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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १०

कृतघ्नी सेवकराम

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला त्रयोदशी (२९ नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में परमहंसों तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त उपस्थित थे।

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जब हम वेंकटाद्रि से सेतुबंध रामेश्वर जा रहे थे, तब मार्ग में एक साधु मिला। जिसका नाम सेवकराम था। उसने श्रीमद्भागवत आदि पुराणों का अध्ययन किया था। वह मार्ग में बीमार हो गया। उसके पास एक सहस्र रुपए की स्वर्णमुद्राएँ थीं, किन्तु उसकी देखभाल करनेवाला कोई भी नहीं था, इसलिए वह रोने लगा। हमने उससे कहा कि किसी भी प्रकार की चिन्ता मत करना। हम तुम्हारी चाकरी करेंगे।

“गाँव के बाहर केले का एक बगीचा था, जिसमें बड़ का एक वृक्ष था। बड़ के वृक्ष में एक हजार भूत रहते थे। परन्तु, साधु चल नहीं सकता था और अत्यन्त अस्वस्थ था, उस पर हमें अतिशय दया आयी। अतः वहीं हमने केले के पत्ते लाकर उस साधु के लिए एक हाथ ऊँचा बिछौना तैयार कर दिया। वह रक्तातिसार से पीड़ित था, जिसे हम धोते और सेवा करते थे। वह साधु अपनी आवश्यकता के अनुसार चीनी, शक्कर, घी, अन्न मंगवाने के लिए हमें अपने पास से धन देता और हम ये वस्तुएँ खरीदकर लाते, उनसे रसोई तैयार कर उसे भोजन कराते तथा हम बस्ती में जाकर भिक्षा मांगकर खा लेते थे। कभी-कभार तो हमें भिक्षा में अन्न नहीं मिलता था, तो हमें उपवासकरना पड़ता था। फिर भी, उस साधु ने कभी भी हमसे यह नहीं कहा कि, ‘हमारे पास धन है, अतः तुम, हम दोनों के लिए रसोई बना लो और तुम भी हमारे साथ भोजन किया करो।’ परंतु हम उसी प्रकार सेवा करते रहे।

“वह साधु दो महीने में कुछ स्वस्थ हुआ और उसके बाद हम सेतुबंध रामेश्वर के मार्ग पर चल पड़े। उसके सामान का वजन एक मन था, जिसे वह हमसे उठवाता था, और स्वयं माला लेकर चलता था। यद्यपि साधु स्वस्थ था और एक सेर घी खाकर पचाने की उसकी शक्ति थी, फिर भी वह अपना बोझ हमसे उठवाता था और स्वयं खाली हाथ चलता था। हमारी प्रकृति तो ऐसी थी कि हम भार के रूप में एक रूमाल तक नहीं रखते थे। फिर भी, हम उसे साधु समझकर उसका एक मन का बोझ उठाकर चलते थे। इस प्रकार हमने उस साधु की सेवा करके उसे निरोगी किया। लेकिन, साधु ने हमें एक पैसाभार भी अन्न नहीं दिया। बाद में हमने उसे कृतघ्न समझकर उसका साथ छोड़ दिया। इस प्रकार, जो मनुष्य किए गए उपकार को नहीं माने, उसे कृतघ्न समझना चाहिए। और यदि किसी मनुष्य ने कोई पाप किया और शास्त्रानुसार पाप का प्रायश्चित कर लिया, तो फिर उसे जो कोई ‘पापयुक्त’ कहता है, उसको भी कृतघ्नी मनुष्य के समान पापी समझना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥

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