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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
लोया ३
माहात्म्यज्ञान सहित निश्चय
संवत् १८७७ में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी (३ दिसम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में रात्रि के समय पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी, रुईभरा श्वेत चुड़ीदार पाजामा धारण किया था, मस्तक पर सफ़ेद फेंटा बाँधा था और श्वेत पिछौरी ओढ़ी थी। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के सत्संगी बैठे थे।
तब श्रीजीमहाराज से भगवदानन्द स्वामी तथा शिवानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “जिसे भगवान और संत का माहात्म्य सहित निश्चय हो गया हो, उसके कैसे लक्षण होते हैं?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे भगवान एवं सन्त का माहात्म्यज्ञान सहित निश्चय हो गया हो, वह भगवान तथा सन्त के लिए क्या नहीं कर सकता? उनके लिए वह कुटुम्ब का त्याग करे, लोकलज्जा का त्याग करे, राज्य का त्याग करे, सुख का त्याग करे, धन का त्याग करे, स्त्री का त्याग करे, और स्त्री हो तो वह पुरुष का त्याग करे।”
इतना बताने के बाद उन्होंने इन सभी हरिभक्तों की बातें एक-एक करके कहीं - डडुसर ग्रामवासी राजपूत गलुजी, धर्मपुर की कुशलकुंवरबाई, पर्वतभाई, राजबाई, जीवुबाई, लाडुबाई, बड़ी रामबाई, दादाखाचर, मांचाभक्त, मूलजी ब्रह्मचारी, भुजवासी लाधीबाई और माताजी, मुक्तानन्द स्वामी, वालाक प्रान्तवासी अहीर पटेल सामत, मानकुआँ ग्राम के मूलजी तथा कृष्णजी तथा वालाक प्रान्त-स्थित गुन्दाली ग्राम के दो काठी हरिभक्त आदि सत्संगियों ने भगवान और सन्त के निमित्त जो-जो कार्य किए, उनका उन्होंने विस्तार से वर्णन किया।
फिर श्रीजीमहाराज बोले, “जिसको भगवान का माहात्म्यज्ञान सहित निश्चय हो जाता है, वह भगवान के वचन-पालन में किसी भी प्रकार की कमी नहीं रखता तथा वे जो कुछ कहें, वैसा ही करता है।”
इस पर उन्होंने अपनी बात बताई कि, “हमारा स्वभाव ऐसा था कि हम से गोदोहनमात्र (प्रातः से संध्या तक) ही एक स्थान में रहा जाता था, किन्तु इससे अधिक समय तक नहीं रहा जाता था, ऐसे त्यागी थे और वैराग्य भी अतिशय था। और श्रीरामानन्द स्वामी पर हमारा स्नेह भी असाधारण था, फिर भी स्वामी ने भुजनगर से यह संदेश भेजा कि, ‘यदि सत्संग में रहने की गरज़ हो, तो खंभे को बांहों में पकड़कर भी रहना पड़ेगा।’ इस तरह मयाराम भट्ट ने आकर हमें सूचना दी, तब हमने खंभे को बाँहों में पकड़ लिया। इसके पश्चात् इसका आशय स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘मुक्तानन्द स्वामी की आज्ञा में रहिए।’ इसके बाद मैं रामानंद स्वामी के दर्शन होने के पूर्व नौ महीने तक मुक्तानन्द स्वामी की आज्ञा में रहा। ऐसे लक्षणों से भगवान तथा सन्त सम्बंधी निश्चय हुआ है, ऐसा समझें।”
इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने सुन्दरजी सुतार और डोसा बनिये की बात कही, “जिसको भगवान तथा सन्त सम्बंधी निश्चय हो, उसको भगवान की प्राप्ति के आनन्द का नशा हो जाता है।”
इतना कहकर उन्होंने राणा राजगुरु तथा भक्त प्रह्लाद की बात कही कि, “प्रह्लादजी ने नृसिंहजी से निवेदन किया, ‘हे महाराज! मैं आपके इस विकराल रूप से भयभीत नहीं हो रहा हूँ। आपने मेरी जो रक्षा की है, उसे मैं रक्षा नहीं मानता। जब आप इन्द्रियरूपी शत्रुओं से मेरी रक्षा करेंगे तब मैं समझूगा कि आपने मेरी रक्षा की।’१४७
“अतः जो भगवान का भक्त हो वह भगवान द्वारा दैहिक रक्षा किए जाने पर न तो हर्षित होता है और अपनी रक्षा न किए जाने पर न ही शोक करता है। वह तो अलमस्त होकर भगवान का भजन ही करता रहता है और भगवान तथा सन्त का अत्यधिक माहात्म्य समझता है।” इस विषय पर श्रीजीमहाराज ने कठलाल ग्राम की वृद्ध महिला की बात कही।
फिर कहा कि, “इस प्रकार के हरिभक्त की देह भले ही दुर्बलता एवं कमज़ोरी के कारण गिरे, या उसे बाघ खा जाए या साँप काट ले अथवा शस्त्र से चोट लगे, इत्यादि किसी भी तरह से अपमृत्यु द्वारा देहोत्सर्ग हो जाए, तो भी वह यही समझता है कि भगवान के भक्त की दुर्गति होती ही नहीं है। वह तो भगवान के धाम को ही प्राप्त होता है। और, भगवान से विमुख रहनेवाले मनुष्य के शरीर का भले ही अच्छी तरह से उत्सर्ग हो, और चन्दन से की लकड़ी द्वारा संस्कारपूर्वक उसका शवदाह किया जाए, तो भी वह निश्चय ही यमपुरी में जाता है। इन दो बातों को अच्छी तरह समझें तथा इन बातों की जिसके अंतर में पक्की गाँठ लग गई हो, उसे भगवान तथा सन्त का माहात्म्यसहित निश्चय हो गया है, ऐसा जान लेना। और, ऐसा निश्चयवाला जो होता है, वह निश्चित रूप से ब्रह्मधाम में ही पहुँचता है, लेकिन अन्य किसी भी धाम में नहीं पहुँचता।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ १११ ॥
This Vachanamrut took place ago.
१४७. श्रीमद्भागवत: ७/९/१५, ७/१०/७-८