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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम २२

भगवत्स्मरण के बिना प्रत्येक साधना शून्य

संवत् १८७६ में पौष शुक्ला चतुर्थी (२० दिसम्बर, १८१९) को मध्याह्न के समय श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र पहने हुए थे और उन्होंने अपनी पाग में फूलों का तुर्रा खोंस रखा था और दोनों कानों के ऊपर पुष्पगुच्छ धारण किए हुए थे। उनके कंठ में गुलदावदी के फूलों का हार सुशोभित हो रहा था। वे पूर्व की ओर मुखकमल किए हुए विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। परमहंस कीर्तनगान कर रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिये, एक बात कहते हैं।”

तब समस्त परमहंस कीर्तन-गान बंद करके बात सुनने के लिए तत्पर हो गए।

श्रीजीमहाराज बोले, “मृदंग, सारंगी, सरोद तथा ताल आदि वाद्ययन्त्रों के साथ गाए जानेवाले कीर्तन के समय, यदि भगवान की स्मृति न रहे, तो जो कुछ गाया, वह अनगाया-सा ही रहता है। वैसे तो जगत में ऐसे कितने ही जीव हैं, जो भगवान का विस्मरण करके गाने-बजाने में लगे रहते हैं, तो भी उससे उनके मन में शान्ति नहीं हो पाती। इसलिए, भगवान की मूर्ति का स्मरण करते हुए ही भगवान के कीर्तन गायें, भगवन्नाम-रटन करें तथा नारायणधुन आदि जो भी करें, भगवान की मूर्ति की स्मृति के साथ ही करें। और भजन करने के लिए बैठें तब तो अपनी चित्तवृत्ति भगवान में रखते ही हैं, परन्तु भजन से उठकर अन्य क्रिया करते हुए भगवान की तरफ ध्यान नहीं लगाते हैं, तो ऐसे लोगों की चित्तवृत्ति भजन में बैठने पर भी भगवान के स्वरूप में स्थिर नहीं हो पाएगी। इसलिए, चलते-फिरते, खाते-पीते तथा समस्त क्रियाओं में भगवान के स्वरूप में वृत्ति रखने का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करते रहने पर वह भगवद्भजन के लिए बैठेगा, तो उस वक्त उसकी वृत्ति भगवान में स्थिर हो जाएगी। भगवान की ओर जिसका मन इस तरह लग गया तो कामकाज के समय भी उसकी वृत्ति भगवान में बनी रहेगी। परंतु जो गफ़लत में रहनेवाला हो, उसका मन तो भजन के समय भी भगवान में मन स्थिर नहीं रह पाएगा। इसलिए, भगवान के भक्त को सावधान होकर भगवान के स्वरूप में अपनी वृत्ति लगाए रखने का अभ्यास करते रहना।” इतनी बात करके श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब कीर्तन करिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २२ ॥

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