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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
लोया २
विश्वासी, ज्ञानी, शूरवीर और प्रीतिमान
संवत् १८७७ में कार्तिक कृष्णा एकादशी (१ दिसम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में दक्षिण की ओर मुखारविन्द करके पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने लाल कीमखाब का चूड़ीदार पायजामा पहना था, ‘नरनारायण’ नामांकित काले कीमखाब की बगलबंडी पहनी थी, सिर पर बुरहानपुरी आसमानी रंग का फेंटा, जो सुनहरे तार के फिरते पल्ले का था, बाँधा था तथा कुसुंबी रंग का वस्त्र कमर पर कसकर रखा था। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। मुक्तानन्द स्वामी आदि परमहंस मृदंग, सरोद, सितार और मंजीरा आदि वाद्य बजाते हुए कीर्तन कर रहे थे।
जब कीर्तन समाप्त हो गया तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “समस्त परमहंसो! सुनिए, मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ।”
तब मुनि बोले, “हे महाराज! पूछिए।”
तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “इस सत्संग में हरिभक्त को मृत्यु का भय कब मिट जाए और जीवित रहते हुए ही अपना कल्याण हो गया है, ऐसी प्रतीति कैसे आ जाए?”
तब मुक्तानन्द स्वामी ने अपनी समझ के अनुसार उत्तर दिया, परन्तु श्रीजीमहाराज के प्रश्न का समाधान नहीं हुआ। तब अन्य परमहंस बोले, “हे महाराज! इस प्रश्न का उत्तर तो आप ही दीजिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “आप लोग जब कीर्तन कर रहे थे, तब हमने इस प्रश्न पर विचार किया है। हमारी दृष्टि में तो यह आया है कि चार प्रकार के हरिभक्तों को मृत्यु-भय का नाश हो जाता है तथा कृतार्थभाव प्रकट होता है। उन चार प्रकार के हरिभक्तों में प्रथम विश्वासी, दूसरा ज्ञानी, तीसरा शूरवीर और चौथा प्रीतिवाला है; इन चार प्रकार के भक्तों को मृत्यु का भय नहीं रहता तथा अपने जीवनकाल में ही उन्हें ऐसा भाव उत्पन्न हो जाता है कि, ‘मैं कृतार्थ हुआ हूँ!’
“अब इन चारों प्रकार के भक्तों के लक्षण बताते हैं कि इनमें जो विश्वासी भक्त है, वह प्रत्यक्ष भगवान तथा उनके साधु के वचनों में अत्यन्त विश्वास रखता है। इसलिए वह भगवान सम्बंधी निश्चय के बल के कारण मृत्यु का भय नहीं रखता तथा वह यह मानता है कि, ‘मुझे प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम भगवान प्राप्त हुए हैं, इसलिए मैं कृतार्थ हूँ।’ और, ज्ञानी को आत्मज्ञान का बल रहता है। वह ऐसा समझता है कि, ‘मैं भगवान का ब्रह्मस्वरूप भक्त हूँ।’ अतः उसे भी मृत्यु का भय नहीं रहता। और, शूरवीर भक्त से इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण, सभी थरथर काँपते रहते हैं और वह किसी अन्य व्यक्ति से भी नहीं डरता। इस कारण उसके द्वारा परमेश्वर की आज्ञा का किसी भी प्रकार से उल्लंघन नहीं होता। अतः वह स्वयं को कृतार्थ मानता है और उसके मन में मृत्यु का लेशमात्र भी भय नहीं रहता।
“और, चौथा जो प्रीतिवाला भक्त है, उसकी तो पतिव्रता-सी टेक है। जैसे पतिव्रता स्त्री का अपने पति के सिवा अन्य किसी भी पुरुष पर मन नहीं जमता और वह केवल अपने पति से ही प्रीति रखती है, वैसे ही भगवान का भक्त अपने पति जो भगवान हैं, उन्हीं पर प्रीति रखता है और स्वयं को कृतार्थ समझता है। उसे मृत्यु का भय लेशमात्र भी नहीं रहता।
“यदि इन चार गुणों में से कोई एक गुण प्रधान हो और अन्य तीन गुण गौण हों, तो भी वह मनुष्य जन्म-मरण के भय से मुक्त हो जाता है। यदि इन चारों गुणों में से कोई एक गुण न हो, तो उसे मृत्यु का भय नहीं मिटता।”
इतनी वार्ता के बाद श्रीजीमहाराज समस्त परमहंसों तथा हरिभक्तों के प्रति बोले, “इन चार गुणों में से जो गुण जिसमें प्रमुखरूप से रहता हो, वह बताइए।”
परमहंसों में से जिसका जो-जो गुण था, वह उन्होंने बता दिया तथा हरिभक्तों ने भी बताया। उसे सुनकर श्रीजीमहाराज बहुत प्रसन्न हुए।
बाद में उन्होंने कहा, “इन चार गुणों में से जिन-जिनका शूरवीरता का गुण हो, वे सब आकर हमारा चरणस्पर्श करें।” तत्पश्चात् जिस-जिसका शूरवीरता का गुण था, उन सबने आकर श्रीजीमहाराज के चरणारविन्दों को छाती से लगाकर प्रणाम किया।
फिर श्रीजीमहाराज बोले, “जिन्हें जो प्रश्न पूछना हो, वे पूछे।”
तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा, “जो कारण हो, वह तो कार्य से बड़ा होना चाहिए। परन्तु बड़ का बीज तो कारण है और छोटा है, तब उस छोटे से बीज से विशाल वटवृक्ष कैसे बनता है?”
इसका उत्तर श्रीजीमहाराज ने इस प्रकार दिया कि, “यद्यपि ‘कारण’ छोटा और सूक्ष्म होता है, तथापि वह महान कार्य की उत्पत्ति करने में समर्थ होता है, यही ‘कारण’ में महत्ता है। जैसे मूल प्रकृति के कार्यरूपी अनन्त प्रधानों का बड़ा विस्तार है, परन्तु उनके कारणरूपी मूल प्रकृति तो स्त्री के आकारवाली है,१४६ तथा पृथ्वी का कारण गन्ध भी सूक्ष्म है, परन्तु उसका पृथ्वीरूप कार्य विशाल है। वैसे ही आकाश आदि अन्य चार भूतों का बड़ा विस्तार है, परन्तु उनके कारण शब्दादि तो सूक्ष्म हैं। और, ‘कारण’ छोटा होने पर भी बड़े कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है, उसमें ऐसी कला है। जैसे अग्निदेव मनुष्य के समान कदवाला और मूर्तिमान है, परन्तु उनकी कार्यरूप ज्वालाएँ बहुत बड़ी हैं। उसी प्रकार वरुण की मूर्ति मानवसदृश है और उनका कार्यरूप जल अत्यधिक है। सूर्य की मूर्ति मनुष्याकार की भाँति रथ में विराजमान है और उनका कार्यरूप प्रकाश समग्र ब्रह्मांड में व्याप्त हो रहा है। वैसे ही सबके कारण श्रीपुरुषोत्तम नारायण श्रीकृष्ण यद्यपि मनुष्यसदृश हैं, फिर भी अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के कारण हैं।
“और, मूर्ख तो ऐसा समझता है, ‘जिसका कार्य इतना बड़ा है, उसका कारण कितना बड़ा होगा!’ यह तो मूर्ख की समझ है। यद्यपि सबके कारणरूप भगवान मनुष्य सदृश हैं, तथापि वे अपने अंग में से योगकला द्वारा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों को उत्पन्न करने में समर्थ हैं तथा उन्हें अपने में विलीन करने में भी समर्थ हैं। जैसे अग्नि, वरुण तथा सूर्य अपने कार्यरूप में बड़े दीख पड़ते हैं, और कार्य को अपने में विलीन करके स्वयं अकेले ही रहते हैं, वैसे ही भगवान के एक-एक रोम में अनन्तकोटि ब्रह्मांड अणुवत् रहते हैं। सो अष्ट आवरण तथा चौदह लोक सहित सब कुछ उसमें रहा है। इस प्रकार कारण में अलौकिकता तथा महत्ता है। उसे केवल विवेकशील पुरुष ही समझता है कि, ‘भगवान यद्यपि मनुष्यसदृश दिखाई पड़ते हैं तथापि वे सबके कारण, कर्ता तथा सामर्थ्यवान हैं।’”
इतना कहकर श्रीजीमहाराज शयन करने के लिए पधारे।
॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ ११० ॥
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१४६. माया-प्रकृति जड तत्त्व है, जिसे वचनामृत गढ़डा प्रथम १२ में निर्विशेष कही गई है। अतः प्रलयावस्था में वह स्त्री-आकारवाली नहीं हो सकती। परंतु नारी जाति वाचक शब्द होने से, तथा प्रजातुल्य प्रधानपुरुष के कारणरूप होने से उसे ‘स्त्री-आकारवाली’ कहा गया है।