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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी १०

तप से भगवान की प्रसन्नता

संवत् १८७७ में कार्तिक शुक्ला दशमी (बुधवार, १५ नवम्बर, १८२०) को रात्रि के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे में विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष दस-बारह बड़े सन्त तथा पाँच-छः हरिभक्त बैठे हुए थे। श्रीजीमहाराज को कुछ ज्वर था। वे अंगीठी रखकर ताप रहे थे।

उस। सयम श्रीजीमहाराज ने मुक्तानन्द स्वामी से कहा कि, “हमारी नाड़ी देखिए, देह में कुछ कसर मालूम होती है।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने नाड़ी देखकर कहा कि, “हे महाराज! कसर तो बहुत है।” फिर उन्होंने कहा कि, “हे महाराज! अभी सत्संगियों का कठिन काल उपस्थित हो गया है, क्योंकि आप तो समस्त सत्संगियों के जीवन-प्राण हैं। इसलिए, आपकी देह में जो कसर-जैसा कुछ प्रतीत होता है, यही सभी सत्संगियों के लिए कठिन काल है।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान को प्रसन्न करने के लिए नारदजी ने कितने ही युगों तक शीत-धूप और भूख-प्यास को सहन करके महातप किया; उसी महातप द्वारा उन्होंने भगवान को प्रसन्न किया, इस प्रकार जो विवेकी पुरुष होते हैं, वे जान-बूझकर अपनी देह और इन्द्रियों का दमन करके तप करते हैं। इसलिए, विवेकी साधुओं को जान-बूझकर अपनी देह तथा इन्द्रियों को कष्ट हो, ऐसा आचरण करना चाहिए। तब फिर ईश्वरेच्छा से जो कष्ट आएँ, उन्हें मिटाने की इच्छा क्यों करनी चाहिए? त्यागी साधुओं को अपने मन में ऐसी दृढ़ इच्छा रखनी चाहिए कि, ‘मुझे देवलोक, ब्रह्मलोक तथा वैकुंठ आदि लोकों के पंचविषय सम्बंधी भोग तथा सुख नहीं चाहिए। मुझे अपनी देह के रहते हुए या फिर देहान्त होने के बाद बदरिकाश्रम तथा श्वेतद्वीप में जाकर तपस्या द्वारा भगवान को प्रसन्न करना है। भले ही, एक जन्म, दो जन्म तथा सहस्र जन्मों तक भी तप करके ही भगवान को प्रसन्न करना है।’

“वास्तव में जीव का कल्याण इतनी ही बात में है कि: ‘प्रकटप्रमाण श्रीकृष्ण नारायण के द्वारा ही किया हुआ सब-कुछ होता है, किन्तु काल, कर्म और माया आदि का किया हुआ कुछ नहीं होता।’ इस प्रकार भगवान में सर्व कर्तापन मानना यही एक मोक्ष का परम हेतु है। तथा तप करना सो तो भगवान की प्रसन्नता के उद्देश्य से ही करना है। और, उस तप में भी राधिकाजी तथा लक्ष्मीजी जिस प्रकार भगवान में प्रेमलक्षणा भक्ति द्वारा भाव रखती हैं, वैसा ही भाव रखना चाहिए। और यदि कोई तप न कर सके, परन्तु भगवान को ही सर्वकर्ता समझे, तो भी वह जीव जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त हो जाता है, फिर भी तप किए बिना उस जीव पर भगवान की प्रसन्नता नहीं होती।

“और जो मनुष्य भगवान को ही सर्व-कर्ताहर्ता नहीं मानता, उससे बड़ा कोई दूसरा पापी नहीं है। उसे गौहत्या, ब्रह्महत्या, गुरुस्त्री-संग तथा ब्रह्मवेत्ता सद्‌गुरु का द्रोह करनेवाले पुरुष की भी अपेक्षा घोर पापी समझना चाहिए। क्योंकि वह भगवान को कर्ता न मानकर काल-कर्मादि को कर्ता समझता है। अतः ऐसे नास्तिक-चांडाल की छाया तक में नहीं खड़ा रहना चाहिए और भूल से भी उसके मुख का वचन नहीं सुनना चाहिए। और, जो भगवान के भक्त हों, वे परमेश्वर के प्रताप से ब्रह्मा, शिव, शुकजी, नारद तथा प्रकृतिपुरुष१४४ जैसे बन जाए, और ब्रह्म१४५ एवं अक्षर के सदृश भी हो सकते हैं, परन्तु श्रीपुरुषोत्तम नारायण के समान होने में तो कोई भी समर्थ नहीं होता। अतएव, जिसके संग से तथा जिन शास्त्रों के श्रवण से भगवान की उपासना का खंडन होता हो तथा स्वामी-सेवकभाव मिट जाता हो, वैसे संग तथा शास्त्रों का श्वपच (चांडाल) की भाँति तुरन्त त्याग कर देना।”

तत्पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! जो भक्त सुन्दर वस्त्रों, अलंकारों तथा नाना प्रकार के भोजन और अन्य वस्तुओं द्वारा भगवान की सेवा करता है, वह भी भगवान को प्रसन्न करना चाहता है, परन्तु आप तो ऐसा कहते हैं कि भगवान तप द्वारा ही प्रसन्न होते हैं। यदि वह बिना तप किए ही ऐसी सेवा द्वारा भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करता है, तो उसमें क्या बाध है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो भक्त अच्छे-अच्छे पदार्थों द्वारा भगवान की भक्ति करता है, वह यदि निष्कामभाव से केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए ही ऐसा करता हो तब तो ठीक है, परन्तु यदि वह स्वयं भगवान की प्रसादी समझते हुए उन पदार्थों में लुब्ध हो जाए और भगवान को छोड़कर उन पदार्थों से प्रीति करने लगे, तो उन पदार्थों को भोगते हुए विषयासक्त होने के कारण वह भ्रष्ट हो जाता है, यही बाधा आती है। अतएव, त्यागी भक्त को तो भगवान को ही सर्वकर्ता समझकर तप द्वारा ही परमेश्वर को प्रसन्न करना तथा राधिकाजी और लक्ष्मीजी की तरह प्रेमलक्षणा भक्ति द्वारा भगवान का भजन करना चाहिए, यही हमारा सिद्धान्त है।”

फिर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! आप हमें वह उपाय बताइए, जिससे इस लोक तथा परलोक में हमारा कल्याण हो जाए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “यह जो हमारा सिद्धान्त है, वही इस लोक तथा परलोक में परमसुख का हेतु है।”

फिर गोपालानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! त्याग तथा तप करने की मन में चाहत (अभिलाषा) तो होती है, किन्तु त्याग या तप करते समय बीच में ही कोई विघ्न आ पड़े, तो उसके लिए क्या करना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे, जिस बात की सच्ची चाहत रहती है, उसके सामने यदि बीच में ही हजारों विघ्न उपस्थित हों, तो भी वह इन विघ्नों के रोकने से नहीं रुकता, वही उसकी सच्ची चाहत है, ऐसा समझें। देखिये न, हम पिछले इक्कीस वर्षों से श्रीरामानन्द स्वामी के सान्निध्य में आये हैं। यहाँ नाना प्रकार के वस्त्र, अलंकार और खान-पान इत्यादि द्वारा सेवा करनेवाले असंख्य भक्त मिले हैं, परन्तु हमारा मन किसी भी पदार्थ में आकृष्ट नहीं हुआ, ऐसा इसलिए कि हमें त्याग करने की चाहत बनी हुई है।

“और, इस संसार में कितनी ही विधवा स्त्रियाँ हैं, जो अपने पतियों की मृत्यु पर फूट-फूट कर रुदन ही करती रहती हैं तथा कितनी ऐसी स्त्रियाँ भी हैं, जो अपने पति का भी त्याग करके भगवान का भजन करती रहती हैं। और, कितने मूर्ख लोग हैं, जो अपनी स्त्रियों के मर जाने पर रोते रहते हैं और दूसरी स्त्रियों को पाने के लिए दौड़-धूप किया करते हैं। किन्तु कितने ही ऐसे वैराग्यवान पुरुष हैं, जो अपनी पत्नी का भी परित्याग करके परमेश्वर का भजन करते रहते हैं। इस प्रकार, सबकी चाहत भिन्न-भिन्न प्रकार की है। और, हमारी तो यही चाहत है और यही सिद्धान्त है कि, ‘तप द्वारा भगवान को प्रसन्न करना, तथा भगवान को ही सबके कर्ता-हर्ता जानकर स्वामी-सेवक भाव से उन परमेश्वर की भक्ति करना तथा भगवान की उपासना को किसी भी प्रकार से खंडित नहीं होने देना।’ अतः आप सब भी हमारे इन वचनों को परम सिद्धांत के रूप में मानिएगा।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥ १०६ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१४४. यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द से प्रधान-प्रकृति समझकर ‘प्रधानपुरुष’ का संदर्भ है।

१४५. यहाँ ‘ब्रह्म’ शब्द से अक्षरब्रह्मात्मक मुक्त अथवा ‘प्रकृतिपुरुष’ का संदर्भ समझना। वचनामृत गढ़डा मध्य ३१ में उन्हीं को ‘ब्रह्म’ कहा गया है।

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