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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा अंत्य १४
लम्बकर्ण बनने की अविवेकी याचना
संवत् १८८४ में आषाढ़ कृष्णा एकादशी (१९ जुलाई, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मस्तक पर पाग में पुष्पों के तुर्रे लटक रहे थे। वे कंठ में पुष्पों के हार पहने हुए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। मुनिमंडल कीर्तनगान कर रहा था।
तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “कीर्तन-भक्ति को समाप्त करें, अब प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करते हैं।”
तत्पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने प्रणाम करके पूछा कि, “हे महाराज! परमेश्वर से भिन्न अन्य कोई भी सारपूर्ण तत्त्व नहीं है, तो भी परमेश्वर से मनुष्य की दृढ़ प्रीति क्यों नहीं होती? यह प्रश्न है।”
यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “उसे विवेक नहीं है। यदि विवेक हो, तो ऐसा विचार हो आए कि मुझे तो ब्रह्मचर्य व्रत है, तो भी स्त्री के सुख की तृष्णा हृदय से नहीं मिटती, यह अत्यन्त अनुचित बात है। वस्तुतः स्त्री-सुख तो चौरासी लाख योनियों में जीव ने जहाँ जहाँ जन्म धारण किये हैं, वहाँ वहाँ सर्वत्र मनुष्य देह से भी वह अधिक प्राप्त हुआ है; क्योंकि यह जीव जब बकरा हुआ होगा तब वह हज़ारों बकरियों के साथ स्वयं अकेला ही रमण करता होगा; जब वह घोड़ा या भैंसा या सांड़ अथवा बड़ा वानर आदि पशु देहों को प्राप्त हुआ होगा, तब उसे उनमें अपनी अपनी जाति की अतिशय रूपवती और यौवनपूर्ण अनेक स्त्रियों में से प्रत्येक स्त्री मिली होगी। उसमें प्रारब्ध का कोई कारण नहीं है, तथा भगवान की कृपा भी कारणभूत नहीं है; वे तो उसे सहज रूप से मिली थीं। और, अब भी यदि वह भगवान का भजन नहीं करेगा, तो भी उसे विभिन्न योनियों में जाने पर अनेक स्त्रियाँ प्राप्त होंगी, जिनके लिए उस जीव को किसी देवता की सेवा पूजा भी नहीं करनी पड़ेगी और किसी मन्त्र का जप भी नहीं करना पड़ेगा। सो तो उसे आसानी से ही स्त्री आदि का सुख प्राप्त होगा।
“और, इस जीव ने कई बार तो देवता होकर देवलोक के भी सुख भोगे हैं, और कई बार चक्रवर्ती राजा होकर पृथ्वी पर भी अनेक प्रकार के सुखों का उपभोग किया है। फिर भी, इस जीव की स्त्री आदि सुखों को भोगने की तृष्णा नहीं मिटती। वह स्त्री आदि के सुखों को अत्यन्त दुर्लभ मानता है और उन्हें अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझकर उनसे लगाव रखता है। उनमें उसकी यह अनुरक्ति कभी भी मिटाये नहीं मिटती, इसी पाप के कारण परमेश्वर से उसकी दृढ़ प्रीति नहीं हो पाती।
“इस जीव में ऐसी मलिन वासना बनी रहती है, जिसे हमने प्रत्यक्ष रूप से देखा है। जब हम बाल्यावस्था में थे, तब अयोध्यापुरी स्थित एक शिव मन्दिर में जाकर सोते थे। तब एक कायस्थ प्रतिदिन शिव का पूजन करने के लिए आया करता था। वह शिव की पूजा करने के बाद गाल बजाकर शंकर से ऐसा वरदान माँगता था कि, ‘हे महाराज! हे शिवजी! मुझे कभी भी मनुष्य-जन्म मत देना, क्योंकि उसमें तो मैं ताम्रभस्म खा-खाकर मर गया, परन्तु स्त्री का सुख अच्छी तरह नहीं भोग सका। इसलिए, हे शिवजी! मुझे प्रत्येक जन्म में लम्बकर्ण (गधे) का ही जन्म देना, ताकि मैं लाज मर्यादा छोड़कर स्त्री का सुख अच्छी तरह भोग सकूँ।’ इस प्रकार वह प्रतिदिन शिवजी से वर माँगता था। इस जीव के हृदय में इस तरह की पापमयी वासना रहती है, जिसके फलस्वरूप परमेश्वर से उसकी किसी भी प्रकार से प्रीति नहीं हो पाती।”
तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! जिसमें ऐसा अतिशय अविवेक हो, उसके हृदय में भगवान के प्रति प्रीति नहीं होती, परन्तु जिसे यह प्रतीत होता हो कि भगवान समस्त सुखों के निधि हैं तथा भगवान के सिवा अन्य वस्तुएँ केवल दुःखदायी हैं, तो भी उसे भगवान के प्रति प्रीति नहीं होती, इसका क्या कारण है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “पूर्वजन्म अथवा इस जन्म में किसी अत्यन्त अशुभ देश, काल, संग तथा क्रिया के साथ उस जीव का सम्बंध हो गया है, इसी कारण उसके कर्म अत्यन्त तीक्ष्ण हो गए हैं, तथा उसका चित्त उन दुष्कर्मों से लिप्त हो गया है, अतः वह मनुष्य सार-असार का ज्ञान रहने पर भी असार का परित्याग करके साररूप जो परमेश्वर, उनसे दृढ़ प्रीति नहीं जोड़ पाता। और, जैसे अशुभ देश, काल, क्रिया और संग के योग से घोर दुष्कर्मों का प्रभाव उसके चित्त से सट गया है; ठीक वैसे ही अतिशय पवित्र देश, पवित्र काल, पवित्र क्रिया एवं पवित्र संग के सम्बंध से यदि अत्यन्त उत्कृष्ट सुकृत कर्मों का संयोग प्राप्त हो, तो उन शुभ पुण्यकर्मों से तीक्ष्ण पापकर्मों का नाश हो जाता है; तब उसे परमेश्वर के प्रति दृढ़ प्रीति हो पाती है। इस प्रश्न का यही उत्तर है।”
तत्पश्चात् अयोध्याप्रसादजी ने पूछा कि, “एक भक्त तो ऐसा है, जिसकी बुद्धि भी अधिक है और शास्त्रों में भी उसकी अधिकाधिक दृष्टि पहुँचती है; और अन्य भक्त वह है जो अल्पबुद्धि है, तथा उसे शास्त्रों का भी अधिक ज्ञान नहीं है, फिर भी अधिक बुद्धिमान भक्त सत्संग से विमुख हो जाता है, जबकि अल्पबुद्धिवाला दृढ़तापूर्वक सत्संग में बना रहता है। इसका क्या कारण है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस संसार में दैवी और आसुरी ऐसे दो प्रकार के जीव होते हैं। इनमें से आसुरी जीव अधिक बुद्धि होने पर भी सत्संग से विमुख ही रहता है, जबकि दैवी जीव अल्पबुद्धि होने पर भी सत्संग से कभी भी विमुख नहीं होता। जैसे कि मिर्ची, नीम, अथवा बछनाग के बीजों को भूमि में बोकर प्रतिदिन चीनी-मिश्रित जल से भी सींचा जाए, फिर भी मिर्ची तीखी ही होगी, तथा नीम कडुआ ही होगा तथा बछनाग ज़हरीला ही होगा। वह इसीलिए कि उसके बीज ही खराब होते हैं। उसी तरह यदि गन्ने को बो कर उसमें नीम की पत्तियों का खाद डाला जाए और उसे कडुवे पानी से सींचा जाए, तो भी गन्ने का रस मीठा ही रहेगा। उसी प्रकार दैवी जीव भगवान के सम्मुख ही रहते हैं और आसुरी जीव उनसे विमुख ही रहते हैं।”
तब शुकमुनि ने पूछा कि, “दैवी तथा आसुरी जीवों को किस प्रकार पहचाना जाता है?”
तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “दैवी जीव के काम-क्रोध-लोभादि दोष अशुभ देशकालादि के सम्बंध से होते हैं, परन्तु यदि उनको शुभ देशकालादि का योग उपस्थित हो गया तो उनके दोषों का थोड़े ही समय में विनाश हो जाता है। और, आसुरी जीव में जो काम-क्रोध-लोभादि दोष होते हैं, उनका कभी भी नाश नहीं होता। उससे यदि एकबार भी कठोर वचन कहा हो, तो वह जीवित रहने तक उसे नहीं भूल सकता। यदि वह आसुरी जीव सत्संगी हुआ, तो सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ हरिभक्त दिखायी पड़ता है। जैसे भाल प्रान्त (गुजरात का एक प्रान्त) में पहले समुद्र था और मिट्टी जम जाने से वहाँ की भूमि में मिठास फैल गई है, सो जहाँ तक उस मिट्टी की परत हो वहाँ तक खोदने पर मीठा पानी निकलेगा। अगर उससे अधिक गहरा खोदा जाए, तो वहाँ से समुद्र-जैसा खारा पानी ही निकलेगा। उसी प्रकार आसुरी जीव यदि हरिभक्त हुआ हो, फिर यदि उसकी रुचि को मोड़कर उससे थोड़ी भी छेड़छाड़ की गई तो वह पहले की गई साधुजनों की सेवा से लाख गुना अधिक द्रोह करता है, फिर भी उसके मन में सन्तोष नहीं होता।”
तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! आपने कहा कि हरिभक्त हुए आसुरी जीव की रुचि के अनुकूल जब तक बर्ताव किया जाए तब तक तो वह सत्संगी रहता है, और यदि उसकी इच्छा के अनुकूल कोई बात नहीं हुई, तो वह सत्संग से विमुख हो जाता है। किन्तु, जब तक वह विमुख न हुआ हो और इस बीच यदि उसका शरीर छूट जाए तो वह आसुरी रहता है या दैवी बन जाता है?”
इसका उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज बोले कि, “वह आसुरी जीव जब तक सदाचारण करता रहा हो, उस समय तक यदि उसका देहान्त हो गया तो वह दैवी बन जाता है और भगवान की भक्ति करके परमपद को प्राप्त करता है।”
उस समय नृसिंहानन्द स्वामी ने पूछा कि, “नवधा भक्ति में श्रेष्ठ भक्ति कौन-सी है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस भक्ति से भगवान में दृढ़ स्नेह हो जाए, वही भक्ति उन नवधा भक्तियों में से उसके लिए श्रेष्ठ है।”
फिर गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जिसकी बाल्यावस्था अथवा युवावस्था हो उसे कैसे पुरुष का संग करना चाहिए?”
श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो वयोवृद्ध भी हो तथा जिसमें धर्म, ज्ञान और वैराग्य दृढ़ हो तथा भगवान से प्रीति भी अटल हो, ऐसे पुरुष का संग उन दोनों को स्नेहपूर्वक करना चाहिए।”
अब नाजा जोगिया ने पूछा कि, “एक व्यक्ति को क्रोध द्वारा भगवद्चिन्तन होता रहता है, दूसरे का भय के कारण भगवान में मन लगा है, और तीसरे का स्नेहभाव से भगवान में मन लगा है। इन तीनों में से कौन-सा भक्त श्रेष्ठ है?”
श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान में जिसका मन स्नेहभाव पूर्वक लग गया है वही श्रेष्ठ है।”
तब शिवानंद स्वामी ने पूछा कि, “भगवान का भक्त होने पर भी जिसे श्रीजीमहाराज के कथनानुसार सार-असार का विवेक न हो और वैराग्य भी न हो, तो उसे वैसी विवेकशीलता तथा भगवान के सिवा अन्य वस्तुओं के प्रति वैराग्य-भाव कैसे हो सकता है?”
श्रीजीमहाराज बोले कि, “पहले से ही यदि भगवान से दृढ़ स्नेह हो जाए, तो विवेक एवं वैराग्य स्नेह के योग से प्रकट हो जाते हैं। जिसे जिस पदार्थ से लगाव होता है, उसे स्नेह या कामना कहा जाता है। जिस वस्तु से स्नेह हो जाए और उसमें यदि कोई बाधा उपस्थित करे, तो उसके प्रति क्रोध उत्पन्न हो जाता है। वह मनुष्यों को तो होता ही है, पशुओं को भी गुस्सा आ जाता है। जैसे कोई भैंसा कामनापूर्वक भैंस पर आसक्त हो जाए और उस समय यदि दूसरा भैंसा बीच में आ गया तो वह उसे मार डालता है। पशुपक्षियों में सर्वत्र ऐसा दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार जिसको भगवान से दृढ़ प्रीति हो गई तब बीच में कोई पदार्थ उस प्रीति में रुकावट डालने के लिए आए, तो कुपित होकर वह उसका तत्काल त्याग कर डालता है। इसलिए, भगवान से यदि दृढ़ स्नेह हो जाए, तो वैराग्य एवं विवेक स्वयमेव उत्पन्न हो जाते हैं।”
फिर एकबार शिवानन्द स्वामी ने पूछा कि, “दो भक्त हैं और वे दोनों ही बुद्धिशाली हैं। इनमें से एक भक्त तो परमेश्वर के वचनों को विश्वासपूर्वक यथावत् मान लेता है तथा दूसरा भक्त भगवान के वचनों का केवल उतना ही पालन करता है जितना उसकी बुद्धि उसे मान्य करती है। तब इन दोनों में से कौन-सा भक्त श्रेष्ठ है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “विश्वास करनेवाला भक्त ही श्रेष्ठ है। यही बात रामकथा में रामचन्द्रजी ने कही है कि जो भक्त मुझ पर दृढ़ विश्वास के साथ निर्भर रहता है, उसकी रक्षा मैं उसी प्रकार करता हूँ, जिस तरह कोई माता अपने बच्चे की रक्षा करती है। इसलिए, विश्वासी भक्त ही श्रेष्ठ है।”
अब आत्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “मन में तो यही निश्चय रहता है कि जीवनपर्यन्त हमें परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना है। फिर भी ऐसा कौन-सा कार्य किया जाए, जिससे हम पर परमेश्वर तथा सन्त को विश्वास हो जाए?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “परमेश्वर तथा सन्त को विश्वास तब हो सकता है, जब बहुत बीमारी में भी उस भक्त की अच्छी तरह सेवा-चाकरी न हुई हो, फिर भी वह भक्त न तो किसी को दोषी ठहराता हो, और न उद्विग्न ही होता हो; तथा परमेश्वर एवं सन्त कदाचित् बिना किसी दोष के ही उसका अत्यंत अपमान करे, फिर भी वह तनिक भी उनका अवगुण ग्रहण नहीं करता, तब परमेश्वर एवं संत को उसका विश्वास आता है। तीसरा प्रकार यह है कि सत्संग के जितने नियम हैं, उनका यदि लेशमात्र भी उल्लंघन हो जाए, तो अत्यंत दुःखी होकर उसका प्रायश्चित्त तत्काल कर डालता है। मन में यदि लेशमात्र भी कोई कुसंकल्प उत्पन्न हो गया, तो उसे उतने ही दुःख एवं त्रास की अनुभूति होती हो, जितना कष्ट तथा दुःख किसी को पंचव्रतों के भंग होने पर हुआ करता है। ऐसी स्थिति होने पर ही परमेश्वर तथा सन्त को उस पर परिपूर्ण विश्वास हो जाता है कि, ‘यह भक्त कभी भी सत्संग से विचलित नहीं होगा।’”
अब भगवदानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जिस भक्त के मन में भगवान तथा उनके भक्तों की अखंड महिमा रहती हो, वह दूसरों को कैसे प्रतीत हो सकता है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसके मन भगवान तथा भगवान के भक्त की अखंड महिमा समायी रहती है, वह भगवान और भगवान के भक्त की निष्कपटभाव से प्रीतिपूर्वक सेवा किया करे, तथा देह से सभी सन्तों का चरणस्पर्श करता रहे; और यदि कोई सन्त बीमार हो, तो वह उनका सिर दबाए, पगचंपी करे और उनके खाने-पीने का ध्यान रखें, और अपने पास कोई पसंदीदा चीज़ आ गई तो वह उसे सर्वप्रथम सन्त की सेवा में अर्पित करके ही उसे अपने उपयोग में ले। इस प्रकार जो मन, कर्म तथा वचन से अपना वर्तन रखता है, उसी के अन्तःकरण में भगवान तथा सन्त की महिमा अखंडरूप से बनी रही है, ऐसा समझना।”
तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने सन्तों से पूछा कि, “भक्त में धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति चारों तीव्ररूप से निहित हों, फिर भी धर्म में कुछ शिथिलता रह जाए, वैराग्य में कहीं पर कुछ राग रह जाए, और भक्ति में भी कुछ शिथिलता देखने में आए, तथा ज्ञान में भी कुछ देहासक्ति दिखे, इसका क्या कारण हो सकता है?”
तब गोपालानंद स्वामी तथा ब्रह्मानंद स्वामी ने कहा कि, “जिनमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति तीव्ररूप से रहरहे हैं, ऐसे ईश्वरमूर्ति समर्थ पुरुष में अगर कुछ कसर प्रतीत हुई, तो वह केवल उनकी दयालु प्रकृति के कारण ही है, किन्तु दूसरी कोई कमी नहीं है। ऐसे महापुरुष यदि बाह्यदृष्टि रखकर बर्ताव करें, तो वे कितने ही जीवों को जड़भरत तथा शुकजी के समान ब्रह्मरूप कर सकते हैं। वस्तुतः ऐसे बड़े सन्त व्यावहारिक दृष्टि को अपनाते हैं, तो वह केवल जीवों के प्रति दयाभाव के ही कारण अपनाते हैं।”
श्रीजीमहाराज ने कहा कि इस प्रश्न का यही उत्तर है।
॥ इति वचनामृतम् ॥ १४ ॥ २३७ ॥
This Vachanamrut took place ago.