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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी ९

भक्तों से मलिन रिस

संवत् १८७७ में कार्तिक शुक्ला पंचमी (१० नवम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में मुनिगण तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने नित्यानन्द स्वामी तथा ब्रह्मानन्द स्वामी से प्रश्न किया कि, “जिसके हृदय में ऐसी मलिन रिस रहे कि किसी के साथ गांठ पड़ जाए, तो उसके साथ गांठ बनाए रखे और भैंसे की भाँति रिस रखा करें, ऐसा जो हो, उसे साधु कहा जाए या नहीं?”

तब दोनों मुनि बोले कि, “जो ऐसा हो, उसे साधु नहीं कहा जाना चाहिए।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “हे महाराज! भगवान के जिस भक्त के हृदय में किसी भगवदीय का अवगुण दिखाई देता हो तथा उसी कारण उस भगवद्भक्त पर रिस भी रहती हो, तो उस अवगुण को मिटा देने का कौन-सा उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिसके हृदय में भगवान की भक्ति हो एवं जो भगवान की महिमा जानता हो, उसे तो भगवान के भक्त में अवगुण दिखाई ही नहीं पड़ेगा, तथा रिस के कारण भक्त के साथ कोई ग्रन्थि बनेगी ही नहीं। जैसे उद्धवजी यदि भगवान की महिमा को समझते थे, तो उन्होंने ऐसा वर माँगा कि, ‘इन गोपियों की चरणरज के अधिकारी इस वृन्दावन में लता, तृणों और गुच्छों में से मैं भी कोई हो जाऊँ।’ और, श्रीकृष्ण भगवान ने बलदेवजी से कहा है कि वृन्दावन-स्थित वृक्ष, पक्षी तथा मृग आदि अत्यन्त महा भाग्यशाली हैं। तथा ब्रह्मा ने भी श्रीकृष्ण भगवान से यह वर माँगा है कि, ‘हे प्रभो! इस जन्म में अथवा पशुपक्षी के जन्म में मैं आपके दासों के बीच रहकर आपके चरणारविन्दों की सेवा करता रहूँ, ऐसा मेरा महान भाग्य हो।’

“अतः जब कोई पुरुष भगवान के भक्त की ऐसी महिमा समझ लेता है, तब उसके भीतर भगवद्भक्त के प्रति कभी भी अवगुण की ग्रंथि नहीं बनती, तथा अपने इष्टदेव जो प्रत्यक्ष भगवान हैं, उनके भक्त में कोई अल्प दोष होगा भी तो महिमा समझनेवाले की दृष्टि उस दोष पर जाती ही नहीं। और, जो भगवान की महिमा को जानता हो, वह तो भगवान के सम्बंध को प्राप्त हुए पशु-पक्षियों तथा वृक्ष-लता आदि तक को भी जब देवतुल्य माने, तब जो मनुष्य हो और भगवान की भक्ति करता हो तथा व्रत-नियम का पालन करता हो, एवं भगवान का वह नामस्मरण करता हो उसको तो देवसदृश ही मानेगा, तथा उसमें कोई दोष नहीं देखेगा, इसके लिए कहना ही क्या? अतः जो पुरुष भगवान की महिमा को समझता है, उसका भगवान के भक्त के साथ कभी वैर नहीं होता, परन्तु जो भगवान के माहात्म्य को नहीं जानता, उसका भगवद्भक्त के साथ वैर जरूर हो जाता है। अतः जो पुरुष भगवान के तथा भगवान के भक्त के माहात्म्य को नहीं जानता हो, तो उसे सत्संगी होते हुए भी आधा विमुख समझना चाहिए, तथा भगवान एवं भगवान के भक्त की महिमा जो समझता है, उसी को पूर्ण सत्संगी मानना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥ १०५ ॥

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