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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया १

क्रोध अत्यंत दुःखदायी और संपूर्ण सत्संग

संवत् १८७७ में कार्तिक कृष्णा दशमी (३० नवम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में परमहंसों के निवासस्थान में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने रुईभरा सफ़ेद चूड़ीदार पायजामा पहना था, सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और श्वेत फेंटा बाँधा था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

तब श्रीजीमहाराज मुनियों से बोले कि, “शंकर शब्द का क्या अर्थ है?”

मुनियों ने कहा कि, “सुख देनेवाले को शंकर कहते हैं।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “आज जब चार घड़ी रात्रि शेष रह गई, तब शिवजी ने हमें स्वप्न में दर्शन दिए। वे बड़े नन्दीश्वर पर बैठे थे। उनका शरीर हृष्टपुष्ट था और चालीस वर्ष की उनकी आयु थी। उनके सिर पर बड़ी जटा थी। शिवजी के साथ पार्वती थीं। उन्होंने श्वेत वस्त्र पहने थे। शिवजी बड़े सन्त के सदृश शान्तमूर्ति थे। मुझ पर तो शिवजी का बहुत स्नेह दिखाई पड़ा, फिर भी मुझे शिवजी के प्रति इतना स्नेह नहीं हुआ। क्योंकि मैं ऐसा समझता हूँ कि शिव तमोगुण के देवता हैं और हम शान्तमूर्ति श्रीकृष्ण नारायण के उपासक हैं। अतएव, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्रादि जैसे रजोगुणी-तमोगुणी देवताओं के प्रति उतना भाव नहीं रहता। और उनमें भी क्रोध के प्रति तो मुझे अत्यधिक वैर है। क्रोधी मनुष्य अथवा देवता मुझे बिल्कुल पसन्द ही नहीं! फिर भी, हम शिवजी का आदर करते हैं उसका कारण यह है कि शिवजी त्यागी एवं योगी हैं तथा भगवान के महान भक्त हैं। इसलिए हम शिवजी को आदरपूर्वक मानते हैं।

“और, क्रोध कैसा है? यह हड़काए कुत्ते के समान है। जैसे हड़काए कुत्ते की लार अगर पशु अथवा मनुष्य किसी को लग जाती है, तो वह पागल कुत्ते की तरह चीखते-चिल्लाते मर जाता है। वैसे ही क्रोध की लार जिसको छूती है, वह भी पागल कुत्ते की तरह चीख-चीखकर संत के मार्ग से गिर जाता है। जैसे कसाई, अरब, शिकारी, बाघ, चीता और काला सर्प सभी को डराते हैं और उनके प्राण हर लेते हैं, वैसे ही क्रोध भी सभी को भयभीत करता है और उनके प्राण हर लेता है। यदि साधु ऐसे क्रोध के वशीभूत होता है, तो अत्यन्त ही अनुचित दिखाई पड़ता है। क्योंकि साधु शान्त स्वभाववाला होता है, परन्तु जब वह क्रोधावेश में होता है, तब वह क्रूर प्रतीत होता है। उस साधु की आकृति भी बदल जाती है। वास्तव में क्रोध का नाम विरूप है। जिसके शरीर में क्रोध आता है, उसे वह विरूप कर देता है।”

फिर शुकमुनि ने पूछा, “हे महाराज! यदि कोई तनिक-सा भी क्रोध कर लेता हो और बाद में उसे मिटा दे, तो ऐसा अल्प क्रोध कुछ बाधा उपस्थित करता है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जैसे यह सभा हो रही है, इसमें यदि अभी कोई साँप निकल आये, और भले ही वह किसी को नहीं काटे, तो भी सभी लोगों को उठकर भागना पड़ता है और सबके हृदय भय से आंतकित हो जाते हैं; तथा जैसे कोई बाघ गाँव के फाटक पर आकर गर्जना कर रहा हो, भले ही वह किसी को न मारे, फिर भी सबके अंतःकरण भय से कांपने लगते हैं, और कोई अपने घरों से बाहर नहीं निकल सकता। वैसे ही अगर थोड़ा-सा भी क्रोध उत्पन्न हो जाए, तो वह उत्यन्त दुःखदायी होता है।”

फिर छोटे निर्मानानन्द स्वामी ने पूछा, “काम-दोष का मूलोच्छेद करने का कौन-सा साधन है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “एक तो आत्मनिष्ठा अति दृढ़ हो; और आठ प्रकार के ब्रह्मचर्य व्रत को रखना इत्यादि पंचव्रतों का दृढ़ता के साथ पालन करें, तथा भगवान की अधिकाधिक महिमा समझे, तो काम की जड़ उखड़ जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि काम का मूलोच्छेद हो जाने पर भी ब्रह्मचर्यादि नियमों का पालन करने से विचलित मत होना। और, काम की जड़ को उखाड़ने का अमोघ उपाय यही है कि भगवान की महिमा को अच्छी तरह समझ लिया जाए।”

फिर भजनानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम इन तीन प्रकार के वैराग्य का कैसा स्वरूप है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “कनिष्ठ वैराग्यवाला पुरुष धर्मशास्त्र में बताए गए स्त्री-त्याग सम्बंधी नियमों का पालन जब तक करता रहता है, तब तक उसका पतन नहीं होता, किन्तु यदि उसने किसी स्त्री का अंग देख लिया और उसमें उसका चित्त लग गया, तो उसका ठिकाना नहीं रहता! ऐसे पुरुष को कनिष्ठ वैराग्यवान कहते हैं। और, जो मध्यम वैराग्यवाला है, वह कदाचित् स्त्री को निर्वस्त्र भी देख लेता है, किन्तु नग्न पशु को देखने पर जैसे क्षोभ उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार उसे क्षोभ उत्पन्न नहीं होता, तथा उसका मन स्त्री के उस अंग में नहीं लगता, उसे मध्यम वैराग्यवान कहा जाता है। और, जो उत्तम वैराग्यवाला है, उसे कभी एकान्त में स्त्री आदि पदार्थों का योग हो जाए, फिर भी वह न डिगे, उसे उत्तम वैराग्यवान कहते हैं।”

फिर भजनानन्द स्वामी ने पूछा, “कनिष्ठ, मध्यम तथा उत्तम इन तीन प्रकार के भगवान सम्बंधी ज्ञान का कैसा स्वरूप है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “जो कनिष्ठ ज्ञानवाला है, वह तो पहले भगवान का प्रताप देखकर भगवान का निश्चय कर लेता है, परन्तु बाद में उसे वैसा ही प्रताप देखने में न आए, और कोई दुष्ट जीव भगवान का द्रोह करता हो, उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं होता, तब उसको भगवान के स्वरूप में भ्रान्ति हो जाती है, उसे कनिष्ठ ज्ञानवाला कहते हैं। और, मध्यम ज्ञानवाला हो, वह तो भगवान के शुभ या अशुभ ऐसे मनुष्य-चरित्रों को देखे, तब उसमें मोहित हो जाए और उसका निश्चय भी न रहे, उसे मध्यम ज्ञानवाला कहते हैं। तथा जो उत्तम ज्ञानवाला है, उसे ऐसी स्थिति रहती है कि भगवान को चाहे जैसे शुभाशुभ मनुष्य चरित्र करते हुए देखकर भी उनसे मोहित नहीं होता और उसका निश्चय भी अटल रहता है; और जिसके द्वारा स्वयं को निश्चय हुआ हो, वही यदि यह कहता हो कि, ‘ये भगवान नहीं हैं।’ तब वह उसको भी ऐसा ही समझ लेता है कि, ‘यह विभ्रान्त हो गया है।’ ऐसा जो हो, उसे उत्तम ज्ञानवाला कहते हैं। और इन तीनों में जो कनिष्ठ ज्ञानवाला है, वह अनेक जन्मों के बाद सिद्ध होता है, और मध्यम ज्ञानवाला दो-तीन जन्मों के बाद सिद्ध होता है, और उत्तम ज्ञानवाला इसी जन्म में सिद्ध हो जाता है।”

फिर बड़े शिवानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा, “भगवान सम्बंधी निश्चय सम्पूर्ण होने पर भी अंतर में कृतार्थ भावना नहीं रहती, इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, स्नेह तथा मान आदि शत्रुओं द्वारा जिसका अन्तःकरण दग्ध हो गया हो, उसे निश्चय होने पर भी, ‘मैं कृतार्थ हुआ हूँ’ इस प्रकार स्वयं को कृतार्थ नहीं मानता।”

तब नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “इन कामादि शत्रुओं को नष्ट करने का क्या उपाय है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “कामादि शत्रु तभी नष्ट हो सकते हैं, जब उनको निर्दयतापूर्वक दंड देने के लिए मुमुक्षु तत्पर रहे। जैसे पापी को मारने के लिये धर्मराजा रात-दिन दंड लेकर तैयार रहते हैं, वैसे ही इन्द्रियाँ कुमार्गगामी हों तब इन्द्रियों को दण्ड दें तथा अन्तःकरण यदि कुमार्ग पर चले, तो उसे दंडित करें। उनमें इन्द्रियों को कृच्छ्रचान्द्रायण व्रत द्वारा दण्ड दे, तथा अन्तःकरण को विचार (आत्मा-अनात्मा का विवेक) द्वारा दंड दे, तब जाकर इन कामादि शत्रुओं का नाश हो जाता है तथा वह मुमुक्षु भी तब स्वयं को भगवान सम्बंधी निश्चय द्वारा सम्पूर्ण रूप से कृतार्थ मानने लगता है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “यह कैसे समझा जाए कि सम्पूर्ण सत्संग हो गया?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “सर्वप्रथम तो मुमुक्षु के हृदय में अतिशय दृढ़ आत्मनिष्ठा हो; तथा वह अपनी आत्मा को देह, इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से बिल्कुल असंगी मानता हो; तथा देह, इन्द्रियादि की क्रियाओं से स्वयं को अलिप्त मानते हुए भी वह पंचव्रतों में लेशमात्र भी शिथिलता नहीं आने देता हो; और, ब्रह्मरूप रहते हुए भी वह परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान का दासत्व नहीं छोड़ता हो, स्वामी-सेवक भाव से भगवान की दृढ़ उपासना करता हो; एवं प्रत्यक्षमूर्ति भगवान को आकाशवत् अत्यन्त असंगी समझता हो, जैसे कि आकाश चार भूतों में अनुस्यूत भाव से व्यापक होकर रहता है और आकाश में ही चार भूतों की क्रियाएँ होती हैं, फिर भी पृथ्वी आदि चार भूतों के विकार आकाश को नहीं छू पाते, वैसे ही प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण नारायण (स्वयं श्रीहरि) शुभ-अशुभ क्रिया के कर्ता होने पर भी आकाश की तरह निर्लेप हैं, ऐसा समझता हो; और, उन भगवान के असंख्य ऐश्वर्यों को भी यों समझता हो कि, ‘ये भगवान जीवों के कल्याण के लिए मनुष्यसदृश दिखाई पड़ते हैं, तो भी वे अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के कर्ता-हर्ता हैं। तथा गोलोक, वैकुंठ, श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मपुर आदि धामों के स्वामी हैं और अनन्तकोटि अक्षरमुक्तों के भी स्वामी हैं।’ ऐसी भगवान की महिमा जानकर उन भगवान के प्रति श्रवणादि भक्ति को दृढ़ता करके रखता हो तथा उन भगवान के भक्तों की सेवा-शुश्रूषा करता हो, ऐसा जिसका आचरण रहे, तब कहा जा सकता है कि उसे सम्पूर्ण सत्संग हो गया।”

फिर छोटे शिवानंद स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “कभी भगवान के भक्त की महिमा खूब समझ में आती है और कभी इस प्रकार की महिमा नहीं जान पड़ती, इसका क्या कारण है?”

इसका उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “सन्त तो धर्मवान हैं। अतः वे जब कभी किसी को अधर्म के मार्ग पर चलता देखते हैं, तब उसे टोकते हैं। ऐसे समय पर देहाभिमानी को सद्विचारपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना नहीं आता बल्कि वह, उस सन्त के अवगुण देखने लगता है! अतः जब तक सन्त उसके स्वभाव के सम्बंध में दुःख लगाकर न कहें, तब तक तो उसे सन्त की महिमा रहती है, किन्तु वे सन्त हितकारी बातें भी उसको दुःख लगाकर करे, तब वह उस सन्त का भी अवगुण लेने लगता है, और उनका माहात्म्य नहीं जानता है। और, जिसने सन्त का अवगुण देखा, वह तो किसी प्रकार के प्रायश्चित्त द्वारा भी शुद्ध नहीं हो पाता। जैसे कामादि दोषों के पाप का निवारण है, वैसे सन्त के प्रति किये द्रोह के पाप का निवारण नहीं है। और जैसे किसी को क्षयरोग हुआ, तो उसे मिटाने की कोई औषधि नहीं है, वह तो निश्चित ही मरेगा; वैसे ही जिसने सन्त का अवगुण देखा हो, उसे तो क्षयरोग हो गया जान लें! वह तो पाँच दिनों के भीतर निश्चय ही विमुख हो जाएगा। और, जिस प्रकार मनुष्य के हाथ, पैर, नाक, आँख और उँगलियाँ आदि अंगों के कट जाने पर वह मरा नहीं कहा जाता, किन्तु धड़ से सर कट गया, तभी वह मरा कहलाता है; वैसे ही जिसके हृदय में हरिभक्त के प्रति दोष की भावना उत्पन्न हो गई, उसका तो सर ही कट गया समझो! यदि पंचव्रतों में किसी प्रकार का अन्तर पड़ जाए तो समझो कि उसका कोई एक अंग ही कट गया है, ऐसी स्थिति में वह जीवित जरूर रहेगा, अर्थात् वह सत्संग में अवश्य टिक जाता है; किन्तु जिसने सन्त में अवगुण देखा, वह तो निश्चित रूप से सत्संग से कभी न कभी विमुख हो ही जाता है, वही उसका शिरच्छेद हुआ समझें।”

फिर भगवदानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “भगवद्भक्त का जिसे अवगुण दिखता हो, ऐसी मलिन दृष्टि मिटाने का कोई उपाय है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उपाय तो है, किन्तु वह अत्यन्त कठिन है, अत्यंत श्रद्धावान पुरुष ही यह उपाय कर सकता है। जब कभी सन्त के प्रति अवगुण देख लिया, तब वह ऐसा विचार करे कि, ‘मैंने घोर पाप किया है, कि ब्रह्मस्वरूप ऐसा जो भगवद्भक्त है, उसका मैंने अवगुण देखा!’ फिर ऐसे विचारों से अपने हृदय में अत्यधिक अन्तर्दाह होने लगे, फिर जब वह भोजन लेने बैठे, तब उस अन्तर्दाह के कारण उसे भोजन के स्वाद-कुस्वाद की कोई खबर न रहे, तथा रात में नींद भी न आए। और, जब तक उसके हृदय से सन्त के प्रति अवगुण भावना न मिटे तब तक वह उसी प्रकार छटपटाता रहे, जिस तरह पानी के बिना मछली तड़फड़ाती है। और, जब उन संत का अतिशय गुण अपने हृदय में भर जाए, और वह सन्त कैसे भी दुःखी हो गए हों, उसे अत्यन्त दीनभाव से प्रसन्न करें। इस प्रकार का विचार जिसके हृदय में रहता हो, तो उसे सन्त सम्बंधी अवगुण-दृष्टि मिट जाती है तथा वह सत्संग से भी विमुख नहीं होता। इसके सिवा दोष-दृष्टि मिटाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है, एकमात्र यही उपाय है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ १०९ ॥

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