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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य १७

भरतजी का चमत्कारी आख्यान

संवत् १८८४ में श्रावण शुक्ला षष्ठी (३० जुलाई, १८२७) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे और पुष्पों का हार पहना था। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “श्रीमद्भागवत में वर्णित भरतजी का आख्यान जितना चमत्कारी है, वैसी कोई अन्य कथा चमत्कारपूर्ण नहीं है, क्योंकि भरतजी ऋषभदेव भगवान के पुत्र थे और भगवान के लिए समस्त राज्य का परित्याग करके वे वन में चले गए थे। वहाँ भगवान का भजन करते समय उन्हें मृगी के बच्चे से स्नेह उत्पन्न हो गया। तब उनकी मनोवृत्ति मृगमय हो गई। यद्यपि वे ऐसे महान थे, फिर भी पापवश उनका जन्म मृग के रूप में हुआ। अतः यद्यपि अनन्त प्रकार के पाप हैं, फिर भी इन सभी पापों में घोरतम पाप यही है कि भगवद्भक्त भगवान को छोड़कर अन्यत्र स्नेह करता है! यही अत्यन्त जघन्य पाप है। इसलिए विवेकशील भक्त यदि भरतजी की कथा पर विचार करेगा, तब उसके अंतःकरण में अत्यंत भय जाग्रत हो जाएगा कि, ‘कदाचित् भगवान को छोड़कर मुझे कहीं अन्यत्र स्नेहासक्ति न हो जाए!’ भरतजी ने जब मृग-शरीर को छोड़कर ब्राह्मण के घर जन्म लिया, तब उन्होंने इस भय के कारण संसार-व्यवहार में रुचि नहीं ली कि कहीं मुझे भगवान के सिवा अन्यत्र स्नेह हो जाएगा! वे उसी कारण जानबूझकर पागल आदमी के समान रहने लगे, और जिस प्रकार से वृत्ति अखण्ड भगवन्मय रहे, उसी प्रकार रहने लगे!”

इतना उपदेश देने के बाद श्रीजीमहाराज वहाँ पधारे, जहाँ ठाकुरजी की आरती हो रही थी।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १७ ॥ २४० ॥

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