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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

पंचाळा ३

भगवान के प्रति स्नेह की रीति

संवत् १८७७ में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी (११ मार्च, १८२१) को श्रीजीमहाराज श्रीपंचाला ग्राम में झीणाभाई के राजभवन में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत फेंटा बाँधा था, सफ़ेद धोती धारण की थी और श्वेत दोहर ओढ़ी थी। उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “सब परमहंस परस्पर पश्नोत्तर प्रारंभ करें।”

तब मुनिबाबा ने ब्रह्मानन्द स्वामी से प्रश्न किया कि, “ऐसे सत्संग तथा भगवान का योग मिला है, तथा अन्य समस्त विकार भी नष्ट हो गए हैं, एवं सत्संग में रहने की गरज़ होने पर भी मान, ईर्ष्या के भाव क्यों रह जाते हैं?”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी इसका उत्तर देने लगे, किन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके। बाद में श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो ऐसा है, वह बुद्धिमान ही नहीं है। जो बुद्धिमान होता है, वह अपने में रहरहे सभी अवगुणों को जानता है और गुणों को भी जानता है। साथ ही साथ वह दूसरों के गुणों तथा अवगुणों को भी जानता है। परन्तु, जो बुद्धिहीन है, वह केवल अपने गुणों को ही जानता है, लेकिन अपने अवगुणों को नहीं जानता। और, वह स्वयं को सनकादि सदृश महान मानता है और अन्य बड़ों को अपने से हीन समझता है। परन्तु जो बुद्धिमान है, वह अपने अवगुणों को जानता है कि, ‘मुझमें इतने अवगुण हैं।’ इसके पश्चात् उसको मिटाने का आग्रह रखकर वह उन अवगुणों को मिटा देता है। और, जब अन्य सन्त, उसके उन अवगुणों को टालने के सम्बंध में कुछ बातें करें, तो वह उसे हितकारी मानता है। इसीलिए, उसमें मान, ईर्ष्या आदि अवगुण नहीं रहते। और, किसी ने बड़ी बुद्धि मालूम होती हो, परन्तु यदि वह अपने अवगुणों पर ध्यान न देता हो, तो उसकी बुद्धि को व्यावहारिक मानना चाहिए। ऐसी बुद्धि बाहर से बहुत सूक्ष्म दीख पड़ती है, फिर भी उसको बुद्धिमान नहीं कहते; उसे अतिमूर्ख ही समझना चाहिए, क्योंकि उसकी ऐसी बुद्धि उसके मोक्ष के कार्य में उपयोगी नहीं होती! और, किसी में अल्प बुद्धि हो, परन्तु यदि वह अपने अवगुणों को जानकर उन्हें टालने के उपाय करता है, तो उसकी अल्पबुद्धि भी मोक्ष के लिए उपयोगी हो जाती है और वस्तुतः उसी को बुद्धिमान कहना चाहिए। और, जो कभी भी अपने अवगुणों को नहीं देखता और स्वयं के गुणों पर ही जिसकी दृष्टि रहती है, उसे मूर्ख कहते हैं। तथा जो अपने अवगुणों को देखता रहता है, उसे बुद्धिमान कहा जाता है।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने आज्ञा देते हुए कहा कि, “कीर्तन करें।” तब परमहंस ‘सखि, आज मोहन दीठा रे शेरिये आवता रे’ यह कीर्तन करने लगे। तब श्रीजीमहाराज पुनः बोले कि, “अब कीर्तन बन्द करें। जो यह कीर्तन किया गया, उसमें भगवान के प्रति स्नेह का भाव अधिक दिखाई पड़ता है। उस स्नेह पर हमने विचार किया कि स्नेह करना वाकई एक बड़ी बात है। इस प्रकार के स्नेह द्वारा भगवान की आराधना करना वह ठीक है। परन्तु, भलीभाँति विचार करने पर ऐसा मालूम हुआ कि स्नेह ही भगवान की माया है, क्योंकि जब स्त्रियाँ परस्पर बोलती हों, देखती हों और स्पर्श करती हों, तब उसमें अन्य प्रकार का स्नेह रहता है, तथा पुरुष जब परस्पर बोले, देखे और स्पर्श करे, तो उसमें दूसरे प्रकार का स्नेह रहता है। और, पुरुष जब स्त्री को देखता हो, आलिंगन करता हो, उसकी वार्ता सुनता हो, उसके शरीर की सुगन्ध ग्रहण करता हो और उससे बात करता हो, तो उसके साथ उसका अन्य प्रकार का स्नेह रहता है। उसके फलस्वरूप स्त्री के प्रति पुरुष का मन आकर्षित हो जाता है, किन्तु वैसा स्नेह किसी पुरुष को अन्य पुरुष के प्रति नहीं होता। इसी प्रकार, जब कोई स्त्री किसी पुरुष को देखती हो या आलिंगन आदि करती हो, तब उस पुरुष के साथ ऐसे सम्बंध रहने से उस स्त्री को उस पुरुष से जैसा प्रेम हो जाता है और उसका मन उसके प्रति समग्ररूप से जितना अधिक आकृष्ट हो जाता है, वैसा आकर्षण उस स्त्री को अन्य स्त्री के प्रति नहीं होता। अतः जिससे जगत का प्रवाह चलता रहता है और जो जीव को संसृति और बन्धन में डालती है, ऐसी भगवान की जो माया है, वही स्नेह स्वरूप दिखती है।

“बाद में ऐसा विचार हुआ कि, ‘शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक जो पंचविषय हैं, उन्हें यदि अन्य स्थान से मिथ्या करके एकमात्र भगवान में ही आत्यन्तिक सुख मानते हुए जोड़ दिया जाए, तो वे ठीक हैं और वह माया नहीं हैं।’ इसके पश्चात् उसके सम्बंध में यह विचार भी हुआ कि यह बात भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि किसी दूसरे व्यक्ति में भगवान के रूप से अधिक रूप, अधिक स्पर्श, अधिक रस, अधिक गन्ध तथा अधिक शब्द दिखाई पड़े, तो भगवान को छोड़कर उसके प्रति स्नेह हो जाता है। उदाहरणार्थ - श्रीकृष्ण भगवान की सोलह हज़ार एक सौ स्त्रियाँ थीं। वे जन्मान्तर में अप्सराएँ थीं। उन्होंने ब्रह्मा से वर माँगा कि, ‘हे महाराज! हमने देवों, दैत्यों और मनुष्यों का तो स्पर्श किया है, परन्तु नारायण का पति-भाव से स्पर्श नहीं किया है। अतएव, ऐसी कृपा कीजिए कि वे हमारे पति हो।’ तब ब्रह्मा ने कहा कि, ‘तुम सब तप करो, उसके फलस्वरूप नारायण तुम्हारे पति होंगे।’ इसके पश्चात् उन्होंने भारी तप किया। फलस्वरूप उन पर अष्टावक्र ऋषि तथा नारद मुनि प्रसन्न हुए और उन्होंने वरदान दिया कि, ‘नारायण तुम्हारे पति होंगे।’ इस प्रकार, जन्मान्तर में उन्होंने भारी तप करके श्रीकृष्ण भगवान को प्राप्त किया था। फिर भी, जब उन्होंने भगवान की अपेक्षा साम्ब, जो भगवान का पुत्र था, में अधिक रूप देखा, तो वे उसके प्रति मोहित हो गईं। इसीलिए, यह कहना पड़ेगा कि जिसकी स्थिर मति न रहती हो, उसे पंच इन्द्रियों के सुख-सम्बंधों द्वारा भगवान से प्रीति करना उचित नहीं है। जिसकी मति केवल निस्तर्क भाव से रहा करती हो, उसके लिए यह बात ठीक है।

“और, जो बुद्धिमान हो, उसे भगवान से स्नेह कैसे करना चाहिए? तो चौबीस तत्त्वों से अपने जीव को पृथक् जानना चाहिए, और उस जीव में पनपी हुई पंच इन्द्रियों की वृत्तियों को मूलतः हटाकर बिना इन्द्रियों की वृत्तियों के जीवसत्तारूप से रहते हुए निर्गुणभाव से भगवान से यथासम्भव स्नेह करते रहना चाहिए। यह निर्गुणभाव कैसा है? तो दस इन्द्रियाँ रजोगुण की सम्पत्ति हैं तथा अन्तःकरण एवं देवता सत्त्वगुण की सम्पत्ति हैं और पंचभूत तथा पंचविषय तमोगुण की सम्पत्ति हैं। उन तीन गुणों की इन सम्पत्तियों तथा तीनों गुणों को पृथक् मानकर केवल जीवसत्तारूप से रहता है, उसी को निर्गुण-भाव कहते हैं। इस प्रकार निर्गुण होकर भगवान से स्नेह करें।

“कहा भी गया है कि ‘नैर्गुण्यस्था रमन्ते स्म गुणानुकथने हरेः’२०० तथा

‘परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया।
गृहीतचेता राजर्षे! आख्यानं यदधीतवान् ॥’२०१

“इस प्रकार के ज्ञानीजन, क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के रूप को जानकर और स्वयं क्षेत्रज्ञरूप होकर भगवान से प्रीति करते हैं। वह क्षेत्र क्या है? तो स्थूल, सूक्ष्म और कारण नामक तीनों देह तथा जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्तिरूप तीनों अवस्थाएँ, ये सभी क्षेत्र हैं। उन्हें ज्ञानीजन अपनी आत्मा से पृथक् मानते हैं कि, ‘उन अवस्थाओं तथा देहों के भाव मुझमें कभी नहीं हो सकते। मैं उनका ज्ञाता हूँ और अतिशुद्ध हूँ, अरूप हूँ, अलिंग हूँ, एवं चेतन हूँ, किन्तु क्षेत्र (देह तो) अतिमलिन है, जड़ है, और नाशवंत है।’ यह बात दृढ़तापूर्वक समझकर और इन सबसे विरक्त होकर, स्वधर्मसहित भगवान की भक्ति करना ही एकान्तिकी भक्ति है और ऐसी भक्ति जो कोई करता है, उसी को ज्ञानी कहा जाता है। वह ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है। भगवान ने भी कहा है:

‘तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ॥’२०२

“ऐसा समझकर जीव में से इन्द्रियों, अन्तःकरण के भाव और पंचविषयों की जड़ों को उखाड़कर भगवान से स्नेह करना ही उचित है। जब तक इनकी जड़ों को नष्ट न कर दिया गया हो, तब तक इन इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से भगवान का दर्शन एवं स्पर्शादिरूपी काम लेते रहना चाहिए, परन्तु इन्हें अपना हितैषी नहीं किन्तु शत्रु समझना चाहिए। और उनके प्रति सद्भाव नहीं रखना कि, ‘वे भगवान की भक्ति में सहायक होते हैं।’ हालाँकि नेत्रों द्वारा भगवान के दर्शन होते हैं, श्रवणेन्द्रिय द्वारा भगवान की कथा सुनी जाती है, त्वचा द्वारा भगवान का स्पर्श होता है, नासिका द्वारा भगवान की माला तथा तुलसी की सुगन्ध ली जाती है, मुख द्वारा भगवान का कथा-कीर्तन किया जाता है और जिह्वा द्वारा भगवान की प्रसादी का रसास्वादन किया जाता है। इस रूप में वे भगवान की भक्ति में सहायक तो हैं, परन्तु ऐसा मानकर उनके प्रति गुण दृष्टि नहीं रखनी चाहिए, तथा उनका विश्वास भी नहीं करना चाहिए। उन्हें तो शत्रु ही समझना चाहिए। क्या जानें कि वे भगवान के दर्शन एवं स्पर्शादिक से सुख मानते हुए स्त्री-आदिक के दर्शन-स्पर्शनादिक द्वारा सुख मनवा दें, तो उस जीव का अनिष्ट हो जाए!

“इसीलिए, उस पंचइन्द्रियरूपी शत्रु को अपनी कैद में रखकर उससे भगवद् भक्तिरूपी काम लेते रहना चाहिए। जिस प्रकार किसी राजा ने अपने शत्रु को पकड़ लिया हो और वह उसके पैरों में बेड़ी लगाकर उसे बन्धन में डालकर उससे अपना काम लेता है, किन्तु उसे स्वतंत्र नहीं करता और न ही उसका विश्वास करता है। क्योंकि उसे छोड़ देने तथा उसका विश्वास करने पर वह शत्रु, उस राजा को निश्चित रूप से मार डालेगा। उसी प्रकार यदि इन्द्रियरूपी शत्रु का विश्वास कर लिया जाए, उसे छोड़ दिया जाए और नियन्त्रण में न रखा जाए, तो वह उस भक्त को भगवान के भक्तिमार्ग से निश्चित रूप से च्युत कर डालता है। इसलिए उसका विश्वास नहीं करना चाहिए।

“जिस तरह अंग्रेज शासक अपराधी को पकड़कर उसे जेल में डालकर उससे पूछताछ करता है, परन्तु उसको छोड़ता नहीं है और उसका विश्वास भी नहीं करता, उसी प्रकार भक्त को उन इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को पंचव्रतों के नियमरूपी जेल के सींखचों में बन्दकर बेड़ी डाल देनी चाहिए और उनसे भगवान की भक्ति करानी चाहिए, किन्तु उनके प्रति गुण नहीं मानना चाहिए, उन पर तो शत्रु-भाव ही रखना चाहिए। यदि उनको भगवान की भक्ति में उपयोगी मानकर अपना हितैषी समझा जाएगा और उनके गुण लिए जाएँगे, तो कदाचित् वे भगवान के दर्शन-स्पर्शादिजन्य सुख की आड़ लेकर स्त्री आदि के सुख की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करा दें, तो अपना किया-कराया सबकुछ व्यर्थ हो जाएगा। यदि बारूद के बड़े ढेर में आग की एक चिनगारी गिरे, तो वह सब बारूद भस्म हो जाती है और उसका कोई ठिकाना नहीं रहता।

“अतः केवल आत्मारूप होते हुए भगवान से स्नेह हो, वही ठीक है, यह हमारा सिद्धान्त है। इसी प्रकार जो भक्तजन भगवान से प्रेम करते हैं, उन्हीं को हम पसन्द करते हैं।

“और, यह विचार भी करना कि, ‘भगवान में जैसा रूप है वैसा रूप अन्यत्र नहीं है, भगवान का जैसा स्पर्श है वैसा स्पर्श अन्यत्र नहीं है, भगवान में जैसी सुगन्ध है वैसी सुगन्ध अन्यत्र नहीं है, भगवान के श्रवण में जैसा आनन्द है वैसा आनन्द अन्यत्र नहीं है तथा भगवान में जैसा रस है वैसा रस अन्यत्र नहीं है।’ इस प्रकार इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को भगवान के आनन्द का लोभ दिखाकर अन्य विषयों से पीछे हटाने की युक्ति भी ठीक है।”

फिर स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! इन सभी विचारों को, जिसे आपने कहा है, किस स्थान में रहकर करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अपने हृदय में ऐसा विचार करते रहना चाहिए कि, ‘स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह तथा कारणदेह मैं नहीं हूँ, और जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति नामक तीन अवस्थाओं से भी मैं परे हूँ और मैं पंच ज्ञानेन्द्रियों, पंच कर्मेन्द्रियों, चार अन्तःकरणों तथा उनके देवता आदि नहीं हूँ; मैं तो इन सबसे पृथक् हूँ, चैतन्य हूँ तथा भगवान का भक्त हूँ।’ यदि इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण किसी प्रकार कुचेष्टा करें, तो उनसे यह कहना कि, ‘क्या तुम्हें एकमात्र भगवान का ही रूप देखना है या किसी अन्य का भी रूप देखना है? क्या तुम्हें केवल भगवान का ही शब्द सुनना है तथा गन्ध लेनी है या दूसरों के भी शब्द सुनने हैं और गन्ध लेनी है? यदि तुम भगवान को छोड़कर अन्य विषयों में लिप्त हो जाओगे, तो मेरा तुमसे क्या सम्बंध है भाई? तुम कौन हो और मैं कौन हूँ? मुझे तुमसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। तुम जैसा करोगे, वैसा तुम्हें भोगना पड़ेगा।’ इस प्रकार इन्द्रियों तथा अन्तःकरणों को उपदेश देकर भगवान से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि, ‘हे महाराज! हे स्वामिन्! हे भक्तवत्सल! हे दयानिधे! इन्द्रियों तथा अन्तःकरणों का यह दोष है। मैं उनसे पृथक् हूँ। वे मेरे शत्रु हैं। इसलिए, उनसे रक्षा करिएगा।’ इस प्रकार निरन्तर प्रार्थना करते रहना और स्वयं को क्षेत्रज्ञ चैतन्यरूप मानकर भगवान से प्रीति और भक्ति करना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ १२९ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२००. अर्थ: “गुणातीत, ब्रह्मभावापन्न तथा स्वात्मस्वरूप में रहनेवाले मुनि भी भगवान के गुणानुवाद करते रहते हैं।” (श्रीमद्भागवत: २/१/७)

२०१. अर्थ के लिए देखिए: वचनामृत पंचाला २ की पादटीप।

२०२. अर्थ: “चार प्रकार के आर्तादि भक्तों में ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि वह सदैव मेरे साथ ही सम्बद्ध रहता है तथा एकमात्र मेरी ही भक्ति करता है। अवशिष्ट अन्य तीनों भक्त उसके सदृश नहीं हैं। तथा, ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं और मैं उसे अत्यन्त प्रिय हूँ। यह तीन प्रकार के आर्तादि भक्त उदार (महान) हैं। परन्तु ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही हैं, इस कारण वे मेरे लिए आत्मवत् प्रिय हैं, मैं ऐसा मानता हूँ।” (गीता: ७/१७-१८)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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