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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल ११

जीव का विनाश; सत्पुरुष में आत्मबुद्धि ही आत्मदर्शन का साधन

संवत् १८८२ में पौष शुक्ला पूर्णिमा (२३ जनवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के राजभवन में नीमवृक्ष के नीचे चौकी पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे, उनके कंठ में श्वेत पुष्पों के हार पहने थे, उनके कानों के ऊपर पुष्पगुच्छ खोंसे थे तथा पाग में पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे। उनके समक्ष समस्त मुनिमंडल तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमारा ऐसा स्वभाव है कि एक तो भगवान, दूसरा भगवान का भक्त, तीसरा ब्राह्मण तथा चौथा गरीब मनुष्य - इन चारों से हम बहुत डरते हैं कि कहीं उनका द्रोह न हो जाए। इतना भय हमें अन्य किसी से भी नहीं लगता। क्योंकि इन चारों के सिवा यदि अन्य किसी का द्रोह हो गया, तो उसकी देह का नाश होता है, लेकिन जीव का नाश नहीं होता। जबकि इन चारों में से किसी एक का भी द्रोह हो गया तो द्रोह करनेवाले की जीवात्मा का भी नाश हो जाता है!”

यह बात सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! जीव को अविनाशी कहा गया है, उसका नाश कैसे समझना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उसे पर्वत की या ऐसी कोई अन्य जड देह मिल जाए, जिससे उस जीव का कल्याण कभी भी न हो पाए; यही जीव का नाश समझना। इसलिए, जिसको अपने कल्याण की इच्छा हो, उसको तो इन चारों में से किसी का भी द्रोह मत करना। और, भगवान तथा भगवान के भक्त के आगे किसी प्रकार का भी अहंकार नहीं रखना। क्योंकि अहंकार क्रोध, मत्सर, ईर्ष्या तथा द्रोह का आधार है। अहंकारी की भक्ति भी आसुरी कहलाती है। और, जो भगवान के भक्त को भयभीत करता हो, वह यदि प्रभु का भक्त हो, तो भी उसको असुर ही जानना।

“हमारा यह स्वभाव है कि जो पुरुष ब्राह्मण का, गरीब का और भगवान के भक्त का द्रोह करता है, उसको तो हम देखना भी पसन्द नहीं करते। इस लोक तथा परलोक में भी उसके साथ हमारा कोई संग नहीं रहता।”

इतनी वार्ता कहने के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने दो पदों का गान कराया - इनमें से पहला यह था कि, ‘मारा हरजी शुं हेत न दीसे रे, तेने घेर शीद जईये।’ तथा दूसरा पद ‘मारा वहालाजीशुं वहालप दीसे रे, तेनो संग केम तजिये।’ दोनों पदों२६५ के गान के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने प्रत्येक सत्संगी को इन दोनों पदों को सीखने की आज्ञा प्रदान की, और कहा कि, “इन पदों में जो बातें हैं उसे नित्य गान करके स्मरण में रखें।”

ऐसा कहकर श्रीजीमहाराज श्रीलक्ष्मीनारायण मन्दिर के पास आकर एक मंच पर विराजमान हुए। वहाँ गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि, “इस संसार में जो पंडित है, वह यद्यपि शास्त्रों तथा पुराणों को पढ़ता तो है, फिर भी उसे भगवान तथा उनके सन्त की यथार्थ महिमा समझ में क्यों नहीं आती?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “वह पंडित शास्त्रों तथा पुराणों को पढ़ता तो अवश्य है, लेकिन उसको भगवान का आश्रय नहीं है, इसलिए काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मत्सर ने उसकी आत्मा को पराभूत कर दिया है तथा कामादि शत्रु उसको कभी भी सिर नहीं उठाने देते। फिर वह पंडित अपने समान ही भगवान तथा भगवान के सन्त को समझने लगता है कि, ‘जिस प्रकार हमारे कामादि शत्रु कभी भी निवृत्त नहीं होते हैं, वैसे ही इनके भी कामादि शत्रुओं की निवृत्ति नहीं होती होगी!’ इस प्रकार, वह भगवान तथा भगवान के सन्त में दोष समझता है। इसी कारण उसको शास्त्र तथा पुराण आदि पढ़ने पर भी भगवान तथा भगवान के सन्त का यथार्थ माहात्म्य समझ में नहीं आता।”

फिर श्रीजीमहाराज ने दीनानाथ भट्ट तथा समस्त मुनिमंडल से यह प्रश्न पूछा कि, “ब्रह्मस्वरूप सत्पुरुष तीनों शरीरों और तीनों अवस्थाओं से परे रहते हैं तथा वे अपने में चौदह इन्द्रियों की क्रियाओं में से एक भी क्रिया को नहीं मानते, उन्हें अज्ञानी जीव नहीं पहचान सकता। जब उसकी स्थिति बड़े सन्त के समान हो जाए, तब बड़े सन्त जिस प्रकार का आचरण करते हैं, उसे वह सत्य माने। और जब तक उन सत्पुरुष की महिमा उसे ज्ञात नहीं हो पाती, तब तक ब्रह्मस्वरूप में उसकी स्थिति भी नहीं होती। और, आत्मस्थिति हुए बिना उसे सत्पुरुष की महिमा भी ज्ञात नहीं होती। यहाँ पर परस्पर विरोधाभास हो गया। अब इस विरोधाभास को मिटाने का उपाय बताइए।”

इस प्रश्न पर सभी ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया, परन्तु प्रश्न का समाधान न हो पाया।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब हम इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि इस पृथ्वी पर प्रकट हुए भगवान के अवतार, उस भगवान से मिले हुए जो संत हैं, उनके साथ जब उसे घनिष्ठ प्रीति हो जाती है, तब उसको सत्पुरुष के सम्बंध में किसी भी प्रकार का दोषाभास नहीं होता। और लौकिक मार्ग में रीति है कि जिसको जिसके साथ दृढ़ स्नेह हो जाता है, उसको उसका कोई भी अवगुण नहीं दिखाई पड़ता तथा उसके वचन भी सत्य मानता है। ठीक वैसी ही मोक्ष-मार्ग में भी रीति है। इसलिए, सत्पुरुष से दृढ़ प्रीति हो, वही आत्मदर्शन का साधन है, सत्पुरुष की महिमा जानने का भी यही साधन है और परमेश्वर के साक्षात् दर्शन सुलभ होने का भी यही साधन है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥ २११ ॥

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२६५. देखें परिशिष्ट: ६

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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