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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ६०

विक्षेप मिटाना तथा पक्ष रखना

संवत् १८८१ में श्रावण कृष्णा चतुर्थी (१४ अगस्त, १८२४) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत पाग बाँधी थी, सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी तथा श्वेत धोती धारण की थी। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! इस संसार में कितने ही प्रकार के विक्षेप उपस्थित होते हैं। उस विक्षेप के समय भगवान के भक्त को किस प्रकार की समझ रखनी चाहिए, ताकि उसके अंतर में सुख बना रहे?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसके उत्तर में तो हमें जैसी अनुभूति है, वैसा कहते हैं कि, अपनी आत्मा इस देह से पृथक् रही है, ऐसा आत्मा का निरन्तर आलोच रखे, तथा मायिक पदार्थमात्र के नश्वर होने का अनुस्मरण रखे, तथा भगवान के माहात्म्यज्ञान का अभिसंधान रखे, तो इन तीनों साधनों से उसे कोई भी विक्षेप बाधक नहीं बन पाता। और, जब कभी किसी प्रकार के विक्षेप के कारण चित्त की प्रवृत्ति के अनुसार बाह्यरूप से विक्षेप-सा दिखाई पड़े, किन्तु उस विक्षेप का अपनी चैतन्यरूप आत्मा में कोई दाग नहीं लगता। यह कैसे मालूम होता है? तो नींद के समय बाह्य विक्षेप कभी स्वप्न में दिखाई ही नहीं देता। और, जो भी कुछ विक्षेप भीतर प्रवेश कर गया हो, वह तो तीनों अवस्थाओं में प्रतीत होता है। इसलिए, हम समझते हैं कि यदि विक्षेप का प्रभाव स्वप्न अवस्था तक नहीं पहुँचा, तो मान लो कि संसार के विक्षेप चैतन्यावस्था में किसी भी प्रकार से लागू नहीं हुआ है!

“और, भगवान के किसी भी भक्त को किसी भी प्रकार के दुःख का विक्षेप हुआ हो, तो उस विक्षेप का प्रभाव हमें अन्तःकरण में अच्छी तरह प्रतीत होता है। किन्तु ऐसा नहीं कि वह प्रतीत नहीं होता। हाँ, यदि कोई रघुनाथदास जैसा विमुख पुरुष हो, तो उसे भक्त के दुःख से दुःख नहीं पहुँचता। सो जब रामानन्द स्वामी ने देहोत्सर्ग किया तब समस्त सत्संगीजन शोकमग्न हुए किन्तु रघुनाथदास को लेशमात्र भी शोक नहीं हुआ। बल्कि उस समय तो वह हँसता हुआ दूसरों के साथ बातें कर रहा था! अतः जब भगवान का भक्त विपत्तिग्रस्त हो जाए, तो उस समय जो चांडाल और विमुख होगा, उसे दुःख नहीं होता, परन्तु भगवान के भक्त को किसी भी हरिभक्त के दुःख से अवश्य ही व्याकुलता होती है।

“और, यदि कोई भगवान के भक्त की हत्या कर रहा हो, या उसे कोई दुःख देता हो, ऐसी स्थिति में यदि कोई पुरुष उस भगवान के भक्त को बचाने के लिए बीच में आकर मर भी जाता है, या घायल भी हो जाता है तो उसके सम्बंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इस प्रकार प्राणाहुति देने तथा आहत होने से उसके ब्रह्महत्यादि पंचमहापाप मिट जाते हैं। भगवान के भक्त का पक्ष रखने का ऐसा प्रताप है।

“और, जिसे भगवान के भक्त का हितकारी वचन भी बाण की तरह हृदय में चुभता हो तथा वैर-भाव की ऐसी ग्रंथि पड़ जाए, जो उसके जीवित रहने तक वह नष्ट न हो पाए। ऐसा जो चांडाल-सदृश जीव हो, वह यदि धर्मयुक्त, त्यागयुक्त तथा तपस्वी भी क्यों न हो, उसका सब कुछ वृथा है। इसके अतिरिक्त अन्य भी कोटि उपाय क्यों न करे, पर उसकी आत्मा का कभी भी कल्याण नहीं होगा।

“और, इस संसार में जैसे कोई स्त्री अपने पति तथा अन्य पुरुष के प्रति समान रूप से स्नेह-भाव रखती हो, तो उसे वेश्या की भाँति दुष्ट स्त्री कहा जाता है; वैसे ही इस संसार में जो पुरुष ऐसा कहता है कि, ‘अपने लिए तो सभी साधु एक समान हैं, इनमें से किसको अच्छा और किसको बुरा कहें?’ जो ऐसी समझ रखता हो, वह यदि सत्संगी कहलाता है, तो भी उसे विमुख ही समझना चाहिए। कोई पुरुष ऐसा मानता है कि, ‘यदि हम कुछ उलटा-सुलटा बोलेंगे, तो लोग हमें गलत समझेंगे।’ इस प्रकार यदि कोई मनुष्य अपनी सज्जनता जताने के लिए भगवान या भगवान के भक्त के विरुद्ध किसी के अनुचित वचनों को सुनता रहता है, तो सत्संगी कहलाने पर भी उसे विमुख समझना चाहिए। और, जिस प्रकार अपने सम्बंधियों, स्नेहीजनों अथवा मातापिता के प्रति पक्षपात की भावना रहती है, वैसे ही भगवान के भक्त का भी पक्ष दृढ़तापूर्वक रखना चाहिए। और, यदि भगवान के भक्त के साथ किसी प्रकार का विक्षेप हो जाए, तो जल में लकीर की तरह उसको समाप्त करके, उसके साथ पुनः एकताबद्ध हो जाए किन्तु वैरभाव न रखे, वही भगवान का यथार्थ भक्त कहलाता है।”

इतनी वार्ता करने के पश्चात् श्रीजीमहाराज इस प्रकार बोले कि, “मैं तो दत्तात्रेय, जड़भरत, नारद तथा शुकजी के सदृश दयावान हूँ। एक समय जब मैं पूर्वदेश (जगन्नाथपुरी) में नागा बाबाओं और वैरागियों की जमात के साथ रहा था, तब सभी वैरागियों ने मुझसे कहा कि, ‘चौलाई की हरी भाजी तोड़ो।’ मैंने कहा कि, ‘इसमें तो जीव है, उसे हम नहीं तोड़ेंगे।’ इस पर एक वैरागी ने म्यान से तलवार निकालकर डॉट-डपट की। फिर भी, हमने हरी भाजी नहीं तोड़ी। ऐसा हमारा दयामय स्वभाव है। फिर भी यदि कोई पुरुष भगवान के भक्त को क्रूरदृष्टि देखता हो और वह अपना स्वजन तथा स्नेही व्यक्ति ही क्यों न हो, तो भी हमें ऐसा मनोभाव हो आता है कि उस दुःख देनेवाले की आँखें फोड़ डालें और यदि वह हाथ द्वारा भगवान के भक्त को दुःखित करे, तो उसके हाथ काट डालें। ऐसा उसके प्रति दुर्भाव हो जाता है। उस समय तो हमें कोई दयाभाव नहीं रहता। जिसके हृदय में भगवान तथा भगवान के भक्त के प्रति इस प्रकार की पक्ष की भावना रहती है, वही भगवान का पूर्ण भक्त कहलाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६० ॥ १९३ ॥

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