share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७७

ज्ञान की आड़ लेकर धर्म को झूठा मत करें

संवत् १८७६ में द्वितीय ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या (१० जुलाई, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय मुनि परस्पर प्रश्नोत्तरी कर रहे थे। इस अवसर पर एक मुनि अनजाने में ही भगवान के निश्चय के बल के आधार पर धर्म (स्व-धर्मनिष्ठा को) झुठलाने की चेष्टा करने लगे।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान के ज्ञान का आश्रय लेकर जो कोई व्यक्ति धर्म को मिथ्या सिद्ध करने का प्रयास करता है, उसे असुर समझना। भगवान के स्वरूप में ऐसे कल्याणकारी अनन्त गुण हैं, जिनका वर्णन श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कन्ध में पृथ्वी ने धर्म के समक्ष किया है। अतः जिसे भगवान का आश्रय होता है, उसमें भगवान के कल्याणकारी गुण आते हैं तथा जिसे भगवान के स्वरूप का निश्चय होता है, उसमें एकादश स्कन्ध में बताए गए साधु के तीस लक्षण१०७ आते हैं। अतः जिसमें सन्त के तीस लक्षण न हों, उसे पूरा साधु नहीं समझना चाहिए। और, जिसे भगवान का निश्चय होता है, उसके हृदय में प्रभु के कल्याणकारी गुण अवश्य ही आते हैं। जब प्रभु के गुण सन्त में आते हैं, तब वह साधु तीस लक्षणों से युक्त होता है। इसलिए, आज से जो कोई पंचव्रतरूप धर्म को छोड़कर केवल ज्ञान अथवा भक्ति का बल ग्रहण करेगा, वह गुरुद्रोही तथा वचनद्रोही है। तथा, जो कोई धर्म-भंग की ऐसी बातें करता हो, उसे विमुख कहना चाहिए। और, उसे तो ऐसा कहना चाहिए कि, ‘तुमने तो असुर का पक्ष लिया है, अतः हम तुम्हारी बात नहीं मान सकते!’ ऐसा कहकर उस अधर्मी की बात को तुरन्त झुठला देना।”

बाद में सन्त ने प्रश्न किया, “हे महाराज! कोई तो भगवान का अत्यन्त दृढ़ भक्त होता है, फिर भी उसे देह-त्याग करते समय पीड़ा होती है और बोलने का भी भान नहीं रहता। और दूसरा पक्का हरिभक्त न दिखता हो, फिर भी वह देह छोड़ने के समय अति समर्थ मालूम होता हो तथा भगवान के प्रताप को बहुत अच्छी तरह समझते हुए, मुख से भगवान की महिमा का गुणगान करते हुए सुखपूर्वक देह छोड़ता है, इसका क्या कारण है? जो अच्छा भक्त होता है, उसका अन्तसमय अच्छा नहीं दिखाई देता और जो सामान्य जैसा भक्त है, उसका तो अन्तिम समय अच्छा दिखाई पड़ता है, इसका कारण बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले,१०८ “देश, काल, क्रिया, संग, ध्यान, मन्त्र, दीक्षा तथा शास्त्र, ये आठ के अनुसार ही पुरुष की मति हो जाती है। ये आठों यदि शुभ रहें तब उसकी मति अच्छी होती है, और यदि ये अशुभ हों तो उसकी मति खराब हो जाती है। और, व्यक्ति के हृदय में परमेश्वर की माया द्वारा प्रेरित चारों युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग) के धर्म एक के बाद एक प्रवृत्त रहते हैं। इसमें मृत्यु का समय आ चुका हो, तब यदि सतयुग का धर्म बरतने लगे तो उस पुरुष की मृत्यु बहुत शान्तिपूर्ण होती है तथा मृत्युप्रसंग देदीप्यमान हो जाता है! यदि त्रेता और द्वापर के धर्म उसके अन्तःकरण में आ गए, तो देहान्त के समय उसकी मृत्यु इतनी शोभायमान नहीं रहती। और, यदि मृत्यु के समय हृदय में कलियुग का धर्म आ गया, तो उसकी मौत भयानक एवं दुःखद दिखाई पड़ती है।

“इस प्रकार अन्त समय की अच्छी-बुरी स्थिति युगधर्म के अनुसार होती है। जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति नामक तीन अवस्थाओं में से यदि व्यक्ति के अन्त समय में जाग्रत अवस्था बनी रहती हो, तो पापी पुरुष भी बोलते-चालते और चलते-फिरते अपनी देह छोड़ देता है। यदि अन्तकाल में स्वप्नावस्था बनी रहे, तो भगवान का भक्त भी प्रलाप करता हुआ अपने शरीर को छोड़ता है। इसी प्रकार अन्तकाल में सुषुप्ति अवस्था की प्रधानता रहे, भगवान का भक्त हो या विमुख पुरुष हो, वह भी बेहोशी की हालत में ही मर जाता है। उस स्थिति में वह भी शुभ या अशुभ बात बोलने में समर्थ नहीं रहता है। और, अन्तकाल में इन तीनों अवस्थाओं से पर एवं ब्रह्मरूप ऐसी अपनी जीवात्मा को साक्षात्कार मानता हुआ देह-त्याग करता है, वह तो जैसे ईश्वर का सामर्थ्य हो, ऐसा सामर्थ्य दिखाकर मृत्यु का वरण करता है।

“वस्तुतः ब्रह्मरूप होकर और ईश्वर जैसा सामर्थ्य दिखाकर अपनी देह छोड़ना तो भगवान के भक्त को ही संभव होता है, किन्तु अन्य विमुख जीवों से ऐसा हो ही नहीं सकता। इस प्रकार अन्त समय में कालधर्म से अथवा इन अवस्थाओं के योग से शुभ अथवा अशुभ दिखाई पड़ता है। और, यदि कोई भगवान से विमुख जीव हो, परन्तु अन्त समय में उसकी जाग्रत अवस्था रहती हो और उसने बोलते हुए ही शरीर छोड़ दिया हो, फिर भी इससे उनका कोई कल्याण नहीं होता। विमुख जीव सुखपूर्वक देह-त्याग करें अथवा बुरी तरह देह को छोड़ें, वे अन्ततः नरक में ही जाते हैं। परन्तु, भगवान का भक्त हो और भले ही वह बोलते-चालते अथवा लड़खड़ाती जबान से प्रलाप करते हुए अथवा शून्य मौन रहकर अपना शरीर छोड़ दे, तो भी उसका कल्याण अवश्यम्भावी है। इस बात में कोई संशय नहीं है, यह सत्य भगवान के भक्तों को ठीक तरह से समझ लेना चाहिए।

“तथा भगवान के भक्तों को अन्त समय में स्वप्नादिक अवस्थाओं के योग के कारण बाह्यरूप से भले ही पीड़ाजनक स्थिति का सामना करना पड़ता हो, परन्तु उनके अन्तःकरण में भगवान के प्रताप से अत्यंत ही आनन्द की अनुभूति हुआ करती है। अतः एक बात तो निश्चित ही है कि जो पक्का हरिभक्त है, वह अन्त समय में भले ही प्रलाप करते हुए दयनीय हालत में अपना शरीर छोड़े, फिर भी उसके कल्याण में लेशमात्र भी संशय नहीं रखना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७७ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.


१०७. कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम्।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः॥
कामैरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिंचनः।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमान् जितषड्गुणः।
अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः॥
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयादिष्टानपि स्वकान्।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत स सत्तमः॥
ज्ञात्वाज्ञात्वाऽथ ये वै मां यावान् यश्चास्मि यादृशः।
भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मताः॥ (श्रीमद्भागवत: ११/११/२९-३३)

१. कृपालुः - स्वार्थ की अपेक्षा किए बिना ही दूसरे का दुःख सहन न हो, ऐसा पुरुष, अथवा दूसरे के दुःख को टालने की इच्छावाला। २. सर्वदेहिनाम् कृतद्रोहः - समस्त प्राणियों में मित्रादि भाव रखनेवाला और किसी का भी द्रोह न करनेवाला। ३. तितिक्षुः - द्वन्द्व को सहन करनेवाला। ४. सत्यसारः - सत्य को ही एक मात्र बल माननेवाला। ५. अनवद्यात्मा - द्वेष, असूया आदि दोषों से रहित मनवाला। ६. समः - सभी में समदृष्टिवाला। ७. सर्वोपकारकः - सबका उपकार ही करनेवाला। ८. कामैरहतधी: - विषयभोग से बुद्धि में क्षोभ -प्राप्त नहीं करनेवाला। ९. दान्तः - इन्द्रियों का दमन करनेवाला। १०. मृदुः - मृदुचित्तवाला। ११. शुचिः - बाह्य एवं आन्तरिक रूप से पवित्रता रखनेवाला। स्नानादिजन्य शुचिता को बाह्य पवित्रता तथा भगवान के चिन्तन से उत्पन्न शुचिता को आन्तरिक पवित्रता कहा गया है। १२. अकिंचनः - अन्य प्रयोजनों से रहित। १३. अनीहः - लौकिक व्यापाररहित अथवा किसी भी प्रकार की इच्छा से रहित। १४. मितभुक् - मिताहार करनेवाला। १५. शान्तः - जिसका अन्तःकरण नियमानुवर्ती है। १६. स्थिरः - स्थिरचित्तवाला। १७. मच्छरणः - जिसका मैं ही रक्षक और प्राप्ति का उपाय हूँ। १८. मुनिः - शुभाशय का मनन करनेवाला। १९. अप्रमत्तः - सावधान। २०. गभीरात्मा - जिसका अभिप्राय न जाना जा सके, ऐसा पुरुष। २१. धृतिमान् - धैर्य रखनेवाला। २२. जितषड्गुणः - अशन, पिपासा, शोक, मोह, जरा, मृत्यु इन छः द्वन्द्वों पर विजय प्राप्त करनेवाला। २३. अमानी - अपने सत्कार की अभिलाषा नहीं रखनेवाला। २४. मानदः - दूसरों का सम्मान करनेवाला। २५. कल्पः - हितकारी उपदेश करने में समर्थ। २६. मैत्रः - किसी को भी नहीं ठगनेवाला। २७. कारुणिकः - निःस्वार्थ, अलोभ रहकर केवल करुणापूर्ण व्यवहार करनेवाला। २८. कविः - जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म और परब्रह्म - इन पाँच तत्त्वों को यथार्थ जाननेवाला। २९. “वेद द्वारा प्रतिपादित गुणदोषों को जानकर तथा अपने समस्त धर्मों को फल द्वारा त्याग करके, जो उपायोपेयभाव से मेरा भजन करता है,” उसे उत्तम साधु जानना चाहिए। ३०. “मैं जैसा स्वरूपवाला हूँ और जितनी विभूतियों से सम्पन्न हूँ, उन्हें जानकर, यानि उन पर बार-बार विचार करके अनन्य भाव से जो मेरा भजन करता है उसे ही उत्तम भक्त माना गया है।” इस प्रकार साधु के तीस लक्षण कहे गए हैं। (श्रीमद्भागवत: ११/११/२९-३३)

१०८. भावार्थ: उसके दो कारण हैं: काल और अवस्था। ये दोनों ही शुभ अथवा अशुभ होते हैं। यदि अन्त समय में ये दोनों शुभ रहे तो मृत्यु तेजोमय होती है, परंतु अशुभ बने रहे तो मरणकाल कष्टदायक होता है। मरणोत्तर गति में तो शुभाशुभकाल या अवस्था कारणभूत नहीं होते। उसमें तो अपना धर्माचरण ही कारण बनता है।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase