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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २

सर्वार्थसिद्धि; प्रकट गुरुरूप हरि

संवत् १८८२ में जयेष्ठ शुक्ला षष्ठी (११ जून, १८२६) को सायंकाल स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के चौक में छोटी चौकी पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्याम पल्ले की सफ़ेद पाग बाँधी थी, सफ़ेद चादर ओढ़ी थी और सफ़ेद धोती धारण की थी। पाग में मोगरा के पुष्पों का तुर्रा खोंसा था। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “यद्यपि जीव जगत को नाशवान समझता है और यह भी मानता है कि चैतन्य (जीव) देह का त्याग करके अलग हो जाता है। फिर भी, उसके मन से जगत की प्रधानता नहीं मिटती। यद्यपि वह परमेश्वर को समस्त सुखों का सिन्धु मानता है, फिर भी परमात्मा में उसका चित्त नहीं लग पाता। उसके हृदय में सत्संग की भी प्रधानता नहीं रहती तथा धन, स्त्री आदि सांसारिक वस्तुओं से उसकी प्रीति नहीं मिटती, इसका क्या कारण है?”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “भक्त के हृदय में वैराग्य न होने के कारण जगत की प्रधानता नहीं मिटती तथा भगवान से प्रीति नहीं होती।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह बात तो सच है कि वैराग्य की न्यूनता है, फिर भी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि सत्संग होते-होते जिसका जैसा अंग बंध जाता है वह सर्वदा यथावत् रहता है, परन्तु बदलकर दूसरा नहीं होता। सत्संग द्वारा उस अंग की पुष्टि तो होती है, किन्तु अंग तो वही का वही रहता है।

“और, जिसको जो भी अंग बंधना प्रारम्भ होता है, तब उसका चित्त विभ्रान्त-सा हो जाता है। जैसे कामी का चित्त काम से, क्रोधी का चित्त क्रोध से तथा लोभी का चित्त लोभ से विभ्रांत होता है, उसी तरह उसका चित्त भी विभ्रान्त हो जाता है। ऐसी विभ्रान्त दशा में जो अंग निर्माण होता है, जीवनभर वही ज्यों का त्यों बना रहता है।

“इसलिए जो समझदार है, उसे अपना अंग पहले से परख लेना चाहिए, ताकि काम-क्रोधादि द्वारा विक्षेप हो रहा हो, तब वह अपने उस अंग का विचार करेगा, तो उसके कामादि दुर्विकार क्षीण हो जाएँगे! जिस प्रकार किसी गृहस्थ को अपनी माता, बहन और पुत्री को अतिरूपवती देखने पर बुरा संकल्प हो गया, तो उसे मन ही मन कितना पश्चात्ताप होने लगता है! उसी तरह का पश्चात्ताप उसे बिना सत्संग के कोई अन्य पदार्थ महत्त्वपूर्ण लगे तब होना चाहिए। जब ऐसा पश्चात्ताप अयोग्य पदार्थ के संकल्प को देखकर नहीं होता हो, तो उसके हृदय में सत्संग प्रधान रूप से नहीं रहता।

“वास्तव में समस्त साधनों का फलरूप यह सत्संग ही है। श्रीकृष्ण भगवान ने यही मत उद्धवजी के समक्ष श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में व्यक्त किया है कि अष्टांगयोग, सांख्यविचार, शास्त्रों के पठन तथा तप, त्याग, योग, यज्ञ एवं व्रतादि से मैं उतना वशीभूत नहीं होता, जितना कि सत्संग द्वारा वश में हो जाता हूँ।

“इसलिए, हमें ऐसा लगता है कि पूर्वजन्म का संस्कार भी सत्पुरुष के सम्बंध से हुआ होगा। आज भी जिसे अच्छे संस्कार मिलते हैं, वे भी सत्पुरुष के सान्निध्य से ही प्राप्त होते हैं। किन्तु, ऐसे सत्पुरुष का सत्संग प्राप्त होने पर भी जिसको यथार्थ समझ नहीं बैठती, उसे अतिशय मन्द बुद्धिवाला समझना। क्योंकि यथार्थ बात तो यह है कि जैसी सभा श्वेतद्वीप में है, और जैसी सभा गोलोक या वैकुंठलोक में है तथा जैसी सभा बदरिकाश्रम में है, उनसे भी अधिक मैं इन सत्संगियों की सभा को जानता हूँ और समस्त हरिभक्तों को अतिशय प्रकाशयुक्त देखता हूँ। यदि मैं यह बात लेशमात्र भी मिथ्या कहता होऊँ तो इस सन्त-सभा की सौगन्ध है। यह सौगन्ध क्यों लेनी पड़ती है? तो सबको इस प्रकार की अलौकिकता न तो समझ में आती है, और न तो दिखाई ही पड़ती है। इसलिए सौगन्ध लेनी पड़ती है।

“ब्रह्मादि को भी दुर्लभ ऐसा यह सत्संग प्राप्त होने पर यदि कोई भक्त परमेश्वर को छोड़कर अन्य पदार्थ से अपना चित्त लगाये रखता है, तो इसका कारण यही है कि इस जीव को भगवान के परोक्ष स्वरूप में जैसी प्रतीति होती है, वैसी दृढ़ प्रतीति भगवान के प्रत्यक्ष स्वरूप में नहीं होती है! श्रुति में यही बात बताई गई है कि परोक्ष देवों में जीव को जो प्रतीति है, वैसी प्रतीति यदि प्रत्यक्ष गुरुरूप हरि में हो जाए, तो जितने भी अर्थ प्राप्त होने को कहा है, वे समस्त अर्थ उसको प्राप्त हो जाते हैं। और, जब ऐसा सन्त-समागम प्राप्त हुआ है, तब यह समझना चाहिए कि देहत्याग के बाद जो भगवान को प्राप्त करना था, वही भगवान आज इसी देह में प्रत्यक्ष प्राप्त हुए हैं; इसलिए, जिसको परमपद कहते हैं, मोक्ष कहते हैं, वह आज सदेह ही प्राप्त हो गया है!

“यह जो वार्ता कही गई है, वह आपको यद्यपि स्थूल दिखाई पड़ती है, फिर भी अत्यन्त सूक्ष्म है। जो इस प्रकार बरतता हो, उसे यह समझ में आ जाता है कि यह वार्ता अतिसूक्ष्म है। इसका इतना अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप है कि इसे दूसरे लोग तो समझ ही नहीं पाते।”

ऐसी वार्ता करके श्रीजीमहाराज ‘जय सच्चिदानन्द’ कहकर अपने निवास-स्थान में पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ २२५ ॥

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