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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ११

सीताजी की समझ

संवत् १८८४ में आषाढ़ शुक्ला तृतीया (२७ जून, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “इन्द्रियों तथा मन को जीतने का एक ही साधन है या दोनों को जीतने के लिए भिन्न-भिन्न साधन हैं?”

तब बड़े बड़े परमहंसों ने अपनी अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया, किन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर तो यह है कि वैराग्य, स्वधर्म, तप तथा नियम इन चार साधनों द्वारा इन्द्रियाँ जीती जा सकतीं हैं, जबकि भगवान की माहात्म्यसहित नवधा भक्ति के माध्यम से मन को जीता जा सकता है।”

यह सुनकर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “भगवान के भक्त को निर्विकल्प समाधि में जैसी शान्ति की अनुभूति होती है, वैसी शान्ति बिना समाधि के भी रह सके, इसका क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “अपनी देह के प्रति जैसी आत्मबुद्धि और दृढ़ प्रीति रहती है, वैसी ही यदि भगवान और उनके भक्त में आत्मबुद्धि और दृढ़ प्रीति रहे, तो जैसी शांति निर्विकल्प समाधि में रहती है, वैसी ही बिना समाधि के भी सदैव रह सकती है। यही इसका उत्तर है।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से पुनः प्रश्न किया कि, “चाहे कैसा भी अशुभ देशकालादि प्राप्त हो, परन्तु किसी तरह कल्याणमार्ग से पीछे नहीं हटता, ऐसे हरिभक्त के हृदय में किस प्रकार की समझ रहती है कि उसके हृदय में इतनी दृढ़ता बनी रहती है और कोई भी विघ्न उन्हें प्रभावित नहीं कर पाता?”

फिर बड़े बड़े सन्तों ने अपनी अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का निराकरण नहीं हुआ।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर यही है कि अपनी देह के साथ जीव की जैसी आत्मबुद्धि होती है, वैसी ही दृढ़ आत्मबुद्धि यदि उसे भगवान तथा भगवान के भक्त के साथ हो जाए, तो उसे किसी भी प्रकार का विघ्न विक्षेप नहीं डाल सकता। और, चाहे देशकालादि कितने ही अशुभ हों, तो भी वह भगवान तथा भगवान के भक्त से विमुख नहीं होता।”

इसके बाद श्रीजीमहाराज ने परमहंसों के प्रति पुनः प्रश्न किया कि, “जब रामचन्द्रजी ने जानकीजी को वनवास के लिए भेजा, तब वे अत्यन्त विलाप करने लगीं और लक्ष्मणजी को भी अतिदुःख हुआ। उस समय सीताजी लक्ष्मणजी से बोलीं कि मैं अपने दुःख के लिए नहीं, बल्कि रामचन्द्रजी को होनेवाले दुःख के कारण रोती हूँ। रघुनाथजी तो अति कृपालु हैं तथा लोकापवाद के कारण ही उन्होंने मुझे वन में भेजा है, परन्तु अब वे ऐसा विचार करते होंगे कि, ‘सीता को मैंने बिना अपराध के वन में भेजा है,’ तब कृपालु होने के कारण उन्हें अत्यन्त दुःख होता होगा। इसलिए, जाकर रामचन्द्रजी से कहना कि, ‘सीता को कोई भी दुःख नहीं है और वह वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में रहकर भक्तिभाव से आपका भजन करेगी। इसलिए, आप सीता को दुःखी जानकर बिल्कुल भी दुःखी मत होना।’ इस प्रकार सीताजी ने लक्ष्मणजी द्वारा सन्देश भेजा, किन्तु रामचन्द्रजी में किसी भी प्रकार का अवगुण नहीं देखा। इस प्रकार एक हरिभक्त तो ऐसा है, जो भगवान और उनके भक्तों पर किसी भी तरह का दोष नहीं मढ़ता, परन्तु उसमें वैराग्य एवं स्वधर्म सामान्य रूप से बना रहता है। तथा दूसरा हरिभक्त वह है, जिसमें वैराग्य और धर्म की भावना तो अत्यधिक सुदृढ़ है, परन्तु सीताजी-जैसा विवेक नहीं है। ऐसे दो प्रकार के हरिभक्तों में किसके साथ घनिष्ठ प्रीति रखकर संग करना चाहिए?”

तब चैतन्यानन्द स्वामी ने कहा कि, “धर्म और वैराग्य सामान्य रूप से रहने पर भी अत्यन्त प्रीतिपूर्वक संगति तो उसी के साथ करनी चाहिए, जिसमें जानकीजी जैसी समझ हो, परन्तु अतिशय वैराग्य तथा धर्मवान होने पर भी भगवान और उनके भक्तों में दोष तथा अवगुण देखता हो, उसका संग नहीं करना चाहिए।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “यही इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥ २३४ ॥

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२८४. वाल्मीकि रामायण: उत्तरकाण्ड: ४७/११-१२

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