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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

कारियाणी १२

इमली के चीयें का दृष्टांत; कारण शरीर का नाश

संवत् १८७७ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा (२० नवम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीकारियाणी ग्राम-स्थित वस्ताखाचर के राजभवन में पूर्वी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद वस्त्र धारण किये थे, श्वेत छींट की बगलबंडी पहनी थी और सफ़ेद फेंटा बाँधा था और मुँह लपेटकर आकंठ दुपट्टा बाँधा था। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “प्रश्नोत्तर प्रारम्भ कीजिए।”

तब मुनियों ने परस्पर पर्याप्त समय तक प्रश्नोत्तरी की। इस अवसर पर बातों ही बातों में स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन तीन शरीर तथा विराट, सूत्रात्मा एवं अव्याकृत इन तीन शरीरों पर विचार प्रकट हुए।

यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “कारण शरीर तो जीव की माया है। वही कारण शरीर स्थूल एवं सूक्ष्मरूप होता है। अतएव, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण ये तीन शरीर जीव की माया है। उसी तरह विराट, सूत्रात्मा और अव्याकृत ये तीन शरीर ईश्वर की माया है। जीव की कारणशरीररूप जो माया वह वज्रसदृश है, जो किसी भी प्रकार से जीव से अलग नहीं होती। अतः जब उस जीव को सन्त का समागम मिले, और उन संत के वचनों से वह परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करे, और उन परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान करे, तथा उन परमेश्वर के वचनों को हृदय में आत्मसात् करे, तब उसका कारण शरीर जलकर खोखला-सा हो जाता है। जैसे चिएँ को आग में सेंका जाए, तब उसके साथ चिपकी हुई उसकी मजबूत त्वचा जल जाने से खोखली-सी हो जाती है, और चिएँ हाथ में मसलने पर उससे अलग हो जाते हैं, वैसे ही भगवान के ध्यान तथा वचनों द्वारा कारण शरीर दग्ध होकर चिएँ के छिलके की तरह अलग हो जाता है। उसके बिना अन्य कोटि उपाय करने पर भी कारण शरीररूपी अज्ञान का नाश नहीं होता।” श्रीजीमहाराज ने इस प्रकार वार्ता कही।

फिर श्रीजीमहाराज ने मुनियों से प्रश्न किया, “मुमुक्षु के हृदय में जाग्रत अवस्था में सत्त्व गुण रहता है और समस्त पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होता है, फिर भी जाग्रत अवस्था में श्रवण की गयी बातों का जब सूक्ष्म देह में मनन किया जाए तभी पक्की हो जाती है। तथा सूक्ष्म देह में तो रजोगुण रहता है, उसमें अयथार्थ ज्ञान रहा है, फिर भी जाग्रत अवस्था में सुनी गयी बात का सूक्ष्म देह में मनन करने पर यथार्थ ज्ञान होता है, इसका क्या कारण है?”

सब मुनियों ने मिलजुलकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ। तब समस्त मुनि हाथ जोड़कर बोले, “हे महाराज! इस प्रश्न का उत्तर आप दीजिए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हृदय में क्षेत्रज्ञ जीव का निवास है। वह क्षेत्रज्ञ जीव चौदह इन्द्रियों का प्रेरक है। उनमें अन्तःकरण क्षेत्रज्ञ के समीप रहता है। इसलिए, अन्तःकरण में मनन करने पर यह दृढ़ हो जाता है। क्योंकि क्षेत्रज्ञ समस्त इन्द्रियों और अन्तःकरण की अपेक्षा अधिक समर्थ रहता है। इसलिए क्षेत्रज्ञ द्वारा प्रमाणित की हुई बात अत्यन्त दृढ़ हो जाती है।”

इस प्रकार, इस प्रश्न का उत्तर दिया। तब समस्त मुनियों ने कहा, “हे महाराज! आपने यथार्थ उत्तर दिया है। ऐसा उत्तर कोई भी नहीं दे सकता है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “चाहे कैसा ही कामी, क्रोधी, लोभी और लम्पट जीव हो, वह यदि इस प्रकार की बातों में विश्वास रखकर इसे प्रीतिपूर्वक सुनता है, तो उसके सभी विकार मिट जाते हैं। जैसे किसी पुरुष के दाँत पहले तो इतने मजबूत होते हैं कि वह कच्चे चने चबा जाता है। परन्तु वह यदि कच्चा आम अच्छी तरह खा ले, तो भात भी चबाकर नहीं खा सकेगा; वैसे भी कामादि में आसक्त कैसा ही पुरुष क्यों न हो, वह यदि आस्तिक होकर इस वार्ता को श्रद्धापूर्वक सुनता है, तो ऐसा पुरुष विषयों के सुख को भोगने में समर्थ नहीं होता। यदि वह तप्तकृच्छ्र चान्द्रायणादि व्रत द्वारा अपनी देह को कृश बना दे, तो भी उसका मन वैसा निर्विषयी नहीं हो पाता, जैसा कि ऐसी भगवद्वार्ता सुननेवाले मनुष्य का मन निर्विषयी हो जाया करता है। ऐसी बात सुनने के बाद आप सबका मन जिस प्रकार निर्विकल्प हो जाता होगा, वैसा तो ध्यान करते हुए अथवा माला फेरते हुए भी निर्विकल्प नहीं होता होगा। इसीलिए, विश्वासपूर्वक, प्रीति सहित जो भगवान पुरुषोत्तम नारायण की वार्ता को सुनना, इससे बढ़कर मन को स्थिर रखने का तथा निर्विषयी बनाने का अन्य कोई बड़ा साधन नहीं है!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥ १०८ ॥

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