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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
कारियाणी ४
जीव तथा साक्षी का ज्ञातृत्व
संवत् १८७७ में आश्विन कृष्णा अष्टमी (२९ अक्तूबर, १८२०) को डेढ़ प्रहर दिन चढ़ने के बाद श्रीजीमहाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।
श्रीजीमहाराज बोले कि, “आपस में प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए।”
तब गोपालानन्द स्वामी ने भजनानन्द स्वामी से पूछा, “इस देह में जीव का ज्ञातृत्व कितना है और साक्षी का१४० ज्ञातृत्व कितना है?”
भजनानन्द स्वामी उत्तर देने लगे, किन्तु यथार्थ उत्तर न दे सके।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस देह में बुद्धि नख-शिखा-पर्यन्त व्याप्त होकर रहती है। वह बुद्धि समस्त इन्द्रियों की क्रिया को एककालावच्छिन्न रूप से जानती है तथा उस बुद्धि में जीव व्याप्त होकर रहता है। उस जीव के ज्ञातृत्व के कथन में बुद्धि के ज्ञातृत्व के कथन का भी समावेश हो जाता है। उस जीव में परमात्मा साक्षीरूप में रहे हैं। अतएव, साक्षी के ज्ञातृत्वभाव में जीव का ज्ञातृत्व भी समाविष्ट हो गया।”१४१
फिर श्रीजीमहाराज से नित्यानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! इस जीव में जो साक्षी रहे हैं, वे तो मूर्तिमान होते हैं। और, जो मूर्तिमान होता है, वह व्यापक किस प्रकार हो सकता है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो मूर्तिमान हो, वह व्यापक भी हो सकता है। जैसे अग्निदेव अपने लोक में मूर्तिमान है तथा अपनी शक्ति द्वारा काष्ठ में रहा है, वैसे ही भगवान भी अपने अक्षरधाम में मूर्तिमान होकर अपनी अन्तर्यामी शक्ति के द्वारा जीवों में व्यापक होकर रहे हैं तथा मूर्तिमान की तरह क्रिया करते हैं, इसलिए इन्हें भी मूर्तिमान मानना चाहिए।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ १०० ॥
This Vachanamrut took place ago.
१४०. जीव में अंतर्यामीरूप से रहने वाले परमात्मा का।
१४१. जीव अपनी ज्ञातृत्वशक्ति द्वारा संपूर्ण देह एवं बुद्धि में व्याप्त है। बुद्धि मायिक कार्य होने से जड़ होती है। उसमें स्वतः ज्ञातृत्व संभव नहीं है, वह तो जीव को ज्ञातृत्व शक्ति से ही कार्य करने के लिए समर्थ होती है। इसी कारण जीव का ज्ञातृत्व कहनसे ‘बुद्धि का ज्ञातृत्व’ कहा जाता है। उसी प्रकार परमात्मा जीवात्मा में व्याप्त है, ऐसे साक्षीभाव से रहनेवाले परमात्मा की ही कार्यशक्ति के कारण जीवात्मा जानना, सुनना आदि बौद्धिक क्रिया करने में समर्थ होती है। अतः साक्षीरूप परमात्मा का ज्ञातृत्व कहने से जीवात्मा का ज्ञातृत्व कहा गया है। यही तात्पर्यार्थ है।