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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४६

मृत्युडौर; एकान्तिक धर्म से पतन

संवत् १८८० में पौष कृष्णा एकादशी (२६ जनवरी, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे और पीली छींट की रजाई ओढ़ी थी। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। सन्त झाँझ-मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे।

जब कीर्तन हो चुका तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस संसार में जो सत्पुरुष हैं, उन्हें किसी जीव को लौकिक पदार्थ की हानि अथवा वृद्धि देखकर किसी प्रकार हर्ष या शोक नहीं होता। किन्तु जब किसी का मन भगवान के मार्ग से च्युत होता है, तब उन्हें बहुत दुःख होता है, क्योंकि यह जीवन तो अल्प समयावधि में समाप्त होगा, इतने समय में उसका मोक्ष का कार्य ही बिगड़ जाएगा और उस जीव की बड़ी हानि होगी।

“और, पृथ्वी पर भगवान के जो अवतार होते हैं, वे धर्म की स्थापना के लिए होते हैं। वे केवल वर्णाश्रमधर्म की स्थापना के लिए नहीं होते, क्योंकि वर्णाश्रम धर्म की स्थापना तो सप्तर्षि आदि प्रवृत्ति-धर्म के आचार्य भी करते हैं। परन्तु भगवान के अवतार अपने एकान्तिक भक्त के जो धर्म है, उनका प्रवर्तन करने के लिए होता है।

“जो एकान्तिक भक्त हैं, उनका दैहिक मरण होना वस्तुतः मरण नहीं है। उनका तो एकान्तिक धर्म से च्युत होना ही मृत्यु है! जब ऐसे भक्त के हृदय में भगवान अथवा भगवान के सन्त के सम्बंध में दुर्भाव उत्पन्न हो जाता है, तब समझ लेना कि वह भक्त एकान्तिक धर्म से च्युत हो गया। यदि वह क्रोध द्वारा इस मार्ग से च्युत हुआ हो, तो उसको सर्प की देह मिलेगी। यदि काम द्वारा उसका पतन हुआ है, तो उसे यक्ष राक्षस की योनि में जन्म मिलेगा।

“अतः एकान्तिक धर्म से च्युत होकर जिनको ऐसे शरीरों की प्राप्ति हुई है, वे यदि धर्मात्मा हों अथवा तपस्वी हों, तो उनकी धर्म तथा तप द्वारा देवलोक में गति होती है, किन्तु जिस पुरुष ने भगवान तथा भगवान के सन्त के साथ दुर्भाव रखा है, उसे तो भगवान के धाम की कभी भी प्राप्ति नहीं होती। और, यदि कोई पंचमहापापों से युक्त भी क्यों न हो, फिर भी उसने भगवान और भगवान के सन्त के प्रति दुर्भाव नहीं रखा, तो उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा भगवान के धाम में उसका निवास होता है। अतः भगवान तथा भगवान के भक्त में अवगुण देखना, वह पंचमहापापों से भी अधिक बड़ा पाप है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४६ ॥ १७९ ॥

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