोउ ॥

धर्मनियम त्याग महिं केहा । अधिक रहे सब संत से एहा ॥

भक्ति ज्ञान करि अधिक देखावे । ध्यान महिं तत्पर रहावे ॥

आपके प्रतिपादन अपारा । संत जेहि करे वारमवारा ॥

तेसे संत के गुन मुख गावे । अवर के अवगुन कहि देखावे ॥

जितने संत हरिजन जो एसो । कालनिमि जानना तेसो ॥

संत हरिजन निरमल तेते । सरल स्वभाव वरतत तेते ॥

(૧૪/૪૨/૨૭-૩૬)

૧૪/૬૩/૩૨-૪૦.

૧૪/૮૨/૧-૧૦.

૧૪/૮૩/૨૪-૩૩.

૧૫/૪૦/૧૪-૨૩.

૧૫/૪૭/૨૦-૨૬.

૧૫/૬૭/૧૩-૨૧.

૧૫/૭૭/૩૧-૩૬.

૧૬/૨૭/૨૬-૪૧.

૧૬/૪૦/૩૨-૩૭.

૧૬/૪૧/૨૨-૪૨.

૧૬/૬૯/૧૯-૩૩.

૧૭/૧૧/૧૯-૩૮.

૧૭/૧૯/૨૭-૩૬.

૧૯/૧૬/૨૧-૩૪.

૨૨/૪૯/૫-૭.

धर्म भक्ति वैराग्य जो ज्ञाना । भगवान संबंध जामें रहाना ॥

जीव जुत तेहि रहेउ बाता । जामहिं छलकपट न रहाता ॥

छलकपट जामें रहे जेता । निरजीव बात तितनी हि तेता ॥

मोक्षरूप फल हि जेही । निरजीव बात तामें तेहि ॥

होवत हि नहि कबहु रहाते । निरजीव बात एसी कहाते ॥

इतनि करी हरि बात, गरबि ताकेउ पद पिछे ।

बोलायेउ रहात, संत जीते बोलत भये ॥

(૨૮/૨૧/૨૨-૨૪)

૬/૨૧/૩૨-૩૮.

૩/૩૬.

૪/૫૧/૧૩-૨૦.

૬/૫૦/૧૨-૨૧.

૬/૫૦/૧૯-૨૦.

૬/૬૦/૩૨-૩૪.

૮/૩૭/૧૪-૧૭.

૮/૪૦/૨૩.

૧૦/૨/૨૧,૨૫.

૧૦/૨૫/૨૭-૩૬.

૧૦/૪૨/૩૪-૩૬.

૧૦/૫૨/૨૫-૩૧.

૧૨/૨૬/૭-૧૦.

૧૩/૪૯/૩૦-૪૧.

૧૩/૫૫/૨૫-૨૮.

૧૩/૫૭/૨૩-૪૦.

૧૪/૧૫/૧૫-૨૪.

૧૪/૧૯/૨૨-૨૭.

૧૫/૧૦/૨-૧૬.

૧૫/૨૯/૧૫-૨૧.

૧૫/૪૪/૫-૧૧.

૧૭/૮/૧૦-૧૭.

૧૮/૩૭/૩૪-૩૬.

૧૮/૪૧/૩૪-૩૬.

૨૭/૪૫/૨૯-૩૦.

૨૮/૪૨/૧૯-૨૧.

પ્રકરણ ૨ની પાદટીપો

૧/૫૫/૩-૬.

૨/૫૦/૨૩-૨૪.

૩/૧૫/૩૫-૩૬.

૪/૫/૧૬-૨૧.

૪/૩૨/૩૫.

पंच महापापी जन होई । हरिजन को करे विनय सोई ॥

सत्संग में सो अन्न कुं पाई । अंत्ये महाशुद्ध हो जाई ॥

जन्म मृत्यु कुं छुटि के ऐहू । अक्षरधाम में जावहि तेहू ॥

(૪/૩૫/૮-૨૨)

૪/૩૭/૨૦-૩૬.

૪/૬૬/૮-૨૦.

૫/૨૨/૫-૧૦.

૫/૩૭/૨૫-૨૮.

૫/૩૮/૧૨.

हमारो प्रताप कहावत जेता । नियम में सब रखे हे तेता ॥

समाधिनिष्ठ होय ब्रह्म हि वेत्ता । एसे संत हरिजन केता ॥

नियम अरु निश्वय विन तेहू । विमुख असुर जानना एहू ॥

नियम-निश्चे में न डंभ रहावे । जेसो अंतर तेसो कलावे ॥

तेहि कारन हम बांधे निमा । सब के मोक्ष करन हित सीमा ॥

(૫/૪૨/૨૧-૨૪)

૫/૫૦/૨૫-૨૮.

૫/૭૨/૨૬.

शाहुकार को चोर धरिके बानां । कितनेक धन सो लावत छानां ॥

तेहि कर चोर शाहुकार न होवे । बुद्धिमान तपासि जोवे ॥

नियम धर्म शाहुकार सो जानो । बिन नियम हि चोर प्रमानो ॥

देहकि स्मृति न रहे जाहि । नियम धर्म न रहे ताहि ॥

ज्ञान चक्षु हिन अंध कहावे । विषयरूप जाल में बंधावे ॥

ज्ञानि गुरु को संग करे जबहि । मोह जालसें छोरे तबहि ॥

(૬/૨/૧૮-૨૨)

૬/૨૬/૫-૧૨.

૬/૩૭//૨૨-૨૪.

૬/૫૦/૧૧-૧૬.

स्त्रिरूप माया विकट, इतने कुं घीरत नाहि ।

हरिअग्या में वर्तहि, तेहिकर कुशल रहाहि ॥

हरिअग्या रूप कोट में, वसत सो कुशल रहात ।

जो जो निकसे बार हि, देखे तर्त सो खात ॥

कलिकाल मध्य घोर, तामें हम प्रगट भयेउ ।

अधर्म को महाजोर, धर्मसैन्य विन न हठहि तेऊ ॥

धर्मरुप हथियार, संत-हरिजन कुं देत रहत ।

अधर्म सैन्य देवे माट, ज्ञानरुप तोप चढाइकर ॥

(૬/૫૨/૩૭-૪૦)

૬/૬૮/૪-૬.

૬/૭૮/૧૦-૧૫.

૬/૯૧/૫-૬.

૬/૯૨/૧૮-૨૨.

૭/૮/૨૭-૩૯.

૮/૧૭/૨૯-૩૨.

૮/૪/૧૫.

૮/૧૮/૧૭-૩૬.

૮/૨૦(૧૯)/૩૮-૪૦.

૮/૨૮/૪૦.

૮/૪૭/૧૨-૩૦.

૮/૬૧/૩૩.

૯/૮/૯-૧૩.

૯/૪૮(૪૯)/૨૨-૨૫.

धर्म तिहां भक्ति ज्ञान, ज्ञान तिहां वैराग्य रहेउ ।

वैराग्य तिहां भगवान, भगवान तिहां मोक्षपद ॥

भगवान तिहां धर्म, कुटुंब सहित सो निवास करत ।

अलौकिक यह मर्म, वेद स्मृति पुराण तिहां ॥

(૯/૪૯/૨૭-૨૮)

૯/૫૭(૫૮)/૯-૨૪.

૧૦/૯/૨૮-૩૯.

૧૦/૨૭/૨૯-૪૧.

૧૦/૪૧/૩૫-૪૦.

૧૦/૪૯/૨૦-૩૩.

૧૧/૨/૧૫-૩૩.

૧૧/૧૨/૭-૧૭.

૧૧/૨૪/૧૯-૨૫.

૧૧/૩૩/૩૩-૩૮.

૧૧/૩૮/૧૭-૨૩.

૧૧/૬૧/(૫૧-બ)/૧-૧૫.

भागवत धर्मनिष्ठ हि, त्यागी गृही जेते ।

श्रीहरि प्रसन्न करन हित, साधन करत हें तेते ॥

तेहि साधन कि लव सम, ओर साधन अपार ।

समता लहे नहि कबहु, जानत शुद्ध विचार ॥

(૧૨/૧૫/૩૧-૩૮)

૧૨/૨૫/૭-૧૦.

૧૨/૨૯/૧૩-૨૩.

૧૩/૪૭/૮-૨૦.

૧૪/૧૭/૩૩-૪૦.

૧૪/૨૭/૨૨-૨૮.

૧૪/૨૯/૩૨-૩૫.

૧૪/૬૭/૨૦-૨૨.

૧૪/૮૬/૧૭-૨૯.

૧૪/૮૭/૨૭.

૧૫/૩/૧૩-૧૭.

૧૫/૧૯/૩-૧૦.

૧૫/૪૪/૩૯-૪૦.

૧૫/૫૪/૩૦-૪૦.

૧૫/૬૪/૩૫-૪૦.

૧૫/૭૭/૩૭-૪૦.

૧૫/૭૯/૨૨-૨૭.

૧૫/૮૧/૩૯-૪૨.

૧૫/૯૧/૧૯-૨૪.

૧૫/૯૭/૩૪-૪૧.

૧૬/૩૮/૧૭-૪૧.

૧૬/૪૨/૨૭-૩૬.

૧૬/૪૫/૩૭-૪૨.

૧૬/૬૪/૩૯-૪૦.

૧૬/૬૯/૨૧-૨૭.

૧૭/૬/૨૭-૩૭.

૧૭/૧૨/૫-૧૫.

૧૭/૧૪/૧૮-૨૪.

૧૮/૧૫/૧૨.

૧૯/૧૮(૧૭)/૨૦-૨૫.

हमारे वचन करत हि जितना । हमकुं पूजत रहाये तितना ॥

जितना कुतर्क करत यामें । हम नहि प्रसन्न होवत तामें ॥

हमारे बचन बिन और जेता । मानत हम मनमुखी कर तेता ॥

मनमुखी होय च्हाय जो जेसा । असुर की जाति देखना तेसा ॥

हमारी देशी असुर हि जितने । आचरण हमारे सुनि तितने ॥

लेवहि हमारे पिछे केते । असुर बड़े रहे जो एते ॥

मोक्ष ताके खप होय जेहा । असुर कुं नहि मानहि तेहा ॥

मोक्ष के खप न होय जाहि । च्हाय तेसे चलो ते ताहि ॥

ता उपर नहि हकम हमारे । असुर की बात असुर रहे धारे ॥

मोक्ष के रूप न रहेउ जाहि । च्हाय ते से चलहि यह ताहि ॥

(૧૯/૧૯(૧૮)/૨૦-૨૪)

૧૯/૩૬(૩૫)/૧૧-૧૨.

૨૭/૮૨/૨૮-૩૩.

૨૭/૮૫-૮૬.

૨૮/૮૮/(૮૭)/૧૯-૨૨.

धर्मकुल में रहे धर्म की रीता । सो धर्मवंशी जानहु पुनीता ॥

अधर्माचरण कर ही कोई । धर्मवंशी न जानना सोई ॥

प्रणट हरि का निश्चय जाकु । धर्मवंशी दृढ जानना ताकु ॥

ऐसे कह सहजानंद स्वामी । हरिजन संत प्रति अंतर जामी ॥

(૧/૪/૧૧-૧૨)

૨/૪૯/૩૮-૪૦.

૪/૯૭/૩૯-૪૦.

૫/૧૩/૩૭.

૫/૪૭/૩૪-૩૬.

૫/૪૮/૬-૭.

૫/૪૮/૧૭-૨૬.

૬/૫/૧૯.

૬/૪૨/૩૨-૩૭.

૬/૬૮/૧૯.

૬/૭૧/૭-૧૨.

૬/૭૧/૩૭-૪૦.

૮/૩૧/૭-૮.

૧૦/૧૧/૭,૧૦.

૧૦/૨૮/૨૯-૩૬.

૧૨/૨૬/૧-૪૦.

૧૩/૩૭/૨૨-૩૧.

૧૩/૫૩/૧૦-૧૧.

૧૩/૫૪/૨૧-૨૩.

૧૩/૬૪/૩૫-૩૯.

૧૪/૧૭/૨૩-૩૦.

૧૫/૮/૩૨/૩૭.

૧૫/૪૫/૨૬-૨૯.

૧૫/૪૭/૪૨.

૧૬/૬૬/૨૮-૩૬.

૧૭/૪૨/૨૨-૨૪.

૨૫/૬૩/૧૦-૧૬.

૨૭/૪૮/૧૪-૧૬.

૨૭/૫૦/૧૦-૧૧.

પ્રકરણ ૩ની પાદટીપો

૩/૫૨/૨૬-૩૫.

૪/૩૫/૨૫-૩૩.

૫/૫૨/૧૪-૧૭.

भक्तजन संत की तुच्छता जेहि । कैसे समझना भक्त तेहि ॥

कोई भक्त की भार न लेशा । संतकुं गिने भिखारी जैसा ॥

आप में समझे अति मोटाई । मोटप के कोउ गुन न रहाई ॥

कहाँ लग मोटप रहावे एहा । और न मोटप समझत तेहा ॥

(૫/૫૨/૧૪-૨૧)

૫/૫૨/૨૪-૨૮.

अभाव उधेई लगे जेहि मूला । यो हरिजन जात समूला ॥

ब्हिते रहे हरिजन सें जेहि । आपसें अधिक जाने तेहि ॥

एक एक को महात्म्य जाने । घसातो वचन मुख न आवे ॥

तब असुर हो चले न लेशा । कोउ हरिजन में करे न प्रवेशा ॥

अभाव वचन में असुर करे जोरा । ता पिछे वात को रहे न ठोरा ॥

जाकुं सत्संग मरण प्रंजता । रखनो होय जो बुद्धिवंता ॥

बडे बडे हरिजन भये जेहि । ताकि रितकुं शीखना तेहि ॥

रित शिखे विन बढता न पावे । कोटि वर्ष सत्संग करावे ॥

सत्संग करनकि बात हें जेसि । कहि सुनावत हम हि तेसि ॥

त्यागि गृहि पर वात हें सबहि । समझे विन पार न परे कबहि ॥

समझे ताको हे सत्संगा । दिन दिन वृद्धि होय तेहि अंगा ॥

श्रेष्ठ में श्रेष्ठ यह बात हें, सत्संग करना जेह ।

सत्संग कियो तिन सब कियो, करन न रहे केह ॥

सत्संग हे परम चिंतामनि, चिंतामनि ओर न लेख ।

सबुद्धिमान सो जानहि, ओरकुं न आवत देख ॥

(૬/૧૦૨/૨૯-૩૬)

૮/૩૮(૩૭)/૨૩-૨૫.

૮/૫૦/૩૧-૩૪.

श्रीहरि कहे निज तन जेसा । संत हरिजन कुं जानना तेसा ॥

यामें जितनी रहे जो जुदाई । अपराध होवे कबहुक ताई ।

जितने करे अपराध हि जेहु । अवश पाप सो भुक्तत तेहु ॥

संत हरिजन ताहि की, अरुचि जितनी जाहि ।

ताको नाम अपराध हे, द्रोह हि होवत ताहि ॥

निज तन की अरुचि कबु, आवत नहि लगार ।

तन देहे कोटिक दुःख हि, राग होई वार हि वार ॥

सोहु करत हे जतन, धोवत तन मल नित नित ।

भरण हि करत पोषण, तोहु देत दुःख हमेश तेहि ॥

तन सें संत हरिजन, कोटि हें सुखदाई तेहु ।

मनात न त्यां लग मन, त्यां लग देह सो करत जन ॥

तेहि हित सत्संग, करनो सो वेर वेर सब ।

हरिजन को कोउ अंग, अरूचि द्रोह न होय कबु ॥

अंत समे हम आई, हरिजन कुं दरश देत सब ।

करत अति सहाई, यामें नहि हे फरक कछु ॥

(૯/૪/૩૩-૪૨)

૯/૪૦(૪૧)/૫-૧૬.

૯/૪૦(૪૧)/૨૮.

૯/૪૧(૪૨)/૩૯.

૧૧/૨૩/૧૭-૨૪.

૧૧/૬૦(૫૦-બ)/૩૨-૩૩.

૧૧/૮૬(૭૭)/૨૩-૨૪.

प्राकृतभाव ज्यां लगहि, गुन दोष त्यां लग ।

ब्रह्मभाव आवे जबहु, दोष न तब जो लग ॥

एक एक को दोष हि, देखत ज्यां लग जेहि ।

भक्त होई भगवान के, प्राकृत भक्त हे तेहि ॥

प्राकृतभाव हि जेते, कहे हें सत्ग्रंथ जो महि ।

जानि के सब तेते, त्याण करे हरिजन तेहि ॥

(૧૧/૮૬(૭૭)/૨૫-૨૭)

कलियुग पाप हि रूप, करत प्रवेश जब मुक्त महिं ।

तब सो होत विरुप, हरिजन के सो दोष कहत ॥

संत हरिजन के हरिजन ताके । दोष कहन लगे जब वाके ॥

हरिजन संत कल्पवृक्ष समाना । कल्पत जेसे आत देखाना ॥

हरिजन संत के जीय जेहा । शुद्ध काच सम सबके तेहा ।

तामें संकल्प कर हि जेसा । देखाई आवत सादृश्य तेसा ॥

परस्पर कुहेत जब होवे । गुण सब दोष करि तब जोवे ॥

कुहेत सो हे कलि को रुपा । स्वारथ भंग भये होत विरुपा ॥

परमारथ सें स्वारथ रहेउ । काम परे देखात तब तेउ ॥

परस्पर ज्यां लग रहे हेता । त्यां लग न होत कुहेता ॥

कलि करत प्रवेश जेहि वारा । हेत अपार करि देत खारा ॥

काजल सम यह लोक कहावे Iआकाश सम ताकुं दोष लगावे ॥

हरिजन के संग ज्यां लग हि । हेत रहत जीय में त्यां लगहि ॥

एक एक को हेत इच्छत अपारा । दोष न देखत कबहु लगारा ॥

हेत को जब हि होवत नासा । अपार गुण को रहत न पासा ॥

जितने गुण देखे दोष रूपा । अभाव सें गुण होत विरूपा ॥

(૧૨/૧૭(૧૬)/૧૬-૩૦)

૧૨/૩૦/૩૫-૩૬.

૧૨/૪૮/૫-૧૧.

૧૨/૫૧/૯.

૧૨/૫૧/૨૩-૪૦.

૧૨/૭૧/૩૫-૩૬.

૧૩/૬૫/૨૧-૩૩.

हरिजन गुरु - संत, मोक्ष के हें जो द्वार यह ।

अवगुन ताके कहंत, एसे कुं द्रोही कहत हम ॥

नियम धर्म यथार्थ रखे जोउ । तप करिके शुद्ध होव हि तोउ ॥

बद्रिधाम श्वेतद्विप मांहि । शुद्ध जब होवत रहाहि ॥

हरिजन संत गुरु ताके । अल्प गुन हि जेहि वाके ॥

मेरु सम गुन गावहि जबहि । हरि सो शुद्ध भये मानहि तबहि ॥

कपट कुटिलता रहे ज्यां लगहि । हरि सो तप करात त्यां लगहि ॥

नियम में जेति रहत कचाई । तितनी खोट सो जानत ताई ॥

हरिजन संत गुरु तिनके । दासानुदास होई वरते इनके ॥

अल्प गुन तेहि मेरु से भारी । मुख से कहेवे वार हि वारी ॥

तप सें गुन के बल अपारा । जानत द्रोह न करत को वारा ॥

सरल होइ सत्संग करहि । भवसिंधु सो सहज हि तरहि ॥

(૧૪/૩૧/૨૮-૩૫)

૧૪/૬૨/૭-૧૨.

एक हि दिन के साधु ताके । रंच जो दोष आवे वाके ॥

कोटि कल्प के रहे सत्संगा । तरत ताके होई जावत भंगा ॥

भगवान बडे संत से जोउं । पाप नहि छुटत हें सोउ ॥

जाको अपराध किने जाई । निष्कपट होई नमे ताई ॥

फेर न करे कोईको अपराधा । तब ताकुं न रहत तेहि बाधा ॥

ता विन करे कोटि उपाया । दोष न रतिभर जात रहाया ॥

जाहि हरिजन जितने, सत्संग के प्रताप ।

समाधि होय जद्यपि तोउ, संत जोनां अमाप ।

संत संत के दास होई, वरतहि जो जितने जेहु ।

मोटप से मोटप एहि हें, सबसें अधिक तेहुं ॥

(૧૪/૮૩/૩૪-૩૮)

૧૫/૧૯/૨૮-૩૯.

૧૫/૨૩(૨૨-બ)/૨૯-૩૭.

૧૫/૫૧/૨૦-૨૫.

૧૫/૬૪/૧૭-૨૧.

૧૬/૫૭/૨૯-૩૨.

૧૭/૬૫/૧૫-૧૮.

૨૦/૧૬/૨૪.

૨૨/૯૨/૩૦-૪૦.

निष्कपट जिहां लगहि, एसी बुद्धि रहात ।

तन छुटत रहे इनमें, निश्चे मोक्ष हो जात ॥

हरिजन में देखत दोष हि, चाय तेसे रहेउ ।

देह छते सत्संग में, विमुख होवत हि तेउ ॥

(૨૩/૫૮/૩૪-૩૬)

૨૩/૮૩/૩૩-૩૬.

भगवान, भगवान के जेता । भक्त जेते रहाये तेता ॥

दिन दिन अधिक महात्म्य ताके । जानत रहे धर्मजुत हि वाके ॥

ताके अभाव न कबु लहाता । धर्म की ज्यां लष्ण रीत चलाता ॥

सत्संग की ज्यां लग चलत रीता । त्यां लग रहे यह परम पुनिता ॥

सत्संग की ऐसे रीत रहाते । जानत तेहि हरिजन कहाते ॥

रीत जाने विन हरिजन तिनके । महात्म्य नहि रहावत इनकें ॥

महात्म्य बिन एक एक के जेहा । अभाव लेवत रहेउ तेहा ॥

हरिजन होय हरिजन के जितनां । अभाव लेवत रहेउ तितनां ॥

बाल मति रहे इतनां ताकि । सत्संग करेउ तोउ वाकि ॥

जितने दिन श्रीनगर तामें । श्रीहरि रहत भये जो यामें ॥

तितने दिन ऐसि बात अपारा । कहत भये न आयत पारा ॥

(૨૮/૧૧/૭-૧૧,૧૯)

પ્રકરણ ૪ની પાદટીપો

૪/૧૮/૪૧-૪૬.

ब्रह्मविद्या के अंग हे अनंता । सो जानत बेठे बुद्धिमंता ॥

अंतर्दृष्टि बिन बुद्धिवाना । ब्रह्मविद्या को न होवत ज्ञाना ॥

(૪/૮૯/૧૯-૨૨)

૫/૫/૨૯.

૫/૭૨/૨૦-૨૪.

૬/૬૪/૨૫-૩૦.

हमारे जो वचन ही जितना । हमकुं सो जानना तितना ॥

हमकुं जानी पालही जोहि । वचनरूप ता पास हें सोहि ॥

हमारि पास रहत दिन रेनां । सेवा करत रहत प्रवेनां ॥

वचन में न वरतहि जोउ । हमसे दूर तेहि जानना सोउ ॥

हमारो मत नकि हे एहु । सब हरिजन सो जानि के लेहु ॥

हमसे वचन हम मुख्य हि माने । वचन में हम अखंड ठाने ॥

(૬/૭૩/૨૦-૨૪)

૮/૪/૧૫.

૧૦/૩૩/૩૫-૪૦.

૧૧/૭૮/૫-૮.

૧૨/૧૭(૧૬)/૧૦-૧૨.

૧૨/૨૫/૭.

૧૩/૬૧/૧૭-૨૩.

संत होई हमार, नारी सन्मुख देखे जोउ ।

ताकुं कहत लबार, हरिजन जानत बात सब ॥

हमारे संत होई कर जेहा । नारि के सन्मुख बैठे तेहा ॥

नारि को रखे प्रसंग कोउ रीता । मति ताकि जानना विपरीता ॥

हमारे वचनरूप कोट जेता । उल्लंघन ताको करे तेता ॥

द्वार विन चले कोटकुं तोरि । ताकि महोबत न रखत थोरि ॥

संत वर्णि संन्यासि जेहु । पदाति तोरि रितकुं तेहु ॥

ताकुं करत सत्संग ब्हारा । ऐसि कि म्होबत न रखत लगारा ॥

गमे तेसे होय गुनवाना । जीय गये पिछे काय रहाना ॥

हरिजन सबकि रीत हें जैसे । तपास करिके चलत तैसे ॥

चलने कि रीत हि चलत जोउं । द्वार सडक यह कहत सोऊ ॥

द्वार सडक विन चले जीतनां । गुनेगार हि होवे तितनां ॥

बायुं के सत्संग हि जेतो । विवेक विन हि रहे सब तेतो ॥

मान देई बोलावे जाहि । तरत ताके आधिन हो जाहि ॥

अपमान करे नारि को जेऊ । कलंक दिये विन रहे न तेऊ ॥

सिता सम नहि कोउ नारि । लछ्मन सें बोले विन विचारि ॥

ओर नारि मात्र कि जोउ, कहाँ रहे अब बात ।

दूर रहे जब तिनसें जेहु, बचे में तेहि आत ॥

(૧૪/૭૨/૧૬-૨૫)

૧૫/૩/૧૫.

૧૫/૭૮/૧૨-૨૮.

૧૭/૬/૩૭.

૧૭/૧૦/૩૫-૩૬.

૧૮/૬૫/૧૮-૨૦.

૧૮/૬૭/૩૫-૩૬.

૨૦/૧૫/૨૧-૨૬.

૨૨/૩૯/૨૭-૨૮.

૨૨/૮૭/૧૭-૨૯.

૨૨/૯૨/૨૧.

૨૩/૧૫/૧૯-૨૨.

૨૩/૭૮/૩૦-૪૦.

૨૭/૮૨/૨૮-૨૯.

૨૭/૮૬/૬-૮.

પ્રકરણ ૫ની પાદટીપો

ऐसे अक्षरधाम निवासी । महा समर्थ रहेउ अविनाशी ॥

अलौकिक महास्वरूप रहाये । अक्षरादि के आत्मा कहाये ॥

अक्षर तिनसें परहि रहाना । सब जीय अंतरजामी कहावा ॥

सर्वोपरी श्रीहरि नाम जाही । चरित्र गुन अपार हैं ताही ॥

(૧/૫૮/૩૧-૩૨)

૧/૬૦/૪૦-૪૨.

૪/૧૧/૧-૧૬.

૫/૧૬/૨૫-૨૭.

हम मनुष्य न जानत केहा । तुमारि गत तुम जानो तेहा ॥

तब श्रीहरि बोलत भयेउ । इहां धाम सर्वोपरि रहेउ ॥

अब हरि इच्छा कर ताई । देखे में न आत रहाई ॥

इतने में हैं मुक्त अपारा । ताकी नहि है वार हि पारा ॥

आप आपको ज्ञान न केहू । मनुष्यभाव होई वर्तत तेहू ॥

सो तुमको सब होवहि ज्ञाना । तब तुमारे आवहि जाना ॥

(૫/૬૨/૪-૧૦)

૬/૨૬/૨૪-૪૨.

૭/૪/૧૧-૧૯.

जाकुं मिले अवतार, ताकुं हे सो सर्व पर ।

तेसे हें निरधार, पतिव्रत भक्त को पक्ष तेहि ॥

देखे सुने में भेद अनंता । एक हि एक बात रहंता ॥

देखि पारखना साचे सोउ । पारख बिन परखात न सोउ ॥

पारख कुं परखना जेहा । थोरे मनुष्य हें एसे तेहा ॥

हिरा से हिरा जात विंधाई । ता बिन कोटि चले न पाई ॥

श्रीहरि होवत प्रगट जबहि । आप दिये ज्ञान मनात तबहि ।

और जन देवे ज्ञान हि जेहु । आप गुन तामें लावे तेहु ॥

दरपन सम कहे जो बाता । वर्तन में आव देखाये ताता ॥

हरि महिमा आप जाने जैसे । सर्वोपरि सो माने तैसे ॥

और जाने न हरि महिमा जेता । तामें कसर देखावत तेता ॥

पाताल से अक्षर प्रजंता । सबमें कसर देखावे रहंता ॥

हरिमुख बात सो शोभे तेहि । सब अवतार कारन हें एहि ॥

देखादेखी बोले युं जाहि । अवतार के चोर होत ताहि ॥

अपनो मोक्ष हे ताके हाथा । प्रगट भोमि पर विचरत नाथा ॥

प्रगट विन नहि मोक्ष तत्काला । बात करना जिमि लणे रसाला ॥

अवतार आगे अवतारा । हो गए कछु वार न पारा ॥

प्रगट कुं जन माने जबे, तब तेहि प्रसन्न होत ।

एसे कहेना विवेक तेहि, विवेक बिन बात बिगोत ॥

उपासना जाकुं नेह, भगवान के अवतार हु की ।

प्रतिपादन करना तेह, प्रगट पर भाव सी करे तबे ॥

ओर कुं रखिये सत, आपकुं माने सब तबे ।

जो कहिये असत, तब सो कहे असत कर ॥

अपनी बानी आपे पुजावे । पूज्य करि जो ओर कुं गावे ॥

हरि अवतार चरित्र हि ताके । खंडन करे असुर हें पाके ॥

जाकुं मिले प्रगट अवतारा । एसे भक्त भये अनंत अपारा ॥

ताकि रीत जोई के चलना । ता उपरि पाव न धरना ॥

मुख से चरित्र को करे गाना । ता उपर रीझत भगवाना ॥

प्रगट सो करना गान हि जोउ । सत्य सो मोक्षदाई हे सोउ ॥

सब अवतार के भक्त हें जेहु । ताको एसो तान हे तेहु ॥

आप आपके घर को सबहु । जनमात्र तान रखत हें अबहु ॥

सुबुद्धि जन सो जानना, घर पर रखे जो तान ।

निज घर पर नहि तान जेहि, अंत्ये सो होत हेरान ॥

त्रिशंकु गुरु कुं छोरि के, और गुरु किये जोय ।

अधर लटकत हें अबहि, सब जग जानत सोय ॥

(૮/૧૩/૧-૪૦)

सबसे पर सत्संग में, मैं रहूँ करि निवास ।

जथार्थ मम स्वरूप को, चितवन करत मम दास ॥

जो जो करत मैं वारता, मेरी हें यह तान ।

मूर्ति सम रहे न कोउ कबु, पदार्थमात्र हि आन ॥

मूर्ति विन नहि चित, चिंतवन करत न जाहि को ।

ता पर हे मोय प्रीत, ओर प्रीत नहि अक्षरलग ॥

(૯/૨૭/૨૫-૨૭)

૯/૩૨/૨૧-૨૬.

भचाउ गाम प्रति हरि आये । तिहां लुवार हरिजन रहाये ॥

ताके भुवन उतरे हरि आई । हरिजन सो अति निर्मल रहाई ॥

रामकथा तुलसीकृत जेहु । हरिजन सो पढे हें तेहु ॥

रामचंद्र के चरित्र हि जेते । हष्टि वंचावने लगेउ तेते ॥

हरि में रामचंद्र को रूपा । देखत भये हरिजन अनूपा ॥

एसो दरश भये जेई वारा । नेत्र से नीर वहन लगे धारा ॥

गद्‌गद कंठ मुन भये बेना । अचेतन भये देह रहे न चेना ॥

तब श्रीहरि रूप लीन कीने । अक्षरधाम में दर्शन दीने ॥

अवतार अनंत तेहि धाम में, हरि के देखे हजुर ।

ताके देखे सब भक्त हि, आनंद भये अति उर ॥

देखाये घडि चार हि, भये श्रीहरि में लीन ।

सब कारन अवतार यह, जानत भये प्रवीन ॥

श्रीहरि कहत न बात, में भगवान जो प्रगट भयेउ ।

प्रताप जाकुं देखात, प्रताप सो कहत रहत ॥

(૧૦/૨૯/૩૧-૩૯)

૧૨/૩૧/૭-૧૨.

૧૩/૩૦/૧-૧૧.

૧૫/૫૩/૬-૨૫.

૧૫/૫૫/૧-૩૨.

૧૫/૫૬/૧-૩૪.

सहजानंद स्वामी जो, मुक्तमुनि कह रहे बात ।

पिछे सो बोलत भयेउ, सर्वेश्वर साक्षात् ॥

अक्षरधाम के धामी जो, प्रगट मिले जब जाहि ।

वेद पुरान साधन सब, आई रहे ता मांहि ॥

पिछे करना जेहि, ताकि कहत हें बात अब ।

तत्पर सुनो मुनि तेहि, सुनि के करना मनन नित ॥

हमारो मत हे जेह, तेसे समझना तुम सब ।

साधन के सार हे एह, ता विन साधन निर्जीव रहे ॥

गुरु संत हरिजन जेहा । भजना प्रगट हरि कुं तेहा ॥

चैतन चैतन जो ता मांहि । एसे एक से अधिक रहाहि ॥

सब हि सम समझना नाहि । तारे से चंद्र अधिक कहाहि ॥

चंद्र से सूर्य अधिक देखाते । चैतन में एसे भेद रहाते ॥

पशु करते मनुष्य जो तामें । अधिक ज्ञान रहाये हे यामें ॥

मनुष्य से देव अधिक रहाये । देव से ईश्वर अधिक कराये ॥

ईश्वर से परमेश्वर जेहु । अति अधिक सो रहाये तेहु ॥

संत-असंत तामें जोउ । अपार भेद रचे हें सोउ ॥

गंगोदक मदिरा जो जेसे । संत-असंत में भेद हें तेसे ॥

जब जब जाकुं मिले भगवाना । ताके भजन जेते करत रहाना ॥

सो सब जन हरिजन रहेउ । ताकि तुल्य ओर जन न कहेउ ॥

च्हाय तेसे साधन करावे । तोउ मायिक जन सो कहावे ॥

भगवान अरु भगवान ताके । मिलनवार मिले संत वाके ॥

वा ताके मिलनवार मिलेउ । एक एक संबंध कर तेउ ॥

हरि के निश्चय आश्रय करहि । अपार जन भवसिंधु तरहि ॥

लीला सुंदर में प्रगट करेउ । के’ना सुनना आनंद भरेउ ॥

अंतकाल जब होव हि, मेरे आश्रित ताहि ।

रथ अश्व विमान लेइकर, लेइ जावहि याहि ॥

दास के दास होई के, करना नीत सत्संग ।

भक्ति प्रमान करहि तब, कीर्ति बढ़हि अभंग ॥

मम मूर्ति मम धाम, मेरे संत हरिजन तेहि ।

जपत जो मेरे नाम, गुणातीत हि रहे एहि ॥

ताकुं जो असत् कहत, असत् कर जान हि जेउ ।

तेह जन सबहि मरंत, जम जोरे ले जात पकड ॥

ऊंधे सिर तेहि खेंचत जाई । श्वपच श्वान जिमि खेंचत ताई ॥

धारत में दिल बात हि जेता । असत् होई जावत तेता ॥

मेरे गुन कहावत हि जितने । साम्रथि जुत गवावत तितने ॥

मेरी दृष्टि करिके जोउ । समय पर ब्रह्मांड यह सोउ ॥

उपजत लीन हि होई जाते । कोउ के तर्क में यह न आते ॥

सत्संग तामें रहत सदाई । हरिजन पर हि राचत रहाई ॥

प्रेम रंग हरिजन जो केरा । रंगात रहत में वेर हि वेरा ॥

हरिजन के द्रोह करत जितना । जम के किंकर होवत तितना ॥

अखंड यह ब्रह्मांड तामें । रहत मैं निवास कर यामें ॥

जोगि नृप विप्र रूप धारी । विचरत रहत हें वार हि वारी ॥

मेरी रीत हें जेहि प्रकारा । तुम कुं कहे सब करिके प्यारा ॥

एसि रीत जानिकर जन जेहा । मेरे कुं जेते भजहि तेहा ॥

मेरे सुख रहाये जितनी । निश्चे पाव हि जन जो तितनो ॥

इतनी बात हरि कर रहे जबहु । संत हरिजन सुनि के तबहु ॥

प्रसन्न भये कोउ वार न पाया । हरि एसे सुख दिने अपारा ॥

अपार मरजी देखे हरि केरी । हृरिजन शीघ्र सबहि ते वेरी ॥

(૧૫/૫૭/૧-૨૪)

૧૫/૭૭/૧-૭.

૧૬/૨૭/૧૯-૨૧.

श्रीहरि पुनि कहत भये, हरिजनहि प्रति बात ।

साचे सत्संग जोग बिन, बात नहि समझात ॥

परब्रह्म भगवान के, ज्ञान बिन कोउ दिन ।

ब्रह्मरुप जीव न होत कबु, सिद्धांत बात हि किन ॥

परब्रह्म की उपासना बिन हि । ब्रह्मस्थिति न होवत किनहि ॥

ब्रह्मस्थिति सिद्ध होवत जेहा । चाय तामें प्रवेश करे तेहा ॥

इहां बैठे जेते लोक की बाता । देखत रहत हि जिमि साक्षाता ॥

(૧૬/૪૬/૧-૬)

૧૬/૫૯/૨૯-૩૦.

૧૮/૪૩/૩૪-૩૬.

૧૯/૪૦(૩૯)/૩૫-૪૦.

श्री पुरुषोत्तम ऐसे जेउ । भगवान जेहि कहावत तेउ ॥

ताके शरीर आत्मा कहेउ । तथा अक्षर ताकुं कहेउ ॥

आत्मा अरु अक्षर पण जेहु । माया तिनमें पर रहे तेहु ॥

एसे आत्मा रू अक्षर जोउ । भगवान के शरीर सोऊ ॥

आत्मा अरु अक्षर हि ताके । विषे व्यापक रहाये वाके ॥

अरु यह दोनु व्याप्य रहाते । भगवान के आधिन कहाते ॥

अरु भगवान स्वतंत्र रहेउ । आत्मा अरु अक्षर जो तेऊ ॥

भगवान के रहे आधिनां । परतंत्र रहेउ होय दीनां ॥

प्रेरक स्वतंत्र नियंता रहाते । सकल ऐश्वर्य संपन्न कहाते ॥

पर ऐसे जो अक्षर कहिता । तेहिसें पण पर सो कहिता ॥

ऐसे जो पुरुषोत्तम कहीजे । भगवान जाके नाम लहिजे ॥

सो जीवके कल्यान कहीता । कृपाये करीके परमप्रीता ॥

पृथ्वीके विषे वेर हि वेरा । मनुष्य जेसे फेट हि फेरा ॥

जनाई आवत हें जो ताकुं । ऐसि रीते सदा दिव्य वाकुं ॥

मूर्तिमान जानिके ताकि । उपासना भक्ति करत वाकि ॥

तेहि यह भगवान ताके । सामर्थ्यपनाकुं पावत वाके ॥

अनंत ऐश्वर्य रहे जो तिनकुं । पावत रहे सहज हि ईनकुं ॥

अरु ब्रह्मभाव तिनकुं जोऊ । पाये निजके आत्मा सोऊ ॥

(૨૧/૬૫/૧૮-૩૬)

૨૬/૧૧/૩૭-૩૮.

૨/૯/૩૦-૩૧.

૨/૧૮/૧૦-૧૧.

धन्य आज आश्रम को भागा । धन्य धन्य यह बद्रितर जागा ॥

तरु यह सब भये बड़ भागी । तुमकुं न जाने सोहि अभागी ॥

हमकुं कृतार्थ करन हित, तप के मिस ले आये ।

निज सामृथी अनंत ही, फिरत हो छिपाये ॥

तुम सें जो अधिक कोउ हि, हम हि देखत नाहि ।

तुम सें अधिक हि कहत हैं, देव नर पशु कहाहि ॥

तुम जैसे तुम एक हो स्वामी । ऐसे हम जानत बहुनामी ॥

तुम से अधिक कहत हें जाही कोटि वेर नरक सो भुक्तत ताही ॥

तुमकुं लई मोटप करे जाकी । पाप मिट सद्‌बुद्धि होय ताकी ॥

तुम्हारे प्रताप न जानत जोई । हमकुं अधिक कर मानत सोई ॥

अधिक में अधिक कियेउ आई । हमकुं दरस दिये हित लाई ॥

(૨/૧૮/૨૩-૨૯)

माया काल नियंता कहीये । क्षरअक्षर पर्यंत हि लहिये ॥

कर्मके फलप्रद सबके ऐहा । एहि सम कोउ न और हि जेहा ॥

सब कारन के कारन हैं ताई । अनंतशक्ति धर ईश्वर जाई ॥

सब प्रेरक परब्रह्म कहाउ । साकार सदा ब्रह्मपुर रहाउ ॥

मुक्तकोटि जेहि चरनकुं सेवे । निशदिन नामरटन मुख लेवे ॥

अक्षर मुक्त ईश्वर जीय जोउ । सब कर ध्येय कहावत सोउ ॥

(૩/૨/૧૯-૨૨)

नारायन बोलत भये, सुनो नर तुम भ्रात ।

अवतार अनंत भये, ऐसी न सुनि कोउ बात ॥

अवतार अनंत कारन यह, अक्षरपति अविनाश ।

श्री पुरुषोत्तम प्रगटे, अधर्म के करन नास ॥

तब बोले मुनि तेहि जोई । हम जानत है तुम हो सोई ॥

तब बोले नारायनदेवा । हम जैसे सो अनंत हें एवा ॥

एहि सम ओर न कोउ कहावे । आदि नारायन एक रहावे ॥

हम इनको नित करत हें ध्याना । उरमें दर्श कब देवत बखाना ॥

हमकुं अगम हें ओर क्या बाता । मरजी में इनकी हम रहाता ॥

इनकी अग्या हम रती न तोरे । हमारे विचार सो तोरे जोरे ॥

ईनकी मरजी होय त्यां लग हमही । सब जग मानत हें तबही ॥

(૪/૧૨/૩૬-૪૭)

तब बोले मुनि मुसकाई । सर्वोपरि बात हम पाई ॥

सब सुखकारन जोई कहावे । सोउ श्रीहरि यहाँ रहावे ॥

इनसें पर न कोउ अधिकाई । ऐसी बात हम निश्चय पाई ॥

बदरिकाश्रम गये हरि संगा । रामानंद स्वामी देखे उमंगा ॥

हरि मूर्ति अदृश्य भइ तबहि । बदरिकाश्रम गये हम जबहि ॥

नरनारायण दर्श भयो, हमकुं बेठाये पास ।

हरिचरित्र पुछन लगे, मन में होय हुलास ॥

तब हम तिन सें पुछत भयेऊ । सुने अवतार तुमहि लियेऊ ॥

सो तुम अखंड बेठे हो आंही । यह बात हम जानत नांही ॥

हम पुछे यह बातहि जबही । नरनारायण बोले तबही ॥

श्रीहरि अक्षरपति जोई । एहि सम समर्थ अवर न कोई ॥

एसे यह नहि हरि अवतारा । यह सबके हें कारन वारा ॥

इनके माथे नहि कोउ ओरा । एहि सब के हें माथे जोरा ॥

अनंत भये अवतार, तिनके भक्त अनंत जेहि ।

दर्श हि एकहि बार, निशदिन इछत रहत तेहि ॥

हमकुं दुर्लभ एह, इनको दरश एक वेर हि ।

सो नरतनु धरे देह, अब भरतखंड को भाग्य महा ॥

अनंतकोटि जन होवेंगे, भव पार अबे ।

हरि करि प्रसन्न, एसो समो न आये कबु ॥

(૪/૧૪/૮-૩૯)

संत हरिजन प्रेमी जेते । समाधि कर रहे हें तेते ॥

ताकु देखत हरि कर प्रीति । अवतार सें कबु न भई यह रीति ॥

अवतार अवतारी में भेद रहेऊ । सामर्थ्य करके जान परेऊ ॥

समाधिवारे कहत सो बाता । ओरकुं न आवे समझाता ॥

(૪/૫૯/૨૦-૨૨)

૪/૫૯/૨૭.

૫/૭૪/૩૦.

ओर अवतार भये जितने । दश अरु चोविस हि तितने ॥

श्रीहरि में सब हि हो गये लीना । एक रहे श्रीहरि सुख दिना ॥

स्वामिनारायण नाम, तामें नाम अनंत जेहि ।

सब भये विश्राम, तिनसे अधिक न रहे कोउ ।

विप्र देखे प्रताप, ऐसो आपके उर महिं ।

जपन लगे सो जाप, अनंत साम्रथ जानकर ॥

(૬/૧૩/૩૧-૪૦)

पुरुषोत्तम भगवान की, करत सहाय न कोई ।

सब की सहाय सो करत हे, ऐसे सम्रथ हे सोई ।

आनंदमय तेहि धाम हे, आनंदमय तेहि भोग ।

आनंदमय मूर्ति तेहि, सदा परम अरोग ॥

(૬/૨૧/૯-૧૪)

श्रीहरि आये जेतपुर, भद्रावति गंगा पास ।

रामानंद स्वामी नाये जिहां, संग ले हरिजन दास ॥

रामानंद स्वामी देखे ईहां, मूर्तिमान साक्षात् ।

श्रीहरि उतरे अश्व सें, चरन परे सो आत ॥

भेष धरे अद्भुत, ओर जन न कले कोउ ।

लगाये अंग विभूत, श्रीहरि देखिके आनंद भयेउ ॥

श्रीहरि कुं कहत, दरश करन कुं आये हम ।

केसे तुम विचरत, जन मनोरथ पूरे करन ॥

ओर भये अवतार अनंता । गिनत गिनत न पार लहंता ॥

जितनो जामें प्रताप रहाये । तितनो सबने साम्रथ जनाये ॥

दिपक मशाल हुताशन जेता । अति साम्रथ देखाये तेता ॥

केतने विद्युत वडवानल जेते । अति प्रताप देखाये तेते ॥

केतने तारा-चन्द्र समाना । इतनो प्रताप देखाये बलवाना ॥

केतने एक सूर्य प्रमाना । साम्रथ में साम्रथ इतनो देखाना ॥

आगे भये अवतार हि जितना । ताको साम्रथ देखे तितना ॥

महाप्रले आगे प्रले ओरा । देखे में न आवे कोउ ठोरा ॥

अनंत अवतार को साम्रथ जितनो । यामें आई गये सब तितनो ॥

विचरन में सो आत देखाई । असुर जन नहिं देखत ताई ॥

सत धर्म के पुत्र तुम, भक्ति सत् मात हि तोर ।

ज्ञान वैराग्य सत बंधु तव, देखे में आये मोर ॥

धर्मकुल हि जितनो, विचरत सत्संग माहि ।

सत्संग हे एक आधार तेहि, तेहि विन ठोर नाहि ॥

धर्म, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य चारु अंग जुत ।

धर्मवंश कुं जान, मानहि संतसें मुख्य कर ।

धर्म भक्ति वैराग्य रु ग्याना । तेहि जुत संत को करहि सन्माना ॥

चार में मुख्य हरिज्ञान जो होवे । ता विन संत को मुख न जोवे ॥

हरि के ग्यान बिन धर्मवंशि भारी । एक वेर अन्न देवे को अधिकारी ॥

मानने को नहि तेहि अधिकारा । बांझ गाउ से कहां होय विस्तारा ॥

संत हरिजन की एसी रीति । बांझ जोई के न कर हि प्रीति ॥

हरि के ग्यान जुत जन फलवाना । ताको करहि धर्म जोई सनमाना ॥

तुम जानत हरि सबहि बाता । इतनो संकल्प भयो सो कहाता ॥

(૬/૫૨/૧-૨૦)

महा तखत छोरि इहाँ आये । सत्संग को अति भाग्य रहाये ॥

तुमारी येवा-पूजा जोऊ । करने मुक्त इहां आवत सोऊ ॥

रहेवत धाम में आवत आंहीं । तब ताके उर शान्ति रहा हि ॥

फेर न आवनो परे यह ठोरा । एसो मोक्ष को करनो नोरा ॥

धर्म-भक्ति वैराग्य हि जेहा । जिरनता कबउ न पावे तेहा ॥

एसो कछु करो उपाया । तुमारी नजर में सबहि रहाया ॥

मंदिर करब देश हि देशा । तुमारो दरश महिं होय हमेशा ॥

तुमारो स्थान रखे सदाई । एसो एक धर्मवंश रहाई ॥

(૬/૫૨/૨૦-૨૪)

हरि विन और हरि होई आवे । चमत्कार अनंत देखावे ॥

बाजीगर सम जाने ताकुं । विमुख करिके लेखे वाकुं ।

हरि जनु बोलत तेहि संग, देशि लावत तेसि ।

हरि के जंबुरिये संत हि, तामें लोभात न लेसि ॥

हरिजन में जो पर्वतभाई, जंबुरिये भये एक ।

हरि विन हरि अवतार हि, देखे में आवे अनेक ॥

हरि कहे में हु तेह, तोहु न डगे मन लवलेश कबु ।

अवतार सब हि जेह, पर्वतभाई के पिछे हि फिरत ॥

खेत में खेति करत, पर्वतभाई सो जाई कर ।

अवतार सो पिछे फिरत, पांच वर्ष लग रहेउ इमि ॥

पांच वर्ष लग वढे हरि ताहि । अवतार कुं क्युं न मानत रहा हि ॥

हरि वढत तब हसत तेउ । अवगुन कबहु न लेवत एहु ॥

बोत वढत तब बोलत तेहा । सब कारन तुम मिले हो एहा ॥

कारन में कारन रहे अनंता । तुमारो पार हि कोउ न लहंता ॥

हम हें जीव एक मति वारे । तुमारे सामर्थ्य को नहि पारे ॥

एक तरु के थड सें जोउ । डारे पात फल अनंत हि होउ ॥

सो सब नहि बाथ में आवे । तरु विस्तार अपार रहावे ॥

थड कुं लिये बाथ हि जबहु । कोउ बाहिर न रहे तबहु ॥

हमारे थड तुम हि मनाये । तुम में थड सब हि जो आये ॥

दृढाव करे हम वज्र समाना । कोटिभुज आवे भगवाना ॥

तुमारो सो सामर्थ्य हम देखे । तुमसे विशेष कोउ न लेखे ॥

मन में करत हम घाट हि जेसा । तर्त दरश देत तुम तेसा ॥

तुम बिन कहत न बात हि ओरा । हरिजन भये तदपि रहे भोरा ॥

कारन छोड कार्य में धावे । एसि मति जीय की रहावे ॥

पुरन कृपा जब होत तुमारी । तुम में एकमति रहे हमारी ॥

सामर्थ्य तुमारे अपार हि, देखत न आवे पार ।

अनंत कोटि ब्रह्मांड हि, एक रोम रहे द्वार ॥

ब्रह्मा अनंत ब्रह्मांड में, एक एक से अपार ।

तुम सें सामर्थ्य ताहि को, देखे में न आवत पार ॥

चिंतामनि के मांहि, पदार्थ एक न देखात तेहि ।

ता महिं सब हि रहा हि, समय में आत देखाई सब ॥

(૮/૨૫/૨૪-૪૦)

૯/૨૪/૨૯-૩૫.

तुमारी मूर्ति अवतार अनंता । अंतर में देखत रहंता ॥

सूर्य मशाल में फेर हि जितना । तुम अरु अवतार में फिर हें तितना ॥

सूर्य में प्रताप रहे हें जेसा । सबके देखे में आवत तेसा ॥

तेसे हें हरि प्रताप तुमारा । कहे न आवे कबु मुख से बारा ॥

श्रीहरि कहे हरिजन से, प्रताप जामें जेतो ।

छपाये छपि न रहत हें, कस्तूरी गंध तेतो ॥

(૧૧/૧૪/૨૧-૩૭)

अवतार धरत हरि जब हि, आगे के प्रताप ।

खेंचे लेवत निज मूर्ति में, तापर थापत आप ॥

सर्वोपरि अवतार, जो भक्त कुं मिले जेहि ।

ऐसे करे निरधार, एकांतिक जो जो भक्त तेहि ॥

(૧૧/૧૭/૩૮-૪૦)

रामनौमि की रात्रि में, जाग्रन सारी रात ।

प्रेमी भक्त जो करत भये, सर्वोपरि जानत वात ॥

सर्वोपरि हरि कुं कहत हें, तन पर अधिक तान ।

कथनमात्र सो ज्ञान है, मानत नहि बुद्धिमान ॥

हरि को निश्चय अपार, जनकुं देखावे वात कर ।

ता पर रखे जन प्यार, इतनो फल तेहि मिले रहेउ ॥

जो जो करे वात, तन ब्रह्मांड से पर जेहि ।

सन्मान तन को न च्हात, इतनो फल सो माने तेहि ॥

सर्वोपरि हरि कुं जानि । साचे जो जो संत विज्ञानी ॥

निज तन गिनत तृण तेहि जेसा । राग द्वेष न कोई से लेशा ॥

ईर्ष्या असूया जन पर त्यागे । पद पंकज हरि के अनुयागे ॥

अपमान करे कोउ दुःख न ताको । समझ बल अगाध हि वाको ॥

तन ब्रह्मांड से वरते बारा । कबु तेहि दुःख न आवे लगारा ॥

मायिक जन को व्यवहार हि जेता । बालक खेल सम समझे तेता ॥

बुद्धिवंत यह संत अपारा । ऐसे संत न भये कोउ वारा ॥

वर्णि हरिजन कहावत जेते । समझ अपार हि पाये तेते ॥

ज्युं ज्युं तन में परे अति दुःखा । त्युं त्युं मानत भयेउ सुखा ॥

दुःख में हरिगुन गहत अपारा । एसे पायेउ पर विचारा ॥

तन ब्रह्मांड से वर्तना न्यारा । ऐसी समझ जन पाये हजारा ॥

समझ रूप सुख सागर जेहा । आश्रित कुं हरि देखाये तेहा ॥

समझ करि जन मगन रहावे । हरि विन ओर में नहि लोभावे ॥

पाताल से पुरुष लग हि जोउ । जो जो सुख कहावत सोऊ ॥

अधिक से अधिक सुख हि जेता । अधिक अधिक विष समझत तेता ॥

श्रीहरि की एसि समझ देखाई । यह सुख से न लोभावे ताई ॥

स्वप्न में सत्य न माने तेहि, असत जाने जो भोग ।

सर्प अनल विष को जिमि, तन करि करत न जोग ॥

(૧૧/૧૮/૧-૧૩)

हरिजन संत सो दिव्य कहावे । स्वामिनारायण मुख जो गावे ॥

अवतार भये अनंत अपारा । इनसे कोउ न देखे पारा ॥

सबको सामर्थ्य कहावत जेतो । इनमें सबहि समझे तेतो ॥

इनसे परे न देखे एका । परे कहे ताकुं न विवेका ॥

अवतार को द्रोह करे ज्यां लगहि । सत्संग करने कसर त्यां लगहि ॥

अवतार के द्रोह करे जितना । असुर मति सो कहावे तितना ॥

द्रोह तजी अवतार को जेता । प्रगट में तोडे तान हि तेता ॥

द्रोह विन करे वात हि जेहि । अति हित लाई के तेहि ॥

संत मति ताकि सो कहावे । सर्वोपरि तेहि समझ रहावे ॥

दिव्यभाव करि समझे तेते । तेसे अवतार के भक्त हि जेते ॥

(૧૧/૪૨/૧૭-૨૧)

समाधिवारे जन जेहि, देखत भये सब तेह ।

ता विन जन देखत नहि, अलौकिक वात हे एह ॥

वैकुंठ गोलोक धाम जो, सर्वोपरि अक्षरधाम ।

श्रीहरि समीप रहत तेहि, देखत जन निष्काम ॥

(૧૧/૮૮/૨૫-૨૬)

धर्म भक्ति वैराग्य हुं ज्ञाना । सदा साकार माने भगवाना ॥

पंच तत्त्व कहावत जेहु । सर्वोपरि हम माने हें तेहु ॥

अनंत बातन के मूल हे एहि । वात और शाखा पत्र हे तेहि ॥

ताके पुष्प हे अक्षरधामा । फल साकार हे श्रीघनश्यामा ॥

धाम को त्याग सो करत न कबहु । अनंत तन धरत तौ तबहु ॥

जोगकला हें तामें अनंता । ब्रह्मादिक पार न लहंता ॥

पंडित पुरानी और हि ज्ञानी । बडे बडे मुक्त सिद्ध ध्यानी ॥

अकल कले में कबहु न आवे । भक्ति होवे ताकु देखावे ॥

भक्ति विन वश होवे न ओरा । एसे हें अकल बड़ जोरा ॥

तुम नजर कर देखो आगे । ऐसे ये नहि आवत लागे ॥

भक्तिवंत होय जेहि पूरा । सो नहि देखत नजर से दूरा ॥

सत्संग भक्ति विन जन जेते । वात माने में न आवत तेते ॥

(૧૨/૫૪/૬-૨૩)

૧૪/૩૩/૧૪-૪૦.

૧૫/૨૩/૧૨,૨૫.

૧૫/૪૫/૨૦-૪૦.

सर्वोपरि जानत हरि कुं जेता । सर्वोपरि होई जावत तेता ॥

भगवान ताकुं जिस रीता । जानत जन होत तिस रीता ॥

जेसे पात्र दिवेल हि ताको । बाती के जोग रहे वाको ॥

जोग तेसे होवत प्रकाशा । तितनो तम को होत नाशा ॥

(૧૫/૮૪/૧૧-૧૨)

अपार ताहि समाधि भयेउ । वैकुंठ गोलोक में जाय रहेउ ॥

केते जन गये अक्षरधामा ॥ शोभा देखत भये तेहि ठामा ॥

जेते अवतार के हरिजन जेता । दिव्यतन देखे सबहि तेता ॥

पृथक् पृथक् रहे भवन हि ताके । स्फटिक मनि बिन एक न वाके ॥

अक्षर तासु अपार रहाये । ब्रह्मा वेद कुन लेख में कहाये ॥

हरि की जोगकला रहे अपारा । क्षुद्रजन कैसे करे निरधारा ॥

हरि की समझ बिन समझ जितना । जन के बंधनरूप रहे तितना ।

आपकी बुद्धिबल चले जेता । तितना दुःख प्राप्त भये तेता ॥

हरि की समझ पर चले जेउ । अपार सुख तेहि पावे तेउ ॥

तितनी कीर्ति गवावत ताकी । हरि की समझ पर चले वाकी ॥

(૧૭/૬/૭,૮,૧૭,૨૪)

૧૭/૨૫/૧૬-૧૮.

પ્રકરણ ૬ની પાદટીપો

૪/૪૮/૧૧-૨૧.

૫/૩૩/૨૬-૩૦.

૯/૨૯/૧-૮.

૧૦/૫/૩૨-૩૫.

૧૦/૯/૧૯-૨૦.

૧૦/૩૦/૯-૨૪.

૧૦/૪૯/૩૯-૫૦.

૧૪/૩૧/૮-૧૨.

૧૪/૩૭/૩૪-૩૫.

૧૫/૪૩/૫-૭, ૧૦-૧૨.

૧૫/૫૪/૧૨-૧૪.

૧૫/૫૫/૩૫-૪૦.

૧૫/૯૭/૨૫-૩૩.

૧૫/૧૦૦/૨૯-૩૩.

૧૬/૩૮/૭-૩૮.

૧૯/૧૬/૫-૨૦.

૧૯/૫૭(૫૬)/૧૮-૨૪.

૨૦/૬૮/૨-૧૨.

૪/૭૨/૨૦-૨૧.

૬/૩૭/૬.

૭/૩૧/૩૮-૩૯.

૮/૨૫/૭-૧૪.

૮/૫૫/૧૮-૨૪.

૯/૪૧(૪૦)/૫-૭.

૧૦/૪૬/૧૮-૨૮.

૧૨/૬૦/૧૭-૨૯.

૧૩/૨૫/૧૦-૨૪.

પ્રકરણ ૭ની પાદટીપો

૧/૬૭/૨૪-૨૫.

૩/૪૯/૨૨-૨૬.

दिव्य ज्ञान देन जीव अनंता । च्यार धाम में फिरत विचरंता ॥

दिव्य हि मेरो ज्ञान कराई । दिव्य धाम में पोंचाये ताई ॥

मोक्ष भागि तेहि जन हमारा । तेहि लगत हमकुं बहु प्यारा ॥

कोईके न होवत हम आधिना । श्रद्धा ज्युं ज्युं वृद्धि होय तेहा ॥

माया को बंधन जबहि लग, जीय ब्रह्मरूप न होत ।

ब्रह्मरूप हि होय बिन, वृथा जन्म सब खोत ॥

ब्रह्मरूप जीय करन हित, में धारे अवतार ।

साधुरूप धरि फिरत हें, करन अनंत उध्धार ॥

जो जो अवतार होत हें मेरा । मानत सो साधुकुं घनेरा ॥

मेरो दिव्य हे अक्षरधामा । अपार पार्षद रहत सो ठामा ॥

तेहि सब सुख सें संत पद भारि । सो पद अबहि रहे में धारि ॥

सबसें रुचि मोय संतकि मांई ॥ संतकि आगे दीन होइ जाई ॥

संतके पद सम पद न कोई । सार में सार जोई कहे सोई ॥

संत पद में होत जब रुचि । और पदकि होवत अरुचि ॥

अरुचि होत तब रुचि होत मोरि । रुचि जोई तेहि दियुं न छोरि ॥

अखंड रहत में संतकि पासा । मो बिन जेहि नहि मन आसा ॥

मो बिन आस नहि जो संता । तिनके गुनको को लहेउ अंता ॥

परम एकांतिक संत कहाई । इनसें पर न कोउ रहाई ॥

सो परमपद देन हि काजा । अब में भयोहुं संत हि आजा ॥

ब्रह्मरूप अनंत हि, किन शरन भये मोर ।

अबहि करन कुं अनंत हें, माया बंधन तोर ॥

ब्रह्मरूप हि करन हित, मेरो लहि चरित ।

देश देश उच्छव करत महा, हरिजन के हित ॥

संत हरिजन सोय, तिनको करे दरश कोउ ।

तेहि ब्रह्मरूप होय, ऐसो संकल्प किन मोइ ॥

संकल्प सत्य होत मोर, ओर असत् होई जात सबे ।

काल को चले न जोर, थर थर ध्रुजत रहत हें ॥

(૩/૪૯/૩૨-૫૨)

૪/૭૪/૫-૧૬.

जितनो निश्चे उर में, भयो हे दृढ जाहि ।

तितनो केफ सत्संग को, वर्तत जीय में ताहि ॥

मृत्यु में घर छोडना, कठिन अति रहाय ।

भगवान जाने सब पर जेहि, कछु कठिन न ताय ॥

(૬/૪/૧-૨૬)

૬/૨૬/૧૨-૧૭.

૬/૪૪/૧૦-૧૫.

૬/૯૮/૧૧-૨૦.

૭/૩૧/૧૪.

૯/૪/૨૫-૨૬.

૧૧/૩૩/૧૫-૨૧.

अमायिक कर देखे सब तेहु । अमायिक जो कहावत जेहु ॥

सुलट समझ मोक्षदायी जेती । ब्रह्मविद्या सो कहावत तेती ॥

हरि संबंध जेति जेहि बातां । यह लोक परलोक हि रहाता ॥

ब्रह्मविद्या हें ताके नामा । अर्थ जान बिन लहत न ठामा ॥

(૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૩૫-૩૬)

भगवान में मोह न होवे जेसे । भक्त में मोह न होवे तेसे ॥

मोक्ष के मग में विघ्न जेता । तरत भये सो पार हि तेता ॥

भगवान अरु भगवान के दासा । ब्रह्मरूप रहे दिव्य प्रकाशा ॥

प्राकृतभाव आवे ज्यां लगहि । प्राकृत भक्त कहे त्यां लगहि ॥

(૧૧/૮૬(૭૭)/૨૩-૨૪)

हरि कहे मान देखूँ में जेहा । पाव कबु में लागूँ न तेहा ॥

हरि हरिजन के दास हि जितने । सर्वोपरि में मानत तितने ॥

सर्वोपरि हरिधाम जो कहावे । हरिजन ताके निवासी रहावे ॥

एसी मति सदा हरिजन में । मान न आवे कबु तेहि तन में ॥

काम क्रोध लोभ उर मांही । वेर वेर तनावत रहा हि ॥

इहां के हरिजन जानत जेहु । अधर्मवंश दुःखि करत हें तेहु ॥

परस्पर हरिजन में जेहि । विरोध होइ जावत अति तेहि ॥

इहां की मति रखे होवत क्लेशा । हम जानत त्युं कहे तेसा ॥

संत बाई-भाई सब, ब्रह्मचारी पदाति ।

इहां के जानत जाहि लग, तिहां लग सुख न रहाति ॥

सत्संग भये जाहि कुं, ताके जन्म भये ओर ।

हरिजन परे नाम तेहि, कुसंग तजे कुनोर ॥

सत्संगरूपी धाम, सर्वोपरि सो धाम रहेउ ।

हरिजन जितने नाम, तामें किये हें निवास सब ॥

संत वर्णि हरिजन, एक घर के भये तेहि ।

एक रहे एसो मन, करे क्लेश न होय तब ॥

(૧૧/૮૭(૭૮)/૩૨-૪૦)

हमारो संत हरिजन ताके । जे जन बोलत गुन हि वाके ॥

ताके सद्य हम करत उद्धारा । एसी हम टेक रखे यह वारा ॥

भूमि पर जन हि रहे जेता । उद्धार करन हम आये तेता ॥

हमारे संत हरिजन के जेहि । अवगुन कहत सुनत तेहि ॥

ताको उद्धार होत न कबहि । ऐसे जमपुरी जावत सबहि ॥

मोक्ष होत न होवत जेहु । प्रगट वात कहि दीने तेहु ॥

इतनि वात उरमें दृढ रखना । तुमकु कहे हम एक हि वचना ॥

(૧૨/૪૦/૭-૧૦)

૧૨/૭૧/૩૬-૩૯.

૧૩/૨૯/૯-૧૪.

૧૩/૩૯/૨૯-૩૧.

यह सत्संग कहावत जेता । चिंतामनि हम देखत तेता ॥

हरिजन जो कहावत हि जेते । कल्पवृक्ष हम देखत तेते ॥

परस्पर जो हरिजन जितना । मनुष्यभाव देखत हें तितना ॥

मनुष्यभाव करिके कबहु । एक एक के द्रोह होवे तबहु ॥

द्रोह से बुद्धि आसुरि होवे । महात्म्यरूप भाव हि खोवे ॥

जिनसे माने मोक्ष को भावा । ताके बोलत पिछे अभावा ॥

मनुष्यभाव नहि जिहां लगहु । परमभाव वरतत तिहां लगहु ॥

परमभाव है मोक्ष को द्वारा । मनुष्यभाव तमद्वार नकारा ॥

तम में निवास हम करे न कबहि । हरिजन सुहृद रखना सबहि ॥

सुहृद तितनो हमारे हें प्राना । अरुचि दंभ शत्रु हम माना ॥

सर्वोपरि हरिजन जो ताकी । सुरीत यह सो कहत हें वाकी ॥

हरिजन संत भगवान तामें । सबसें भाव अधिक रहे यामें ॥

जाके नियम कहे हें जेसे । तत्पर तामें वरते तेंसे ॥

तिहां लग तामें अभाव न लेना । नियमभंग ताकुं भाव न देना ॥

हरिजन कहे वरते ज्यां लगहि । निभाव ताहि करना त्यां लगहि ॥

त्यां लग ताके होत कल्याना । नियमभंग के नाहि ठिकाना ।

नियमभंग करे जितनो, तितनो द्रोही हे तेह ।

साचे संत हरिजन मे, कुमेल द्रोही हे एह ॥

साचे संत हरिजन से, जितनो चित्त चोरात ।

तितनो वगल हे ताहि में, प्रसिद्ध आत देखात ॥

साचे संत हरिजन, तिनसे जितने सरल रहत ।

शुद्ध हि जानत मन, सत्संग में मोज करत ॥

हरिजन शुद्ध संत, मोक्ष के हे जो द्वार यह ।

अवगुन ताके कहंत, एसे कुं द्रोही कहत हम ॥

(૧૪/૩૧/૧૭-૨૮)

૧૪/૮૪/૧૫-૧૬.

૧૫/૨૫/૨૯-૩૨.

૧૫/૪૯/૩૪.

૧૫/૫૮/૨૮-૩૫.

૧૫/૮૮/૧૬-૨૧.

૧૫/૯૮/૨૯-૩૪.

૧૫/૯૮/૩૫-૪૧.

अलौकिक जो फल रस, श्रद्धा आदर प्रीत रहेउ ।

सरस में अति सरस, उत्तम में हें उत्तम यह ॥

श्रेष्ठ में इतनो श्रेष्ठ, अलौकिक जितनो भाव जो ।

नेष्ठ में अति नेष्ठ, लौकिक समझ रहे जेति सो ॥

अलौकिक में लौकिक भावा । हमकुं जब आवत देखावा ॥

तरत उदास होवत तबहु । समझावत तोउ समझत न कबहु ॥

(૧૬/૧૪/૨૭-૨૯)

૧૬/૨૪/૩-૯.

૧૬/૫૫/૧૩-૧૫.

अक्षरधाम से आये ताकि । आश्चर्य बात रहाये वाकि ॥

हमारी सेवा दुर्लभ माने । मन में तेहि आश्चर्य जाने ॥

यह सब संत की सेवा जोउ । थोरे पुन्य न मिलत सोउ ॥

आश्चर्य दुर्लभ मानत रहाहि । जीवन बात हि समझे ताहि ॥

भगवान के माहात्म्य जेसे । जथार्थ जाने चैये तेसे ॥

जथार्थ जाने बिन हि ताई । सत्संग में निभत न रहाई ॥

संत हरिजन रहाये केसे । यथार्थ जाने बिन तेसे ॥

भगवान के निश्चय होय पूरा । तोउ हो जावे अति दूरा ॥

भगवान संत हरिजन तामें । समझवे में तिलभर यामें ॥

कसर रतिभर होय न तोउ । परमाद जितनो रखत कोउ ॥

निश्चय रखत रखत उड जावे । माया के बल अपार रहावे ॥

इन्द्र भव ब्रह्मादिक जेहु । नारद भगवान के मन तेहु ॥

(૧૬/૫૮/૮-૧૩)

૧૬/૫૮/૨૩-૨૬.

૧૬/૭૦/૧-૨૨.

૧૭/૪/૩૪-૩૭.

૧૭/૯/૫-૧૧.

૧૭/૨૦/૧-૯.

૧૭/૨૫/૩-૪.

૧૮/૮૩/૧૨-૧૬.

૧૯/૧૨/૨૭-૨૮.

सत्संग में हित जिहां लगहु । अलौकिक हि रहे तिहां लगहु ॥

तन छूटत ताके होत कल्याना । यामें जूठ न रंच रहाना ॥

साधन कोटि कबु करे केहा । भगवान के धाम न पावत तेहा ॥

जन्म मरन चोराशी केरा । दुःख न छूटत कोउ वेरा ॥

(૨૩/૫૮/૨૯-૪૧)

૨૫/૧૧/૨૯-૩૪.

૩/૩/૧૯-૨૦.

૪/૨૬/૧૮-૩૨.

૮/૪૨/૧૧-૧૩.

૧૦/૩/૩૬-૩૭.

૧૦/૪૬/૩૧-૩૪.

૧૦/૪૬/૩૦-૪૧.

૧૧/૩૨/૨૫-૨૯.

૧૫/૪/૧૫-૨૮.

૧૫/૧૦/૨૯-૩૬.

૧૫/૬૫/૨૧-૨૪.

૧૫/૬૯/૧૫-૧૬.

आवन-जावन जनावत जेतो । अलौकिक यब रहाये तेतो ॥

कोइ के तरक में न कबहि । आये नहि हरि अब लगहि ॥

हरि की गति इस रीत रहावा । साचे भक्त बिन न आत देखावा ॥

छलकपट करि के त्यागा । प्रथम भक्त जो होत बडभागा ॥

साचे संत के संग बिन हि । साचे भक्त न होवत किनहि ॥

(૧૫/૬૯/૩૨-૩૪)

૧૭/૧૩/૨૯-૩૭.

૧૭/૨૫/૧૦.

૧૭/૩૬/૨૧-૨૪.

૧૭/૯૦/૨૩-૨૪.

૧૮/૩૭/૭, ૧૯-૨૧.

૨૨/૮૯/૩૧-૪૦.

૨૩/૬૯/૫-૭.

પ્રકરણ ૮ની પાદટીપો

૩/૪૮/૪૬-૪૯.

૩/૫૨/૧૭-૧૮.

૩/૬૦/૧૭-૧૮.

૪/૫/૧૯.

૪/૩૭/૧૫-૧૮.

૪/૫૧/૨-૧૦.

૫/૧૬/૩૨.

૬/૪૩/૩૫-૩૬.

૬/૪૪/૧૭-૧૯, ૨૬-૨૭.

૬/૯૧/૩૨, ૩૫.

૬/૧૦૨/૧-૪૦.

૮/૩/૨૫-૩૩.

૮/૯/૧૮-૨૩.

૮/૨૦(૧૯)/૨૯-૩૦.

૮/૨૧(૨૦)/૧૭-૨૦.

૮/૪૪(૪૫)/૨૪-૨૬.

૮/૬૮(૬૭)/૪૦.

૯/૨૭/૧૯.

૯/૪૦(૪૧)/૨૯-૩૩.

૧૦/૨૦/૨૩-૩૨.

૧૧/૨૨/૪૦.

૧૧/૫૯/૧૦-૧૨.

૧૨/૧૬(૧૫-બ)/૨૧-૨૪.

૧૨/૧૭(૧૬)/૧૩-૧૫.

૧૨/૩૮(૩૭)/૯-૧૪.

૧૩/૫૦/૨૩-૩૬.

૧૪/૨૦/૧૫-૧૬.

૧૪/૬૪/૨૮-૩૦.

૧૪/૭૮/૩૨-૩૮.

૧૪/૮૪/૧૬-૨૪.

૧૫/૫૨/૩૩-૩૪.

૧૭/૪૧/૧૩-૧૫.

૧૯/૨૭(૨૬)/૩૨-૩૬.

૧૯/૨૪(૨૩)/૩૫-૪૦.

૧૯/૪૧(૪૦)/૧૧-૧૪.

૧૯/૫૮(૫૭)/૧-૧૨.

૨૮/૫૪/૨૬-૨૭.

૮/૨૫/૧૫-૧૮.

૮/૬૬(૬૫)/૨૪-૨૬.

૯/૧૮/૧૪-૧૮.

૧૦/૪૮/૮-૧૯.

૧૫/૪૧/૨૫-૨૮.

૨૭/૫૩/૧૫-૧૬.

नारी धन त्याग कर हि जितने । त्यागी जेते कहावत तितने ॥

ताकुं घर में रहेउ जेते । घरबारी रहाये जो तेते ॥

त्यागी कुं धन देवत हि जेता । नरक में परत गृहस्थ तेता ॥

त्यागी होय धन जेते दिन हि । पोताके करी के रखहि तिनहि ॥

तेते दिन गाउ एक एक हि । वध करन पाप जो यह तिनहि ॥

लगत रहे इमि त्यागी ताके । धर्म शास्त्र में कहे कर वाके ॥

रखहि रखावहि त्यागी हि जेहू । धन नाम धरावत यह तेहू ॥

त्यागी कुं पाप लगत अपारा । कहत ताके न आवत पारा ॥

त्यागी का धन रखत हें जितने । गृहस्थ नाम धरावत तितने ॥

एसे त्यागी गृहस्थ तिनके । नर्क में निवास होवत इनके ॥

(૨૮/૯૮/૫-૧૦)

પ્રકરણ ૯ની પાદટીપો

૩/૫૨/૨૨.

૩/૫૬/૪૧-૪૨.

૪/૭/૪૪-૫૧.

૪/૮/૧-૧૪.

૪/૩૫/૪૬-૪૮.

૪/૧૦૪/૧-૧૦.

૪/૧૦૯/૨૪-૨૬, ૩૮.

૬/૮/૫-૬.

૬/૮૧/૨૮.

૭/૩૬/૩૬-૪૨.

૭/૪૫/૩૫-૪૦.

૯/૫૯/૨૭-૨૯.

૧૧/૬૮(૫૮-બ)/૧૮-૨૦.

૧૩/૬૩/૨૮-૩૨.

૧૪/૯૩(૯૪)/૩૯-૪૦.

૧૫/૨૩(૨૨-બ)/૨૯-૩૭.

૧૬/૪૬/૨૩-૨૮.

૧૭/૯૨/૩૭-૩૮.

૨૩/૫૮/૩૧-૩૪.

संत हरिजन के दास जेहि । मन क्रम बचन होई के तेहि ॥

निष्कपट वरतत रहे ताकुं । बडे करी सब मानत वाकुं ॥

बडता के गुन रहाये जामें । छिपाये कबहु न रहत तामें ॥

पोताकि इच्छा कर जे तें । बडे बडता कुं न इच्छत तेते ॥

सत्संग कि बडता इनकुं । आवत रहत हें सहज तिनकुं ॥

भगवान संत हरिजन में जितनां । निष्ठा वरतत रहत हें तितनां ॥

(૨૩/૮૨/૧૪-૧૮)

પ્રકરણ ૧૦ની પાદટીપો

तापर सर्वाधार कहावे । सब व्यापक दिव्य रहावे ॥

पूर्व कहे जो लोक सब जोऊ । तिनसें विलक्षन जानो सोउ ॥

परम चैतन्य सत्य हि ज्ञाना । अनंत हें जाको न कशी प्रमाना ॥

अक्षरब्रह्म कहत वेद जाकु । पुरुषोत्तम स्थान कहिये वाकु ॥

प्रकाश कुं चित्त व्योम कहावे । अरु अक्षरधाम रहावे ॥

अद्भुत उपमा करिके कहाई । भूतिक उपमा न संभवे ताई ॥

अनंतकोटि जोजन विस्तारा । ऐसि काचकि भुमि होय सारा ॥

स्थावर जंगम कहावत जेहु । सबहि काचके होवे तेहु ॥

तारामंडल हें नभमें जेता । सूर्य सबहि होवे तेता ॥

तिनको प्रकाश होत ज्युं अपारा । तेसो धामको कहे निरधारा ॥

कोटि सूर्यसम कांति हि, एक एक रोमके मांहि ।

ऐसे भक्त अनंत हि, रहत अलौकिक तांहि ॥

तेहि तेज सितल महा, सुखमय अनंत अपार ।

काल को नहि प्रवेश तिहां, पुरुषोत्तम एक सिरदार ॥

(૩/૨૫/૮-૧૫)

૪/૪/૪૬.

अनंतकोटि ब्रह्मांड के सुखा । हमकुं सुलि सम लगत हे दुःखा ॥

हमारे दास हे अक्षर जेहा । ताके दास बहु पुरुष तेहा ॥

ताके संकल्प करिके जोऊ । अनंत ब्रह्मांड हि होत हे सोउ ॥

ताकि नहि है गनति हमारे । अल्प सुख गनति हे तुम्हारे ॥

(૫/૨/૧૦-૧૨)

हमकुं मिले तुम जितने आई । ब्रह्मस्वरूप करना हे ताई ॥

मायिक भाग मिले हे एका । तासें जुदे करने हे छेका ॥

खबडदार अब रहेना तुम्हारे । नहि तो पाव न टिकनेवारे ॥

(૫/૧૬/૨૨-૨૩)

भक्त करन लगे हरि से बाता । भगवान प्रगटे तुम साक्षाता ॥

यामें नहि संदेह हि लेशा । हमकुं दृढ जनाये एसा ॥

ओरकुं करत तुमारी बाता । तरत नहिं आत मनाता ॥

संत की बात करत हे जबहि । तर्त माने में आवत तबहि ॥

तुमारो लेवत जब नामा । तब थडकत नर अरु वामा ॥

तुमकुं जाने विन मोक्ष न होई । हम एसे मन जानत सोई ॥

श्रीहरि तब बोलत भयेउ । सनातन रीत एसि रहेउ ॥

आज नहिं हे नई यह रीति । तुमकुं बात करत कर प्रीति ॥

भगवान जांने के दो हे द्वारा । प्रसिद्ध सब जानत संसारा ॥

वज्र को कोट रचाये जेहा । तोप करि न परे तेहा ॥

द्वार विन पेठाय न तामें । कोटि उपाय ओर करे यामें ॥

सिद्ध अरु पंछी ताकुं । अंतराय करे न वाकुं ॥

भगवान के भक्त अनादि जेई । पंछि सिद्ध हि जानना तेई ॥

अने निश्चयरूप कोट हि जेऊ । ताकुं अंतराय न करे तेऊ ॥

भगवान की सुनत बात हि, तर्त निश्चय हो जाय ।

ता विन जितने जन हि, संत द्वार हे ताय ॥

(૬/૮૪/૬-૧૩)

૭/૧૫/૨૪-૩૯.

प्राकृत देह यह जिय को जेहा । जिय को स्वरूप न मानना तेहा ॥

अक्षर शुद्ध रूप हें अपना । एसी स्वरूप जियको चिंतवना ॥

अक्षरभावना जिय में लाई । चिंतवन करना चित्त में ताई ॥

अक्षरभाव जब जिय में आवे । प्राकृतभाव तब दूर रहावे ॥

अक्षर में हरि रहे हें सदाई । दिव्यमूर्ति अलौकिक जाई ॥

सत्संग में विचरत मूर्ति जेहि । एहि एक जिय में रहे तेहि ॥

(૮/૨૦/૨૨-૨૪)

हमारे निवास हे अक्षरधामा । तेहि सम सुख न अवर कोउ ठामा ॥

गोलोक वैकुंठ श्वेतद्विप सुखा । अक्षरधाम के आगे सो लूखा ॥

बदरिकाश्रम को सुख जोउ । देव के सुख से अधिक हें सोउ ॥

सो सुख को अनुभव होत जेहा । प्रकृतिपुरुष लग सुख हि तेहा ॥

सोवर्ण आगे पित्तल हि जेसा । अक्षरधाम आगे सुख सब तेसा ॥

अनुभव विन आत न देखाई । जेसो सुख हें अपरमताई ॥

सो सुख हम संभारत जबहु । हमारो दिल इहाँ टकत न तबहु ॥

भगवान के भक्त सत्संग मांहि । बडे बडे रहे जानत ताहि ॥

हित करि के सो जियकु हमारा । सत्संग में रखे हें कर प्यारा ॥

सत्संग से वेर वेर हि जोई । हम उदास अति होवत सोई ॥

(૯/૨૭/૨૦-૨૪)

૧૦/૩૭/૮-૩૬.

૧૨/૧૬(૧૫-બ)/૨૨-૨૭.

मायिक विद्या जोउ, अभ्यास विन न रहत कोउ ।

ब्रह्मविद्या यह सोउ, कछु न रहे अभ्यास विन ॥

सत्संग को अभ्यास, करना सो सब से अधिक ।

प्रगट हरि को निवास, होवत हें तेहि उर बीच ॥

(૧૨/૨૧(૨૦)/૩૫-૪૦)

૧૨/૫૨/૩૨-૩૪.

૧૨/૫૩/૧૪-૨૪.

૧૨/૬૫/૭-૧૩.

૧૩/૭/૩૦-૩૪.

हरि के चरित्र हि नाम, परम मोक्ष हि कहत तेहि ।

अक्षर कहत जो धाम, चरित्र नाम तामहिं रहेउ ॥

आंब पत्र मोर फलहि जेहा । रस ओर कहावत जेहा ॥

सबहि रहे हें बीज के मांहीं । ताके समय देख परत रहां हि ॥

यामें फारफेर नहि लेशा । चरित्र में धाम फल रहे एसा ॥

ज्ञानी संशय न रहावे । ज्ञानरूप चक्षु कर देख आवे ॥

दिव्य वात कहावत जेती । दिव्य नेंन देख परत तेती ॥

मायिक दृग सें कबु न देखावे । मनुष्य के जन्म कोटि धरावे ॥

(૧૩/૩૧/૨૬-૩૬)

૧૩/૪૮/૨૦-૨૩, ૨૯-૩૧.

૧૪/૪/૧૭-૨૯.

हरिभक्त विवेकी जितने, भये समर्थ जो जेह ।

असत मानत हि देह कुं, जीय मानत सत तेह ॥

परब्रह्म भगवान के, जोग करि के जोउ ।

ब्रह्मरूप जाने जीय कुं, पृथक् तन देख हि सोउ ॥

(૧૫/૯૬/૨૧-૨૬)

૧૫/૧૦૦/૧૨.

૧૬/૨૭/૧૪-૧૮.

૧૬/૪૭/૧-૧૦.

૧૬/૪૭/૪૦.

૧૬/૪૯/૩-૧૧.

૧૬/૫૪/૧૯-૨૪.

अक्षर के एक रोम रोम तामें । ब्रह्मांड की कोटि कोटि वामें ॥

रहाये अक्षर रहे ऐसे । हरि के दास होई कर तेसे ॥

हरि के दास होई वर्तत तिन में । ऐश्वर्य अनंत अपार इनमें ॥

श्रीहरि के जिहां लगहि जेहा । होवत नाहि दास जन तेहा ॥

च्हाय तेसे यह ज्ञानी होउ । शुष्क ज्ञानी रहावत सोउ ॥

हरि के दास दिन च्हाय तितना । ज्ञातिजन में होवे जितना ॥

श्रीहरि ताके दास हि तेहि । रोम एक सम होत न एहि ॥

(૧૮/૫૩/૨૭-૩૨)

૨૧/૫/૩૦-૩૧.

૨૧/૮/૩૮-૪૦.

भगवान के अक्षर हि धामा । पावत हे भक्त जो अकामा ॥

अक्षरधाम के स्वरुप दोउ । निराकार एक कहत हे सोउ ॥

एक रस चैतन्य चिदाकाशा । ब्रह्ममहोल कहत उजासा ॥

दूजे रूप कर अक्षर जेहु । पुरुषोत्तम की सेवा में तेहु ॥

अखंड रहे पल होत न दूरा । दास होइ कर होत हजूरा ॥

अक्षरधाम कुं पावत जितना । एकांतिक भक्त जो तितना ॥

अक्षर के साधर्म्य जो ताकु । एकांतिक गुन कर पावत वाकुं ॥

भगवान की अखंड जो एहि । सेवा में रहत भये तेहि ॥

पुरुषोत्तम नारायण स्वामी । विराजमान रहे बहुनामी ॥

अक्षर यह धाम जो तामें । अक्षर के साधर्म्यपना यामें ॥

पाये अनंतकोटि हि एसा । मुक्त जो रहाये सबहि तेसा ॥

पुरुषोत्तम के दास हि भावा । वरतत रहे सहज स्वभावा ॥

पुरुषोत्तम नारायण जेउ । सबहि के स्वामि रहेउ तेउ ॥

अनंतकोटि ब्रह्मांड के, राजाधिराज रहेउ ।

एसि वातकुं समज कर, सत्संगि आपनेउ ॥

निश्चे करना इस विध हि, अपने अक्षर रुप ।

मुक्त ताकि पंक्ति में जो, मिलना बात अनूप ॥

अक्षरधाम तामें जाय, अखंड भगवान की ।

हजुर रहिके यामें, सेवा करना भाव कर ॥

नाशवंत तुच्छ जेह, ऐसे मायिक सुख जोउ ।

इच्छत नहि कबु तेह, लोभावत न यामें कबु ॥

(૨૧/૧૬/૪૨-૫૨)

૨૧/૩૮/૧૮-૨૪.

૨૧/૪૮/૩૯-૪૧.

अनंत कोटि ऐसे ब्रह्मांड एक एक रोमे ।

प्रत्ये अणु जेसे, उडत फिरत हि रहे तेहि ॥

ऐसे भगवान ताके, अक्षर यह जो धाम रहे ।

धाम के विषे वाके, पुरुषोत्तम भगवान यह ॥

सूक्ष्म अरु कारन रहेउ, एह सब मूर्तिमान ।

भगवान के अक्षर जोऊ, धाम हि बडे रहान ॥

जाके एक एक रोम हि, अनंतकोटि जोऊ ।

ब्रह्मांड अणु सम हि जो, उडते फिरत हि सोऊ ॥

जीमि कोउ करी बडेउ, हस्ति होय शरीर यह ।

किडि चलत हि रहेउ, गणति में कहां रहे तेऊ ॥

तिमि यह अक्षर ताकि, मोटाई आगे ओर सब I

गणतिमें न आवत वाकि, अक्षर रहे सबसें अधिक ॥

एहि सबके कारन जो, अक्षरब्रह्म रहेउ ।

अक्षर पुरुषोत्तम हुके, धाम रहाये तेऊ ॥

एह अक्षर जो तिनकि, संकोच अरु विकास ।

अवस्था होवत नहि हें, एक रूप रहे तास ॥

अक्षर कहे जो जेह, मूर्तिमान हि रहे तेहि ।

अति बडे रहे तेह, कोईकि नजरे रूप यह ॥

आवत नहि ताके, जिमि चोविश तत्त्व तिनके ।

कारज्य जेहि वाके, ब्रह्मांड पुरुषावतार हि ॥

तिमि अक्षरधाम पण जेहु । मूर्तिमान रहायेउ तेहु ॥

पण कोई कि नजर नहि आते । सबसें बडे सुक्ष्म रहाते ॥

शा माट हि ऐसे हि एसेउ । ब्रह्मांड एक एक रोम तेहु ॥

असंख्यात उडत फिरेउ । ताके पार को न लहेउ ॥

एसे बडे जो अक्षरधामा । ताके विषे पुरुषोत्तम नामा ॥

भगवान पोते सदा रहाता । महाराजाधिराज कहाता ॥

महिमा किमि हि के’वाय ताके । अपार ऐसे प्रताप रहे जाके ॥

अति समर्थ ऐसे हि भगवाना । यह आप अक्षरमें रहाना ॥

(૨૧/૬૪/૩૭-૭૭)

૨૧/૬૪/૫૧-૫૨.

૨૧/૬૪/૫૮-૬૩.

૨૧/૬૪/૬૮-૭૧.

अरु यह ब्रह्म सें जोउ, परब्रह्म यह जेहु ।

पुरुषोत्तम नारायण हि, पृथक रहाये तेहु ॥

एह ब्रह्म ताके, कारण रु आधार रहेउ ।

अरु प्रेरक हें वाके, ऐसे समझ जीवात्मा ॥

यह ब्रह्म के संग, एक हिता करीके जोउ ।

परब्रह्म सें अभंग, स्वामि सेवक भाव कर ॥

उपासना यह जेउ, करना ऐसि समझ कर ।

ब्रह्मज्ञान तब तेउ, परम पद मिलन हुके ॥

निरबिघ्न जउ तेहु, मारग रहेउ श्रेष्ठ यह ।

ऐसि रीत करहि जेहु, प्रश्र के उत्तर करत हरि ॥

(૨૨/૯/૮૪-૯૨)

अक्षर के एक एक जोउ । रोम ताके हि माहिं सोउ ॥

अनंत अनंत कोटि हि जाही । ब्रह्मांड उडत अणु जीमी ताही ॥

ऐसे अक्षर के रहे ईशा । ब्रह्मांड की मोटप कोन दीशा ॥

मनुष्याकृति धरे कहा होई । जेसे के तेसे रहे सोई ॥

इहां हरि रहे जिस रीता । अक्षर तामें रहे तिस रीता ॥

अक्षर तामें रहाये जीमी । इहां बिचरत रहाये तीमी ॥

(૨૫/૨૮/૯-૧૨)

૨૬/૪૭/૧૩-૨૪.

ईश्वर रहे अक्षर मांहि, अक्षर रहे सो ईश्वर मांहि ।

जुदे कबु रहत नाहिं, अखंड के अखंड रहत सदा ॥

माया अनंत कहावत तेहा । अक्षर आगे लेश चलत न ऐहा ॥

अक्षर लग दृष्टि जेहि जावे । ताकुं अगम कोउ न रहावे ॥

अप्राप्य न रहे कोउ ताई । अक्षर में बात सबहि आई ।

अनंत कोटि ब्रह्मांड को सुखा । अक्षर आगे सब लगत हें लुखा ॥

ऐसो सुख अक्षर में रहेउ । अनंत सुख न बनत कियेउ ।

अनंत कोटि सुख अक्षर केरा । हरि के एक अंग में हें घनेरा ॥

मूर्ति में ऐसो सुख हें अपारा । सो जानत कोउ जाननहारा ॥

(૧/૫૨/૩-૮)

૩/૨/૧૫-૧૭.

૩/૩૧/૫-૧૪.

૫/૧૭/૩૯-૪૪.

विषय को बीज रहत ज्यां लगहि । अधर्मवंश न जात त्यां लगहि ॥

काम, क्रोध, लोभ, ईर्षा माना । मत्सर असूया, कपटछल नाना ॥

डंभ, हिंसा, अभक्ष्य हि खाना । अपेय वस्तु को करना पाना ॥

केफ करना रूचि बहु जेहा । ए आदिक अधर्मवंशी तेहा ॥

संत में सो कबु नहि आवे । तेहि करि गुणातीत कहावे ॥

प्रगट हरि की संबंध जोउ । गुणातीत कहावत सोउ ॥

हरि के संबंध करि हरिजन जेते । गुणातीत सो कहे तेते ॥

(૧૧/૧૫/૨૯-૩૨)

૧૨/૭૫/૩૨-૩૪.

૨૬/૪૭/૧૪-૧૬.

પ્રકરણ ૧૧ની પાદટીપો

૩/૫૬/૩૭-૩૯.

૪/૩૫/૩૪-૩૭.

૪/૪૩/૩૫-૫૨.

૪/૧૦૨/૪૩-૪૪.

૬/૮૦/૩૪-૪૦.

૬/૧૦૨/૧૫-૨૦.

૯/૪૧(૪૦)/૨૫-૨૮.

૯/૫૮(૫૭)/૧૩-૧૪.

૧૦/૨૩/૧૫-૨૧.

૧૧/૩૬/૧-૨.

૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૧૯-૨૨.

૧૧/૮૪(૭૪)/૧૧-૧૪.

૧૨/૩૫/૭-૧૪.

૧૨/૪૩/૧૮-૧૯.

૧૫/૫૯/૮-૧૦.

૧૫/૭૯/૨૭-૩૦.

૧૫/૮૦/૧-૪.

૧૫/૮૮/૨૭-૨૮.

૧૭/૯૪/૧૯-૨૬.

૨૪/૫૬/૨૨-૩૧.

૨૭/૮૬/૧૫-૨૧.

૨૭/૮૬/૩૨-૩૬.

પ્રકરણ ૧૨ની પાદટીપો

૧/૬૮, ૬૯.

चिंतामनि कल्पवृक्ष हि जोई । सबको सार इच्छते हें सोई ॥

जेसो भाव जो पात्र के मांई । तेंसे फल तेहि देवत हें ताई ॥

चिंतामनि में गुन सार सदाई । असार गुनसें में नांहि कराई ॥

सदाय गुन यामें रहत एका । विविध पात्र में शुन हें अनेका ॥

स्वच्छ एक गुन रहे काचमें छाई । जेसो पात्र तिहां सो देखाई ॥

मेरे अवतार के गुन हें ऐसा । जेसो पात्र तेहि फल दिये तेसा ॥

मोक्ष गुन हें मोये अखंडा । तेहि गुन कबहु न होवे खंडा ॥

जेसो पात्र त्यां तेसो फल दाया । निर्दोष गुन अखंड रहाया ॥

एक गुन के भये नाम अनंता । कहत कहत न आवत अंता ॥

पूर्ण मनोरथ सहज स्वभावु । शांत स्वरूप सदा सुखदावु ॥

नरोत्तम पुरुषोत्तम नामा । नारायन पुरन जन कामा ॥

मेरो भक्त उत्तम हें जेउ । उत्तम मोय जानत हें तेउ ॥

मोरे चरित्र कहावत जेता । दिव्य मोक्षदाई मानत तेता ॥

प्राकृत बुद्धि कबु न ल्यावे । दिव्य अलौकिक करिके गावे ॥

मोर मूर्ति मनुष्य सम जेसि । तामें दिव्य मति रहे तेसि ॥

संबंध भया मूर्ति का जाकु । दिव्य करिके मानत ताकुं ॥

सो उत्तम महा भक्तहि, उत्तम गति लहे तेहु ।

उत्तम मोरे वचन गनि, लेश न लोपे केहु ॥

अंतरजामि जानि मोय, छलकपट करे त्याग ।

छल कपट रखि मोय भजे, तेहिसुं न मोय अनुराग ॥

(૩/૪૯/૧૭-૨૬)

૪/૧૮/૨૯-૪૭.

૪/૧૯/૧૭-૧૮.

૪/૨૨/૩૯.

૪/૨૯/૩૮-૪૦.

૪/૩૫/૨૫-૩૩.

૪/૭૪/૨૯-૩૧.

૪/૮૩/૫-૭.

૫/૨/૨૫-૨૮.

૫/૫/૨૯-૩૨.

૫/૩૯/૧૦-૩૪.

૬/૫/૩૭-૩૮.

हरि हरिजन के जोग, गोकुल मथुरा अवध्यपुर ।

काशी जावत लोग, सो सब आये हें तव घर ॥

जगन्नाथ सो आये, बदरीनाथ सो आये तेहि ।

मुक्तनाथ हि ताय, द्वारापुरी लग आये सब ॥

वचन नहि मानो जो हमारा । फेर नहि आवो घर द्वारा ॥

(૬/૩૧/૧૫-૧૬)

૬/૬૫/૨૪-૨૫.

૬/૯૧/૧૪-૧૮.

सत्संग चांद उर रहे ज्यां लग हि । शांति उर में वरते त्यां लग हि ॥

कुसंग अंधतम जोग जब होवे । विक्षेप चित्त होई शांति कुं खोवे ॥

संसारिक सुख में हे रुचि जेसी । सत्संग में जो होवे तेसी ॥

ताकुं शांति सदा उर रहेवे । वेद शास्त्र संत इमि सब केवे I

(૬/૯૮/૨૧/૨૨)

૭/૯/૧૭-૨૪.

सत्संग निमित्त खर्च करे, सो हरिजन हे मुखी ।

यह लोक परलोक में, कबहु न होवे दुःखी ॥

धनाढ्य हरिजन होई, सत्संग निमित्त जानकर ।

खरच करे न कोई, शोभा नहिं हे सत्संग में तेहि ॥

(૭/૯/૩૦-૪૦)

૭/૧૦/૧-૭.

૧૦/૭/૩, ૪, ૪૦.

૧૦/૯/૨૪-૨૮.

૧૦/૩૪/૧૧-૪૦.

૧૧/૧૩/૧૬-૨૨.

૧૫/૮૪/૧૦-૧૧.

૧૫/૯૯/૨૦-૩૦.

૧૫/૯૯/૩૧-૪૧.

श्रीहरि पुनि कहत भयेउ, प्रसन्न होई बात ।

उत्तम भक्त कुं कहे अब, मध्यम कहत साक्षात् ॥

धन-त्रियादिक पदार्थ जेहा । मूर्ति कुं धारत बिच में तेहा ॥

धारे में आवे अंतर में जबहु । ताकी दाझ अंतर होय तबहु ॥

मूर्ति के ध्यान छोरे नहि तोउ । घाट संकल्प खोटे करे सोउ ॥

असाधारण हित हि जो जेही । भगवान में रहाये तेही ॥

आत्मा-अनात्मा के विवेका । कछु जन जो जानत नहि छेका ॥

मुवे पिछे भक्तजन हि ताकुं । गोलोक की प्राप्ति होत वाकुं ॥

(૧૫/૧૦૦/૫-૭)

૧૫/૧૦૦/૭-૧૨.

૧૫/૧૦૦/૧૩-૧૯.

भगवान बिन नहि इच्छा जाहि । ऐसे भक्त उत्तम रहे ताहि ॥

अक्षरधामकुं पावत तेहु । भगवान के सुख लहत हें ऐहु ॥

पुरुषोत्तम परब्रह्म जेहि । परमात्मा कहावत तेहि ॥

ताके भये सत्संग जो, ऐसे भक्त हि जोउ ।

पोताके आत्मस्वरूपकुं, ब्रह्म हि मानत सोउ ॥

आपकुं ब्रह्म मानिके, भगवान कि करत सेव ।

सेवा सम प्राप्ति कोउ, देखत नहि रहेव ॥

(૧૫/૧૦૦/૨૩-૨૬)

૧૫/૧૦૦/૨૭-૨૮.

૧૬/૪૮/૫-૧૬.

૧૮/૧૯/૨૩-૨૬.

૨૧/૮૮/૫-૬.

૨૬/૧૯/૪૭-૫૦.

૨૮/૬૫/૨૯-૩૧.

૨૮/૧૩૦/૭-૧૦.

૪/૫૭/૧૧-૧૪.

૪/૫૮/૨૧-૨૨.

૪/૬૧/૧૮.

૫/૭૪/૩૯-૪૦.

૬/૧૧/૨૨-૨૬.

૬/૨૧/૧૮-૨૭.

૬/૫૧/૨૫-૨૬.

૬/૫૧/૩૨-૩૬.

૯/૩૨/૩૧-૩૬.

૧૦/૨૨/૨૭-૪૦.

૧૦/૪૫/૯-૧૧.

૧૦/૫૪/૧૭-૩૬.

૧૧/૪૬/૨૫-૪૦.

૧૧/૫૬/૩૧-૪૦.

૧૨/૧૯/૧૯-૨૦.

૧૯/૫/૧૧, ૧૪, ૨૪-૪૦.

૨૦/૨૯/૧-૧૬.

૨૨/૬૪/૪-૨૬.

૨૫/૧૧/૯-૧૨.

૨૭/૫૨/૧૨-૧૭.

પ્રકરણ ૧૩ની પાદટીપો

૧/૬૭/૧૨-૨૨.

૩/૫૬/૨૯-૩૬.

अल्प संत होय ताहि के, रेहेना दास हि होय ।

अल्पाग्नि ब्रह्मांड को, नाश करे पल सोई ॥

अभिमान कोई गुन को, संत से रखना नाहि ।

अभिमानी जन उपरि, अरुचि अमार रहाहि ॥

सर्ल चित्त होय जाहि, अनन्त गुन को मुर एहि ।

ता विन और न रहाहि, मेरु सम होय गुन तेहि ॥

(૫/૧૩/૬૧-૬૩)

૫/૫૩/૧-૨૪.

૬/૬૦/૧૧-૧૨.

૯/૮/૩૩-૪૦.

૯/૩૨/૮-૧૬.

૯/૪૨/૧૪-૧૫.

૧૦/૯/૨૨-૨૫.

૧૦/૧૭/૧૩-૨૫.

ताके दास हि होई कर, ब्रह्मांड देह सें पर ।

वरते जन यह जब हि तब, ब्रह्म होवत हि वर ॥

आत्मा अरु परमात्मा, ताके भक्त हि जेह ।

दिव्य हरि के धाम जो, सत्य हि जाने तेह ॥

ता विन ओर आकार, देखे सुने यह श्रवण कर ।

सत्य न माने लगार, नास भये न शोक करत ॥

नाशवंत की शोक, करे जन ज्यां लग जेहि ।

ज्ञान ताको सब फोक, कथे विविध प्रकार कर ॥

(૧૧/૩/૩૬-૪૦)

૧૧/૬૦(૫૦-બ)/૨૧-૨૮.

૧૧/૫૭/૨૫.

हरिजन सेवक कर इस रीता । गुरु संत की परम रस प्रीता ॥

जो जो सेव करे जिस रीति । भये सो हरिजन तिस रीति ॥

हरि गुरु संत की बात जेहु । अमृत तुल्य जानना तेहु ॥

भगवान के भक्त अपार, हो गये सेव करत जेहि ।

करना तेहि प्रकार, सेव सो शुद्ध मन होई ॥

सत्संग में अब वार, धाम के बडे मुक्त जेहु ।

आये वार न पार, नारद शुक आदिक अनंत ॥

(૧૧/૫૮/૨૯-૪૦)

૧૧/૭૦(૬૦)/૧૩.

૧૨/૪૩(૪૨)/૩૩-૩૯.

૧૨/૭૧(૭૦)/૩૬-૪૭.

૧૩/૧૫/૧૨-૧૬.

૧૩/૪૬/૨૨,૪૦.

૧૩/૫૯/૨૦-૨૮.

प्रधान में प्रताप हि जेता । मूलपुरुष के एक रोम तेता ॥

मूलपुरुष में प्रताप हि जेतो । अक्षर के एक रोम हि तेतो ॥

अक्षर में प्रताप हें जेहि । भगवान के एक रोम हि तेहि ॥

तिलभर पिछे ताके तेहु । महत्ता कछु न रहत एहु ॥

अकल रहत ज्यां लग जो वाता । महत अल्प जो जो रहाता ॥

तिहां लग वात रहत अतोला । कले होत जरूर तोला ॥

अकल बात अकल एक जाने । भव ब्रह्मा न कलत रहाने ॥

देखावे न देखावे तोउ । अखंड सदा रहे सोउ ॥

(૧૩/૬૦/૩૦-૩૮)

हरि हरिजन-संत जो ताकी । सेवा करना मन क्रम वाकी ॥

आत्मा से अधिक जानना ताहि । यामें दंभ के न माग रहा ही ॥

सेवा बिन आत्मसुख जेहा । नीरस सो सब बात हे तेहा ॥

बड़े सिद्ध की हें बड़ाई । बड़े सिद्ध जिहां लग रहाई ॥

बड़े सिद्ध जब ध्यान में जावे । पिछे दंभ सब बात रहावे ॥

दंभ से मोक्ष न होवत कबहि । बात निश्चे कर जानना सबहि ।

हरि सम कहे न कोई, हरि के रहे दास होई ॥

मोक्ष रहत हें सोई, करिके निवास तहां ॥

(૧૪/૨૯/૩૧-૪૦)

૧૫/૧૩/૩૨-૩૬.

૧૫/૪૬-૪૭/૫.

૧૫/૭૨/૩૧-૩૪.

૧૬/૩૯/૬-૧૬.

૧૬/૫૮/૧-૭.

૨૦/૬૦/૧-૧૬.

भगवान के दासदास ताके । चरनसेवक होई वर्तत वाके ॥

भगवान के साचे संत सो ताकि । भाव सहित सेवा जो वाकी ॥

रात-दिन सेवा करे तामें । अरुचि न होवे कबु यामें ॥

एसी समझ रहायेउ जाकी । सर्वोपरी मोटप रहे वाकी ॥

(૨૭/૪૭/૮-૯, ૧૨)

૯/૨૨/૩૧-૩૫.

૯/૨૪/૩૪-૩૮.

૯/૩૧/૩૩-૩૪.

૧૧/૮/૨૮-૪૦.

૧૫/૫૯/૩૨-૩૬.

૧૫/૬૫/૩૦-૩૬.

૧૯/૯/૨૯-૩૬.

૨૨/૪૨/૩૬-૪૦.

પ્રકરણ ૧૪ની પાદટીપો

૩/૩૭/૪૬-૪૮.

૪/૪૧/૧-૨૪.

निष्कामी धर्म दृढता ताकी । श्रीहरि वात करन लगे वाकी ॥

त्यागि रु गृहस्थ कहावत जेते । निष्कामि नियम दृढ रखना तेते ॥

तामे फेर पार हि जेहि । ताकुं विमुख करहि तेहि ॥

ताको लोभ न रखहि लेशा । जग में वड़ो होवहि केसा ॥

निष्कामी धर्म रखे सो हमारा । ओर सत्संग से करहि बारा ॥

निष्कामी नियम रखे जाई । सो सत्संग में बडो रहाई ॥

निष्काम में फेर पार हि जेहा । जाने में जेहि आवे तेहा ॥

हमकुं तेहि केना आई । तर्त विमुख हम करतहि ताई ॥

(૫/૧૦/૬-૧૨)

૮/૧૮/૨૯-૩૧.

૮/૫૩(૫૨)/૧૬-૪૦.

૮/૫૪/૧-૨, ૧૦.

૯/૪૪/૨-૫.

૯/૫૬(૫૭)/૫-૧૧.

૧૦/૪૧/૨૦-૨૪.

૧૩/૬/૨૩-૪૦.

नारी-धन कहावत जोउ । नर्क के द्वार देखत हें दोउ ॥

नारी-धन में मन ज्यां लगहु । नर्क परे देखत त्यां लगहु ॥

जन्म-मरण वेर हि वेरा । नारी धन करी होत फेर फेरा ॥

चोराशी के दुःख हि जितना । धन-नारी में रहे तितना ॥

जो जो दुःख कहात वो, धन-नारी में रहाय ।

धन-नारी करे त्याग जेहि, ब्रह्मादि वंदत ताय ॥

धन-नारी को त्याग जेहि, देह को जेहि अभाव ।

भगवान संत ताहि कुं, प्रसन्न करत मन भाव ॥

एसे जेते जन, त्यागी अरु हरिजन जेहि ।

मुक्त मनुष्य रहे तन, मायिक जन न होय अरु ॥

एसे जन कर जोउ, सत्संग सबसे अधिक ।

ब्रह्मांड में नहि कोउ, ब्रह्मा से सत्संग अधिक ॥

(૧૩/૬૬/૩૫-૪૦)

૧૭/૩૯/૧૭-૧૮.

૧૯/૧૮(૧૭)/૨૬-૩૬.

૧૯/૩૬(૩૫)/૧૭-૧૮.

૨૦/૩૦/૩૩-૩૬.

૨૭/૪૭/૩૫-૩૬.

૨/૪૯/૩૫-૩૬.

૪/૫૫/૩૪-૩૬.

૯/૬૧(૬૨)/૩૯-૪૧.

૧૦/૪૦/૨૦-૨૬.

बडे बडे गुन कहावत जेते । निष्कामादिक कर जो तेते ॥

ब्रह्मादिक कुं दुर्लभ तेहा । संत में स्थापे हरि गुण एहा ॥

देव से दुर्लभ संत कर दीन्हे । गुण करिके आवत चीन्हे ॥

ब्रह्मांड से शोभा न एसी कोई । निष्कामादिक रखना सोई ॥

गुणातीत यह गुण कहावे । अल्पजन में कबहु न आवे ॥

चौद लोक जो भये वश ताई । निष्कामादिक गुण वरतत जाई ॥

निष्कामादिक गुण कुं पाई । तृष्णा रहत मायिक की आई ॥

मायिक की तृष्णा जेती जेऊ । संतता में कसर तेती तेहु ॥

सहज मिले करत गुदराना । ऐसे संत सब पर रहाना ॥

श्रीहरि वात करत नित ऐसि । माया को पास लगे न लेशि ॥

माया के पास लगन के द्वारा । श्रीहरि बंध किये अब वारा ॥

(૧૧/૧૫/૧૯-૨૪)

૧૫/૪૫/૨૨-૩૨.

૧૭/૨૪/૨૪-૨૫.

बायुं बायुं में चलत रहेउ । भाई भाई में चलत हे तेउ ॥

सत्संग ताकि प्रथा एसी । पुरुषोत्तम आप बांधे तेसी ॥

निष्काम धर्म रहे जिस रीता । श्रीहरि कुं रहे तामे मीता ॥

निष्काम धर्म न देखत जामें । श्रीहरि प्रीत न रखत हि तामें ॥

निष्काम धर्म नहीं जो जिनमें । एकाकार रहे जो तिनमें ॥

धर्म बिन जितने रहेउ ताकु । अधर्म मानत रहे हरि वाकुं ॥

दारू तामें अनल जबहु । रत्तीभर जब परजावे तबहु ॥

उडे बिन कबु न रेवे ताई । नारी-पुरुष संग एसे रहाई ॥

ब्रह्मा लग हरि देखे विचारी । नारी संग, जोगवृत्ति धारी ॥

(૧૭/૨૬/૩૧-૩૬)

बंधे के शरन बंधे गयेउ, छोडत एसे न देखे तेउ ।

बंधे कुं निरबंध रहे जेहा, छोड देवे पलक महिं तेहा ॥

धन त्रिया जो तिन महिं, राजा रंक फकीर ।

देव लग बंधाये सब, निरबंध तुम हो वीर ॥

धन त्रिया उहे जक्त हि, त्याग हि ताके किन ॥

जग सब जीत हि लिन तेहि । कहत हि इमि प्रवीन ॥

(૨૦/૪૬/૩૭-૪૦)

૨૫/૬૨/૨૨-૩૩.

૨૮/૫૫/૩૭-૩૮.

પ્રકરણ ૧૫ની પાદટીપો

૧/૫૩/૩૧-૩૩.

૧/૫૪/૧-૬૩.

भक्त एकांतिक जेउ, स्वधर्म, ज्ञान, वैराग्य कर ।

भक्त रहाये तेउ, श्रीहरि के महात्म्य जुत ॥

भक्ति रहाये जेहु, ताके विषे निष्ठा रहेउ ।

तेहि सम श्रेष्ट न केहु, दंभ कपट न रखे तोउ ॥

दंभ रहित एकांतिक तामे । भक्त जो रहायेउ यामे ॥

श्रीहरि निरंतर रहे तेहा । यामे नहि रंच संदेहा ।

तेहि कर एकांतिक हि जेते । भक्त सो श्रेष्ठ रहावे ते ते ॥

एकांतिक धर्म जितना जिनमें । श्रेष्ठ भक्त रहे तितना तिनमें ॥

एकांतिक धर्म में कसर जितना । उतरते भक्त रहेउ तितना ॥

एकांतिक धर्म जामें जेसा । भगवान के निवास तामे तेसा ॥

(૧/૫૬/૬૫-૬૯)

૨/૧૦/૩૦-૩૭.

૨/૫૦/૩૬-૩૮

૩/૧/૫૫-૫૮.

૩/૪૯/૪૪-૪૮.

૩/૫૧/૪૦-૫૦.

૩/૫૨/૨૨-૨૫.

૩/૫૬/૧૭-૨૩.

तेहि गामके जन सब, भाविक देखि अपार ।

श्रीहरि बात करन लगे, मोक्षके देखाये द्वार ॥

अधर्म पाप हि करत जन, यह लोक में जोय ।

जमपुर सो दुःख पावहि, अति अपार हि सोय ॥

एक एक जनके शिर, पापको नहि परमान कछु ।

देखत नाहि लगिर, एहि सम नहि अग्यानि कोउ ॥

कंई जुगको अग्यान, सो मेटन हें मनुष्य तन ।

शुद्ध जब पावे ज्ञान, तब अग्यान को होत हरन ॥

निशि को तम कहावत जोउ । सूर्य उदे विन नाश न होउ ॥

कोटि पतंग करे प्रकाशा । तेहिसें न होवत निशिको नाशा ॥

चित्र के सूर्य कोटिक करावे । तेहि कर राति अंधकार न जावे ॥

सूर्य सम साचे गुरु मिले जबहि । अनंत पापकुं टारे तबहि ॥

अब साचे गुरु कि कहत हें बाता । जीन करि ज्ञान होवे साक्षाता ॥

धन त्रिया दोउ विकट पासा । तिनको जेहि किये नाशा ॥

अष्ट प्रकारे करे जो त्यागा । संत तोहि साचा वैरागा ॥

स्वादु अन्न कहावत जेता । प्रथम हरिकुं धरे तेता ॥

निस्वाद कर ताकु खावे । उपाधवत करिके पावे ॥

दैहिक सुख न इच्छे कबहु । युं विचार करे दिन सबहु ॥

देहको जब कोउ करे अपमाना । तबहि हर्ष पावे सुजाना ॥

करे सन्मान देह को कोउ । मनमें पावे शोक हि सोउ ॥

हरिके घाट अनंत प्रकारा । करहि निरंतर वार हि वारा ॥

अनित घाट कहावत जोइ । तिनको करत त्यागहि सोई ॥

अनीत घाट विष सम जाने । हरि के घाट अमृत प्रमाने ॥

अमृत तजी करे विष को पाना । सो मलिन मृतक समाना ॥

हरि अमृत रस पान हि, करे निरंतर जोय ।

सो साचे संत जानिये, हरि के सानिध सोय ॥

पंच विषय गने विष सम, तिनकुं न कबु सुनात ।

साचे संत सो कहत हें, वेद पुरान गुन गात ।

हरि जीन व्यसन ओर, सबहि किने त्याग तेहि ॥

हरि में वृत्ति जोर, रहवत हें अहुनिश जेहि ॥

ऐसे साधु जानि, तिनको करना संग सदा ।

पाप भयंकर आनि, जमपुर दुःख विचार कर ॥

यह ब्रह्मांड के जीव हें जेहा । दो दिन आगे पाछें तेहा ॥

मरना यामें नहि संदेहा । तुम जान लियो सब ऐहा ॥

वारवार तन ऐसो न आवे । हरि भजे अपार सुख पावे ॥

अपार सुख कि इच्छा जाकुं । सत्संग सब करना ताकुं ॥

(૪/૩૯/૧-૧૮)

शुक सनकादिक नारद जेसे । साचे संत मिले जब ऐसे ॥

सत्य प्रतिति आवे जब तामे । अति प्रित प्रथम करे यामे ॥

ताके वचन लगे हितकारि । स्वारथ न जनाय लगारि ॥

परम परमारथि संतकु जाने । निज बुद्धिकुं तुच्छ प्रमाने ॥

व्यवहारिक बुद्धि होय अपारा । मोक्ष में काम न आत लगारा ॥

खानपान मिले सन्माना । इतनो फल यामें रहाना ॥

दुषित बुद्धि जो होवे जाई । इहाँ के इहाँ दुःख फल मिले ताई ॥

परलोक में सुख मिले अनंता । ऐसि बुद्धि कर बुद्धिवंता ॥

संत समागम करिके प्रीता । सत्संग करे अति हिता ॥

सत्संग को ऐसो है प्रतापा । जाने में आवे धर्म रु पापा ॥

पाप धर्म को फल विचारे । सुखदुःख दृढ दिलमें धारे ॥

मोक्ष अंकुर उदे तब होवे । विघ्न करन ताकुं पिछे जोवे ॥

रात-दिन तेहि करे जतनाई । जत्न विन न उदे होय ताई ॥

उत्तम में उत्तम जो वृक्ष कहावे । जत्न विना न कबु रहावे ॥

उधेइ के कुसंग, ताको न करे विश्वास कबु ।

निरदोष जानि सत्संग, दिन-दिन गुन ग्रहे हितकर ॥

तबहि मोक्ष अंकुर, उदे होवे अधिक अधिक ।

धारे विचारे उर, ऐसे उत्तर कियेउ तेहि ॥

(૪/૬૮/૩૦-૪૦)

૪/૧૦૩/૧૧-૧૨.

૫/૧૩/૨૦-૫૩.

૫/૧૩/૫૩-૬૦.

मोक्ष को अर्थ एक अर्थ न ओरा । ऐसे जन ही निकसे थोरा ॥

ऐसे संत हरिजन में जेते । अनादि मुक्त जानना तेते ॥

संत की सेवा करना जोऊ । मोक्ष पद से अधिक हे सोऊ ॥

यूँ समझी सेवा करे जेहि । अनादि मुक्त समझना तेहि ॥

स्वारथ सें सेवा करे जेऊ । आधुनिक जन जानना तेऊ ॥

(૫/૧૬/૩૨-૩૬)

श्रीहरि कहत नृप प्रति, पुनि हित हि लाय ।

यह संत को चिंतवन, करना हित लगाय ॥

या को करत चिंतवन तेहि, चारुं दुख टरि जात ।

जन्ममरण जमपुरि हि, चोराशी न रहात ।

याकुं जेंवावत जेहि, अति करि कें भाव मन ।

पूजत वेरवेर ते हि, चंदन पुष्प वसन करि ॥

ताकुं पूजत देव, जो जो भुवन में जाय तेउ ।

वचन सत्य हे एव, समे में फल देखात तेहि ॥

या को वचन मांनत जेहा । तत्काल धर्म में वर्तत तेहा ॥

प्रगट हरि कहावत जोउ । एसे संत मध्य राजत सोउ ॥

ताकि जो आवे प्रतिता । अक्षयधाम सो सद्य लहिता ॥

संत समागम करे जेहि । ताकुं दूर नहि हे तेहि ॥

(૫/૩૦/૧-૬)

૫/૪૪/૨૧-૨૫.

૫/૨૭/૧૧-૨૧.

૫/૩૭/૩૭-૩૯.

૫/૩૯/૨૯-૩૯.

श्रीहरि प्रीति जोई के तेहि । वात करन कु लगे एहि ॥

साचे संत मिलत जब आई । जिय के बंधन देत छोराई ॥

हरि विन ओर में प्रीति जो, सो बंधन हे ताय ।

जिय तेहि जानत हित कर, अज्ञान सो अति रहाय ॥

अनंत हि पाप करिके, मोह छाये मति माहिं ॥

विषे में होवत राग अति, मुवे छूटत नाहिं ॥

संत मिले तेहि साचे जबहि । हित करि कहे जिय कुं तबहि ॥

धनवंतरि वैद्य है तेहा । असाध्य रोग हे टारि एहा ॥

संत विन मोक्ष न दाता कोई । आपे विषे से छुट गये सोई ॥

छुटे होय ओरकुं छोरावे । ताकि वात माने में आवे ॥

धन त्रिय रसास्वाद में, आसक्ति हे जाहि ।

करे सो जन वारता, माने में न आवे ताहि ॥

त्याग बिन विषय का, कबहु न होवे त्याग ।

विषय कु जेहि त्याग करे, सोई संत बड़ भाग ॥

हरि बिन जितनो सार, सो सब माने असार तेहि ॥

करि के दृढ़ निरधार, लाभ अलाभ विचार कर ॥

(૫/૪૫/૨૪-૪૦)

हरि विन सार न देखत कोऊ । साचे संत समझना सोऊ ॥

साचे संत सो रहत न छाने । वर्तन में तेहि आत पिछाने ॥

साचे वर्तन होवे जेहा । छपाये सो छपात न तेहा ॥

अंध होय सो देखे नाहि । बेरे होय शब्द न सुनत ताहि ॥

संत कुं देखि न माने जेहू । अंध बेरे समझना तेहू ॥

(૫/૬૯/૧,૩૨)

૫/૭૧/૧૬.

संत होय निःस्पृह रहावे । नारि धन में नहि लपटावे ॥

नारि धन कि करे निंदा जेही । साचे संत हि जानना तेहि ॥

विषयमात्र कहावत जेता । ताकुं जानत विष सम तेता ॥

ताको संग न करत कबऊ । देह में प्राण रहे त्यां लगऊ ॥

(૬/૩૭/૩૪-૩૬)

૬/૬૯(૬૮)/૩૦.

૬/૮૧/૨૭.

संत सरल जोई चित्त, तापर रुचि होवे सबे ।

रुचि विन होय न प्रीत, कोटि करो उपाय कोउ ॥

संत हे सबके मित्र, मित्र होई कर वचन वदत ।

त्रिलोक करत पवित्र, गंगा ज्युं करत पवित्र जग ॥

आप रहे पवित्र हि जेहा । ओरकुं करे पवित्र हि तेहा ॥

आप में होवे गुन हि जेसा । ओर में सो देखहि तेसा ॥

ओर के अवगुन हो अपारा । संतजन न देखत लगारा ॥

अवगुन देखे असंत स्वभावा । ता पर कोई कुं न होवे भावा ॥

खानपान हे विविध प्रकारा । ताकुं छोडि करे मल अहारा ॥

कुकर शूकर गर्दभ माना । काक चारनि सम प्रमावा ॥

हंस सम सो गुन न कहावे । बक सम तेहि संत दरसावे ॥

वज्र सम वचन संत न उचारे । वचनवृष्टि करे अमृत धारे ॥

वात सुनत तेहि गुन कर आवे । अगुन अनंत हि दूर बहावे ॥

दोष होय जेहिकर नासा । हितकर एसे सिखवे अभ्यासा ॥

ओरकुं करना सुख हि जोउ । एसे वचन वदत संत सोउ ॥

कटुक वचन उचरे संत होई । ताकुं संत न जानत कोई ॥

संत-असंत वचन कहि देवे । वचन कबु छपाई न रहेवे ॥

संत भये संतगुन न आवे । वेर वेर जन कुं बात उपजावे ॥

साधुता विन संत व कहावे । कोटि प्रकार हि बात बतावे ॥

निष्कपट गुन देखे जामें । जग सब लोभात हे यामें ॥

निष्काम निष्कपट हि, शांत शुन रहे धार ।

छिद्र न प्रकाशे शत्रु को, सो संत जग-आधार ॥

शुभ गुन हरिगुन कहत हे, प्रगटहि मोक्ष हित ।

हरि को अक्षरधाम तेहि, संत एसे शोभित ॥

शुभ गुन अक्षरधाम, श्रीहरि ताकुं न तजत कबु ।

अगणित धरत हे नाम, अवतार सो अनंत लेई कर ॥

जिहां जेसो काम, तिहां तेसो अवतार धरत ।

अंतरजामी श्याम, करत चरित्र सो अनंतविध ॥

प्रगट होई अदृश हि होना । सो सब चरित्र कर जोना ॥

आवत जावत चरित्र हे ताके । चरित्र कले में न आवत वाके ॥

आवन-जावन नहि हे तेहा । जेसे के तेसे सदा हे एहा ॥

आत-जात देखावत जोउ । ताके एसे चरित्र हे सोउ ॥

भक्त कुं चरित्र देखावन काजा । वेर वेर करत रहत महाराजा ॥

अनादि जुग जन के अग्याना । चरित्र करि टालत भगवाना ॥

अज्ञान टालने याकुं न वारा । एसो नहि हे याको धारा ॥

संत के द्वारा करते तेऊ । अज्ञान टालने रखे हे एऊ ॥

आप महिमा जथार्थ जेता । संत में जाने में आवे तेता ।

हरि करे तामें भूल न कोई । एसे समझे एकांतिक सोई ॥

जग के समज आवो न आवो । श्रीहरि कुं नहि माको दावो ॥

समजे ताको होवे कल्याना । न समजे सो दुःख सहे नाना ॥

पके हरिजन की यह रीति । हरि संत सम ओर में न प्रीति ॥

हरि संत में करे विघ्न जेहि । शत्रु जानि करे दूर हि तेहि ॥

चौद लोक को जो जो सुखा । सत्संग आगे लगे सब लूखा ॥

एक को एक रंग रहे एसा । दिन दिन चढे खसे नहि लेशा ॥

एसे संत-हरिजन को, हरि न करे कबु त्याग ।

मोक्षभागि युं जानि के, संत में करे अनुराग ॥

संत हरि के वचन हि, विधि निषेध हि जोउ ।

सामान विशेष सहि, प्रगट हरि देखे सोउ ॥

लिंख प्रजंत से जंत, अनंत कोटि ब्रह्मांड भर ।

भूले नहि दुखवंत, मन वच कर्म संत कबु ॥

संत के जितने गुन, वेद जथार्थ वात कर ॥

क्रिया न करे नून, जग करे उपहास जिमि ॥

(૬/૮૪/૧૨-૪૦)

श्रीहरि से भक्त तेहि, फेर पुछत कर जोर ।

संतमात्र के गुन हि, देखात नहिं एक नोरा ॥

तब श्रीहरि बोलत भये, सुनिये भक्त हि वात ।

विन बुद्धि होय जांहि लग, तिहां लग एक देखात ॥

जिहां लग एक देखाय, विन बुद्धि समजना तांहि लग ।

मोक्ष न होवे ताय, मोक्षद्वार अटकाई दियेउ ॥

व्यावहारिक जितनी वात, बुद्धि विन नहिं करत कोउ ।

तब तेहि सुख पात, विन बुद्धि दुखि सो होत तेहि ॥

सार-असार गुन हि जितना । बुद्धि में सहज रहे हे तितना ॥

ओर बुद्धि जन सिखे अनेका । मोक्ष के काम न आवे सो एका ॥

मोक्ष की बुद्धि जन सिखे जबऊ । सत्संग से सो आवत हे तबऊ ॥

सत्संग विन मोक्षबुद्धि न आवे । मोक्षबुद्धि विन दुख न जावे ॥

शास्त्र में मोक्ष कहत हे सबऊ । खप विन सुमझत न कबऊ ॥

संसार में सुख लेवन हिता । कोउक दिन शास्त्र सुनिता ॥

जप तप तीर्थ व्रत करे जेता । दान पुण्य यज्ञ करे केता ॥

संसार सुख को करन भोगा । अभ्यास करत केते हठ जोगा ॥

मरिके सुख हरिधाम हि केरा । कबु न नास होवे कोउ फेरा ॥

एसो सुख न इच्छत कोऊ । एकमति सब जग की सोउ ॥

हरि वा साचे संत हि, प्रगट होत जेहि वार ।

तेहि मुख सुनत शास्त्र जब, तब जन होत भवपार ॥

(૬/૮૫/૧-૧૩)

૬/૮૯/૧૪-૨૧.

जोग विना सत्संग न रहावे । जत्न विन ज्युं ईक्षु न पावे ॥

विद्या पढे रखे न अभ्यासा । तर्त विद्या सो होवे नासा ॥

ब्रह्मविद्या सत्संग को नामा । विन आदर न रहे तेहि ठामा ॥

मोक्ष अंकुर देखे जा माहीं । ब्रह्मविद्या सो रहत ताहीं ॥

ब्रह्मविद्या कुं पाये जन जेहि । विद्यामात्र हि पाये तेहि ॥

ब्रह्मविद्या में तेज अपारा । पापमात्र होई जावे छारा ॥

(૬/૯૧/૮-૧૦)

૬/૯૨/૨૯-૩૬.

निर्बन्ध को जो करे बिसवासा । बन्धन मात्र सो करे खुलासा ॥

माया से समर्थ जीव अपारा । ज्ञाननेत्र बिन भयो अंधकारा ॥

ज्ञाननेत्र माया किये नासा । माया को एक रहे अभ्यासा ॥

ज्ञाननेत्र हि पावे जबहि । निरबंध होई जावे तब हि ॥

निर्बन्ध मिले बिन मोक्ष न होई । कोटि उपाय करे ओर कोई ॥

निर्बन्ध को विश्वास न होई । ताके वचन न ले मानि सोई ॥

(૬/૯૬/૩૩-૩૬)

हरि की रखे उपासना जेहा । सेवक होई के वतें तेहा ॥

हरि के दास ताके रहे दासा । हरि बिन और नहीं जेहि आसा ॥

हरि मानत अति दुर्लभ ताको । पल एक दूर रहत न वाको ॥

जन मानो न मानो केहा । तजत न तोहु जनसें नेहा ॥

उद्धार करन सब जगको धारे । अपमान करे तिनसे न हारे ॥

मेघ वर्षात करत हे जबऊ । ठोर-कुठोर न गिनत हे तबऊ ॥

पापी के दोष गिनत न लेशा । समय पर वर्षत रहत हमेशा ॥

पापी धर्मी दोई कुं, मेघ विन नहिं सहाय ।

समर्थ सो जानत वात सब, बडी हे समझन ताय ॥

पाप करत करत हि, कोइक दिन हि ताहि ।

साचे संत मिले आई कर, पाप पल में छुट जाहि ॥

एक ब्रह्मांड भराय, इतनो करत नित पाप जिय ।

हरि से विमुख रहे जाय, ताकी कहे बात सो यह ॥

साचे मिलत जब संत, जिय कुं करत हे बात तब ।

ज्ञान देत बलवंत, जेसो जन अधिकारी जोई ॥

संत वचन के द्वार करि के । हरिउर बसे कोउ मुद भरिके ॥

तब तेहि तर्त होवे सत्संगा । पाप अनंत पल में होय भंगा ॥

मोक्ष को माराग अभंग रहावे । जिहां सत्संग सत्य रहावे ॥

सत्य सत्संग विन मोक्ष न होवे । कोटिक तन व्रत तप करि खोवे ॥

वेदपुराण को सिद्धांत हे एहा । संतजन हि कहत सब तेहा ॥

(૬/૯૯/૯-૨૨)

संत हे शांत अत्यंत, बावने चंदन से अधिक ।

निष्कलंक हि रहत, सो देखि जन शुद्ध होत तेहि ॥

केसो है बसन मलिन, शुद्ध नीर सो शुद्ध करत ।

जानत जन प्रवीन, जन्ममरन दुःख छुटत तेहि ॥

(૭/૫૯/૨૭-૨૮)

૮/૪/૪-૮.

૮/૧૦/૨૦-૩૦.

૮/૧૭/૮-૧૧.

सत्संग में करे समास, कुसंग में करे समास तेहि ।

संत के रहि सो पास, रीत सो सीखना तेउ ॥

जाकि क्रिया देख, सत्संगी कुं प्रीति होय ।

जानना मुनि अलेख, भगवान वश वर्तत तेहि ॥

मुक्त सिद्ध होय ब्रह्म समाना । शुक सनकादिक जेसे रहाना ॥

प्राकृत देह में विचरे जहाँ लगहि । उन्मत्त होई न फिरे त्यां लगहि ॥

प्राकृत देह सिद्ध पाये जितना । नियम विन भ्रष्ट हो गये तितना ॥

नियम होय तोउ त्यागी जेता । ब्रह्मचर्य में वर्ते दृढ तेता ॥

(૮/૨૦(૧૯)/૨૭-૩૪)

धर्म भक्ति ज्ञान वैराग्य चारि । तिनमें पूर्ण हि वरते बारि ॥

केफ, व्यसन, फेल करे न केहु । देह को भाव तजे हें एहु ॥

विषयमात्र कहावत जेता । पाताल खे प्रकृति लग तेता ॥

काक विष्टा सम जाने ताकुं । जन तब सत्य माने मत वाकुं ॥

सत मारग में चलत जेहु । सत्पुरुष सो कहावत तेहु ॥

चोरी अवेरी न करे कबहु । सत्पुरुष सो कहे जन सबहु ॥

मांस मदिरा को करे जे त्यागा । हरि बिन रखे न कोई में रागा ॥

हरि बिन जावे काल चविना । सत्पुरुष जानना प्रविना ॥

पाताल से प्रकृति प्रजंता । बडे बडे भोग जो रहंता ॥

बडे भोग बडे रोग हि जाने । सत्पुरुष सो जन तेहि माने ॥

हरि विन भोग जो जितने, विष से अधिक हि जेहु ।

सत्य हि समझे तेहि विध, सत्पुरुष सत्य एहु ॥

सत्पुरुष सत् मग प्रथम, चले आप हि जोउ ।

पिछे चलाबे शिष्य कुं, सत्पुरुष सत् सोउ ॥

(૮/૨૭(૨૬)/૨૦-૨૬)

जिय को करना हित, सत्पुरुष विन करत नहि ।

संत हें परम हि मित, खचित कर समझना तेहि ॥

जग के संत अरु विप्र हि जेते । जग कुं प्रिय बतावत तेते ॥

वेदपुराण सो पढे कहा होई । जाकुं जग आसक्ति जोई ॥

तिन सें जन्म मरन न छुटाई । मरि के जमपुरी में सो जाई ॥

सो नहि जानत जग सब कोई । सत्पुरुष मिले विन सोई ॥

(૮/૪૮(૪૭)/૨૮-૩૨)

૮/૬૨/૧-૬.

૯/૩/૧૩-૧૮, ૨૯.

૯/૪/૧૬-૧૮.

૯/૨૭/૪૦.

૧૦/૧૫/૨૦-૨૭.

૧૦/૧૭/૧૩-૨૪.

मोक्ष की वात कहावत जेती । अभ्यास करे विन रहे न तेती ॥

खप हि जितना जाकुं रहावे । तितनो अभ्यास सो तेहि करावे ॥

खप के अंकुर उदय होय जैसे । संत कुं वात सो आवत तैसे ॥

केतेक बीज के अंकुर जोउ । बहुत काल उदय होवे सोउ ॥

संत की वात रूप बीज जेहु । जाके श्रवन पे परत हि तेहु ॥

संत के दरस कहत जन जेता । जान अजान करिके तेता ॥

दरश रूप बीज हि जाकु । नेत्र के द्वार जेहि परत हि ताकुं ॥

दरश श्रवन बीज दोउ प्रकारा । मोक्ष अंकुर हें करन वारा ॥

कालरूप जो पक्षी ताको । नास कबु न कर सके वाको ॥

(૧૧/૧૨/૩૨-૩૬)

૧૧/૩૩/૨૭-૩૨.

૧૧/૫૯-બ/૧૩-૧૪.

बहोत अधर्म होत जेहि वारा । श्रीहरि जन के करन उधारा ॥

साचे संत सहित सो आई । धर्मस्थापन करत हें ताई ॥

साचे श्रीहरि-संत बिन, भक्ति जुत धर्म जोउ ।

स्थापन होत न ओर से, सत्य वात हे सोउ ॥

(૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૧૨-૧૩)

૧૨/૧૫/૩૭/૩૮.

૧૨/૩૧/૨૯-૩૩.

૧૨/૩૭/૬-૧૪.

૧૨/૪૯/૩૯-૪૦.

૧૨/૮૧/૫-૧૪.

संत हरिजन कुं पीडत जेते । असुर कलि के कहावत तेते ॥

संत की सेव करत हि काजा । छोड दीन्हे हम घर-समाजा ॥

संत की सेव करत न जेहु । घोर नर्क में परत हि तेहु ॥

तन धन संत अर्थ न आया । निष्फल हम जानत रहाया ॥

अपराध करत संत को कोई । जन्म जन्म तेहि दुःखी होई ॥

फेर नहि मनुष्य तन पावे । द्विपि व्याघ्र के तन धरावे ॥

हरिधाम सम श्रेष्ठ न कोउ । जज्ञ जाग्य सें न पावत सोउ ॥

जप तप से न मिलत सो, तीर्थ व्रत न मिलात ।

देवलोक पावत तेहि, कहां भूप हो जात ॥

कहां होत धनाढ्य महा, कहां द्विज ही होई ।

संत से मिले सत्संग हि, हरिधाम मिले सोय ॥

हरिधाम के द्वार, संत विन न अवर कोउ ।

वेद पुरान अढार, कहत हैं वेर वेर तेहि ॥

(૧૩/૧/૩૨-૩૯)

बडेसे बडे संत हें, पूज्य में पूज्य हें संत ।

हरिकुं सेवत संतहि, पाप जनके हरंत ॥

हरि पूज हें संतकुं, संत हित वारमवार ।

अवतार धरत हें भोमि पर, संतकि करत रखवार ॥

संतको करत अपमान, जीसविध यह लोक महिं ।

तेसे घटत तेहि मान, देव भूप, मनुष्य लग ॥

संतकु पूजत जेह, ताकुं पूजत देव सब ।

भूप हि पूजत तेह, मनुष्य पूजत रहत तेहि ॥

धन त्रियमें ब्रह्मांड जेता । देव मनुष्य देत हि तेता ॥

रचि पचि अति रहे हें यामें । सुख सबहि जो माने तामें ॥

अधिक तिनसें न देखत कोई । तेहि हित उद्यम करत हें सोई ॥

देश प्रदेश सेवत तेहि हिता । तिन हित साधन कोटि करिता ॥

धन त्रिय जनु मिले नहि कबहु । तेहि उदय में लगे जन सबहु ॥

धन में बंधाये जहां लग जेहु । संत न कहावत तिहां लग तेहु ॥

संत होई धन रखे रखावे । सो सब जगके मल कहावे ॥

धन हित संत होत हें जेते । साचे संत देखि जरत तेते ॥

साचे संतकि ऐसि हें रीता । धन त्रियेमें करत न प्रीता ॥

धन त्रिय देखत नर्क के द्वारा । त्याग करत तेहि जानि नकारा ॥

ऐसे संत हें जगके नावा । देव मनुष्य सें अधिक रहावा ॥

केफ व्यसन जे ते कहावे । जगमें जे ते फेल रहावे ॥

दूरसें त्याग करत हें ताके । साचे संत भये सो पाके ॥

संतके लछन करिके जोउ । संत पेचाने आवत सोउ ॥

हुतासन कसोटि जेहा । जेसो सोवर्ण कहत हें तेहा ॥

उपर संत भितर असंता । वर्तन नहि छपत रहंता ॥

धोरि जे ते मुलके, धर सो देखाई देत ।

वर्तन में जेति संतता, वर्तन परख हि लेत ॥

गुन गुन संत ग्रहत हें, अवगुन देवत त्याग ।

गुन त्यागि अवगुन लहत, असत तेहि निरभाग ॥

शस्त्र रखत हें जेते, धन नारि रखत जो ।

जगा बंधत तेते, ठाकर के हि ओड जेहि ॥

नारद शुकमुनि जेह, सनकादिक संत जोउ ।

दत्तात्रय मुनि तेह, जगे न बांधे निज हित ॥

लठियां हथियार रखे न तेहा । त्रिये धन में करे न नेहा ॥

व्यसन केफ फेल किये त्यागा । श्रीहरि पद में करे अनुरागा ।

मुखसें गारि न उचरे कबहु । जगको अपमान सहे सबहु ॥

अपमान सहन करना जोउ । संतको मुखय लछन हें सोउ ॥

(૧૩/૨/૧-૧૮)

૧૩/૧૩/૪-૭.

૧૩/૩૯/૫-૨૪.

उद्धव को मत इमि दिन दिन हि अधिक अधिक ।

भाव बढे ज्युं तिमि, संत-हरिजन करे जो तेहि ॥

धर्म भक्ति अरु ज्ञान वैरागा । संत से अधिक हि रखे त्यागा ॥

कथावार्ता अधिक ध्याना । दिनरात रखे ता पर ताना ॥

संत को भार रखे न लेशा । हरिजन हरिजन करे क्लेशा ॥

एक एक को च्हाय तिमि । बोले घसातो कुसंगी तिमि ॥

गज गंगा जिमि न्हावत जाई । तन पर रज सो डारत आई ॥

हडकाये श्वान जानना ताई । संत सुं प्रीत जो देत तोडाई ॥

दिन दिन प्रीत अधिक बढ़ावे । शुक्ल दिन के जिमि चंद रहावे ॥

ऐसे के कथावार्ता जेते । ध्यान कीर्तन भक्ति तेते ॥

धर्म ज्ञान वैराग्य हि जेतो । सबकु हे सुखदायक तेतो ॥

एसे संत हरिजन जितना । आकाश सम एकांतिक तितना ॥

(૧૩/૫૦/૨૯-૩૬)

૧૪/૨૪/૧૨, ૧૬-૧૭.

संत सरल जो जितने, अंतर बाहिर जेह ।

वरतत हें एक रीत हि, अमृत सम हें तेह ॥

सरल संत जे ताहि कुं, कोउ जन पर नहि खेद ।

बात करत न खेद रख, उर में रहत उमेद ॥

संत के गुन अपार, वार वार कहे मुखकर ।

अवगुन न करत उच्चार, साचे संत न छिप रहत ॥

नियम धर्म हि जेते, साचे संत हरिजन के ।

नित हि कहना तेते, श्रीहरि करे बात यह ॥

(૧૪/૪૨/૩૭-૪૦)

करत हें एसी बात, संत हि भेगे होत जब ।

हरि जब भेगे रहात, तब हरि एक बात करत ॥

हरि की बात हि एसी, जो आचार्य जैसे भयेउ ।

बात करत सो तेसी, रुचि में फरक देखाई देत ॥

जेसी रेचि ताके जेसे धामा । बात में देखात घनश्यामा ॥

धर्म, भक्ति, वैराग्य रु ज्ञाना । तामें जाकुं जेसो ताना ॥

तेसे बडे भये जो तेहा । तेसी कीर्ति बढे ताकी तेहा ॥

बत्ती जैसे दिवेल रहाये । दीपक प्रकाश तेसे कराये ॥

मशाल में जेतो प्रकाशा । तम को तेतो करत हि नाशा ॥

बिजली में दैवत रहे जैसा । प्रकाश सो देखावत तेसा ॥

वडवानल कहावत जेहुं । सिंधु में सो रहत हें तेहु ॥

तामें दैवत रहेउ एसो । सिंधु पवन से बुझात न तेसो ॥

हरि कहत हरिजन हि जेता । दीपक सम कहत हैं तेता ॥

भुवन में सो करत उजियारा । फूंक लगे बूझ जावे सारा ॥

थोर कुसंग के जोग ताई । सत्संग ताके मिट जावे भाई ॥

संत रहे मशाल समाना । मेघ से कबु न रहे ठिकाना ॥

बडे भूप आवट करे जबहु । समझ ताकी फरि जावे तबहु ॥

संतदास, रामदासजी जोउ । मुक्तानंद मुनि जैसे सोउ ॥

संत रहे सो विज हि जैसे । विजरी मेघ से बुझात न तेसे ॥

भगवान संत ताहि के, अवतार जो रहाय ।

वडवानल से अधिक हें, देव के देव कहाय ॥

अनंत ब्रह्मांड के देवा । रंक रहे ब्रह्मा जैसे तेवा

मनुष्य देह में आवत तोउ । वर्णि के वेश लेवत जोउ ॥

सर्वोपरि महिमा रहे तोई । साम्रथि तेति रखत हें गोई ॥

हरिजन कुं हरि एसे कहेऊ । तुमकुं मिले हे वस्तु जेउ ॥

कोईकु न मिले अब लगहु । सत्संग कुं रहेना वलगहु ॥

अपनो मन डगावे तोउ । सत्संग न छोडना कोउ ॥

अंत समे हरिजन कुं तेकुं । दर्शन देवत हरि तेतेकुं ॥

(૧૪/૫૦/૧૫-૩૬)

जन्म मरण जमपुरि जोउ । चोराशि जो कहावत सोउ ॥

जथार्थ मोक्ष के मारग जेउ । देखत मानेमें न आवत तेउ ॥

तेहि सम रोग असाध्य न केउ । सत्पुरुष मिटावत एउ ॥

सुकत विन सत्पुरुष तामें । जीय नहि चोंटत हें यामें ॥

सत्पुरुष रहे चमक समानां । केते जीय लोह सम रहानां ॥

सत्पुरुष समीप आत जबहि । अमृत सम वचन सुने तबहि ॥

सत्पुरुष में चोंटि हि जाते । छोरत नहि तेहि केहि वाते ॥

कारन तन रहे जीयमें जेसे । सत्पुरुष में चोंटत तेंसे ॥

सत्संग के जोग कर, कारन तन के नास ।

हो जावत नहि संदेह हि, बोले युं अविनाश ॥

कारन तनको नाश हि, जीतनो होवत जेह ।

तितनो चोंटत हरि बातमें, प्रगट देखना तेह ॥

निंद, आलस, प्रमाद, जीतनो होवत जेह ।

तितनो चोंटत हरि बातमें, प्रगट देखना तेह ॥

(૧૪/૬૪/૨૧-૨૭)

૧૪/૬૯/૩૦-૩૬.

जामें सामर्थ्य रहाये जेसा । गुन देखाई देवत तेसा ॥

सौवर्न में दैवत हि जेसे । अनल सो कहि देवत तेसे ॥

रुपिये की कीमत रहे जेसी । साचे पारख कहत हि तेसी ॥

हीरा मोती की कीमत जाई । झवेरी जो कहि देवत ताई ॥

हरिजन संत गुरु ताके । भगवान जो रहाये वाके ॥

जेसो दैवत जामें रहाये । गुन ताके न रहत छिपाये ॥

संत-असंत हि वरतन मांहि । तरत देखे में आवत ताहिं ॥

मोक्ष को खप होय जाकुं । मोक्षरूप संत रुचत ताकुं ॥

ब्रह्मांड में जन रहे जेते । विषय पर तान रहे सब तेते ॥

तेसे जो गुरु मिले जाहि । तरत ताकुं मानत रहा हि ॥

मिथ्या गुरु के फल यह । ऐसे परत जो काल ॥

श्रीहरि वात करत ईमि । निज जन प्रति पाल ॥

(૧૫/૧૨/૨૯-૩૭)

ठगावत हें ठग तेहि, ताकी गम नहि तेउ ।

अंते विमुख होवत हि, निश्चे बात हें एउ ॥

उपर तेंसे भीतर हि, साचे संत हें तेहु ।

दिन दिन एसे संत पर, रिझत हम जो रहेउ ॥

निष्कपट संत जेते । वर्णि पदाति जेते जोउ ।

हमारी सेवा में तेते । निरंतर मानत हम हि यह ॥

(૧૫/૪૩/૧૩-૧૫)

तीर्थ व्रत हि अपार, जोग जज्ञ अपार करे ।

दान पुण्य नहि पार, करे अपार जन्म लगहि ॥

हरि-संत एक वार, जेंवाये पूजे भाव कर ।

कर देखे विचार, तीर्थादिक सें अधिक रहे ॥

(૧૫/૫૭/૩૯-૪૦)

૧૫/૭૨/૧-૧૧.

૧૫/૭૫/૩૯-૪૦.

૧૫/૭૮/૨-૧૧.

૧૫/૮૦/૩૧-૩૭.

૧૫/૯૧/૫૪-૫૫.

श्रीहरि पुनि कहत भयेउ, हरिजन पर हित रहाय ।

जाग्रन करनां अवश्य हि, एक पोर हरिजन ताय ॥

जगको डर होय जीनकुं, गुप्त करनो जाग्रन ।

कोउ जाने नहि तिसविध, मनमें करना भजन ॥

परमहंस जे तेउ, सांख्यजोगि बाई भाई जोउ ।

चार पोर के एउ, जाग्रन करनां अवश्य यह ॥

बचन न मानहि जेहु, देहरूप देखना तेहि ।

ब्रह्मरूप नहि एहु, जरूर पावहि नर्क जेहि ॥

गद्य में नर्कके नाम कहेउ । पत्र में जोईके लिखे हम तेऊ ॥

नियम धर्म सत्संग के जेता । तामें तत्पर वरतत तेता ॥

वेद पुरान व्यास के जोई । जेसी जाकी रुचि रहे सोई ॥

ज्ञान अंश जामें रहे जेसे । समग्र ताकि रहाये तेसे ॥

धर्म भक्ति वैराग्य जो ग्याना । प्रतिपादन तिमि करत रहाना ॥

ज्ञान अंश हमारे में जेसा । अक्षरातीत पुरुषोत्तम तेसा ॥

हृदय हि प्रगट प्रमाना । प्रसन्न होई भये विराजमाना ॥

पुरुषोत्तम की मूरति, नख शिख तन के मांहि ।

देखात रहत हे अखंड हि, धाम देखात रहाहि ॥

धाम-मूर्ति बिन जितनेउ, ब्रह्मांड जेते रहात ।

पृथक् देखत हि तिनकुं, मूर्ति में कबु देखात ॥

अतर्क्य बात रहाये केती । तर्क में लावना जीय कुं तेती ॥

अतर्क्य स्थिति विन हुं पाये । अतर्क्य बात न आत देखाये ॥

अतर्क्य हम कहत हें बाता । वेद ताके रहस्य रहाता ॥

पुरुषोत्तम परब्रह्म जेहा । परब्रह्म जो कहावत तेहा ॥

ताके दोउ स्वरूप कहाते । जोग कला रूप दोउ रहाते ॥

जेसे अधिकारि जीय रहाये । तेसि रीत ताकुं देखन में आये ॥

जेहि बात देखना होय जबहु । तिनकि दृष्टि करि देखना तबहु ॥

अपार सिंधु रहाये ताकुं । उतरना होय जबहि वाकुं ॥

नाव बिन ओर कोटि उपाया । उतरे नहि जावत रहाया ॥

पांख विना आकाश तामें । गति कबहु न होवत यामें ॥

मनुष्य पंखि अल्प कहावा । आकाश में ताकि गति रहावा ॥

ब्रह्मविद्या कहावत जेती । जोगकला जुक्त रहे तेती ॥

जोग कला जाने बिन जोउ । चाय तेसे पंडित रहे तोउ ॥

शास्त्र में बात रहाये जेसी । माप करे में न आवत तेसी ।

पिछे शास्त्र तिनकुं यह, पढि के नास्तिक होत ।

आस्ता रहत न कोउकी, मनुष्य तन कुं खोत ॥

नास्तिक पंडित जितने, पढिकर होवत जेह ।

ब्रह्मराक्षस हि होत तेहि, सत्संग हि नहि तेह ॥

(૧૫/૯૮/૧-૨૭)

૧૬/૨૯/૧૯-૨૪.

भगवान वा भगवान के संता । दया जन पर लाये अत्यंता ॥

उद्धार करे तब होत उद्धारा । ता बिन बंध भये सब द्वारा ॥

बंधे आपसे छुटे ऐसे । आज दिन लग न देखे तेसे ॥

सिंह जेसे बलवंत न कोउ । लोह की अजारी में परे तोउ ॥

च्हाय तितने करे उपाया । आपके बल न चलत रहाया ॥

पाप ताके अज्ञान रूपा । अंधकार रहाये कूपा ॥

संत बिन ताके न कोउ उपाया । रातदिन इनसे डरत रहाया ॥

तीर्थव्रत दान पुन्य जेहा । करत रहे दिन दिन तेहा ॥

बंधन से अधिक बंधन होवे । एसे करत रहे पिछे न जोवे ॥

जे दिन ते दिन हि तेही । साचे संत तिन के एहि ॥

करहि विश्वास जबहु । बंधन से संत छोडहि तबहु ॥

बात रहे सिद्धांत यह, सिद्धांत ना फिर जेउ ।

बंधन जीय के रहे सब, तिलभर फेर न तेउ ॥

मोक्ष करन हित जीय के, अगनीत जो अब वेर ।

साचे संत जो जितने, जुदे रखे बहु पेर ॥

मिथ्या संत के माहि, साचे संत मिल जाय जब ।

सब एक मूल रहाहिं, मिथ्या कुन रहेउ तब ॥

दिनमें मिलत न रात, रातमें दिन न मिलत कबु ॥

विचार करे एहिभांत, एहिवेर हमहि जो अब ॥

रात-दिन रहे जिस रीता । सत्संग कुसंग तिस रीता ॥

जुदे हि तिहां लग भगवाना । सत्य वर्तन रूप रहाना ॥

सत्य वर्तन रहे जीहाँ जितना । भगवान के वास तिहां तितना ॥

रतिभर यामें न फेर रहाये । सिद्धांत यह बात ठेराये ॥

ब्रह्मा जेसे आवे अपारा । फिरे नहि जो बात लगारा ॥

एसी बात सिद्धांत कहाते । फिर जावे सिद्धांत न रहाते ॥

सत्संग के नियम में जेहु । जिहां लग जनहि वरतहि तेहु ॥

तिहां लग मोक्ष होवहि ताके । हमारे वचन करके वाके ॥

एसि हरि कहत रहेउ बाता । हरिजन जेते सुनत रहाता ॥

(૧૬/૪૫/૨૦-૩૫)

૧૬/૫૫/૧-૩.

૧૭/૧૭/૩૨-૩૫.

भगवान जो ताके, एकांतिक संतहु के ।

शरन बिन जो वाके, ज्ञान की गम न परत कबु ॥

भगवान अरु भगवान ताके । साचे संत रहाये वाके ॥

ज्ञान के दोनुं नेत्र रहाये । दोनुं नेत्र बिन अंध कहाये ॥

दो में एक के जोग बिन हि । ज्ञान साचे न पावत किनहि ॥

दो के जोग बिन विधि जैसे । समृथ भये तोउ कहा तैसे ॥

अज्ञान बंधन होत न नासा । अज्ञान के एसे रहे दृढ पासा ॥

सभा में जेते बैठे विद्वानां । हरि की बात सुनिके काना ॥

अति आश्चर्य पाये मनमांहि । बोलत भये तबहि तांहि ॥

तुमहि सत्य रहे भगवाना । बातमें हमारे आये जाना ॥

(૧૮/૫૦/૨૮-૩૨)

૧૯/૧૩/૩૯-૪૦.

૧૯/૫૯(૫૮)/૧૦-૧૬.

૨૧/૭/૧૦-૧૧.

૨૧/૩૩/૨૨-૫૦.

૨૧/૪૧/૪૨-૪૫.

૨૧/૪૪/૫૫-૫૬.

૨૧/૫૧/૯-૧૧.

૨૧/૬૨/૨૯.

૨૧/૭૧/૨૦-૨૪, ૩૩.

૨૧/૮૭/૫-૭.

૨૨/૨૭/૩૩-૩૬.

૨૨/૩૭/૩૩-૩૪.

૨૨/૧૦૩/૫૯-૬૬.

૨૪/૫૧/૧૫-૧૭.

૨૪/૫૧/૨૨-૨૮.

૨૬/૮/૩૪-૩૬.

૨૭/૪૬/૨૭-૩૨.

श्रीहरि तब बोलत हि भयेउ । सत्पुरुष के चिह्न हे तेउ ॥

संत के आश्रय करत जेता । नारी-नर कहावत तेता ॥

संत में अनंत तीर्थ रहीता । ताकि सेवा जेते करीता ॥

भाव, प्रीत, सेवा तामें । भगवान प्रगट रहायेक यामें ॥

चाय तितना जन पाप कराता । सेवा करत ताके बलि जाता ॥

सेवा में जितना मंद भावा । तितना पाप हि दुःख देखावा ॥

सत्पुरुष हि ताके, जोग बिन कोटि कल्प लग ।

असत् जन जो वाके, मोक्ष न सत्य बात कहत ॥

(૨૭/૬૨/૨૯-૪૦)

૨૭/૬૩/૨-૭.

૨૭/૭૯/૨૯.

૨૮/૫૦/૫, ૧૩-૧૫.

૧/૭૭/૨૬-૩૨.

૩/૩૬/૩૪-૩૬.

૩/૬૧/૪૩.

૪/૨૬/૩૫-૪૧.

૪/૩૧/૨૭-૩૫.

૪/૪૦/૪૧-૪૩.

૪/૪૫/૫૦-૫૨.

૪/૫૮/૧૬-૧૮.

૪/૫૯/૮-૧૨.

धर्म, भक्ति, वौराग्य हि ज्ञाना । ताको न रहत ठिकाना ॥

दिन दिन अधिक रहे हें चारी । हम अंतर में देखे धारि ॥

हरि लोक में श्रद्धा जाकुं । धाम के लोक समझना ताकुं ॥

लोक मानो न मानो कोई । तिन सें न झांखे परे सोई ॥

वखानो न वखानो कोउ । ता संग वैर न बांधे सोउ ॥

एसि रित के जन हि जेता । हरि के धाम के जानना एता ॥

(૪/૭૨/૬-૧૨)

हरिजन-नेत्र हैं संत, आत्यंतिक मोक्ष करन हित ।

संत बिना न देखंत, समय अलौकिक आवे यह ॥

भव-ब्रह्मादिक देव, जाकी पूजा सो चहत नित ।

ताकु मिलत न सेव, सो तुमने सेव कियेउ सब ॥

(૪/૭૮/૩-૪)

૫/૪૭/૩૬-૩૯.

૫/૨૮/૨૦, ૨૨.

૫/૬૬/૩૦-૩૨.

૭/૬૧/૨૩.

૮/૪૨/૮-૧૦.

हरि विन चाह न रखत जेहा । श्रीहरि निकट वसत तेहा ॥

हरि बिन चाह जितनो जाकु । तितनो दूर रखत हरि ताकु ॥

खातो जिय को तपासे जबहु । ऐसो हिसाब मिलत हें तबहु ॥

संत की करे सेव जेहि वारा । तर्त जिय को हरि करत उद्धारा ॥

मोक्ष होवन की नहि एक रीता । तीव्र, मध्य, मंद सेव लहिता ॥

जो समझु होई जेहि प्रकारा । ताको मोक्ष करे तेहि अनुसारा ॥

हरि में मोक्ष की रीत अनंता । अक्षर मुक्त न पार लहंता ॥

हरि की मरजी जानत जन जेहु । परम एकांतिक एसे हें तेहु ॥

हरि को रखत विश्वास हि एका । सब सें अधिक कहत जो विवेका ॥

हरि रखे जेहि विधि जाहि । तामें रहेनो मगन सदा हि ॥

इनसें पर नहि मोक्ष कोउ, ब्रह्मा कहे पोकार ।

शेष कहत पोकार के, निश्चे एही निरधार ॥

हरि की मरजी अनुसार हि, वरतना तत्पर होई ।

जिहां दिये निवास हरि, अक्षरधाम हें सोई ॥

हरि की मरजी जोई, अक्षर सें अनंत अधिक ।

रखे त्युं रहना सोई, कोटि गण दुःख सो सुख अनंत ॥

संत की करत सेव, दुःख आवो सो आवो अब ।

ताकु सुख मिलहि अभेव, चितवे विन सो आई कर ॥

(૯/૨૧/૨૭-૪૦)

૯/૩૬/૨૯-૪૨.

संत की सेव को फल हे भारी । कोटि कोटि अघ दिये जारी ॥

नारद दासीपुत्र रहाये । संत सेव कर संत कहाये ॥

प्रह्‌लाद दैत्य के सुत रहावा । संत प्रसंग से संत कहावा ॥

अक्षर से संतता गुन अधिकाई । संतता दुर्लभ कहत हरि ताई ॥

अनंत साधन कहावत जेते । संतता तामे रहे हें तेते ॥

अनंत गुन साधन अनंता । संतता से सब शोभा लहंता ॥

संतता न आई ज्यां लगहि । गुन साधन सो न सोहत त्यां लगहि ॥

संतता विन हरि रहत दूरा । उर में हें नहि भासत उरा ॥

(૯/૩૭/૨૧-૨૪)

संत मरजी तिमि चलत हें, संत करत प्रसन्न ।

सो जन हरि की हजूर हें, ऐसे अनेक वचन ॥

अल्प पुन्य नहि होत, साचे संत की जोग जोउ ।

तप से अनंत तन खोत, तब मिलत संत सेव तेहि ॥

संत को माहात्म्य जोउ, श्रीहरि विन जाने न कोउ ।

ओर जाने मति ज्युं सोउ, तिन गुन में वर्तत तेहि ॥

तिन गुन मति में आवे न जबहु । मति शुद्ध अति रहे सो तबहु ॥

तिन गुन पर संतकुं जब देखे । सेवा तब तिनकी आवे सब लेखे ॥

ता विन संत पर होये न भावा । गुन ज्यां लग आये देखावा ॥

(૯/૩૭/૨૬-૩૦)

૧૦/૫૨/૧૮-૧૯.

૧૧/૧૭/૪૦.

हरि बिन अधिक न कहे केहा । अनंत ब्रह्मांड के वैभव तेहा ॥

हरि के धाम विन वैभव जेता । मलवत देख सब जो तेता ॥

मलवत जानि भोगवे जितना । सत्पुरुष जानना तितना ॥

देह ब्रह्मांड लग कोउ मांहि । सुख न देखे भूले कबु तांहि ॥

जीय में होवे वरतन ऐसो । सत्पुरुष सो कहावत तेसो ॥

लोक कुं देखावन असत्य कहेवे । आपे द्रव्य वित्त ज्ञान कर लेवे ॥

असत्पुरुष सो कहत हि ऐसे । द्रव्य हित ज्ञान जानना तेसे ॥

(૧૧/૩૧/૧૮-૨૧)

૧૧/૩૧/૨૨-૨૪.

हरि विन रूप कहावत जितना । अति विष सम समझत तितना ॥

ओर न रखे हरि विन केहा । विषय में देखत दुख अति एहा ॥

रात दिन पंचविषय ताको । मूल उच्छेदत वेर वेर याको ॥

पंचविषय के मूल हि जोउ । पाताल से प्रकृति लग हें सोउ ॥

प्रकृति पर वरते ज्यां लगहि । पंचविषय न लोपे त्यां लग हि ॥

हरि संबंध कर क्रिया जितनी । प्रकृति पर जानना तितनी ॥

हरि सत्संग संबंध हे एका । जानत जाकुं परम विवेका ॥

गुरु संत हरिजन हि जेता । यामें आई गये सब तेता ॥

मोक्ष मति रखि सेवा करे याके । दूषित मति कबु होवे न ताके ॥

(૧૧/૪૧/૨૦-૨૫)

धर्मादिक हे वंश हि जेहि । तामें प्रगट रहत हें तेहि ॥

धर्मवंश हि अक्षर जो ताकु । एकता अखंड वर्तत वाकु ॥

ऐसे मत रहत कोउ ठोरा । हरि के संकल्प हे बड जोरा ॥

आरुणि उपमन्यु वेद जोहि । गुरु सेव से बडे भये तोहि ॥

(૧૧/૫૪/૩૦-૩૧)

सत्पुरुष की सेवा जोउ । असत्पुरुष कुं मिलत न सोउ ॥

सत्पुरुष भोमि विचरत जोहु । असत्पुरुष न देखत तोहु ॥

सत्पुरुष पर द्वेष उर लाई । वारि वार स्मरण करे ताई ॥

तो हुं मोक्ष फल ताकुं देवे । सत्पुरुष में गुन रहे एवे ॥

असत्पुरुष कुं सेवे अति भावा । कोई दिन न लेवे अभावा ॥

तोहु जावे सो नर्क में, जूठ न यामें लगार ।

प्रगट देखे आत तेहि, अंतर जेहि विचार ॥

कोटि कोटि करे पाप हि, सत्पुरुष एक वार ।

सेवे अति भाव कर, ताको करे उद्धार ॥

सत्पुरुष की सेव, अनल से कोटि प्रताप जुत ।

करत सद्य ही एव, उधार करत नहि वार लगत ॥

(૧૧/૬૩/૧૦-૧૫)

૧૩/૪૧/૨૧.

૧૪/૬૫/૧૮-૨૬.

सत्संग हि जो ताहि को, महिमा यथार्थ जोउ ।

जानत भयेउ देव सब, एसो न जानत कोउ ॥

हरिजन ते ते जानहि, संत के कर हि जोग ।

पढ़त और वेदपुरान हि, मिटत न भवदुःख रोग ॥

मिटत न भवदुःख रोग, साचे संत के जोग बिन ।

संत के कर हि जोग, भव भटकन तब रहत नहि ॥

सत्संग मोक्ष के द्वार, संत सो हरिजन जोउ ॥

प्रसिद्ध रहेउ धार, कुमति कुं नाहि देख परत ॥

(૧૪/૮૫/૩૭-૪૦)

૧૫/૧૦/૨૫.

बडे संत के करी प्रतापा । तरत जन हो जात निष्पापा ॥

साचे संत प्रताप हि जितना । भगवान के समझात तितना ॥

प्रताप संत में होवे अपारा । हरि के देखे न बुद्धि हि वारा ॥

आपमें प्रताप देखत जेते । मलिन संत अति जानना तेते ॥

मुवेकुं वचन करि के जिवावे । केतेक जनकुं सुत देवावे ॥

जो प्रताप आपमें देखावे । हरि के प्रताप मुख से गावे ॥

सनातन संत की रीत हि एसा । गरव कोउ वात के न लेशा ॥

अदने संत के दास रहावे । मन कर्म वचन एसे रखावे ॥

सब ब्रह्मांड के जन जेता । देवता के कहावत तेता ॥

पूजत आपकुं आई भावा । ताके गरव कबु न देखावा ॥

एसे संत मन धारत जेसे । होये विन निश्चे रहत न तेसे ॥

एसे संत कले नहि आते । दंभि कुं शिर नित फिरत लगाते ॥

भेट सामग्रि कहावत जेती । उपर उपर यह धरत तेती ॥

म्याना सुखपाल चारट लाई । गज तो रंग अच्छे जो ताई ॥

बेठावत अति भाव कर, साचे संत हि जानि ।

साचे संत रहे संग हि, पेचानत नहि प्रानि ॥

साचे संत प्रसन्न होत हि, जन के देख हि भाव ।

मन में खेद न पावहि, प्रबल रहे ठेराव ॥

पिंड-ब्रह्मांड से पर, वरतन निशदिन रहेउ ।

दुःख ताप गये तर, पिंड-ब्रह्मांड में दुःख रहे ॥

हरि के जेते संत, एसी वात में प्रित जेहि ।

समझ पाये बलवंत, ताप में देखात न, जरत तन ॥

(૧૫/૨૮/૩૦-૪૦)

૧૫/૪૩/૩૩-૩૪.

૧૮/૨૯/૫.

૧૮/૫૧/૮-૧૧.

૧૯/૩૮(૩૭)/૨૨-૨૩.

૨૦/૧૯/૨૯-૩૨.

૨૦/૪૭/૨-૩.

૨૨/૪૪/૨૧-૨૪.

तुमहि ग्रहेउ हाथ हमारा । उद्धार रहे अब हाथ तुमारा ॥

नृप प्रति हरि तब बोले ताई । हममें जेसे भाव रहाई ॥

साचे संतहि जितना, नारी हि धन से दूर ।

धर्म, भक्ति, वैराग्य जुत, हरि के ज्ञान हि उर ॥

चिन्तामनि कल्पतरु जो, ऐसे संत कहात ।

ता पर जैसे भाव यह, तेसे फल सो पात ॥

(૨૪/૬૭/૨૪-૨૬)

૨૫/૫૨/૧૪, ૧૭, ૧૮.

૨૫/૫૨/૨૪-૨૭.

૨૬/૧૦/૩૪-૩૫.

૨૬/૬૨/૨૨, ૩૬-૩૮.

૨૭/૩૩/૨૯-૩૦.

૨૮/૫૪/૭-૯.

૨૮/૧૧૦/૧૩.

પ્રકરણ ૧૬ની પાદટીપો

૨/૩૮/૧૧-૧૫.

૩/૩૪/૪૨-૪૩.

૪/૧૦૯/૨૦-૨૩.

૫/૬/૩૧-૪૭.

૫/૩૬/૨૭-૩૬.

૬/૩૭/૭-૮.

૬/૭૯/૨૭-૩૩.

૮/૨૦(૧૯)/૩૧-૩૩.

૮/૨૧(૨૦)/૨૫-૨૬.

समर्थ संत मिलत हि जबहु । हित करि के जीय संग तबहु ॥

अजोग्य प्रकृति स्वभाव हि जेसा । त्याग करावत बोध दे तेसा ॥

अनंत वात से मोक्ष हि जेहु । ताको फल अपार हें तेहु ॥

सो फल को लोभ नकि जाहि । अंतर में होवे दृढ करि ताहि ॥

ताकुं प्रकृति स्वभाव हि, अजोग्य न रहे लगार ।

लोभ करिके मोक्ष के, देखे में आत अपार ॥

(૧૦/૭/૩-૧૨)

૧૦/૩૪/૧૩-૧૭.

૧૧/૫૬/૧૩-૧૬.

૧૧/૮૧(૭૧)/૮-૧૨.

૧૫/૫૯/૫-૧૪.

૧૭/૧૦/૫-૧૧.

પ્રકરણ ૧૭ની પાદટીપો

૨/૬/૬, ૮.

૩/૩૦/૪૩-૪૮.

૪/૨૨/૧૩-૧૯.

૪/૩૬/૪૫-૪૮.

૫/૭૧/૨૮.

૬/૧/૩૭-૪૨.

૬/૫૪/૨૬-૩૬.

૮/૩/૪૧-૪૨.

૮/૩૨/૩૪-૩૮.

૧૦/૩૬/૧૬.

૧૧/૧૨/૧૬.

૧૧/૫૪/૬-૧૨.

૧૧/૮૨(૭૨)/૧-૧૨.

૧૧/૮૬-૮૭ [૭૭-૭૮].

सत्संग माने कुटुंब परिवारा । देह के कुटुंब दिये विसारा ॥

कुटुंब को त्याग किये जा दिन से । सुपने में न आये ता दिन से ॥

संत हरिजन कहावत जेता । सुपने में अखंड देखत तेता ॥

अक्षरधाम संत हरिजन जेहु । एक हि देखत इहां के तेहु ॥

(૧૨/૬૬/૫-૮)

૧૩/૫૪/૯-૧૧.

૧૬/૩૦/૧-૨૦.

૧૭/૪૩/૧૭-૨૦.

૨૭/૧૦૧/૬-૧૧.

૬/૪૩/૨૨-૨૫.

૬/૫૪/૧૯, ૨૪.

૮/૩૬/૯-૧૧.

૧૦/૨૬/૨૮-૩૦.

૧૫/૪૨/૧૬-૧૮.

પ્રકરણ ૧૮ની પાદટીપો

संत से विरुद्ध वर्तन जाका । काव्य कीर्तन करे में पाका ॥

अहोनिश ध्यान करे मेरा । पलक न पारहि नेत्र हि केरा ॥

सो सब मोंसे विमुख कहावे । अंत समे तेहि हम नहिं आवे ॥

(૪/૧૮/૪૨-૪૬)

૪/૧૧/૨૨-૨૯.

૪/૭૪/૨૬-૨૮.

૫/૩૩/૧૭-૧૮.

૫/૪૨/૨૨-૨૪.

૬/૨૯/૩૧-૩૯.

૭/૧૦/૯-૨૩.

૯/૨૬/૩૫-૩૮.

૧૧/૮૦(૭૦)/૩૮.

૧૨/૪૮/૧૫-૧૯.

૧૪/૮૨/૧૨-૧૮.

૧૫/૮૧/૩-૫.

૧૮/૮૩/૨૧-૪૪.

૧૯/૨૨(૨૧)/૧૪-૨૭.

૧૯/૫૯(૫૮)/૨૯-૩૯.

૨૦/૧૫/૧૩-૧૪.

૨૫/૧૦(૧૧)/૧૨-૧૬.

૨૮/૫૪/૫-૧૩.

૫/૨૨/૩૦-૩૬.

૧૦/૫૨/૩૨-૪૦.

પ્રકરણ ૧૯ની પાદટીપો

सूर्य रूप है धर्म की बाता | धर्म कुं हम माने हैं ताता ।

धर्म की पत्नी भक्ति जेहू । सो हम माने माता तेहू ॥

तिनके पुत्र जो ज्ञान-वैरागा । बंधु तेहि माने बड़भागा ।

तिनके वंश महा शांत कहावे । सो हमारो कुटुंब रहावे ॥

(૩/૩૩/૨૨-૨૫)

૩/૩૪/૫૧-૫૨.

૩/૪૧/૯.

तामें जन भ्रमात, निरधार होत न वात कोउ ।

जिहां तिहां लग जात, जेसे गुरु मिलहि तिमि ॥

गुरु को करे विश्वास, जाकि रूचि होय जीमि ।

गुरु बतावत तास, मोक्ष गुरु कि हें रिति भिन्नि ॥

हरि धरत अवतार जबहु । ता विन गम न परत कबहु ॥

पाखंड प्रभु कर होत अनंता। वर्तन करि आवत देखंता ॥

साचे कि दृढता होवत तबहि। जुठ प्रभु ओर चलत जबहि ॥

तेजवान काय हि केसा । साचे मति सम होत न तेसा ॥

लंबकर्ण पर होद्दा धारे । साचे गज न होत तेउ वारे ॥

सूर्य पतंग ओर पतंग अवंता । गनत ताको न आवत अंता ॥

ओर पतंग अंधकार न खोवे । नाम कर तेहि काम न होवे ॥

साचे सूर्य उदे होत जबहि। पतंग जुठ जनात तबहि ॥

धर्म कि करे वृद्धि जेहा । अधर्म के करे खंडन तेहा ॥

अदल नीति चलवे सुरिता । अनीति में न करे कबु प्रीता ॥

नारि, धन देखि न तनावे । चक्रवर्ति राज में न लोभावे ॥

पाताल सें पुरुष प्रकृति प्रजंता । बडे में बडो दुःख देखत रहंता ॥

ज्ञान विन कोई में न देखत लाभा । विन समझ सब कहत अलाभा ॥

ब्रह्मपुर में रहि मूर्ति जेहु । ताकुं साकार कहत तेहु ॥

स्वधर्म रखि ताको ज्ञान करावे । हरि बिन ऐसो कोउ न आवे ॥

उत्तम विषय प्राप्त होय तोउ । तिनसें अलग रहेवे सोउ ॥

अलग को हे ऐंधान यह, अति प्रसिद्धि हि जान ।

मनवांछित होय वास तब, रंच न दुःख उर मान ॥

खानपान धन नारि हित, कबहु न करहि जत्न ।

सन्मान कोउ न करत कबु, तोहु रहत हें मग्न ॥

ऐसो जीवसें न होय, ऐसो न होवत सिद्ध तेहु ।

मुक्त हि होवे जोय, तोहु मानकि रहत रुच ॥

एहि वर्तन हें ऐंधान, ओर सामृथ हें अनंत तेहि ।

एहि निश्चे भगवान, अंतर में एसे देखात सब ॥

(૪/૬૬/૨૭-૪૦)

૫/૧૯/૧૮-૨૪.

૫/૩૩/૧૭-૪૦.

૫/૭૨/૨૮-૩૦.

हरि वा साचे संत हि, प्रगट होत जेहि वार ।

तेहि मुख सुनत शास्त्र जब, तब जन होत भव पार ॥

नारी धन-संग्रह करत, ऐसे गुरु अपार ।

तिनसें न भवजल तरत कोउ, शरन लेत नरनार ॥

त्यागी गुरु सरस, शास्त्र में किये ठोर ठोर तेहि ।

तरत हो जावत नरस, धनत्रिया को होत जोग जबे ॥

गुरु होवे जेहि, धनत्रिया ताकुं प्रथम मिलत ।

ता विन जग में केहि, त्यागी गुरु धन त्रिय हीन ॥

धन त्रिया को जोग रहे जेहा । ईश्वर कुं डाग न लगे केहा ॥

धन त्रिय हे अनल समाना । भस्म करे संग करत माना ॥

अनल मादक विष हि व्याला । परस विन कबु चढि न हाला ॥

नारी धन देखत चढ़ि जावे । पलक में सुध बुद्ध भुलावे ॥

चढे पिछे नियम रहे न कोऊ । तर्त फजित कर डारे सोऊ ॥

बडे बडे त्यागिगृहि जेते । नारिधन फजित किये तेते ॥

नाम निमेष लिखे हे ताके । त्यागी जनकुं जनावन वाके ॥

ताकी रीत जोई कर त्यागी । नारी धन में न होवे अनुरागी ॥

गुरु वचन कहे सो वेरी । तोऊ त्यागी पिछें देवे फेरी ॥

तेहि कर गुरु वचन को कबसा । त्यागी पूरे सो त्यागे तबसा ॥

धन-त्रिय से त्यागी रहे दूरा । ताकुं त्यागी जानना पूरा ॥

ईश्वर की कछु बात न करना । ओर के दोष करे सब जरना ॥

आकाश सम सब गुन हे वाहि । कोउ न दाग लगे कबु ताहि ॥

भक्त बोले तेहि वार, बड़े बड़े संत अवतार जेहि ।

गनत न आवहि पार, सो सबके हो बीज तुम ॥

(૬/૮૫/૧૪-૪૦)

श्रीहरि घनश्याम हि, भक्तवत्सल कृपाल ।

हरिजन सें बोले हेत कर, दीनबंधु प्रतिपाल ॥

तुमारो धन्य भाग्य हि, मिले यह सत्संग ।

सत्संग बिन अभिमानी जन, लहत दुःख सो अभंग ॥

कुमारग में चलत, यह लोक में जन जोउ ।

केसो चहे सुख लहंत, नाक-कान शिर खोत तरत ॥

एसो दुःख गिने पार न आवे । यह लोक में प्रसिद्ध देखावे ॥

देखत दुःख तोहु त्रास न लेशा । कुमारग में चलत हमेशा ॥

आचार्यगुरु मत जग में जेते । कुमारग न निवारत तेते ॥

निजकुं रुचत कुमारग जबहु । शिष्य कुं निवारत नहि तबहु ॥

आचार्य गुरु भये फेल अपारा । फेल करन ब्रह्म बनत गमारा ॥

फेल करे सो ब्रह्म न होवे । गुरु होई ओर के जनम विगोवे ॥

गुरु होई ब्रह्मचर्य कुं रखावे । ऐसे गुरु सो ब्रह्म कहावे ॥

फेल रु केफ व्यसन हि जेता । गुरु न करे करावे तेता ॥

हिंसामात्र न करत, न करावे । ऐसे गुरु ब्रह्मरूप दरशावे ॥

भक्ति, धर्म, ज्ञान, वैराग्य पूरा । ब्रह्मरूप गुरु जानना शूरा ॥

दिन-रात हरिसंबंध हि ज्ञाना । कथा कीर्तन करत रहाना ॥

तामें तृप्ति कबहु न पावे । दिन दिन चढा रंग अधिक रखावे ॥

कामी अरु लोभी जन हि जेसे । तृप्ति न पावत पलहि तेसे ॥

हरि के चरित्र हि सागर मांहि । झिलत रहे बार निकसत नाहि ॥

मीन ज्युं मगन सिंधुके संगा । आनंद खेल महिं करत अभंगा ॥

तामें सुं निकसे पल हि बारा । तब आनंद न रहत लगारा ॥

ब्रह्मदशा के चिह्न हि, एसे हें जो अपार ।

भगवान विन नहि वात हि, करत न मुख उच्चार ॥

शुक सनकादिक शिव हि, ब्रह्मदशा शुद्ध पाये ।

जडभरत कपिल हि, दत्तात्रय श्रेष्ठ कहाये ॥

तिनको जोना एह, ग्रंथ में लिखे हें प्रसिद्ध तेहि ।

जाकुं होय उर चाह, ब्रह्मदशा में सो ग्रहन करत ॥

मुख से कहे में ब्रह्म, ऐसे ब्रह्म नहि होत कोउ ।

सबुद्धि लहत यह मर्म, कबुद्धि चलत नहि राह यह ॥

(૮/૨૬/૧-૧૬)

सो गुरु साचे जग में जानो । धन नारी में न मन बंधानो ॥

जग में गुरु हें दोउ प्रकारा । एक त्यागि एक गृहिधर्म धारा ॥

त्यागि गुरु की रीत हे ओरा । धन हित सो न करहि दोरा ॥

गृही होई धन-नारी हिता । उद्यम रहे सो जितनो करिता ॥

तितनो तामें दोष कहावे । लोभ ताकुं सो देखे न आवे ॥

निर्लोभ वर्तन रखत हि जाहि । शिष्य बहु धन देवत हें ताहि ॥

घर घर मागत धन हि जेहु । लोभी गुरु सब कहेवत तेहु ।

(૯/૪૦(૪૧)/૨૦-૨૪)

૯/૪૧(૪૦)/૨૦.

૧૧/૩/૩૧-૩૨.

क्षुधा तृषा सित घाम, सहन करि घरकाम करत ।

करत न पल विश्राम, गुरु सेव में प्रेम अधिक ॥

गुरु सुखदुःख हि पूछे न कबहु । गुरु के अवगुन लिये न तबहु ॥

प्रेम से सेवा करे बहु काला । ता पर गुरु तब रिझे तत्काला ॥

परम श्रेष्ठ मोक्ष तेहि दीने । वेदशास्त्र में सर्वज्ञता कीन्हे ॥

धर्म भक्ति जुत दिनेउ ज्ञाना । सेव में गुरु के मन जब माना ॥

जोग्य अजोग्य टेल जो जेती । करन परीक्षा कराये तेती ॥

गुरु के अभाव न लिए कोउ रीता । बहु बहु रीत परीक्षा करीता ॥

गुरु निर्दय होई सेवा कराये । कोई में पिछे पग न धराये ॥

गुरु के अभाव तोहु न लीन्हा । देव जानि के सेवा कीन्हा ॥

सेव से वेद तेहि ब्रह्म सम भयेउ । सेवा को माहात्म्य ऐसे रहेउ ॥

वेद सम हरिजन करे सेव जेता । ब्रह्मरूप हो जावे तेता ॥

गुरु संत के दोष लेत जाहि । सत्संग करत घटत हि ताहि ॥

गुरु संतकुं देखे जिस भाँति । हरिजन में गुन आवे तिस जाति ॥

गुरु संत कुं सेवे देव समाना । हरिजन बढे सो परम सुजाना ॥

धर्मभक्ति आदिक परिवारा । तामें वसत लगत न वारा ॥

पुरुषोत्तम के सदन सो होवे । गुरु संत के दोष न जोवे ॥

दिन दिन बढत सो जात अपारा । सत्संग करत जेहि शुभ विचारा ॥

(૧૧/૫૬/૪-૧૬)

૧૧/૫૮/૨૮.

जेसे जाकुं मिलत गुरु, तेसे ताकुं कर देत ।

दैवत ते तो मूल तेहि, बुद्धि जेसे जोई लेत ॥

ब्रह्मविद्या हे अपार हि, अमायिक सब हि तेह ।

अमायिक गुरु मिले विन, सिद्ध न होवत एह ॥

ब्रह्मविद्या की बात, जेति जेह कहात जोउ ।

अमायिक गुरु सिखात, मायिक गुरु न सिखात कबु ॥

पंचविषय चौद लोक के जेते । सार न माने एकहि ते ते ॥

प्रकृतिपुरुष लग कहावत जेतो । अधिक आश्चर्य मनात तेतो ॥

काल चविना देखत निहारि । ऐसि मति जाकि वर्तत भारि ॥

अमायिक गुरु कहत हें तेहा । श्रीहरि विन साच देखे न जेहा ॥

श्रीहरि धाम सामे रहे जेता । अमायिक सो कहावत तेता ॥

हरि इच्छाकर भोमि पर आवे । तोहु तेह अमायिक कहावे ॥

अमायिक हरि स्वरूप सदाई । ताके जो जो चरित्र हि ताई ॥

मायिक सम न कहे मुख कबहु । मायिक सम नहि देखे जबहु ॥

हरि अरु हरि के जेते चरिता । भक्त हित हि जेते करीता ॥

प्रगट हरि के भये जोग हि जाहि । संत हरिजन ते ते ताहि ॥

अमायिक कर देखे सब तेहु । अमायिक जन जो कहावत तेहु ॥

सुलट समझ मोक्ष दाई जेति । ब्रह्मविद्या सो कहावत तेति ॥

उपनिषद मात्र हि जितना । हरि के चरित्र कुं दीन होई तितना ॥

मगन होई कहत गुन गाना । तेहि करि तेहि अधिक रहाना ॥

हरिसंबंध हें ताके नामा । यह लोक परलोक हि रहाता ॥

ब्रह्मविद्या हें ताके नामा । अर्थ जान विन लहत न ठामा ॥

इतनी करि हरि बात, संत हरिजन मगन भयेउ ।

चले जन हरि गुन गात, श्रीहरि बैठे अश्व पर ॥

(૧૧/૬૧(૫૧-બ)/૨૫-૪૦)

जो जिनसे समर्थ हि होवे । ताकी वात विचारी के जोवे ॥

तब ताकुं तेहि वात देखावे । ओरकुं नहि देखे में आवे ॥

जो समर्थ जब आवत जेहा । निज साम्रथ तब जनवत तेहा ॥

तेहि कर जिनमें साम्रथ जेता । देखाई प्रगट आवत तेता ॥

ताके नजर में आवत जेसे । फेरवत सो वर्तन हि तेसे ॥

वर्तन में जाकुं खप जेसो । प्रगट देखाई आवत तेसो ॥

सोवर्ण में दैवत जितनो, अनल कसोटी जोउ ।

कहि देवत हे तितनो, ता विन कहे न कोउ ॥

वर्तन हे अनल कसोटी ही, वर्तन से जन हि जेसो ।

देखे में आवत तर्त ही, तामें न रह हें अंदेशो ॥

एक धर में धोरी, जोरे होत न परख तेहि ।

विविध धर में जोरी, परखत होत हें जिमि जोउ ॥

तेसे आश्रित जन, त्यागी गृही जो कहात तेहु ।

प्रसन्न होई के मन, वर्तावहि गुरु समर्थ जोउ ॥

सोवर्ण आदिक धातु में जेहा । तामें एक घाट नहि तेहा ॥

काष्ट पाषाण मृत्तिका तामें । घाट एक न देखात यामें ।

कपास में घाट देखात न एका । ताके गुरु जब मिलत विवेका ॥

तब एक सें घाट अनेक रचावे । तेसे सम्रथ की रीत रहावे ॥

जग में क्रिया हें अनेक प्रकारा । सबके गुरु हें न्यारा न्यारा ॥

तेसे मोक्षदाता गुरु जोउ । प्रगट जग में एक हि सोउ ॥

मोक्षदाता गुरु ताके जेहि । जे जन शरण आवत हें तेहि ॥

त्यागी गृही जो जो जेता । भवतारन जनकुं होवत तेता ॥

वचन में एसो रहे प्रतापा । अनंत जन्म के छोरावत पापा ॥

समर्थ विन नहि पाप छुटावे । पाप छुटे सें परख हि पावे ॥

पाप छुटे की परख हें एसा । धर्म में मति करत प्रवेशा ॥

धर्म रुचे मोक्ष अनुसारी । मोक्षरुप भक्ति लगे प्यारी ॥

मोक्षरूप ज्ञान वैराग्या । तामें अति होवे अनुरागा ॥

तेहिकर दैहिक क्रिया जेती । पवित्र होइ जावत हे तेती ॥

बाहिर शुद्ध अंतर मलीना । क्रिया में सो आवत चीना ॥

(૧૨/૧૯/૧૦-૨૪)

पात्र विन ब्रह्म के गुन भारी । उन्मत्त होइ जावत नरनारी ॥

पाप मात्र कहावत जेते । ब्रह्म कुं कहत अडे न तेते ॥

मांस मदिरा परत्रिय संगा । निर्भय करत भये अभंगा ॥

ब्रह्म को गुन हि हें एसा । विषय मारग न चलना तेसा ॥

विषय में जब देखे असारा । तब ब्रह्म के गुन आये सारा ॥

विषयासक्त ब्रह्मज्ञानी जोई । कृष्ण कहे मम दास न सोई ॥

ब्रह्मद्रोही मम द्रोही तेहु । श्रीकृष्ण मुख से कहे एहु ॥

एक से साधन बहु को, इतनो फल कहेउ ।

विषय से तोडी राग सब, आत्मा होना तेउ ॥

आत्मनिष्ठ होई कर, भगवान में करना प्रीत ।

ब्रह्मनिष्ठ हम कहत तेहि, इतनी बात हि नवीन ॥

(૧૨/૫૩/૬-૧૪)

૧૩/૫૮/૩૩-૩૬.

૧૫/૩/૨૯-૩૩.

૧૫/૧૯/૧૩-૧૫.

૧૬/૩૬/૧૮-૨૯.

૧૬/૪૩/૩૪-૩૫.

૧૬/૫૦/૩૮-૩૯.

૧૮/૨૧/૧૯-૨૨.

गुरु बिन कोउ बात के ज्ञाना । होवत नहि रहत अज्ञाना ॥

हरि बिन देखत ओर में सुखा । सुख एहि रहाये दुःखा ॥

साचे संत मिलतहि जबहि । मोक्ष के मग देखावत तबहि ॥

विद्या अपार रहेउ तामें । मोक्ष की विद्या अधिक हें यामें ॥

जो जो बात रहाये तिनमें । मोक्ष मग अधिक रहे इनमें ॥

मोक्ष के मग न चले जिहां लगहि । एक बात न किये तिहां लगहि ॥

(૧૮/૩૨/૨૦-૨૪)

૨૪/૫૧/૧-૧૪.

૨૫/૪૦/૩૪-૩૮.

૨૬/૨૭/૩૩-૩૮.

(૨૬/૩૯/૧૫-૧૬)

(૨૭/૪૮/૧૯)

(૨૮/૫/૧૮-૨૬)

૧/૭૨/૩૭-૩૮.

૧/૭૨/૨૯-૪૨.

૪/૧૦૮/૩-૪.

૮/૬૦/૧૫-૩૬.

૯/૧૧/૭-૧૩.

नियम सत्संग के जितने, तामें रहि तत्पर ।

हरि के वचन जिसविध, तेंसे सेवे गुरुवर ॥

जेसे सेवक को भाव हि, गुरु उपरि रहाय ।

तेसे गुरु तेहि शिष्य की, संभावना रखे सदाय ॥

गुरु-शिष्य को नेह, दिन-दिन सो बढत अति ।

तामें मन चोरे जेह, तब सो घटत घटत अति ॥

गुरु के लच्छन यथार्थ जेहा । पाले सो साचे गुरु तेहा ॥

त्यागी की रीत सो त्यागी रहावे । शास्त्र में प्रसिद्ध सो कहावे ॥

तामें धन त्रिय वंत गुरु जेही । भव ब्रह्मा सम समर्थ तेहि ॥

तोहु बंधे गुरु कहावत तेहु । शास्त्र को सिद्धांत सब एहु ॥

(૯/૨૩/૨૫-૩૧)

गुरु होई बैठे जग में जेहा । रहस्य न समझे मोक्ष को तेहा ॥

सो गुरु अंध हि तम कहावे । नियम धर्म विन जमपुर जावे ॥

गुरु के मोक्ष हि होवत जेसा । शिष्य के मोक्ष हि होवत तेसा ॥

यामें संशय कछु न रहाये । सो कहत नजर हि देखाये ॥

गुरु कुं जथार्थ होय हरिज्ञाना । धर्मनियम ता पर होय ताना ॥

धर्मनियम में शिष्य कुं चलावे । आपे वर्ते शिष्य कुं वरतावे ॥

ऐसे गुरु शिष्य को होत उद्धारा । यामें संशय नहि लगारा ॥

ऐसो सत्संग होवे जेहि ठोरा । हरि निश्चय प्रगट तेहि कोरा ॥

आचरण करि देखे में आवे । जेतो जामे दैवत रहावे ॥

चक्रवर्ति करि के जो नामा ॥ चक्रवर्ति न होत कोउ ठामा ॥

हरि किये हरि होत नहि, गुरु किये गुरु न होत ।

संत भये संत न होत हि, गुन कर होत उद्योत ॥

जेसे गुन रहे जाहि में, एसी हे वात अपार ।

तेसे प्रकाश हि होत तेहि, सूर्य जैसे उजियार ॥

(૯/૨૪/૧૭-૨૭)

सब जनको कल्याण हि इच्छे । जो जन आई प्रीत से पीछे ॥

आपको बुरो करन कोउ धारे । तोहु ताको हित विचारे ॥

हरि कुं लगत सो प्रिय भारी । देखत समीप तेहि वार हि वारी ॥

निष्कपट निरदंभ हि, कुटिलता नहि मन लेश ।

ईर्षा मत्सर विन मान हि, धर्म जुक्त विन क्लेश ॥

निष्काम रहे निर्लोभ, निःस्पृह रहे सरल चित्त ।

निःस्वाद इन्द्रि सब माहि, परम गुरु के चिह्न यह ॥

ताके मन जो वचन, श्रीहरि मोक्ष सो करत तेहि ।

होवत अति प्रसन्न, मोक्षरूप गुन हि जानिकर ॥

मोक्षरूप गुन के जेहा । जन को मोक्ष हि होवत तेहा ॥

कल्यान मोक्षधाम एक कहावे । नाम करि भिन्न भिन्न रहावे ॥

सब के कारन हें हरि प्रधाना । शुद्ध धर्म तहां हरि रहाना ॥

दूर जो निकट हरि रहत तब हि । ज्ञानी गुरु सो जानत सब ही ॥

दूर निकट हें भक्त के भावा । भाव तेंसे आवत देखावा ॥

निकट देखावो न देखावो कबहु । निकट तोकुं हरिकुं देखत दिलहुं ॥

ताके निकट हरि को वासा । प्रेमीजन जानत ऐसे दासा ॥

उद्धव स्वामी को मत है जेहु । हमकुं प्रिय लगत हे तेहु ॥

धर्म, भक्ति, ज्ञान, वैराग्या । धन त्रिय ही त्यागी कुं हे त्यागा ॥

जथार्थ शास्त्र में कहे जेहि भाँति । शुद्ध रीत जो यामें रहाती ॥

(૯/૨૬/૨૩-૩૫)

૧૧/૭૦/૩૩-૩૭.

૧૩/૩૦/૨૧-૨૪.

नियमधर्म विन जितने जेहि । गुरु देखे में आवे तेहि ॥

ढिमर सम देखत सो पापी ताकु । शुद्ध अंकुर उर रहे जाकुं ॥

नियमधर्म जुत जितने, प्रगट हरि पर तान ।

साकार रूप कुं मान हि, सो गुरु मोक्ष आन ॥

(૧૩/૪૧/૩૬-૩૭)

૧૪/૨૭/૨૯-૩૦.

૧૯/૪/૯-૧૨.

૧૯/૪/૧૪-૧૬.

૧૯/૩૧(૩૦)/૨૩-૨૮.

૧૯/૩૨(૩૧)/૧૩-૧૯.

૨૦/૬૬/૨૫-૨૮.

संतता कि लोपत न रीता । संतता में जेहि मानत हिता ॥

संत साचे रहे जो जेता । भगवानकुं अधिक देखत तेता ॥

भगवानकुं अधिक जिहां लगहि । देखत संत तिहां लगहि ॥

भगवान तामें निवास करीता । पलक एक न दूर रहिता ॥

भगवान निवास करत जामें । प्रगट देखावत वरतन तामें ॥

नैन बेन में आत देखाई । पदार्थ हित न क्षोभ कराई ॥

जन मानो न मानो कोई । जन ताके माने कहा होई ॥

प्रतिष्ठा आप कि जो लगारा । बढावन हित न करत विचारा ॥

संत हरिजन कि प्रतिष्ठा जीमि । दिन दिन अधिक बढे तिमि ॥

मगन मगन मन रहे अपारा । ज्ञान ताके जेहि खोले द्वारा ॥

(૨૨/૪૩/૩૦-૩૫)

પ્રકરણ ૨૦ની પાદટીપો

૧/૫૭/૫૭-૬૬.

૨/૪૩/૩૦-૩૧.

૩/૧/૫૬.

૩/૫૬/૧૫-૨૪.

૩/૫૮/૪૯-૫૦.

૪/૧૮/૪૯-૫૨.

૪/૩૩/૧-૧૭.

૪/૩૩/૨૭-૪૧.

૪/૩૫/૪૪-૫૩.

૪/૭૪/૩૩-૩૪.

૪/૮૩/૩-૭.

૪/૧૦૭/૧૯-૩૧.

૫/૧૨/૧-૧૦.

૫/૧૬/૯-૩૫.

૫/૩૬/૨૦-૪૦.

૫/૬૮/૩૮-૪૦.

૫/૩૦/૧-૬.

૬/૪/૨૫-૪૦.

૬/૮૨/૧-૨૭.

तेहि जानि साम्रथ रखे हे गोई । प्रभुता जिरवना कठिन हे जोई ॥

सब हि मद में मद हे भारी । प्रभुता जिरवना लगारी ॥

शास्त्र के वचन में वर्तना जेऊ । बडी प्रभुता समझना तेऊ ॥

शास्त्र कुं लोपि चले जाहि । अगम निगम बात कहेता हि ॥

कुकर शूकर गर्दभ की नाई । एसे कुं समझना मन मांई ॥

(૬/૯૯/૨-૯)

૭/૯/૨-૧૪.

सर्वोपरि है साधुगुन भारी । भगवान शिर हृदय रहे धारी ॥

साधु आगे भगवान हि जेहा । दीनाधीन रहत हे तेहा ॥

गुन अनंत कहावत जेते । साधुता में रहत हे तेते ॥

माया से पर अक्षर सुख रूपा । पुरुषोत्तम तेहि पर अनूपा ॥

पुरुषोत्तम साधु कुं जोई । आपसे पर मानत हे सोई ॥

साधु कुं हरि विन न अधिकाई । हरिचरन रहत लपटाई ॥

संत कुं हरि विन पूज्य न जोहुं । हरि कुं संत विन पूज्य न कोहुं ॥

भव ब्रह्मा अरु विष्नु हि, इन्द्रादिक देव जोउ ।

सिद्ध मुक्त गुन देत हरि, साधु गुन देत न सोउ ॥

साधु भये ताहि कुं, उद्वेग होत न चित्त ।

हरिमूर्ति रखे चित्त में, रहत हे सबके मित ॥

शांत सुखी कहे संत, संत विन नहि शांत कोउ ।

संत गुन है बलवंत, बलवंत गुन सो देना अबे ॥

(૭/૧૩/૫-૨૮)

भूमि पर संत धरत जे चरना । पाप तितनो होत निकंदना ॥

संत के चरण करि प्रतापा । तीर्थ अनंत होत निष्पापा ॥

तीर्थ सन्मुख संत चलत जबहु । सन्मुख तीर्थ आवत तबहु ॥

संत के चरण करत निवासा । होई के मन परम हुलासा ॥

संतचरण प्रताप अनूपा । जिय मात्र कुं करे पावन रूपा ॥

(૭/૪૩/૨૮-૩૨)

दोष आवत बड़े संत को जबहु । भ्रष्टमति हो जात हें तबहु ॥

कोउ संत को न गमत स्वभावा । रातदिन बोले अभावा ॥

तोहु न लहे शांति मन, ऐसो होत अपराधि ।

संतजन रक्षा करे तोहु, वधत हें पाप की व्याधि ॥

एसे होत विमुख तेहि, जग में होत फजीत ।

आदर देत जन अवर, मरत दुःखि होय चित्त ॥

मन बदले तब हो गये ओरा । एक स्थिति को रहे न ठोरा ॥

हरि अग्या को करत हे भंगा । तेहि कर बदल जात है अंगा ॥

संत कुं नमे वारमवारा । खप अंतर में होय जो लगारा ॥

खपवंत निज भूल विचारे । संतकुं नमी देत तेहि वारे ॥

संत को अभाव लेत तेहि करि के । सत्संग में सो न टके फरि के ॥

संत के भेले रहे दिनराती । नमे न सो जानना कुजाति ॥

(૮/૧૪(૧૩)/૮-૨૦)

૮/૩૪(૩૨)/૫-૬.

૮/૪૪(૪૩)/૪-૧૦.

૮/૪૯(૪૮)/૧૭-૩૫.

૧૦/૨૩/૨૨-૨૪.

૧૧/૧૨/૨૯-૩૩.

૧૧/૩૦/૨૯-૩૧.

૧૧/૩૬/૩-૨૮.

૧૧/૫૬-બ/૩૫-૪૦.

૧૧/૭૮(૬૮)/૩૦-૩૬.

૧૨/૫/૧૬-૩૫.

૧૨/૧૫/૧૫-૨૮.

૧૨/૧૭/૧૫-૧૬.

૧૨/૩૯(૩૮)/૧-૯.

૧૨/૭૪/૬-૯, ૩૮.

૧૨/૭૭/૨૧-૨૩.

૧૩/૫/૧૭-૨૪.

૧૩/૭/૧-૯, ૩૦-૩૮.

૧૩/૧૫/૧૫-૨૧.

૧૩/૨૨/૨૯, ૩૬.

૧૩/૨૪/૨૯-૩૮.

जिहां लग जीव सोउ, माया को संबंध रखत तेहि ।

मायारूप हि होउ, माया में रहत लीन होई ॥

माया को संबंध जीय जेसे । कर रहे एक रस होई तेसे ॥

तेसो जो रखे अक्षर हरि केरा । छुट जावे चोराशी फेरा ॥

(૧૩/૩૪/૮-૧૭)

૧૩/૫૦/૧૩-૨૨.

૧૩/૬૮/૨૮-૩૦.

૧૪/૨૦/૧૭-૨૨.

૧૪/૭૧/૧૩-૪૦.

संत होई हमार, नारी सन्मुख देखे जोउ ।

ताकुं कहत लबार, हरिजन जानत बात सब ॥

हमारे संत होई कर जेहा । नारी के सन्मुख बैठे तेहा ॥

नारी को रखे प्रसंग कोउ रीता । मति ताकी जानना विपरीता ॥

हमारे वचनरूप कोट जेता । उल्लंघन ताको करत तेता ॥

संत वर्णि संन्यासी जेहु । पदाति तोरि रीत कुं तेहु ॥

ताकुं करत सत्संग ब्हारा । एसि की म्होबत न रखत लगारा ॥

गमे तेसे होय गुनवाना । जीय गये पिछे काय रहाना ॥

(૧૪/૭૨/૧૬-૨૦)

૧૪/૭૨/૨૩-૩૭.

૧૪/૮૨/૧૫-૨૬.

मुक्तमुनि ब्रह्ममुनि हि, शिरोमनि संत दोउ ।

लोभ न रखत हें जाहि लग, शिष्य हि को जो सोउ ॥

शिष्य को लोभ जब कर लिन, परस्पर हित हि जेह ।

अमी दूर तबहि होवहि सो, अलौकिक हित नहि तेह ॥

(૧૪/૮૪/૧-૧૪)

૧૪/૮૪/૧૯-૨૩.

૧૫/૧૫/૯-૨૮.

૧૫/૫૩/૩૨-૪૦.

૧૫/૬૫/૨-૧૦.

૧૬/૧૩/૩૪-૩૯.

૧૬/૫૩/૨૮-૩૩.

૧૬/૫૫/૩૧-૩૪.

૧૭/૪૮/૧૬-૨૪.

૧૭/૭૮/૧૮-૩૭.

૧૭/૯૨(૯૩)/૧-૬.

૧૮/૧૪/૫-૨૫.

૧૮/૩૦/૪-૩૪.

૧૮/૪૮/૭-૧૬.

૧૮/૭૩/૧-૭.

૧૯/૭/૧-૪૦.

૧૯/૩૭(૩૬)/૧૩-૨૨.

૧૯/૫૬(૫૫)/૧૩-૨૩.

૨૦/૬૦/૧૫-૩૪.

૨૧/૬૩/૪૩-૪૪.

૨૧/૮૬/૧-૧૧.

૨૧/૮૭/૫.

૨૧/૮૮/૨-૨૦.

૨૧/૮૯/૨૫-૨૯.

૨૨/૧૧૧/૨૩-૨૫.

૨૫/૯/૨૪-૩૪.

૨૫/૧૦(૧૧)/૧-૧૯.

૨૬/૧૧/૩૫-૩૬.

૨૬/૪૩/૨૦-૨૪.

૨૭/૧૬/૨-૪.

૨૭/૧૬/૯-૧૪.

૩/૩/૩૨-૩૪.

૩/૫૮/૩૯-૪૨.

૫/૩૫/૨૯-૩૯.

૭/૫૮/૨૨-૨૬.

૮/૩૩/૧૦-૨૪.

૮/૪૫/૫-૧૫.

૮/૫૦/૧૭-૨૩.

૧૦/૨૪/૪-૭.

૧૦/૪૩/૧૭-૨૫.

૧૦/૪૪/૨૫-૨૮.

૧૧/૧૫/૯-૨૮.

૧૧/૨૦/૮-૩૧.

૧૧/૨૩/૨૯-૩૩.

૧૩/૮/૩-૨૯.

૧૪/૨૧/૨૯-૪૦.

૧૪/૨૩/૨૪-૨૬.

सत्संग में जेते, संत वर्णी रहे जो तेहु ।

अष्ट प्रकर के तेते, त्रिया का रखत त्याग हि ॥

धातु अष्ट प्रकार, ताके रखत हि त्याग यह ।

उच्छेदत वार हि वार, असत जितनी रीत रहेउ ॥

वर्तन शुभ होय जेहि ठोरा । हरि की बात विन जाय न पहोरा ॥

निश्चे तिहां जानना एसे । भगवान प्रगट रहे तेसे ॥

भगवान विन वर्तन हि जेता । साचे न रहावे कबहु तेता ॥

(૧૪/૪૮/૩-૧૦)

૧૪/૭૫/૨૨-૨૬.

૧૫/૭/૩૫-૪૦.

૧૫/૨૯/૯-૧૪.

૧૫/૩૨/૨૮-૩૫.

निरदंभ कपट रहित संत जेते । साचे संत कहावत तेते ॥

साचे संत हि हरिजन ताके । सत्संग के मूल रहेउ वाके ॥

साचे संत के हरि रहे मूला । एसे वात रहेउ अमूला ॥

माया के जीय में अनादि तेहु । माया सन्मुख दोर रहे एहु ॥

हरि अरु हरि के संत बिन कबहि । शुभ मग पर मति होत न किनहि ॥

तेहि हित वेर वेर हरि, जन के गिनत न दोष ।

अनंत जन तारन हित हि, प्रगट होत अदोष ॥

अदोष संत ले आत संग, हरि के करिके बचन ।

उद्धार करत अपार जन, शुद्ध करि तेहि मन ॥

(૧૫/૬૧/૨૪-૩૮)

૧૬/૬૨/૩૩-૩૯.

૧૭/૯-૧૦/૧-૫.

૧૮/૫૧/૨૯-૪૦.

૧૮/૭૬, ૭૭, ૭૮.

૨૨/૮૮/૧૨-૩૮.

૨૩/૮૧/૪૫-૪૮.

૨૬/૭/૩૧-૩૪.

૨૫/૫૧/૯-૧૧.

૨૬/૫૧/૨૭-૨૮.

પ્રકરણ ૨૧ની પાદટીપો

तेहि भक्त सर्वोपरि, प्रगट स्वरूप में भाव ।

प्रगट स्वरूपकुं तज के, भजे सो कुमति कहाव ॥

मात तात जीव किन बहु, गिनत न आवे पार ।

जन्म लियो तेहि तजके, और पर रखे बहु प्यार ॥

सोई कुमति जन, जन्म भयो तेहि छोर देत ।

हो गये तेहि जोरे मन, परम सेव ओरकी करे ॥

पतिव्रता की रीत, प्रगट स्वरूप में बांधनो जीव ।

भक्त सो परम पुनीत, तेहि बिन भक्त व्यभिचारी सब ॥

(૪/૨૮/૪૯-૫૨)

૪/૨૯/૧-૨૮.

૪/૧૧/૪૫-૪૮.

૪/૪૨/૪૩-૪૮.

૪/૫૬/૧૧-૧૩.

तामें धर्म भक्ति वैरागा । अरु ज्ञान को चहिए अनुरागा ॥

ता बिन ब्रह्मविद्या जोऊ । फलीभूत न होवे सोऊ ॥

प्रगट उपासना दृढ जेहू । सबको मूल बीज हें तेहू ॥

मूल बीज से रहे अधीना । सोचत मोक्ष लहे कोउ दिना ॥

(૪/૮૯/૨૨-૨૩)

૫/૫૯/૧૪-૨૪.

૫/૭૨/૧-૨૪.

हरि कहे हम पिछें जेहा । सत्संग में आवहि तेहा ॥

हमारे वचन कुं मानहि जाहि । मोक्ष सो हम करहि ताहि ॥

हमारे चरित्र सुनहि जेहि । अति सुख हम देवहि तेहि ॥

हमारे जो वचन हि जितना । हमकुं सो जानना तितना ॥

हमकुं जानि पालहि जोई । वचनरूप ता पास हें सोई ॥

हमारि पास रहत दिन रेनां । सेवा करत रहत प्रवेनां ॥

वचन में न वरतहि जोउ । हमसें दूर तेहि जानत सोउ ॥

हमारो मत नकि हे एउ । सब हरिजन सो जानिके लेउ ॥

हमसें वचन हम मुख्य हि माने । वचन में हम अखंड ठाने ॥

यह तन जितनो काज रहावुं । सो पुरे करि कें चलि जहावु ॥

परोजन हित हे तन यह, परोजन भये न रहात ।

वचनरूप तन रहहि सदा, सिद्धांत कहि यह बात ॥

(૬/૭૩/૨૨-૨૭)

श्रीहरि मुक्तमुनि कुं, देह में लाए ततखेव ।

मुक्तमुनि सें कहत भये, वचन अमृत सम एव ॥

हमारो प्रगट चरित्र, तुमारे करना चिंतवन ।

सबसें परम पवित्र, प्रगट भये जांइ से अब ॥

एहि सम शांति न कोई, ब्रह्मसुख सें कोटि गनि हे यह ।

वचन हम कहत सोई, काव्य कीर्तन एहि करनो सदा ॥

(૬/૮૦/૨૬-૨૮)

૬/૧૦૧/૨૬-૩૨.

૯/૪૦(૪૧)/૩૪-૪૦.

૧૦/૯/૩-૧૨.

૧૧/૩૮/૨૨-૩૨.

૧૨/૩૭(૩૬)/૨૨-૨૪.

प्रगट हरि को निश्चय नाहि । शुभ आचरण केसो रहे ताहि ॥

शुभ जोनि कुं पावे तेहा । जन्ममरण न छूटे कबु एहा ॥

प्रगट हरि को निश्चय जाकुं । मुख्य शुभ मारग कहत ताकुं ॥

श्रीहरि को प्रगट निश्चय, हरि प्रगट जब जाहि ।

कहत है हरिजन तितने, कहावत हें भक्त ताहि ॥

जो जो समय भगवान जो, प्रगट होत जेहि वार ।

प्रगट हरि सो जानना, बात कहे निरधार ॥

भगवान प्रगट जिहां लगहुं, फेर होवहि तिंहा लग ।

प्रगट हरि तेहि रहत हि, समर्थ हि तारन जग ॥

ऐसी करत हरि बात, सत्संग में फिरत जिहां ।

सुनत जो जन रहात, धन्य धन्य भये भाग्य तेहि ॥

(૧૫/૩/૪૭-૫૩)

૧૫/૪૪/૩૭-૩૮.

૧૫/૬૯/૨૭-૩૦.

૧૫/૮૬/૩૫-૩૮.

૧૫/૯૧/૨૫-૩૩.

૧૫/૯૯/૨૮-૪૦.

૧૬/૪૩/૧૦-૧૨.

૧૭/૫૦/૧-૨૧.

૧૭/૮૨/૩૯-૪૨.

हिंडोरे बैठेउ, श्रीहरि तेहि आइ कर ।

प्रश्न हि पूछत भयेउ, संत सब ताकुं हितकर ॥

संत-हरिजन जेते, ध्यान, स्मरन, पूजन सबहि ॥

हमारो करत तेते, तामें मानत मोक्ष तुम ॥

हमारे बचन हि जेहि, हम संबंधि वस्तु कोउ ।

मोक्षरूप हि तेहि, मानत हो मन, क्रम कर ॥

हम हि न होवे जबहि, मुक्तानंद मुनि के जन ।

ध्यान करे यह तबहि, मोक्ष होय न होय कहो ॥

(૧૭/૮૨/૩૯-૪૨)

संत बोले तेहि वार सब, श्रीहरि से कर जोरि ।

उत्तर सूझत नहि प्रश्न के, हमारी मति हे थोरि ॥

श्रीहरि तब बोलत भये, संत प्रति तेहि वार ।

मंडल में मुखि संत जो, बोले करि के विचार ॥

एसि रीत के जीतने संता । प्रबल महा रहे बुद्धिवंता ॥

एक कोर बैठो तुम जाई । उत्तर विचारो सबहि ताई ॥

आशंका अरु उत्तर तामें । बुद्धि की परीक्षा होत यामें ॥

व्यावहारिक बुद्धि जिहां लगहु । रहत हे जनकी तिहां लगहुं ॥

जन्ममरण रहत तिहां लगहि । दुःख अति पावत इहां लगहि ॥

मोक्षभागि संत मिले जबहु । व्यावहारिक बुद्धि कुं तबहु ॥

मोक्ष परक बुद्धि कर देवे । मन, कर्म, वचन संतकुं सेवे ॥

भगवान ताकुं मिलन के, संत प्रथम हे द्वार ।

संत के समागम बिन हि, कोउ न भये भव पार ॥

तुम हो सबहि तिनकुं जो, पेले मिले जब संत ।

निश्चय जो हमारो तेहि, कराये बुद्धिवंत ॥

भगवान में गुन रहे एसे । अनंत ब्रह्मांड में केसे ॥

पाप होत तेहि देत जारी । पलभर में लगत नहिं वारी ॥

दारू ताके पुंज होय जेता । तिलभर अनल परे जो तेता ॥

जारि देवे एक पलक मांहि । प्रगट अनल के जोग कराहि ॥

हरि हरिनाम चरित्र हि जितने । प्रोक्ष कबु नहि होवत तितने ॥

मूर्ति प्रत्यक्ष प्रोक्ष कबहि । देखे में आत जबहि जबहि ॥

आश्चर्य चरित्र रहे तेहु । ब्रह्मादिक कुं गम परत न तेहु ॥

ओर जनकी रहे कहां बाता । कोइ कुं न आवत देखाता ॥

आप आपकी बात ताकी । कोउ कुं गम न रहे वाकि ॥

भगवान जितने देवे जाहि । तितनि गम कबु परे ताहि ॥

इतनि बात हि जोउ, श्रीहरि कर रहेउ जब ।

संत सब उठे सोउ, बैठे जाई दूर तबहि ॥

हरि के प्रश्न ताके, उत्तर परस्पर करत भये ।

निश्चय करि के वाके, सभा में बैठे आईकर ॥

(૧૭/૮૩/૧-૪૦)

श्रीहरि ताके प्रश्न कुं, भमते जितने संत ।

समजे नहि पुरे मर्म कुं, समझे तिमि उचरंत ॥

पढनेवारे संत में, नित्यानंद मुनि जेह ।

जथार्थ प्रश्न समझे यह, भमते न समझे तेह ॥

रमते साधु जो मांहि, समाधिनिष्ट जो संत जेहि ।

कृष्णानंद रहां हि, कृपानंद हि मुनि रहेउ ॥

कृष्णानंद हि जेहु, शुरवीर बोलत भये ।

सबसे प्रथम तेहु, प्रश्न के मर्म न जाने कछु ॥

प्रश्न कुं आप समझे जिस रीता । उत्तर करत भये तिस रीता ॥

तुम बिन हि ध्यान करे जेहा । व्यभिचारि ताकुं कहत तेहा ॥

ओर जन के नहि काम हमारे । हमारी समझ त्युं कहत प्यारे ॥

तुम सम ओरकुं समझे जबहि । हमारे जन्म व्यर्थ भये तबहि ॥

भमते संत रहाये जितना । एक रीत सब बोलेउ तितना ॥

पढने वारे संत जो तामें । नित्यानंदमुनि मुख्य यामें ॥

प्रश्न श्रीहरि पुछे जो ताके । ज्यार्थ तान हि जानत वाके ॥

प्रश्न के तान जानना जोउ । कठिनतर हि बात रहे सोउ ॥

तान निशान एक हि कहाते । ता बिन प्रश्न निर्जीव देखाते ॥

जिनकरि अपार जन जो केरा । मिट हि जावे चोराशि फेरा ॥

प्रगट हरि रहे जिस रीता । पिछे रहेउ एसे उदीता ॥

हरिकुं मिले जितने जो, बाई भाई संत ।

वर्णि संन्यासि पदाति हि, सनातन मुक्त रहंत ॥

हरि के संबंध भये बिन, बाई भाई जेउ ।

त्यागि संबंध बिन जीतने, तापर प्रश्न हे तेउ ॥

नित्यानंद मुनि जेउ, ताके उत्तर करत भये ।

जेसे सुझेउ तेउ, श्रीहरि सुनि प्रसन्न भयेउ ॥

जेसे प्रश्न रहेउ, तेसे उत्तर करत रहे ।

बडे संत रहे तेउ, ताके बचन सें मोक्ष होत ॥

वडे संत रहायेउ जेते । भगवान के बचन में तेते ॥

वरतत रहत मोक्षरूप मानी । बचन बिन मानत रहे हानी ॥

प्रगट मिले भगवान तिनके । ध्यान स्मरन करत रहे इनके ॥

जन्म से इनके चरित्र जीतने । स्वधाम जावत तिहां लग तितने ॥

निशदीन हि करत रहे गानां । चरित्र तामें अधिक रहे तानां ॥

ऐसे संतकुं मिलत न जेता । भोमि पर जन रहेउ तेता ॥

संतकुं मानत यह जीस रीता । मोक्ष ताके होत तिस रीता ॥

परिक्षित शुकके बचन करिके । चोराशिके दुःख गये तरिके ॥

प्रियवृत प्रल्हाद हि जेहा । उत्तानपाद ध्रुव सम हि तेहा ॥

दक्ष ताके पुत्र हि केता । नारद के बचन कर एता ॥

परम मोक्ष तेहि पावत रहेउ । चित्रकेतु आदिक हितेउ ॥

नारद दासिपुत्र जब भयेउ । संतकि सेवा बचन कर एउ ॥

केतके जन उध्धार करेउ । कहे में सब न आत बनेउ ॥

संत सें उध्धार भये जीतनां । शास्त्र में सब हि लिखेउं तितनां ॥

गोपिगोप श्रीकृष्ण तामें । हितकर मोक्ष भयेउ यामें ॥

उध्धव, पांडव, द्रुपहि ताके । मोक्ष हरिके संबंध भये वाके ॥

पुतना अघासुर, बकासुर, दंतवक्र शिशुपाल ।

सालव्य कंस वैर भाव कर, मोक्ष भये तत्काल ॥

वैर भाव कर संतसुं, एक हि जनके जोउ ।

मोक्ष भयेउ सुने वहि, सेवा सें भये सोउ ॥

संतके धर्म हि जे ते, तामें वरत हि दृढकर ।

हरि के दास जे ते, ताके दास वर्तत रहत ॥

संत हि ताके जोउ, श्रेष्ठ श्रेष्ठ रहे गुन जेहि ।

भंडार रहाये सोउ, गुन के नहि अभिमान कछु ॥

एसे संत की सेवा जितना । माहात्म्य रु श्रद्धा जुत तितना ॥

प्रगट मोक्ष रहाये एहा । समझ में तरत न आवत तेहा ॥

समझ में आये बिन उछाहा । आत न चलत प्राकृत राहा ॥

प्राकृत राह चलत जिहां लगहु । प्राकृत मति रहत तिहां लगहुं ॥

प्राकृत मति से प्राकृत सुखा । पावत रहे ते ता महिं दुःखा ॥

संत में दोष न रहे तिल भारा । जन में दोष रहे अपारा ॥

हरि बोले यह प्रश्न ताके । जथार्थ उत्तर भये अब वाके ॥

(૧૭/૮૪/૧-૩૧)

श्रीहरि हरिजन सब जो ताकु । संत की सेवा के अधिक वाकुं ॥

माहात्म्य कहत देखावत भारी । संत की सेवा करत अपारी ॥

स्नेह सहित बहु करी देखाते । जब जब संत कुं पास बोलाते ॥

श्रीहरि कहेउ वेर हि वेरा । जन्म केति रीत कही फेर फेरा ॥

सत्संग में यह संत तामें । जन्म लइ संग इच्छत यामें ॥

भगवान के धाम जो तिनसें । संत के संत के समागम इनसे ॥

अधिक रहेउ अपार हि ताई । रुचि हमारि एसी ही रहाई ॥

भगवान के धाम सम कोउ । और कोउ न रहाये सोउ ॥

मायिक जन रहाये जेते । भगवान के धाम कुं तेते ॥

कोटि जन्म लग पावत नाहीं । सत्संग जोग विन हि ताहि ॥

धाम करते संत के जो, समागम के अपार ।

माहात्म्य हम जानत रहे, ओर हि गम न लगार ॥

भगवान की जेति बात हि, कहावत हि जोउ ।

संत में रहे निवास कर, तिन करी अधिक ही सोउ ॥

जग के जन हि तामें, जग की जौसे बात रहेउ ।

संत हि जेते यामें, हरि की तेसें बात रहे ॥

भगवान प्रगट कर बसत जिनके । भगवान की बात में तिनके ॥

रुचि होवत रहेउ अपारा । ता बिन ओर करत न उच्चारा ॥

भगवान संबंध बिन बात तामें । चित कबहुं न प्रोवत यामें ॥

भगवान की करि के बाता । संत के महिमा अपार रहाता ।

भगवान की बात अधिक जामें । भगवान के निवास हि तामें ॥

अधिक हम जो जानत रहाते । ओर कुं आप सम देखाते ॥

तिन करी संत की मोटप जेती । देखे में लेश न आवत तेती ॥

भेगे रहे सेवा करे तोउ । साधारण मति रहेवे सोउ ॥

जेसी मति मोक्ष रहे तेसे । शास्त्र सब कहत रहे एसे ॥

एसी बात हरि वेर हि वेरा । अपार करत रहे बहु फेरा ॥

प्रसन्नता में वर्तन जिस रीता । तेसि बात हरि तब उचरिता ॥

दिशमात्र यह कहि देखाये । सबहि बात कहे में न आये ॥

कनक की भोमि यहाँ सबहि । कनक के आश्चर्य तिहां न कबहि ॥

(૧૯/૬/૨૯-૪૬)

૧૯/૪૦(૩૯)/૩૫-૩૬.

अनेक जीव के कल्यान हित, भोमि पर सब जन कुं ।

प्रत्यक्ष दर्शन देत हें तब, जन संत जो तिनकुं ॥

मिलत समागम करत, पुरुषोत्तम भगवान के ।

महिमा समझत हें अविध, अंतरबुद्धिमान के ॥

इन्द्रियों अंतःकरन, सब हि पुरुषोत्तमरूप हि ।

होई जावत तेहि करीके, महा परम अनूप हि ॥

(૨૧/૪૮/૫૩-૫૫)

૨૧/૭૫/૭૭-૮૦.

૨૨/૧૦૦/૧૭-૨૮.

कथा, कीर्तन, चिंतवन, ध्याना । भजन, स्मरन, पूजन रहाना ॥

भगवान संबंधि सेवा बाता । ऐह सबहि संबंध रहाता ॥

प्रगट यह भगवान ताके । ईतना संबंध रहाये वाके ॥

याकुं प्रोक्ष समझत जाहि । प्रोक्ष भक्त यह रहेउ ताहि ॥

प्रत्यक्ष प्रोक्ष भक्त जीनहि । समझ में देखावत ईनहि ॥

प्रत्यक्ष जो भगवान भयेउ । ताकि बात हि जेते रहेउ ॥

यह सब बात प्रत्यक्ष रहाते । याकुं प्रोक्ष करि जे ते कहाते ॥

प्रोक्ष भक्त कहावत तावु । समझ ताकि करिके रहावु ॥

प्रत्यक्ष भगवान कि जेति । बातहि जीतनी कहावत तेति ॥

प्रत्यक्ष समझत जीतनां, भक्त जेते हि जाहि ।

प्रत्यक्ष के भक्त ऐहि, रहायेउ यह ताहि ॥

प्रत्यक्ष कि जेति बात, प्रत्यक्ष मुख्य रहे तिनमें ।

मानत जेहि रहात, भक्त तेहि सब सें अधिक ॥

(૨૨/૧૦૧/૩૨-૩૯)

૨૩/૫૮/૧૪-૩૫.

૨૪/૫૦/૩૨-૩૬.

૨૭/૩૧/૧૪-૨૪.

૨૮/૧૦/૨૧-૩૭.

૪/૩૧/૩૮-૩૯.

૬/૫/૨૯-૩૦.

सत धर्म के पुत्र तुम, भक्ति सत मात हि तोर ।

ज्ञान वैराग्य सत बंधु तव, देखे में आये मोर ॥

हरि को ज्ञान बिन धर्मवंशि भारि । एक वेर अन्न देवे को अधिकारि ॥

मानने को नहि तेहि अधिकारा । वर्ल गाउ सें कहा होय विस्तारा ॥

(૬/૫૨/૧-૧૯)

तप व्रत तीर्थ विविध नाना । यह मूर्ति हित करत रहाना ॥

तप व्रत तीर्थ को फल इता । प्रगट मूर्ति कबहु मिलिता ॥

तप व्रत तीर्थ करे बिन कबहु । मूर्ति मिलत नहि सबहु ॥

प्रगट मिले जब मूर्ति आई । मूर्ति कहे त्युं करना ताई ॥

मूर्ति को कह्यो न करे जेहा । मूर्ति मिले की फल नहिं तेहा ॥

(૭/૩૮/૨૯-૩૧)

असत नाम रहाये जितना । कुसंग मोक्षभागी कहत तितना ॥

असत नाशवंत जेहि जेता । देह गेहादिक पदार्थ तेता ॥

देह के संबंधि जो जो कहावे । मात-तात हि कुटुंब रहावे ॥

सत्संग करत विघ्न करे जेते । पिंड ब्रह्मांडादिक तेते ॥

हरिजन एसो विचार, सार में सार हरि सर्वोपरि ।

सतसंग सत नरनारि, करत भये कुसंग तज ॥

माया के संबंधि रहे ज्यां लगहि । इन्द्रि अंतःकरण जो त्यां लगहि ॥

मोक्ष पर ग्रंथ में वचन जितना । असत कुसंग कहत तितना ॥

आत्मा परमात्मा हरिजन जितने । साचे संत सत वरणि तितने ॥

हरि के धाम जेते कहावा । निवास करि हरि जामें रहावा ॥

सत धर्म, सत भक्ति जो जेहा । सत वैराग्य सत ज्ञान तेहा ॥

जिहां लग वरतंत जेहि ठोरा । तिहां लग हरि रहत तेहि कोरा ॥

(૧૩/૪૧/૧૬-૨૧)

मोक्ष को काम जितनी जोउ । प्रत्यक्ष हरि से होवत सोउ ॥

प्रत्यक्ष हरि से मोक्ष होत जेसा । और कोई से न होत तेसा ॥

और से होवे मोक्ष हि जबहु । हरिकुं भजे नहि कोउ तबहु ॥

मोक्ष करन को काम जेहु । हरि आपमें रखे हें तेहु ॥

मोक्ष करन को वचन जेहि । जो जनकुं हरि देवत तेहि ॥

हरि के बचन से जन जेहा । कोटि जन के मोक्ष करे तेहा ॥

हरि के वचन में साम्रथ भारी । देखे आवत जोत विचारी ॥

(૧૫/૯/૫-૮)

૧૮/૪૪/૧૬-૧૮.

૧૮/૭૧/૨૬.

एसी रीत के जोउ, निशदिन हि वर्तन जिहां ।

प्रगट मोक्ष जो सोउ, प्रगट हरि यह ठोर रहत ॥

वर्तन में देखात, हरि की बात हरि रहत तिहां ।

हरि जिहां रहात, मोक्ष के रहे निवास इहां ॥

समझ में तिहां लगहि ताकुं । कसर रहाये तितनी वाकुं ॥

(૨૬/૮/૨૫-૩૧)

૨૭/૨૨/૧૪-૧૭.

सत्पुरुष होवत रहे जेते । सत्शास्त्र पर चलत हें तेते ॥

तिन करी सत्पुरुष हि कहाते । असत् शास्त्र के त्याग कराते ॥

इहां के सुख हि जेही, चाय तेसे मिलेउ तेहि ।

असत् रहाये तेहि, देह देह के संबंध सब ॥

ऐसे देखात जेहु, भगवान सत्य जनात रहे ।

सत्पुरुष रहे तेहु, प्रगट भगवान कर तेहि ॥

(૨૭/૨૨/૩૨, ૩૯-૪૦)

પ્રકરણ ૨૨ની પાદટીપો

૪/૧૯(૧૮)/૩૩-૩૪.

૪/૨૮(૨૭)/૪૦-૪૯.

૫/૭૧/૧૬-૧૯.

हरि की रखे उपासना जेहा । सेवक होई के वर्ते तेहा ॥

हरि के दास ताके रहे दासा । हरि विन ओर नहिं जेहि आसा ॥

हरि मानत अति दुर्लभ ताकुं । पल एक दूर रहत न वाकुं ॥

जन मानो न मानो केहा । तजत न तोऊ जन से नेहा ॥

उद्धार करन सब जग को धारे । अपमान करे तिनसे न हारे ॥

(૬/૯૯/૯-૧૬)

૧૧/૭૩/૯-૧૨.

૧૧/૭૧(૬૧)/૩૨-૩૪.

श्रीहरि कहे हमारो जबहि । अवकाश महिं हो परत तबहि ॥

अखंड रहे थके अक्षरधामा । देखाई आत यह भोमि ठामा ॥

हमारि कलाकुं जाने जाहि । समझना कठिन नहि ताहि ॥

समझकि दश न ज्यां लग आवे । दुर्घट त्यां लग तेहि रहावे ॥

अनंत विद्या लौकिक जोउ । सिखने सब सुलभ हें सोउ ॥

हमारि विद्या अलौकिक जेहु । सिखने में दुर्लभ हें तेहु ॥

कपटि कुटिल, कुकर्मि, मिथ्या बोलन हार ।

ब्रह्म विद्या अति शुद्ध हि, ताकुं न आवे लगार ॥

(૧૨/૪૬/૩૪-૩૮)

૧૩/૪૫/૨૯-૩૧.

ब्रह्म होइके जेते, भगवान की करत सेव ही ।

साचे ब्रह्म हें तेते, ता विन जो पाखंड सब ॥

असत जेति जो बात, तामें धरत न पाव कब ।

साचे ब्रह्म कहात, परब्रह्म कुं भजहि नित ॥

परब्रह्म के उपासक जेते । ताकुं देखत ब्रह्म कर तेते ॥

धर्म के वचन कहे गुरु जेता । मानत शिर चढाइ के तेता ॥

वचन से ब्हार वरतहि न कबहु । संत की रीत संत चले तबहु ॥

गृही की रीत में गृही चलावे । माया ताकुं विघ्न न करावे ॥

वचन से अधिक चले जेहि । माया प्रवेश जानना तेहि ॥

वचन से न्यून वरतत जेतो । प्रवेश किये माया तेतो ॥

माया हें हरिवचन अधीना । वचन में चलना होइ के दीना ॥

विघ्न करत नहि माया ताकुं । रूप विन नहि मनावत वाकुं ॥

मन के कहे में वरतत जेहा । दिन दिन माया गलत तेहा ॥

संत वा हरिजन जो ताको । अभाव लेवहि निश्चे वाको ॥

सत्संग में पिछे पाव न टकहि । विमुख होइ चोराशि भटकहि ॥

समझना एसे दृढ करि के । बात कहत हम फरी फरी के ॥

खप विन जेते संत, खप बिन हरिजन जेहि ।

सत्संग में न रहंत, टिकवे को मुख्य रूप यह ॥

(૧૩/૬૧/૧૫-૨૭)

૧૪/૬૪/૨૮-૩૫.

महासिंधु तरना होय जबहु । आप बल कोउ न तरे कबहु ॥

गमे तेसे तारे जो होई । सिंधु में डूबे विन रहे न कोई ॥

सिद्धगति कुं पावत हि जेते । अगाध सिंधु उल्लंघन तेते ॥

जेते बैठत नाव, सिंधु तरे तहिं सहज तेहि ।

सत्संग नाव रहाव, तारत हें भवसिंधु यह ॥

शुभ सत बात रहे जो जेता । शुभ सत् मारग कहेउ तेता ॥

ताके नाम सत्संग कहावे । सत् तामें चले हरिजन रहावे ॥

तेसे जन जो हरिजन साचे । प्रगट हरि तामें मन राचे ॥

प्रगट हरि शुभ मारग तामें । निष्कपट होई चले यामें ॥

ऐसे संत हरिजन ताको । मन कर्म वचन संग करना याको ॥

प्रगट हरि को निश्चय नाहि । शुभ आचरण केसो रहे ताहि ॥

शुभ जोनि कुं पावे तेहा । जन्म मरण न छूटे कबु एहा ॥

प्रगट हरि को निश्चे जाकुं । मुख्य शुभ मारग कहत ताकुं ॥

श्रीहरि को प्रगट निश्चय, हरि प्रगट जब जाहि ।

कहत हें हरिजन तितने, कहावत हें भक्त ताहि ॥

जो जो समय भगवान जो, प्रगट होत जेहि वार ।

प्रगट हरि जो जानना, बात कहे निरधार ॥

(૧૫/૩/૩૧-૫૧)

૧૫/૨૩/૨૯-૩૯.

૧૫/૨૫/૧૯-૨૭

૧૫/૯૧/૨૮-૪૯.

૧૫/૯૬/૨૫-૨૯.

૧૬/૫૪/૧-૧૪.

૨૧/૫/૩૫-૩૬.

૨૨/૯/૮૯-૯૨.

૨૩/૧૨/૩૪-૪૦.

सत्संगकि सिखकर बाता । भगवान जेहि होत रहाता ॥

कसाई सें कोटि गन कसाई । रहाये ऐसे जन हि ताई ॥

सत्संग कि समझ रहे ऐसी । सत्संग कि बात सुनकर तेसी ॥

सत्संग में भगवान होउ । चलावन मत जावन कोउ ॥

दुरबुद्धि देख आवत ताकि । छाये में नहि दबावत वाकि ॥

अंतरकि के’वत रहे केते । बाई-भाई अगणित तेते ॥

तिन करिके तेहि भगवाना । होवत नहि कबु रहाना ॥

मनुष्य, दैत्य, देव अब ताकी । पशु पक्षी कहावत वाकी ॥

मनु, कश्यप, ऋषि पंचभूत तिनके । स्थावर जंगम अगणित इनके ॥

सूर्य, चंद्र भव तारे जेते । गनत पार न पावत हि तेते ॥

ब्रह्मा सबके कारन कहाते । ब्रह्मा के कारण वैराट रहाते ॥

अनंतकोटि वैराट तिनके । अनंत प्रधान पुरुष ईनके ॥

कारन यह कहावत रहावा । प्रकृति पुरुष ताके कहावा ॥

प्रकृति पुरुष के अक्षर रहेउ । अक्षर के पुरुषोतम कहेउ ॥

पुरुषोत्तम सें पर हि जो, कोउ हि नहि कहात ।

अज्ञानि रहे जीतना हि, चाय तेसे उचरात ॥

पुरुषोत्तम सें ओरें हि, जो जो जेते जेहि ।

पुषोत्तम के दास रहे, भजत रहत हें तेहि ॥

पुरुषोत्तम हि ताके, दासपना इच्छत रहत ।

बडता अति वाके, होवत रहे सबहि पर ॥

सत्संग ताकि ऐसि, समझ रहे निरबाध अति ॥

सामृथि पावे केसी, तोउ हरि के दास रहत ॥

(૨૫/૫૦/૨૯-૪૦)

ब्रह्मा जेसे कौन लेख रहेउ । अनंतकोटि ब्रह्मांड तेउ ॥

अक्षर के एक रोम तामें । उडत रहे अणु समहि यामें ॥

ऐसे अक्षरधाम जो, भगवान ताकि जेहु ।

मोटप आगे मोटप हि, कुछ न देखावत तेऊ ॥

तब भगवान के दास होई, भगवान जो ताकुं ।

भजत रहे बहु भाव कर, अल्प मानि निज वाकुं ॥

(૨૬/૨૩/૩૬-૩૮)

श्रीहरि खरडे तामे जोई । अलौकिक बात लिखाये सोई ॥

पोतामें ऐश्वर्य रहे जीमि । जे ते अवतार तामें तीमि ॥

सबके कारन हि आप हि, आप से अधिक केउ ।

जानत जेहि जीहां लग हि, तितनां कसर हि तेउ ॥

कुबुद्धि जन रहे जीतने, ज्ञान सिखि के जेहि ।

में रहे भगवान जोउ, ऐसे मानत तेहिं ॥

ज्ञान के पात्र बिन, ज्ञान सिख कर आप हु कुं ।

जितने मनमलिन, सबसे अधिक मानत यह ॥

अक्षर के एक एक रोम तामें । अनंत कोटि ब्रह्मांड वामें ॥

उडत रहे अणु उडत जेसे I मैं भगवान हूँ कहत न तेसे ॥

बडे बडे हि कहावत जेते । जाके आधार कर प्राणि तेते ॥

ब्रह्मा, कश्यप सृष्टि ताके । कर्ता रहायेउ जोउ वाके ॥

जीवत हि क्रिया करत रहाते | ताके अभिमान न ताकुं आते ॥

तोउ न कहत मैं भगवाना । भगवान के दास हि रहाना ॥

ऐसे पात्र भये यह जबहु । भगवान पोताके ऐश्वर्य तबहु ॥

देवत रहाये इच्छे बिन हि । छकि न जावत तिन करी तिनहि ॥

पात्र विन रहायेउ जितने । कीर्तन श्लोक बहु सिखत तितने ॥

भगवान ताकुं गिनत नाहि । नारकी जितने जीन रहाहि ॥

(૨૭/૮૫/૧૭-૨૨)

૨૮/૧૦/૨૯-૩૭.

૫/૭૧/૨૩-૨૪.

૬/૨૧/૩૩.

૬/૨૪/૨૨.

૬/૭૨/૩૬-૪૦.

हरि के गुन ओर मुक्त में, कबहु सो आवत नाहि ॥

ब्रह्मरुप होई वरते, बंधन होत हे तांहि ॥

नारद हरि के मन हि, ब्रह्मरूप सदाय ।

विषय को करे संकल्प हि, वानरमुख भये ताय ॥

(૮/૭૨/૩૭-૩૮)

૧૦/૫૪/૧૭-૩૬.

પ્રકરણ ૨૩ની પાદટીપો

૪/૭૪/૧-૪.

૫/૧૯/૩૭-૪૮.

૫/૫૨/૨૯-૪૦.

૬/૪/૩૯-૪૦.

श्रीहरि तब बोलत भयेउ । अमृत वचन रस भरेउ ॥

सत्संग रूप मोक्ष वन जेहा । रामानंद स्वामी सुंपे तेहा ॥

तामें हरिजन रूपी हि जेहु । विविध कल्पतरु रहे हैं तेहु ॥

कितनेक के मूल गये हैं पाताला । ताको नहि हैं डर कोउ काला ॥

उपर छल्ले मूल रहे हैं जाके । अति डर रखत हैं वाके ॥

कुसंग रूप हि वायु जोरा । उखारि देवे रहे नहि ठोरा ॥

संत रहे चहु देश मांहि । फिरत रहत हैं जंपत नाहि ॥

नियम रूप वार विविध प्रकारा । करने लगे हैं वारम वारा ॥

काचे कोट पिछे करहि ताकु । अनल को भय न लगे वाकु ॥

पिछे वज्र कोट करहि पक्का । हाथी तोप को न लगे धक्का ॥

ज्युं ज्युं संत हरिजन ताई । खप रूप बात आत देखाई ॥

त्युं त्युं करहि नियम को दृढावा । एक स्थान पिछे सुखे रहावा ॥

(૬/૧૯/૭-૧૬)

૬/૨૬/૧૨-૧૩.

हरि कृपा विन दोष निज केरा । देखे में न आवे कोउ वेरा ॥

निज को दोष देखाय जाकु । हरि कि कृपा जानना ताकु ॥

निज को दोष जाने विन कबहु । मोक्ष रूप गुन न आवत तबहु ॥

मोक्ष रूप गुन विन गुन ओरा । सोहत नाहि देखे कोउ ठोरा ॥

पुरुष प्रकृति पाताल प्रजंता । मोक्ष रूप गुन विन लुखे देखंता ॥

देहिक सुख मिले वार न पारा । सोई दुःख रुप जीय के अपारा ॥

हरि विन चिंतवन जीय में जेता । सो गुन विन असार हैं तेता ॥

चिंतवन हरि विन जितनो जाई । दोष में दोष विकट यह ताई ॥

और चिंतवन काग विष्ट समाना । समजे तव तेहि भयो गुनवाना ॥

और में दोष होय अपरमपारा । तामें गुन तितनो ग्रहे सारा ॥

नखशिख देह अपार है एहा । सार मानत इतनो दोष है तेहा ॥

दोष, मोह, इहाँ कहत एका । बुद्धिमान सो जाने विवेका ॥

(૬/૩૯/૩૧-૩૯)

૬/૬૫/૨૮-૩૪.

૬/૮૦/૨૯-૩૩.

૭/૪/૧-૧૮, ૨૭-૨૮.

૯/૪૭/૯-૧૩.

૧૦/૭/૩૮-૩૯.

૧૨/૫૮(૫૭)/૧૦-૧૭.

૧૩/૨૧/૨૨-૨૬.

૧૪/૩૮/૩૦-૩૬.

૧૬/૫૫/૩-૧૩.

૩/૬૦/૧૮-૧૯.

૧/૮૦/૪૭-૪૯.

૩/૨૫/૩૭-૪૦.

रक्षा में करूँ तेह, रखे विश्वास जो मोर हि ।

इनमें नहि संदेह, पाप मात्र दिये छोरि के ॥

में हूँ धर्म के लाल, धर्म तिहाँ निवास मोर ।

जो वचन देहु रहे पाल, तब तेहि संग निवास करूँ ॥

मोरे भक्त हैं मोरे ही प्राना । तिनकुं तेसे करि में माना ॥

भक्त के मैं सदा आधिना । भक्त मोय तेहि बाँधि के लिना ॥

मो संग प्रीति करे जन कोई । तिन सें कोटि गनि करू सोई ॥

निष्कपट जो तेहि रहावे । तिन सें मेरी प्रीत न जावे ॥

रंच भर कपट देखुं में तामे । तो कबु न प्रीति रहे यामे ॥

एसो है मेरो सहज स्वभावा । सो तुमकुं सब कहि देखावा ॥

सुनि के मगन भये हरि वानी । मुनिवर लिये हित सो आनी ॥

निज मन में मुनि किन निरधारा । अपने एसो करनो निरधारा ॥

ज्युं हरि मरजी तैंसे करना । आप कि मरजी त्याग हि करना ॥

जब हरिकुं दिये तन मन प्राना । अपनो क्या अब रखना छाना ॥

मुक्तमुनि तेहि पर जोई । आठ पद बनाये सोई ॥

ऐसि भक्ति करो मन मिता । जाकर तरत होउ पुनिता ॥

(૩/૬૦/૧૫-૨૨)

૫/૩૮/૪-૫.

૬/૪૯/૨૯-૩૦.

૬/૫૦/૧-૨.

मैं निर्बंध हूँ आकाश हि जैसा । कोईके बंधन में आवे न ऐसा ॥

साधुता जामें देखूं अनंता । ताके बंधन में आई रहंता ॥

साधुता देखूं ज्या लगहि । तिहां से छुटाय न त्यां लगहि ॥

मोसंग वैर नहि है केहा । देव मनुष्य दैत्य लग तेहा ॥

साधु को रखूं पक्ष में जबहु । मो संग वेर बांधत तबहु ॥

(૬/૬૦/૧૭-૧૮)

૮/૨૦(૧૯)/૩૪.

૧૦/૨૬/૩-૧૨.

૧૨/૮૫/૨૬-૩૮.

૧૫/૪૭/૧૭-૨૧.

૧૮/૪૭/૯-૧૦.

પ્રકરણ ૨૪ની પાદટીપો

૬/૫/૩૭-૩૮.

૭/૧૦/૨૨-૩૦.

૯/૪૧(૪૨)/૧૦-૨૮.

૧૧/૮૭/૩૦-૩૫.

૧૩/૩૧/૧૭-૨૨.

૧૪/૮૩/૩૦-૩૩.

૧૪/૯૪(૯૫)/૨૩-૨૪.

૧૪/૧૩/૨૯-૩૬.

૧૬/૩૯/૧-૩૭.

૧૬/૪૬/૧૨-૨૧.

૧૭/૪૧/૨૨-૨૪.

૨૪/૬૬/૩૪, ૪૦.

પ્રકરણ ૨૫ની પાદટીપો

૫/૫૮/૩૧-૩૯.

૭/૩૫/૪-૧૨.

૮/૨૦(૧૯)/૧૯-૨૨.

૯/૩/૧૭.

૧૦/૪/૩૫-૪૨.

૧૦/૨૩/૯-૧૧.

૧૧/૧૩/૨૩-૨૮.

૧૧/૫૩/૨૨-૨૪.

૧૨/૩૦/૨૮-૩૪.

૧૨/૩૬(૩૫)/૩-૨૪.

૧૨/૫૦(૪૯)/૩-૩૦.

૧૩/૬/૧૭-૨૨.

૧૩/૪૬/૨૯-૩૯.

૧૪/૯/૨-૧૦.

૧૪/૯૧/૯-૧૪, ૨૦-૨૩.

૧૪/૯૨/૨૯-૩૮.

૧૫/૩૯/૩૬, ૩૯.

૧૫/૪૭/૧૦-૧૬.

૧૫/૮૬/૨૯-૩૬.

૧૬/૨૫/૧૨-૨૦.

૧૬/૪૮/૧૫-૨૫.

૧૭/૪૪/૫-૧૭.

૧૭/૫૭/૧૨-૨૧.

૨૨/૨૭/૩૧-૩૨.

૮/૭૩/૫-૭.

૧૪/૧૮/૨૪-૨૭.

પ્રકરણ ૨૬ની પાદટીપો

૪/૭૧/૨૦-૨૬.

૫/૪૫/૨૪-૩૮.

૬/૭૯/૧૯-૨૨.

૬/૯૦/૨૮-૩૧.

૮/૯/૨૭-૨૮.

૮/૩૨/૫-૧૦.

૧૦/૩૯/૨૧-૨૫.

૧૪/૬૯/૨૪-૩૨.

૧૫/૪૯/૧૭-૨૩.

૧૬/૨૩/૬-૧૫.

૧૭/૯૦/૩૦-૩૧.

૧૭/૯૭/૩૬-૪૦.

૧૮/૫૦/૧૪-૩૧.

૨૭/૪૫/૨૧-૨૪.

૨૭/૪૮/૩૧-૪૦.

૨૭/૮૪/૩૧-૩૫.

૫/૪૭/૨૮-૩૨.

૧૫/૨૫/૩૨-૩૮.

૧૯/૩૩(૩૨)/૨૯-૩૬.

પ્રકરણ ૨૭ની પાદટીપો

૧/૫૩/૩૦.

૫/૫/૩૪, ૩૫.

૬/૧૦૧/૧૫-૨૩.

૧૦/૬/૫-૨૦, ૩૫.

૧૦/૨૦/૨૯-૩૧.

૧૩/૩૪/૧૯-૪૦.

૧૪/૮૨/૨૯-૩૧.

૧૬/૪૮/૧૦-૧૭.

૧૭/૪૫/૩૦-૩૫.

૧૯/૩/૫-૬.

૧૩/૬૧/૨૧-૨૩.

૪/૨૬/૪૮-૫૨.

૯/૨૩/૧૭-૨૪.

૨૫/૫૮/૯-૧૬, ૨૩-૨૪.

પ્રકરણ ૨૮ની પાદટીપો

૪/૭૪/૩૯-૪૨.

૫/૧૬/૨૯-૩૧.

૯/૪૫/૯-૧૩.

૧૦/૧૫/૨૮-૩૩.

साचे संत हरिजन से, जितनो चित्त चोरात ।

तितनो वगल हे ताहि में, प्रसिद्ध आत देखात ॥

साचे संत हरिजन, तिनसे जितने सरल रहत ।

शुद्ध हि जानत मन, सत्संग में मोज करत ॥

(૧૪/૩૧/૨૬-૨૭)

૧૫/૭૨/૨૧-૨૪.

૧૫/૮૪/૧૩-૧૬.

૧૬/૫૮/૧૮-૨૭.

૧૭/૩૨/૨૮-૨૯.

૧૮/૧૪/૨૭.

૧૯/૩/૯-૧૨.

૧૯/૧૨/૨૨-૨૬.

૧૯/૩૯(૩૮)/૨૧-૩૩.

૧૯/૬૦(૫૯)/૨૮-૩૪.

૧૯/૬૧(૬૦)/૩-૪, ૧૩-૧૯.

૨૭/૨૧/૧૪-૨૬.

૨૭/૯૯/૨૯-૩૨.

૧૭/૨૫/૩૩-૩૭.

૧૧/૧૦/૨૦-૨૩.

૧૫/૫૯/૩૬-૩૮.

૧૯/૨૬(૨૫)/૩૪-૩૮.

૧૯/૩૦(૨૯)/૩૬-૩૯.

પ્રકરણ ૨૯ની પાદટીપો

૪/૯૯/૨૧-૩૬.

૫/૫૮/૨૫-૩૯.

૬/૬૪/૧૨-૪૦, ૬૫/૧-૨.

૪/૫૬/૧-૧૨.

૯/૫૧/૨૯-૩૭.

૧૧/૮/૨૩-૨૪.

૧૧/૮૦(૭૦)/૬-૧૧.

૧૨/૧૫/૨૬-૨૯.

૧૫/૧૩/૧૩-૧૯.

૧૫/૫૭/૧-૨૩.

૧૬/૫૫/૧૮-૩૫.

૧૭/૮૫/૨૭-૩૩.

૧૮/૧૪/૫-૭.

हम पर भाव रखत रतिभर हि । मेरू सम तेहि मानत कर हि ॥

एसे हमरे रहेउ स्वभावा । सहज स्वाभाविक जोउ रहावा ॥

हमारे चिंतवन करत जिनकुं । हम नहि भुलत रहे इनकुं ॥

हम चरित्र करत हें जितनां । अवतार जेते धरिके तितनां ॥

हरिजनकुं करने हित गानां । हरिजन सम कोउ न रहानां ॥

हरिजन पर हमारेउ तानां । रात दिन रहत जो कहानां ॥

हम बिन रहे न प्रीति जाही । हरिजन पुरे कहत हि ताही ॥

हम बिन जितनां रहे तामें । जितनां प्रीति वरतत यामें ॥

तितनां तामे कसर रहेउ । तितनां हमसें दूर रहे तेउ ॥

समिप दूर कि कहायेउ रीता । कहे बिन नहि जानत कीता ॥

(૨૮/૪૪/૬-૧૦)

૨૨/તરંગ: ૩૭-૩૯.

૪/૭૭/૭-૧૭.

૫/૭૧/૫-૧૦.

૬/૬૫/૧૪-૨૦.

૮/૧૧/૮-૧૨.

૧૧/૨૧/૧૭-૨૪.

૧૨/૪૪/૨૫-૩૦.

૨૫/૪૮/૧-૧૩.

પ્રકરણ ૩૧ની પાદટીપો

૩/૫૬/૨૧-૨૨.

૬/૪૭/૯-૧૦.

૬/૮૯/૧૨.

૯/૪૮(૪૯)/૧૯-૨૧.

૧૦/૬/૨૨-૨૪.

૧૩/૬૩/૩૬-૪૦.

૧૧/૯/૧૦-૧૪.

૧૩/૬૬/૧૯-૩૭.

૯/૪૧(૪૦)/૨૪-૨૭.

૧૧/૯/૨૧-૩૫.

૧૪/૧૫/૧-૧૪.

૧૪/૪૩/૨૦-૨૮.

૩/૬૦/૧૫-૧૮.

૪/૭૧/૧૯-૨૫.

૧૪/૭૫/૩૧-૪૦.

૧૫/૪૭/૯.

૧૫/૯૨/૧-૪૦.

૧૫/૯૫/૮-૧૧.

भगवान संत हित हि जेता । ताकी सेवा में न आवत तेता ॥

चिंतामनि कल्पतरु सम होवे । भक्त ताकुं कुसंग सब जोवे ॥

(૧૫/૯૬/૧-૧૭)

૧/૬૧/૧૪-૨૬.

૧/૬૩/૧-૯.

૧૦/૧૫/૬-૧૦.

૩/૩/૩૯-૫૨.

૬/૧૨/૨૨-૨૮.

૧૧/૧૨/૨૨.

૧૩/૩૨/૫-૭.

૧૫/૯૬/૨૫-૩૮.

૧૫/૯૭/૧-૭.

૨૧/૫૫/૨૯-૩૦.

૪/૩૩/૧૭-૨૪.

૫/૫/૩૫.

૫/૩૬/૨૫-૨૬.

सत्संगमें अब लिखिये एसा । कागद एकहि सुंदर तेसा ॥

संत हरिजन कहावत जेते । बाई भाई आदिक तेते ॥

प्राकृत देह यह जीयेको जेहा । जीयको स्वरूप न मानना तेहा ॥

अक्षर शुद्ध रूप हें अपना । एसो स्वरूप जीयको चिंतवना ॥

अक्षरभावना जीयमें लाई । चिंतवन करनां चित्तमें ताई ॥

अक्षरभाव जब जीयमें आवे । प्राकृत भाव तब दूर रहावे ॥

अक्षरमें हरि रहे हैं सदाई । दिव्यमूर्ति अलौकिक जाई ॥

सत्संगमें विचरत मूर्ति जेहि । एकि एह जीयमें रहे तेहि ॥

देह अरु देह संबंधि जो, विजाति हें अपार ।

देह मरे जीय मरत नहि, छुटत नहि स्नेहतार ॥

मिथ्या स्वार्थ मानिके, अज्ञानरूप भये आप ।

सत्य में करे तिस विध, होई जावे सो अमाप ॥

(૮/૨૧(૨૦)/૧૭-૪૦)

૧૦/૫/૩-૬.

૧૧/૯/૩૨-૩૪.

૧૧/૩૮/૨૪-૨૮.

૧૩/૪૫/૨૯-૩૧.

૧૫/૬૪/૧૪.

૧૮/૪૩/૨૩, ૩૧-૩૩.

૨/૪૧/૨૦-૨૮.

૩/૫૬/૪૫-૪૮.

૫/૨/૨.

૭/૧૭/૨૬, ૪૦.

૭/૧૮/૩-૪.

૧૧/૫૩/૨૦-૨૧.

૧૬/૬૯/૯-૧૩.

૩/૪૮/૫૦-૫૨.

૫/૩૭/૩૭.

૫/૪૫/૨૮-૩૧.

૧૧/૫/૩૪-૩૯.

૧૭/૩૮/૩૦-૩૩.

૨૦/૧૬/૧૩-૧૪.

૫/૫૦/૯-૧૦.

૫/૬૯/૧-૧૦.

૬/૩૯/૩૫-૩૬.

૮/૫૦/૨૯-૩૬.

૧૨/૫૭/૩૧-૪૦.

૧૩/૬૩/૧૩-૨૦.

૧૬/૪૫/૬-૯.

૨૭/૫૦/૩૪-૩૮.

૧૧/૫૧/૮.

૧૪/૨૬/૧-૫.

૧૫/૮૦/૩૩-૩૪.

૧૫/૮૧/૩-૪.

૧૮/૨૮/૨૧-૨૩.

૩/૩૪/૪૪-૪૮.

૧૫/૭૯/૧૯-૨૫.

૧૫/૫૫/૩૫.

૧૫/૭૬/૧૧-૧૪.

૧૫/૮૯/૧-૨, ૨૫-૨૭.

૨૮/૬૫/૩૩-૩૬.

૧૧/૮૦/૧૩.

૧૨/૫૭/૧૦-૨૧.

૧૪/૩૧/૩૦-૩૩.

૧૫/૮૦/૫-૯.

૪/૧૦૩/૧૭-૨૬.

स्वामिनारायण उचरे जेहि । कंठ में प्रान जानना तेही ॥

जल अन्न ताकुं होवत रेना । कटु कुबेन दुखिन कुं न केना ॥

कटु कबेन दुःखी कुं केवे । ताके पाप सो सब लेवे ॥

ऐसे हे सत्संग की रीति । भावे तेसी करो अनीति ॥

नियम-धर्म कोटि रखे वर्षा । ता पर हरिकुं रहत अमर्षा ॥

कथा भजन करो दिन-राती । हरि कुं जोई न ठरत छाती ॥

यह लोक तेहि कीर्ति अपारा । पूज्य करिके मानहि सारा ॥

देह दुखी होवहि न पारा । अनाथ के जे दूभनहारा ॥

(૬/૬૫/૨૦-૨૪)

रमत भये हरि होरी जैसे । संतजन गावत भये सब तैसे ॥

गावत स्वामिनारायण सबहु । देव वाजित्र बजाई के तबहु ॥

चौद लोक में धाम हि जेता । स्वामिनारायण उचरत तेता ॥

स्वामिनारायण नाम को जोऊ । कलि में महिमा भयो है सोऊ ॥

अवतार मात्र कहावत जेऊ । आप आपके धाम में रहे तेऊ ॥

स्वामिनारायण नाम हि तेहा । भक्त सह उचरत भये एहा ॥

स्थावर जाति कहावत जेति । स्वामिनारायण उचरत तेति ॥

एसो नाम को भयो प्रतापा । श्रीहरि मुख जपत भये आपा ॥

स्वामिनारायण नाम में आई । नाम अनंत लीन होत दिखाई ॥

(૭/૫/૨૯-૩૬)

૧૦/૩૫/૩-૯.

૫/૬૬/૩૨-૪૦.

૧૫/૪૪/૧-૪.

૧૮/૩૭/૨૨-૨૬.

૪/૫૬/૩૬-૪૦.

૪/૧૦૭/૮-૧૨.

૧૧/૪૨/૧૧-૧૫.

૧૧/૮૧(૭૧)/૩૧-૩૯.

૧૨/૭૨/૨૩-૩૦.

૧૬/૭૦/૨૯-૩૬.

૫/૯/૪૨.

૫/૧૭/૬-૯.

૧૩/૬૬/૯-૧૦.

૧૮/૩૯/૪૦.

૨૨/૧૦૬/૫-૧૩.

૨૮/૧૩૦/૪૪.

૯/૬૧/૨૪-૨૬.

પ્રકરણ ૩૧ની પાદટીપો

૧૬/૩-૪/૧-૪૦.

૧૬/૫-૬/૧૩-૪૦, ૧-૬.

૧૬/૬૧-૬૬.

૧૭/૮૬-૮૭.

૧૭/૯૫-૯૮.

૧૮/૧૭, ૧૮.

૨૨/૯૯.

૧૬/૫/૪-૧૦.

૨૦/૧૮/૨૩-૩૭.

૨૦/૬૨/૬-૧૨.

૨૩/૪.

૨૨/૯૯.

૨૧/૮૩-૮૫.

૨૨/૪૪-૪૬.

૨૨/૯૫-૯૮.

૧૬/૩-૪/૧-૪૦.

૧૬/૨/૧-૪૦.