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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १

भगवान के स्वरूप में मन की अखंड वृत्ति

निजैर्वचोऽमृतैर्लोकेऽतर्पयद्यो निजाश्रितान् ।
प्रीतो नः सर्वदा सोऽस्तु श्रीहरिर्धर्मनन्दनः ॥

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थी (२१ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में साधुओं के निवासस्थान पर रात्रि के समय पधारे थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखे थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में स्थान-स्थान के साधु एवं हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “समस्त साधनाओं में कौन-सी साधना कठिन है?”

तब सभी ब्रह्मचारियों, साधुओं तथा गृहस्थों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिए, परन्तु वे समुचित उत्तर नहीं दे पाए।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “हम इसका उत्तर देते हैं कि भगवान के स्वरूप में मन की अखंड वृत्ति को रखना, इसके सिवा अन्य कोई भी साधना कठिन नहीं है। जिस मनुष्य की मनोवृत्ति भगवान के स्वरूप में अखंड रहती है, उससे अधिक कोई अन्य प्राप्ति शास्त्रों में नहीं बताई गयी है; क्योंकि भगवान की मूर्ति तो चिन्तामणि के समान है। जिस प्रकार किसी पुरुष के हाथ में चिन्तामणि हो, वह व्यक्ति जिस भी पदार्थ का चिन्तन करेगा, वह उसे तुरन्त प्राप्त होगा, उसी प्रकार भगवान को मूर्ति में जिसकी अखंड मनोवृत्ति रहती है, वह भक्त यदि जीव, ईश्वर, माया और ब्रह्म के स्वरूप को देखने की इच्छा करता है, तो वह उन्हें तत्काल देख सकता है और उसे भगवान के वैकुंठ, गोलोक, ब्रह्मधाम आदि धाम भी दिखाई देते है। इसलिए, भगवान के स्वरूप में अखंड वृत्ति रखने से बढ़कर कोई भी साधना नही है और उससे अधिक कोई महान उपलब्धि भी नही है।”

फिर हरिभक्त सेठ गोवर्धनभाई ने श्रीजीमहाराज से पूछा, “भगवान की माया कहते हैं, उसका स्वरूप क्या है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान के भक्त को भगवान की मूर्ति के ध्यान के समय जो पदार्थ विघ्न उपस्थित करता है, उसे ही माया कहते हैं।”

मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “भगवान का भक्त जब पंचभौतिक देह को छोड़कर धाम में जाता है, तब वह किस प्रकार का शरीर धारण करता है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “धर्मकुलाश्रित भगवान का भक्त भगवान की इच्छा के अनुसार ब्रह्ममय देह को प्राप्त करते हैं। वे अपनी देह का त्याग करके कोई तो गरुड़ पर, कोई रथ पर अथवा कोई विमान में बैठकर भगवान के धाम में जाते हैं, इनको योगसमाधिनिष्ठ पुरुष प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं।”

हरिभक्त हरजी ठक्कर ने श्रीजीमहाराज से पूछा, “कुछ लोग बहुत दिन तक सत्संग करते हैं; फिर भी उन्हें अपनी देह और उसके सम्बंधी में जितनी दृढ़ प्रीति है, उतनी दृढ़ प्रीति उन्हें सत्संग में नहीं होती, इसका क्या कारण है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “उन्हें भगवान का माहात्म्य सम्यक् रूप से ज्ञात नही हुआ है तथा जिन साधुओं के सत्संग के द्वारा भगवान के माहात्म्य का पूर्ण ज्ञान हो जाता है, वे साधु जब उनके स्वभाव (काम-लोभादिक) मिटाने के सम्बंध में बात करते हैं, तब वे अपने स्वभाव का त्याग नहीं कर पाते। इसके उपरांत ऐसी बात करनेवाले सन्त में दोष देखते हैं, ऐसे ही दोष-दर्शनरूप पाप के कारण उन्हें सत्संग में प्रगाढ प्रीति नहीं हो पाती, क्योंकि अन्य स्थान पर किए गए पाप सन्त के संग से दूर हो जाते हैं और सन्त के सम्बंध में आकर जो पाप करता है, वे सन्त के अनुग्रह के बिना किसी भी साधन से दूर नहीं होते। शास्त्रों में कहा भी है कि:

“अन्यक्षेत्रे कृतं पापं तीर्थक्षेत्रे विनश्यति ।
तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥

“अतः जो मुमुक्षु सन्त में अवगुण नहीं देखता, उसी की अनुरक्ति सत्संग में दृढ़तापूर्वक हो जाती है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१. पुत्र-धनादि।

२. ‘धर्मकुल’ से श्रीहरि का अभिप्राय धर्मपिता-भक्तिमाता के कुल से नहीं है, अपितु ‘धर्मकुल’ का अर्थ यहाँ पर स्वयं ‘भगवान श्रीस्वामिनारायण’ ही होता है। क्योंकि अन्ततोगत्वा धर्म पिता के पुत्र-पौत्रों ने भी भगवान श्रीस्वामिनारायण का ही आश्रय ग्रहण किया था।

३. सत् शब्द से वर्णित भगवान, सत्पुरुष, सद्धर्म और सच्छास्त्र, इन चारों का यथायोग्य संग।

४. साधुरूप तीर्थक्षेत्र

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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