share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ८

सगुण-निर्गुण स्वरूप

संवत् १८७७ में कार्तिक शुक्ला चतुर्थी (९ नवम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किये थे। उनके समक्ष सभा में मुनिगण तथा भिन्न-भिन्न स्थानों के हरिभक्त बैठे थे।

तब मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “हे महाराज! वेदों, शास्त्रों, पुराणों और इतिहास में भगवान के सगुण तथा निर्गुण दोनों ही स्वरूपों का निरूपण किया गया है। इसमें भगवान श्रीपुरुषोत्तम के निर्गुण स्वरूप को किस प्रकार समझना चाहिए, तथा उनके सगुण स्वरूप को किस प्रकार समझना चाहिए?१४३ भगवान के निर्गुण स्वरूप समझने से कैसा लाभ होता है और भगवान के सगुण स्वरूप समझने से कैसा लाभ होता है?”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान का निर्गुण स्वरूप तो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म है, तथा पृथ्वी आदि समस्त तत्त्वों की वही आत्मा है। इसके उपरांत वह उनसे भी परे जो प्रधानपुरुष हैं, उनकी आत्मा है; और उन प्रधानपुरुष से पर जो शुद्ध पुरुष तथा प्रकृति हैं, उनकी आत्मा है; और, उनसे भी परे जो अक्षर, उसकी भी आत्मा हैं। ये सब भगवान के शरीर हैं। और जैसे जीवात्मा देह से सूक्ष्म, शुद्ध तथा अधिक प्रकाशमान है, वैसे ही भगवान इन सभी से अतिशय सूक्ष्म हैं, और अतिशय शुद्ध हैं, और अतिशय निर्लेप हैं, एवं अतिप्रकाशयुक्त हैं।

“और जैसे आकाश, पृथ्वी आदि चार भूतों में व्यापक है, फिर भी उन चारों भूतों से असंगी है और उन चार भूतों की उपाधि का आकाश को स्पर्श तक नहीं होता, क्योंकि आकाश तो अत्यन्त निर्लिप्त रहकर इन चार भूतों में रहा है, वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान सबकी आत्मारूप होकर उनमें रहे हैं, फिर भी वे नितान्त निर्विकार हैं, और असंगी हैं, और स्वयं अपने स्वभाव से युक्त हैं। और, उनके समान होने में कोई भी समर्थ नहीं होता। जैसे आकाश चार भूतों में रहा है, परन्तु ये चारों भूत आकाश के समान निर्लेप और असंगी होने में समर्थ नहीं होते, वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान यद्यपि सबकी आत्मा हैं, फिर भी अक्षर पर्यन्त कोई भी उनके समान समर्थ होने के लिए समर्थ नहीं होता। इस प्रकार की अत्यन्त सूक्ष्मता, अतिशय निर्लेपता, अतिशय शुद्धता, अतिशय असंगीभाव, अतिशय प्रकाशयुक्तता तथा अतिशय ऐश्वर्य से युक्तता ये सभी उन भगवान की मूर्ति में निर्गुणता के द्योतक हैं।

“और, जैसे गिरनार पर्वत को लोकालोक पर्वत के पास रखा जाए, तो वह अत्यन्त छोटा दिखायी पड़ेगा, किन्तु इससे गिरनार पर्वत कोई छोटा नहीं हो गया। परन्तु, वह तो लोकालोक पर्वत की अतिशय महत्ता के आगे छोटा दिखायी पड़ता है, वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान की महत्ता के आगे अष्ट आवरणयुक्त अनन्तकोटि ब्रह्मांड अणु सदृश, अतिसूक्ष्म दीख पड़ते हैं, परन्तु इससे ब्रह्मांड कुछ छोटे नहीं हो गए। वे तो भगवान की महत्ता के आगे छोटे दीख पड़ते हैं। इस प्रकार भगवान की मूर्ति की अतिशय महत्ता ही भगवान की सगुणता है।

“तब किसी को ऐसी आशंका हो सकती है कि, ‘भगवान निर्गुणरूप से अतिसूक्ष्म की अपेक्षा भी सूक्ष्म हैं, तथा सगुणरूप से वे अति स्थूल होने की अपेक्षा भी स्थूल हैं, तब इन दोनों रूपों को धारण करनेवाले भगवान का मूल स्वरूप कैसा है?’ तो इसका उत्तर इस प्रकार है कि प्रकट प्रमाण भगवान मनुष्याकार में दिखाई पड़ते हैं, यही भगवान का सदा-सर्वदा के लिए मूल स्वरूप है। और, भगवान की निर्गुणता तथा सगुणता तो उनकी मूर्ति का कोई एक अलौकिक ऐश्वर्य है। जैसे श्रीकृष्ण भगवान जब ब्राह्मण के खोए हुए पुत्र को लाने के लिए अर्जुन के साथ रथ में बैठकर चले, तब लोकालोक पर्वत को पार करने के बाद उनके समक्ष माया का जो तमस् (अन्धकार) उपस्थित हुआ, उसे उन्होंने सुदर्शन चक्र द्वारा काट दिया और उसके ऊपर विद्यमान ब्रह्मज्योति में रहनेवाले भूमापुरुष के पास जाकर ब्राह्मण के पुत्र को ले आये, तब रथ और घोड़े मायिक तथा स्थूलभाव से युक्त थे, परन्तु श्रीकृष्ण भगवान के योग से अतिसूक्ष्म और चैतन्यरूप होकर वे भगवान के निर्गुण ब्रह्मधाम को प्राप्त हुए। इस प्रकार स्थूल पदार्थ को सूक्ष्मभाव प्राप्त करा देना, वह श्रीकृष्ण भगवान की निर्गुणता है।

“वही श्रीकृष्ण भगवान ने अपनी माता यशोदाजी को अपने मुख में अष्टावरणयुक्त समग्र ब्रह्मांड को दिखाया तथा अर्जुन को अपनी मूर्ति में विश्वरूप का दर्शन कराया, किन्तु अर्जुन के सिवा दूसरे लोगों को तो भगवान की साढ़े तीन हाथ की मूर्ति ही दिखाई पड़ रही थी। जब भगवान ने वामनावतार धारण किया, तब पहले तो उन्होंने वामनरूप में दर्शन दिए और राजा बलि से तीन चरण पृथ्वी श्रीकृष्णार्पण करा लेने के पश्चात् अपना स्वरूप इतना बढ़ाया कि उनका एक चरण तो सात पातालों तक फैल गया और पूरे आकाश में उनका शरीर व्याप्त हो गया। दूसरा चरण उन्होंने इतना ऊँचा रखा, कि सात स्वर्गों को बेधकर अंडकटाह को फोड डाला। भगवान के ऐसे विराट स्वरूप को बलि राजा ने देखा। बलि राजा के सिवाय जो अन्य पुरुष थे, उन्हें भगवान का वामनस्वरूप ही दिखाई पड़ा। इस प्रकार, भगवान में अतिशय महत्ता से भी अधिक महत्ता दिखाई पड़े, वह भगवान की मूर्ति का सगुणभाव जानना।

“जैसे शीतकाल तथा उष्णकाल के समय आकाश निरभ्र रहता है, किन्तु वर्षा-ऋतु के दिनों आकाश असंख्य मेघों की घटाओं से भर जाता है। आकाश में बादल समय-समय पर पैदा होते हैं, फिर विलीन हो जाते हैं, वैसे ही भगवान अपनी इच्छा द्वारा अपने स्वरूप में से निर्गुण तथा सगुणरूप ऐश्वर्यों को प्रकट करते हैं और फिर उन्हें अपने में ही विलीन कर लेते हैं। ऐसे भगवान भले ही मनुष्यसदृश दिखाई पड़ते हों, फिर भी उनकी महिमा का पार कोई भी नहीं पा सकता। जो भक्त इस प्रकार भगवान की मूर्ति में निर्गुणभाव तथा सगुणभाव को समझ लेता है, उस भक्त को काल, कर्म तथा माया अपने बन्धन में लेने के लिए समर्थ नहीं होते तथा उसके अन्तःकरण में तो आठों प्रहर आश्चर्य रहा करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ १०४ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.


१४३. श्रीजीमहाराज यहाँ ‘सगुण’ और ‘निर्गुण’ इन दोनों शब्दों का ‘गुणसहित’ तथा ‘गुणरहित’ अर्थ से भिन्न निरूपण करते हैं, जिसे कठोपनिषद् (१/२/२०) में ‘अणोरणीयान्’ आदि श्रुतियों में कहा गया है।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase