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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ६

मत्सर समस्त विकारों का आधार

संवत् १८७७ में आश्विन कृष्णा (५ नवम्बर, १८२०) (उत्तर भारतीय कार्तिक कृष्ण) अमावस्या को दिवाली के दिन श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन के उत्तरी द्वार के कमरे के आगे दीपमाला जगमगा रही थी। उस दीपमाला के बीच मंच सुशोभित किया गया था। उस मंच पर छप्पर पलंग बिछा हुआ था, जिस पर स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज विराजमान थे। उन्होंने सुनहरे बूटेदार लाल कीमखाब का चूड़ीदार पाजामा पहना था, ‘नरनारायण, स्वामिनारायण’ नामांकित काले कीमखाब की बगलबंडी पहनी थी, सिर पर सुनहरे तार के घुमावदार पल्ले की कुसुम्बी पाग बाँधी थी और आसमानी रंग का फेंटा कमर में कसकर बाँधा था तथा कंठ में पीले पुष्पों के हार धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनिगण तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

इस अवसर पर दीव बंदरगाह के हरिभक्त आये थे। उन्होंने श्रीजीमहाराज की पूजा करने के लिए प्रार्थना की। तब श्रीजीमहाराज ने सिंहासन से उतरकर उस भक्त के सम्मुख जाकर उसकी पूजा अंगीकार की, तथा उस भक्त के द्वारा समर्पित वस्त्र, पीला छत्र तथा पादुकाएँ आदि को ग्रहण करके पुनः सिंहासन पर विराजमान हुए।

फिर श्रीजीमहाराज बोले, “कितने ही वर्ष बीत गए, अनेक हरिभक्त हमारे लिए वस्त्र तथा हज़ारों रुपयों के अलंकार लाते हैं, परन्तु हम इस प्रकार किसी के भी सामने जाकर ऐसी वस्तुओं को स्वीकार नहीं करते। इस प्रकार किसी के दिए गए मूल्यवान वस्त्र और आभूषण पहनकर भी इतने प्रसन्न नहीं होते। आज तो हमें इस हरिभक्त पर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।”

तब मुनियों ने कहा, “ऐसा ही यह प्रेमी हरिभक्त है।”

इसी समय दीनानाथ भट्ट सभा में आकर श्रीजीमहाराज के चरणों में प्रणाम करके बैठे। तभी श्रीजीमहाराज ने वे सभी बहुमूल्य वस्त्र दीनानाथ भट्ट को दे दिए।

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! भगवान अपने भक्तों पर कौन-से गुणों से प्रसन्न होते होंगे?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो भक्तजन काम, क्रोध, लोभ, कपट, मान, ईर्ष्या तथा मत्सर से रहित होकर भगवान की भक्ति किया करते हैं, उन पर भगवान प्रसन्न होते हैं। इनमें भी मत्सर तो सभी विकार मात्र का आधार है। अतः श्रीव्यासजी ने श्रीमद्भागवत१४२ में निर्मत्सर सन्त को ही भागवत धर्म का अधिकारी बताया है। ऐसा मत्सर तो समस्त विकारों से सूक्ष्म है, और उसे मिटाना भी अत्यन्त कठिन है।”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा, “मत्सर को मिटाने का क्या उपाय है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “जो सन्त के मार्ग पर चलता है तथा जो स्वयं सन्त होता है, उनका मत्सर मिट जाता है, किन्तु जिसे सन्त के मार्ग पर चलना ही नहीं है, उस मनुष्य का मत्सर नहीं टलता।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “मत्सर के उत्पन्न होने का कौन-सा कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “स्त्री, धन और स्वादिष्ट भोजन ये तीन मत्सर के हेतु बन जाते हैं। इन तीनों के उपरांत मान अर्थात् अहंकार भी मत्सर की उत्पत्ति का कारण बन जाता है। जिसका स्वभाव मत्सरपूर्ण होगा, उसे तो इस बात पर भी मत्सर उत्पन्न हो गया होगा कि हमने भट्टजी को ये वस्त्र दे दिए, परन्तु उस मत्सरवाले को यह विचार नहीं आता कि, ‘जो हरिभक्त वस्त्र लाए थे, उसे धन्य है कि उन्होंने ऐसे कीमती वस्त्र महाराज को अर्पण किया, तथा महाराज को भी धन्यवाद है कि उन्होंने ऐसे वस्त्र तुरन्त ब्राह्मण को दे दिए।’ मत्सरवाले के हृदय में ऐसा विचार नहीं आता। लेकिन कोई लेता है और कोई देता है, फिर भी मत्सरवाला पुरुष व्यर्थ ही बीच में जलकर खाक होता रहता है।

“और, हमें तो हृदय में लेशमात्र भी काम, क्रोध, लोभ, मान, मत्सर, ईर्ष्या आदि विकार उत्पन्न नहीं होते! तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध ये पंचविषयों का हृदय में अत्यन्त अभाव रहता है। परन्तु इन पंचविषयों में से हमें एक भी विषय में लेशमात्र भी भाव नहीं होता है। हम जो कुछ भी अन्न-वस्त्रादि ग्रहण करते हैं, उन्हें भक्त की भक्ति देखकर ही स्वीकार करते हैं; परन्तु अपने दैहिक सुख के लिए इन वस्तुओं को ग्रहण नहीं करते, और हम जो कुछ भी खाते-पीते, ओढ़ते और पहनते हैं, वह सन्त तथा सत्संगीजनों का मन रखने के लिए ही करते हैं। यदि ये पदार्थ भक्तों के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए ज्ञात हो, तब हम उन चीज़ों का तत्काल त्याग कर देते हैं। तथा हम तो यह देह भी सत्संगियों के लिए ही रखते हैं, किन्तु इसका दूसरा कोई प्रयोजन नहीं है। सो हमारे इस स्वभाव को मूलजी ब्रह्मचारी तथा सोमला खाचर आदि हरिभक्त, जो कितने ही वर्षों से हमारे पास रहते हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि, ‘महाराज को प्रभु के भक्तों के सिवा अन्य किसी भी व्यक्ति के साथ स्नेह-सम्बंध नहीं है तथा महाराज तो आकाश के सदृश निर्लेप हैं।’ इस प्रकार हमारे पास निरन्तर रहनेवाले भक्त हमारे स्वभाव को जानते हैं।

“और, परमेश्वर से मन, कर्म एवं वचन से जुड़े हुए जो भगवद्भक्त है, उनके लिए यह हमारी देह भी श्रीकृष्णार्पण कर रखी है। इसलिए, समस्त प्रकार से हमारा सम्बंध केवल भगवान के भक्तों के साथ ही रहता है। और, भगवान के भक्तों के बिना हमारे मन में चौदह लोकों की सम्पत्ति भी तृणवत् प्रतीत होती है। तथा जो भगवान के भक्त होंगे, और जिन्हें केवल भगवान के साथ ही दृढ़ प्रीति होगी, उन्हें भी रमणीय पंचविषयों में आनन्द होता ही नहीं है। और, वे देह को टिकाए रखने के लिए तो जैसे-तैसे साधारण शब्दादि विषयों के द्वारा गुज़ारा किया करें, परन्तु रमणीय विषयों से तो वे तत्काल उदासीन हो जाएँ। और, ऐसे हों, उन्हें ही भगवान का परिपूर्ण भक्त कहा जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ १०२ ॥

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१४२. श्रीमद्भागवत: १/१/२

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