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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य ३३

बुद्धिभेद न होने के चार उपाय

संवत् १८८५ में फाल्गुन शुक्ला एकादशी (१६ मार्च, १८२९) को स्वामी श्रीसहजान्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने समस्त परमहंसों से यह वार्ता कही कि, “धन-दौलत और स्त्री-पुत्र आदि की कामना से जिसकी बुद्धि विचलित हो और इनके निमित्त किसी में भी प्रतीति न हुई हो, ऐसे हरिभक्त तो सत्संग में गिनती के ही रहते हैं।”

इतना कहकर आगे बताने लगे कि, “ऐसे तो ये मुक्तानन्द स्वामी तथा गोपालानन्द स्वामी हैं, जिन्हें अन्य कोई चाहे कैसा ही समर्थ दिखाई दे, और वह चमत्कार भी दिखाए, तो भी उन पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। और, कैसा भक्त हो, जिस पर किसी का प्रभाव न पड़े? तो जो ऐसा समझता है कि, ‘मैं इस देह से भिन्न आत्मा हूँ तथा प्रकाशमान एवं सत्तारूप हूँ। मेरे स्वरूप के भीतर प्रत्यक्ष भगवान अखंडरूप से विराजमान हैं। और, उसी भगवान के स्वरूप के बिना अन्य प्राकृत आकार मात्र असत्य तथा अनन्त दोषों से भरे हैं।’ ऐसा वैराग्य जिसे हो, तथा जो भगवान के माहात्म्य को यथार्थरूप से जानता हो, उसकी बुद्धि में किसी भी प्रकार का भ्रम नहीं हो सकता।

“परन्तु, यह बात अति कठिन है, क्योंकि वे इतने बड़े हैं, फिर भी यदि कोई इनका अधिक सम्मान करे तथा उनके सामने रुपयों और सोना-मुहरों के ढेर लग जाए तथा रूपवती स्त्रियों का योग हो जाए, तो वे इतने बड़े त्यागी होने पर भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। यदि ऐसा योग आ जाए, तो आज अपने त्यागियों में जो निकृष्ट हैं, उनके जैसे भी ये बड़े बड़े त्यागी रह सकेंगे या नहीं, इसमें भी संशय है। क्योंकि इन मायिक वस्तुओं का योग ही ऐसा है। जैसे हम सब लोग यहाँ सयाने बनकर बैठे हैं, किन्तु यदि मद्यपान किए हुए हों, तो न जाने कैसे कैसे कारनामे करने लगते! वैसे ही निश्चितरूप से इन वस्तुओं का संग लगे बिना रहता ही नहीं। इसलिए, यदि इन वस्तुओं का योग उपस्थित न होने दिया जाए, तो वे इनसे बच सकते हैं अथवा इन पदार्थों का योग होने से पहले ही उनसे डरता रहे कि, ‘कहीं मुझे इन पदार्थों का योग न हो जाए!’ तब जाकर वे उनसे बच सकते हैं। तथा शास्त्रों में यह बात तो प्रसिद्ध है कि, ‘मायिक पदार्थों का संग तो एकमात्र भगवान को नहीं लगता।’ जैसे कहा भी गया है: ‘ऋषिं नारायणमृते’२९४ तथा ‘येऽन्ये स्वतः परिहृतादपि बिभ्यति स्म।’”२९५

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “वासुदेव भगवान का एकान्तिक भक्त किसे कहते हैं? तो जिसमें स्वधर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा वासुदेव भगवान के प्रति माहात्म्ययुक्त अनन्य भक्ति हो, उसे एकान्तिक भक्त कहा जाता है। उसकी गति इस प्रकार कही गई है कि उसका वासुदेव भगवान में प्रवेश होता है। वह प्रवेश क्या है? तो तेजोमंडल में जो दिव्यमूर्ति वासुदेव भगवान हैं, उनसे उस भक्त का स्नेह होता है। उस स्नेह के कारण वासुदेव भगवान की मूर्ति में उसके मन का निरन्तर स्मरण रहता है तथा भगवान में ही आसक्त सा होकर वह शरीर द्वारा वासुदेव भगवान की सेवा में भी प्रवृत्त रहता है। जैसे लक्ष्मीजी वासुदेव भगवान के हृदय में स्नेहाधिक्य के कारण चिह्नरूप से बिराजमान रहती हैं, तथा स्त्रीरूप द्वारा उनकी सेवा में भी स्थित है। वैसे वासुदेव भगवान में एकान्तिक भक्त का प्रवेश जानना।

“और, अभी भी जिस भक्त को कथा-कीर्तन, नामस्मरण आदि इस प्रकार की भगवद्भक्ति तथा भगवान के माहात्म्य तथा स्वधर्म-वैराग्य-आत्मनिष्ठा तथा सन्त-संगति का ऐसा व्यसन हो कि इन सभी के बिना वह रह नहीं सकता; जैसे अफ़ीम आदि मादक पदार्थ ज़हर जैसे कड़वे होते हैं, फिर भी व्यसनी बिना मादक पदार्थों के रह नहीं सकता है, इसी प्रकार यदि कोई शराबी हो, उसका गला जलता भी हो, परन्तु व्यसनी तो उसके बिना रह नहीं सकता, ऐसे व्यसनी को तो बहुत से रुपये दिये जाए, फिर भी उसको छोड़कर अपने व्यसन को ही अधिक प्रिय बनाये रखता है। क्योंकि, वह व्यसन उसके जीवन के साथ घुलमिल गया है। उसी प्रकार, जिसे भगवद्भक्ति आदि क्रियाओं का व्यसन लग गया हो, उसे वह चाहे कैसी भी बुरी संगतिवाले वातावरण में रहे, परन्तु बिना भक्ति के अन्य कार्यों में उसका मन कभी प्रसन्न नहीं होता। भगवद्भक्ति आदि क्रियाओं में जिसका जीव तन्मय हो गया हो, और वैसी ही भक्तिमय अत्यधिक क्रियाओं में ही उसकी आसक्ति हो, तो जानना कि ऐसे भगवद्भक्त का प्रवेश वासुदेव भगवान में हो गया है।

“ऐसा भगवद्भक्त भगवान की सेवा के बिना चतुर्धा मुक्ति की भी इच्छा नहीं करता, तो अन्य पदार्थों की तो बात ही क्या? ऐसे भक्त को एकान्तिक भक्त समझना। यदि वह ऐसा भक्त नहीं होता, तो उसे कभी-कभी भगवान की भक्ति में आनन्द का अनुभव हुआ करता है, और कभी-कभी तो कुसंग के कारण भक्ति को भूल जाता है। उसे दूसरी तरह का चस्का लग जाता है। ऐसे भक्त को प्राकृत देहाभिमानी कहते हैं। वह सच्चा भक्त नहीं है और वह अपनी भक्ति में निर्विघ्न प्रवृत्त रह सकेगा या नहीं, इस बात का विश्वास भी नहीं रहता।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “भगवान के भक्त को स्त्री, धन, देहाभिमान तथा स्वभाव, इन चारों में आसक्ति हो, वह यदि भगवान की भक्ति भी करता हो, फिर भी उसकी भक्ति के विषय में विश्वास नहीं रहता, उसकी भक्ति में अवश्य विघ्न उपस्थित हो जाएगा। क्योंकि जब कभी उसे स्त्री और धन का योग हो जाएगा, तब उसकी भक्ति का ठिकाना ही नहीं रहेगा, और वह उसी में आसक्त हो जाएगा तथा देहाध्यास होने पर जब देह में रोगादि कष्ट बने रहते हैं और उसे अन्न-वस्त्रादि नहीं मिल पाते, अथवा कुछ कठिन व्रतों के पालन की आज्ञा हो तब भी उसकी भक्ति में बाधा उपस्थित हो जाती है, तथा वह भक्त व्याकुल हो जाता है और विवेकभ्रष्ट होकर मनमाने ढंग से बर्ताव करने लगता है। यदि किसी तरह का उसका कोई बुरा स्वभाव हो और सन्त उस पर टोकने लगें, तथा स्वभाव के अनुसार उसे व्यवहार न करने दें परन्तु अन्य रीति से आचरण कराएं, तो भी वह उद्विग्न हो जाता है और सन्त-संगति में नहीं रह सकता। ऐसे देहाध्यासी की भक्ति कैसे निभ सकती है? इसलिए, दृढ़ भक्ति के इच्छुक पुरुष को पूर्वोक्त चारों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। यदि इन चार बातों में कमी रह गई, तो भी विवेकपूर्वक धीरे-धीरे उनका त्याग कर डालना चाहिए। तभी वासुदेव भगवान की निश्चल भक्ति कर सकता है। यह वार्ता ऐसी ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३३ ॥ २५६ ॥

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२९४. अर्थ के लिए देखें: वचनामृत लोया १३ की पादटीप।

२९५. अर्थ: “हे भगवान! जो आप ही को जीवन मानकर जीता है, उसके विपरीत जीवन जीनेवाले तो स्वयं के द्वारा परित्याग किए हुए विषयों से भी डरता रहता है। अर्थात् वासनामात्र से बंधनग्रस्त हो जाता है।” (श्रीमद्भागवत: ११/६/१७)

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