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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ११

प्रीति के लक्षण

संवत् १८७७ में कार्तिक शुक्ला एकादशी (१६ नवम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में रात्रि के समय विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी। सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी, श्वेत पाग बाँधी थी और गुलदावदी के पीले तथा लाल पुष्पों के हार पहने थे। पाग में पीले पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे। उनके दोनों तरफ दो नाई मशालें लेकर खड़े थे। उनके समक्ष सभा में मुनिगण तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज से सच्चिदानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “जिसे भगवान में प्रीति है, उसके कैसे लक्षण होते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे अपने प्रियतम भगवान से प्रीति होती है, वह अपने प्रियतम की मरज़ी का उल्लंघन कभी नहीं करता, यही प्रीति का लक्षण है। जैसे गोपियों को श्रीकृष्ण भगवान से स्नेह था, तो जब श्रीकृष्ण भगवान मथुरा जाने के लिए तैयार हुए, तब समस्त गोपियों ने मिलजुलकर यह विचार किया कि, ‘हम कुटुम्ब तथा संसार की लज्जा का त्याग करके भगवान को हठपूर्वक रोक रखेंगे।’ परन्तु, प्रस्थान के समय गोपियों ने जब श्रीकृष्ण भगवान के नेत्रों को देखा, तब उन्हें भगवान को (गोकुल में) रहने की इच्छा नहीं दिखायी पड़ी। उस क्षण वे डर के मारे दूर ही खड़ी रहीं और अन्तःकरण में भय से सहम गयीं कि, ‘यदि हमने भगवान की इच्छा का अनुसरण नहीं किया, तो भगवान को हमसे प्रीति नहीं रहेगी।’ ऐसा विचार करके वे कुछ भी नहीं कह सकीं। फिर भगवान मथुरा पधारे और वे केवल तीन कोस की दूरी पर ही थे, फिर भी गोपियाँ भगवान को इच्छा के विपरीत किसी भी दिन उनके दर्शनों के लिए नहीं गईं। और गोपियो ने समझा कि भगवान की इच्छा के विरुद्ध यदि हम मथुरा जाएँगी, तो हमसे भगवान की जो प्रीति है, वह मिट जाएगी।

“अतः प्रीति का यही स्वरूप है, ‘जिसे जिसके साथ स्नेह हो, वह उसकी मरजी के अनुसार ही रहे।’ और, यदि अपने प्रियतम को, अपनी निकटता रहने पर प्रसन्न देखे, तो वह निकट रहे, तथा अपने प्रियतम की मरज़ी उसने दूर रखने की देखी, तो वह दूर रहकर राजी रहेगा। परन्तु किसी भी प्रकार से अपने प्रियतम की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। प्रेम का यही लक्षण है। जैसे गोपियों को भगवान के साथ सच्चा प्रेम था, तो वे बिना आज्ञा के भगवान के दर्शन करने नहीं गईं। और, भगवान ने जब उन्हें कुरुक्षेत्र में बुलाया, तब उन्होंने वहाँ जाकर भगवान का दर्शन किया, किन्तु उनके वचनों का उल्लंघन किसी भी प्रकार नहीं किया। अतः जिसे भगवान से प्रेम होता है, वह भगवान की आज्ञा का किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं करता, और भगवान को जो प्रिय लगता हो, उसी प्रकार से वह आचरण करता है, वही प्रीति का लक्षण है।”

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “अच्छा, अब हम एक प्रश्न पूछते हैं।“

मुनियों ने कहा, “हे महाराज! पूछिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान का जो भक्त होता है, वह भगवान की मूर्ति के सम्बंध से रहित अन्य-सम्बंधी पंचविषयों को तुच्छ मानता हो और पाँचों प्रकार से एकमात्र भगवान का ही सम्बंध रखता हो, ऐसे भक्त को भगवान आज्ञा दें कि, ‘तुम हमसे दूर जाकर रहो।’ तब वह यदि भगवान के दर्शन का लोभ रखेगा, तो आज्ञा का उल्लंघन होगा; यदि वह भगवान की आज्ञा का पालन नहीं करेगा, तो उस भक्त के साथ भगवान का स्नेह नहीं रहेगा। इसलिए, उस भक्त ने जिस प्रकार मायिक शब्दादि पंचविषयों का त्याग कर दिया है, वैसे ही क्या वह भगवान सम्बंधी शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध का भी परित्याग कर देता है या नहीं?”

फिर समस्त मुनियों ने मिलकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया। परन्तु, इस प्रश्न का समाधान नहीं हुआ। तब उन्होंने श्रीजीमहाराज से निवेदन किया, “हे महाराज! इसका उत्तर आप ही दीजिए।“

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे भगवान से दृढ़ प्रीति बनी हुई है और जिसने भगवान के अखंड सम्बंध से रहित मायिक पंचविषयों को तुच्छ समझा है तथा जो भगवान सम्बंधी शब्दादि पंचविषयों द्वारा भगवान के साथ दृढ़तापूर्वक जुड़ा है, वह भक्त भगवान की आज्ञा से जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ भगवान की मूर्ति भी उस भक्त के साथ ही जाती है। जैसे उस भक्त को भगवान के बिना कहीं मन नहीं लगता, वैसे ही भगवान को भी उस भक्त के बिना रहा नहीं जाता! और ऐसे भक्त के हृदय से वे निमिषमात्र भी दूर नहीं रहते। इस प्रकार भगवान के साथ उस भक्त का पाँचों प्रकार से अखंड सम्बंध बना रहता है। क्योंकि जिन शब्दादि पंचविषयों के बिना जीवमात्र से रहा नहीं जाता, ऐसे विषयों को उसने तुच्छ मान लिया है तथा पाँचों प्रकार से वह भगवान में ही तन्मय बना हुआ है। इसलिए भगवान के साथ उस भक्त का अखंड सम्बंध बना रहता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥ १०७ ॥

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