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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ५

अवतार-धारण का प्रयोजन

संवत् १८७७ में आश्विन कृष्णा चतुर्दशी (४ नवम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में छप्पर पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज बोले, “हम एक प्रश्न पूछते हैं।”

सभी मुनि बोले कि, “पूछिए, महाराज!”

तब श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “भगवान जीवों के कल्याण के लिए, पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं, तो क्या वे बिना अवतार धारण किए अपने धाम में रहकर ही जीवों का कल्याण करने में समर्थ नहीं हैं? और, जीवों का कल्याण तो भगवान अपनी इच्छा के अनुसार करते ही हैं तब अवतार धारण करने का प्रयोजन क्या है? और यदि अवतार धारण करके ही भगवान जीवों का कल्याण करने में समर्थ हों, तथा बिना अवतार धारण किए जीवों का कल्याण नहीं कर सकते, तो भगवान के सामर्थ्य में उतनी न्यूनता कही जा सकती है। अतः भगवान को अवतार धारण करने का क्या प्रयोजन है?”

फिर बड़े-बड़े साधुओं ने अपनी बुद्धि के अनुसार इसका उत्तर दिया, किन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का किसी से समाधान नही हो पाया। श्रीजीमहाराज ने शंकाएँ प्रकट की, अतः सबके उत्तर अयथार्थ सिद्ध हो गए।

बाद में सभी मुनि हाथ जोड़कर बोले कि, “हे महाराज! इस प्रश्न का उत्तर तो आप ही दीजिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान का अवतार-धारण करने का प्रयोजन यही है कि वे अपने से अत्यन्त प्रीति रखनेवाले भक्तजनों की भक्ति के अधीन होकर उन्हें सुख देने के लिए, उनकी इच्छा के अनुसार ही रूप धारण करते हैं और भक्तों के जो मनोरथ होते हैं, उन्हें पूर्ण करते हैं। और, भगवान के जो भक्त हैं, वे तो स्थूलभाव से युक्त हैं, तथा वे सब देहधारी होने के कारण भगवान भी स्थूलभाव को धारण करके देहधारी के समान हो जाते हैं, तथा वे अपने भक्तों से लाड़-दुलार करते हैं और अपने सामर्थ्य को छिपाकर उन भक्तों के साथ पुत्र-भाव से व्यवहार करते हैं अथवा सखाभाव से या मित्र-भाव से व्यवहार करते हैं। अथवा अपने सम्बंधीजन के समान व्यवहार करते हैं। इसी कारण, उस भक्त को भगवान की अधिक मर्यादा नहीं रहती। इसके पश्चात् भगवान अपने इन भक्तों की जैसी इच्छा होती है, तदनुसार इनसे लाड़-दुलार करते हैं। अतः भगवान के अवतार धारण करने का (प्रधान) उद्देश्य तो यही है कि अपने प्रेमी भक्तों के मनोरथ पूर्ण करना। इसके साथ-साथ ही वे असंख्य जीवों का कल्याण भी करते हैं। और, धर्म की स्थापना भी करते हैं। अब इसमें कोई शंका उठती हो, तो कहिए।

तब मुनियों ने कहा कि, “हे महाराज! आपने यथार्थ उत्तर दे दिया है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ १०१ ॥

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