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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ११

वासना तथा एकान्तिक भक्त

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी (३० नवम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त उपस्थित थे।

उस समय ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! वासना का स्वरूप कैसा है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “पूर्वजन्म में जिन विषयों को भोगा हो, देखा हो और उनके सम्बंध में सुना हो, उनकी इच्छा यदि अन्तःकरण में बनी रहे, उसको वासना कहा जाता है। जिन विषयों को नहीं भोगा गया हो, उनकी अन्तःकरण में रहनेवाली इच्छा को भी वासना कहते हैं।”

इसके पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! भगवान का एकान्तिक भक्त किसे कहा जाता है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे भगवान के सिवा दूसरी कोई भी वासना न हो और जो स्वयं को ब्रह्मरूप समझकर भगवान की भक्ति करता हो, उसे एकान्तिक भक्त कहा जाता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥

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