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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ७

आत्यंतिक कल्याण

संवत् १८७७ में कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा (६ नवम्बर, १८२०) को रात्रि के समय श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के आगे दीपमाला जगमगा रही थी। उस दीपमाला के मध्यभाग में मंच बना हुआ था, जिस पर पलंग बिछा था। उस पलंग पर श्रीजीमहाराज विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

बोचासण गाँव के काशीदास ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! त्यागी पुरुष तो निवृत्तिमार्ग का अनुसरण करते हैं, अतः वे भगवान में निरंतर मनोवृत्ति बनाये रखते हैं; परन्तु जो गृहस्थाश्रमी हैं, वे प्रवृत्तिमार्ग पर चलते हैं, अतः उन्हें अनेक सांसारिक उलझनों ने घेर रखा है। अतएव, गृहस्थाश्रमियों के लिए कौन-सा उपाय है, जिससे भगवान के स्वरूप में उनकी भी निरंतर मनोवृत्ति बनी रहे?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “गृहस्थ को यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार पहले की चौरासी लाख योनियों में मेरे माँ-बाप और स्त्री-पुरुष थे, वैसे ही इस देह के भी हैं। कितने ही जन्मों की कितनी ही माताएँ, बहनें और पुत्रियाँ आज न जाने कहाँ कहाँ घूमती-फिरती होंगी! जिस प्रकार मुझे उनकी ममता नहीं रही, वैसे ही इस देह के सम्बंधियों से भी मुझे ममता नहीं रखनी चाहिए। ऐसा विचार रखकर सबसे आसक्ति छोड़कर वे भगवान से ही दृढ़ प्रीति करें और साधुओं का संग करें। ऐसा करने से गृहस्थ को भी त्यागी की तरह भगवान में निरंतर वृत्ति रह सकती है।”

श्रीजीमहाराज की ऐसी बात सुनकर सभा में उपस्थित समस्त गृहस्थों ने हाथ जोड़कर पूछा, “हे महाराज! जिस गृहस्थ से इस तरह का आचरण न हो सके, उसका क्या हाल होगा?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह बात तो हमने उन लोगों के लिए कही है कि परमेश्वर के सिवा अन्य पदार्थों से समस्त वासनाओं को त्याग कर भगवान में ही निरंतर वृत्ति रखें। यदि वह ऐसा श्रद्धावान् न हो, तो उसे सत्संग की धर्ममर्यादा में रहकर सन्त और भगवान के आश्रय का संबल रखना चाहिए कि, ‘भगवान तो अधमोद्धारक और पतितपावन हैं, वे मुझे साक्षात् मिले हैं।’”

श्रीजीमहाराज के ऐसे वचनों को सुनकर समस्त हरिभक्त अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर श्रीजीमहाराज ने साधुओं से प्रश्न पूछा कि, “हृदय में वैराग्य के उदय होने का क्या कारण है?”

तब जिसे जैसा समझ में आया, उसने वैसा ही उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ। बाद में समस्त मुनि यह बोले कि, “हे महाराज! इसका उत्तर आप दीजिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “हृदय में वैराग्य के उदय होने का कारण यह है कि सद्ग्रन्थों एवं सत्पुरुषों के वचनों को सुनकर जिसे चोट लग जाए और वह चोट भी ऐसी हो, जो कभी भी न मिटे, तो वही वैराग्य का हेतु बन जाती है। इसके सिवा दूसरा कोई वैराग्य का कारण नहीं है। और, जिसे चोट लगती हो, फिर वह तामसी हो, या राजसी हो, या सात्त्विकी हो - उन सभी को वैराग्य उत्पन्न होता है। लेकिन जिसे ऐसी चोट नहीं लगती हो, उसे वैराग्य नहीं हो सकता। और, जिसे चोट लगकर थोड़े दिनों के बाद ही वह मन्द हो जाती हो, तो उस चोट का वैराग्य उसके लिए महाविनाश का कारण बन जाता है। क्योंकि चोट लग जाने के कारण वेग ही वेग में जब वह घर छोड़कर निकल पड़ता है और त्यागी होने के बाद वेग मन्द होता हुआ समाप्त हो जाता है। और, वह जब घर वापस लौटता है, तब घर तो मटियामेट ही हो गया होता है। तब वह दोनों ओर से पथभ्रष्ट हो जाता है। फिर यथा ‘धोबी का कुत्ता न घर का, न घाट का।’ इस उक्ति अनुसार वह पुरुष भी उभयभ्रष्ट होता है। और, जो पुरुष दृढ़ वैराग्यवान होता है, वह परमपद को प्राप्त होता है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने अति प्रसन्न होकर परमहंसों से दूसरा प्रश्न पूछा कि, “आत्यन्तिक कल्याण किसे कहा जाए? तथा जो पुरुष आत्यन्तिक कल्याण को पाकर सिद्धदशा को प्राप्त हुआ हो, उसकी समस्त क्रियाओं में कैसी स्थिति रहती है?”

इस प्रश्न का उत्तर भी समस्त मुनियों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार दिया। परन्तु, श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ। तब समस्त मुनियों ने हाथ जोड़कर श्रीजीमहाराज से निवेदन किया कि, “हे महाराज! इसका उत्तर आप दीजिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब ब्रह्मांड का प्रलय होता है, तब प्रकृति के कार्यरूप चौबीस तत्त्व प्रकृति में लीन हो जाते हैं तथा प्रकृति-पुरुष भी अक्षरब्रह्म के तेज में अदृश्य हो जाते हैं। बाद में अकेला सच्चिदानन्द (चिद्‌घन) तेज रह जाता है। उस तेज में दिव्यमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव निरंतररूप से विराजमान रहते हैं। वे ही स्वयं दिव्यमूर्ति होते हुए जीवों के कल्याण के लिए मनुष्याकृति द्वारा पृथ्वी पर सभी लोगों को लिए दृष्टिगोचर होकर विचरण करते हैं। तब संसार के जो नासमझ-मूर्ख जीव हैं, वे उन भगवान को मायिक गुणों से युक्त कहते हैं, परन्तु भगवान मायिक गुणयुक्त नहीं हैं; वे सदैव गुणातीत दिव्यमूर्ति ही हैं। और, भगवान का उसी साकार दिव्यस्वरूप को वेदान्त शास्त्र ‘निर्गुण, अछेद्य, अभेद्य तथा सर्वव्यापक’ बताकर उसका प्रतिपादन करता है, वह जीव की बुद्धि में से भगवान के स्वरूप सम्बंधी मायिक भावों को मिटाने के लिए भगवान को निर्गुणरूप कहकर प्रतिपादन करता है, किन्तु भगवान तो उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय तीनों समय एकरूप से ही विराजमान रहते हैं, परन्तु मायिक पदार्थों की तरह विकार को प्राप्त नहीं होते। वे सदा दिव्यरूप से ही विराजमान रहते हैं। इस प्रकार से प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम में जो दृढ़ निष्ठा रहती है, उसी को आत्यन्तिक कल्याण कहते हैं। और, ऐसी निष्ठा को पाकर जो सिद्धदशा को प्राप्त हुआ हो, उसकी स्थिति इस प्रकार रहती है कि वह पिंड, ब्रह्मांड तथा प्रकृतिपुरुष का प्रलय होने के पश्चात् अक्षरधाम में अखंडरूप से विराजमान भगवान की मूर्ति को स्थावर-जंगम आदि सभी आकारों में जहाँ-जहाँ दृष्टि पहुंचे, वहाँ-वहाँ साक्षात् देखता है तथा उसे इस मूर्ति के सिवा अन्य कुछ भी अणुमात्र भी नहीं दिखायी पड़ता, यही सिद्धदशा का लक्षण है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ १०३ ॥

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