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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया ४

अनंतकोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति

संवत् १८७७ में कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी (४ दिसम्बर, १८२०) को एक प्रहर दिन व्यतीत होने के पश्चात् स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत चूड़ीदार पायजामा पहना था, सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके समक्ष सभा में परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय अखंडानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया, “इस ब्रह्मांड में भगवान की मूर्ति वर्तमान समय में जैसी दीख पड़ती है, वैसी की वैसी मूर्ति अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में दिखाई देती है या नहीं?”१४८

श्रीजीमहाराज बोले कि, “भगवान स्वयं अपने अक्षरधाम में सदैव विराजमान रहते हैं। मूल माया में से उत्पन्न अनन्तकोटि प्रधानपुरुषों से अनन्तकोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति होती है। फिर भगवान अपने अक्षरधाम में एक ही स्थान में रहते हुए स्वेच्छापूर्वक उन अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में अपने भक्तों के लिए अनन्त रूपों में दिखाई देते हैं।”

अखंडानन्द स्वामी ने पुनः पूछा, “श्रीकृष्ण नारायण तो सदैव मनुष्याकार हैं तथा उन भगवान का स्वरूप सर्वदा सत्य है, वे ही भगवान कभी मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंहादि अनेक रूपों द्वारा दृष्टिगोचर होते हैं, इस बात को कैसे समझना चाहिए? तथा प्रत्येक ब्रह्मांड में कल्याण की रीति तथा भगवान की मूर्ति एकसमान होती है या उसमें भिन्नता होती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान की मूर्ति यद्यपि सदैव एकसमान होती है, फिर भी भगवान अपनी मूर्ति को जहाँ जैसी दिखलाना चाहते हैं, वहाँ वैसी दिखलाते हैं और जहाँ जितना प्रकाश करना होता है, वहाँ उतना प्रकाश करते हैं। यद्यपि वे स्वयं सदैव द्विभुज रहते हैं, फिर भी अपनी इच्छा के अनुसार कहीं चतुर्भुज, कहीं अष्टभुज तो कहीं अनन्तभुजरूप दिखाई देते हैं। वे मत्स्य-कच्छपादि रूपों में भी दिखाई देते हैं। इस प्रकार, वे जहाँ जो भी उपयुक्त समझते हैं, वहाँ वैसा रूप दिखलाते हैं, परन्तु स्वयं तो वे सर्वदा एकरूप से ही विराजमान रहते हैं तथा वे एक स्थान में निवास करते हुए भी अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त होकर रहते हैं।”

फिर श्रीजीमहाराज ने यह भी बताया कि, “व्यासजी एक ही थे और उन्होंने स्थावर-जंगम तथा समस्त जीवों में रहकर शुकजी को पुकारा, तब शुकजी ने भी स्थावर-जंगम आदि समस्त सृष्टि में रहकर उत्तर दिया। इस प्रकार, शुकजी जैसे महान सिद्ध भी समस्त जगत में व्याप्त होने में जो समर्थ होते हैं, वह तो भगवान के भजन के प्रताप से वे ऐसी योगकला को प्राप्त हुए हैं, तब स्वयं भगवान पुरुषोत्तम, जो योगेश्वर तथा सर्वयोगकलानिधि हैं, वे एक स्थान पर रहकर अनन्तकोटि ब्रह्मांडों में स्वेच्छापूर्वक जहाँ जैसे उपयुक्त हो वहाँ अपनी वैसी मूर्ति दिखा सकते हैं, इसमें विस्मय की बात ही कहाँ है? जैसे कोई जादूगर तुच्छ माया को सीखा हो, उसमें भी लोग कितने आश्चर्यमुग्ध होते हैं, तथा उसकी विद्या के रहस्यों का यथार्थरूप से पता ही नहीं चलता, तो भगवान तो सर्वयोगकलाओं के स्वामी हैं और महा आश्चर्यरूप हैं, उन्हें सामान्य जीव किस प्रकार जान सकता है?

“अतः भागवत में कहा गया है कि, ‘भगवान की माया के बल को इतने-इतने लोग पार कर चुके हैं।’१४९ तथा यह भी कहा गया है कि, ‘भगवान की माया का पार कोई भी नहीं पा सका है।’३०५ इन दोनों प्रकार के कथन से यह समझ लेना चाहिए कि भगवान के योगकलारूप ऐश्वर्य को देखकर यदि ब्रह्मादिक जैसों को भी कुतर्क उत्पन्न होता हो, तो वे माया के बल को पार नहीं पा सके, यही कहा जाएगा। कुतर्क भी यही है कि, ‘भगवान ऐसा क्यों करते हैं?’ परन्तु भगवान को इस प्रकार समझें कि, ‘ये समर्थ हैं, अतः वे जो कुछ करते हैं, ठीक ही करते होंगे।’ इस प्रकार जो भगवान को निर्दोष समझता हो, वही माया को पार हो चुका कहलायेगा। और, कल्याण की रीति एक ही है, फिर भी भगवद्भजन करनेवालों में उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ तीन प्रकार के भेद होते हैं। उनकी श्रद्धा भी अनेक प्रकार की है। उस श्रद्धा के भेदों के कारण कल्याण के मार्ग में भी अनन्त भेद उत्पन्न हो गए हैं। अन्यथा कल्याण का मार्ग तो वास्तव में एक ही है, और भगवान का स्वरूप भी एक ही है। और, वे भगवान अतिसमर्थ हैं और उनके जैसा होने के लिए अक्षरपर्यन्त कोई भी समर्थ नहीं हो पाता, यह सिद्धान्त है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से कहा कि, “झीणाभाई१५० आज अत्यन्त खिन्न हुए और यह बोले कि, ‘जब महाराज हमारे घर नहीं आए तब हमें भी घर में रहने का क्या प्रयोजन है?’”

यह बात सुनकर श्रीजीमहाराज बोले, “जो पुरुष रुष्ट होकर प्रेम करता है, वह प्रेम अन्त तक निभता नहीं और रिसने-रूठनेवाली भक्ति तथा प्रीति अन्त में असत्य सिद्ध हो जाती हैं। अतः रूठकर मुँह लटकाकर रहना बहुत बड़ी खामी है।”

तब झीणाभाई ने कहा कि, “भगवान और उनके सन्त जब अपने घर आयें तब मुख प्रफुल्लित होना चाहिए। किन्तु वे न आएँ, तब मुख म्लान होना ही चाहिए तथा हृदय में दुःख (शोक) भी होना चाहिए।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले, “यह ठीक है कि भगवान और सन्त जब हमारे घर पधारें, तब प्रसन्न होना, लेकिन शोक कभी भी नहीं करना चाहिए। और, यदि किसी का शोकग्रस्त बने रहने का स्वभाव हो गया, तो अन्ततः उसका अवश्य कुछ न कुछ अशुभ हुए बिना नहीं रहता। अतः अपने-अपने धर्म में रहकर जैसी भगवान की आज्ञा हो, उसका पालन प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिए, परन्तु अपनी रुचि के अनुसार करवाने के लिए किसी भी प्रकार से व्यग्र नहीं होना चाहिए। यदि भगवान कहीं जाने की आज्ञा दें, तब यदि उद्विग्न होकर व्यग्र हो जाए, तो भगवान ने पहले जो दर्शन दिये हों, प्रसाद दिया हो, तथा अनेक प्रकार की ज्ञान-वार्ता की हो इत्यादि से जो सुख प्राप्त हुआ हो, वह सब नष्ट हो जाता है। ऐसे उद्वेग के कारण बुद्धि पर केवल तमोगुण ही छा जाता है। ऐसी दशा में उसे जहाँ भेजा जाता है, वहाँ वह दुःखी होकर ही जाता है। फिर उद्वेग के कारण वहाँ भी उससे आज्ञा का पालन यथार्थरूप से नहीं हो सकता। अतः भगवान के भक्त को सदैव अतिप्रसन्न रहना चाहिए, तथा प्रसन्न मन से भगवान का भजन करना चाहिए परन्तु चाहे कैसा भी अशुभ देश-काल हो, फिर भी हृदय में लेशमात्र भी उद्वेग नहीं आने देना चाहिए!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ ११२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१४८. प्रश्नकर्ता का अभिप्राय यह है कि, “अन्य ब्रह्मांडों में भगवान मनुष्याकार में प्रकट होते हैं या नहीं?” श्रीहरि अभिप्राय देते हैं कि अपने अनन्य भक्तों को दर्शनादिक का आनंद देने के लिए भगवान कृपा करके स्वेच्छापूर्वक अन्य ब्रह्मांडों में प्रकट होते हैं।

१४९. श्रीमद्भागवत: ४/२०/३२, ४/७/४४, ९/२१/१७.

१५०. झीणाभाई जूनागढ राज्य के सभासद थे, एवं पंचाला गाँव के ठाकुर साहब थे। उनका प्रेमाग्रह था कि श्रीजीमहाराज उनके घर पधारे, परन्तु किसी कारणवशात् श्रीहरि उनके घर नहीं पधारे, झीणाभाई को लगा कि श्रीहरि ने मेरे आमंत्रण का अस्वीकार करके मेरा मानभंग किया है।

३०५. श्रीमद्भागवत: ४/७/३०, ३/३१/३७, ६/१९/११

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