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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया ५

इन्द्रिय-अंतःकरण पर जीत

संवत् १८७७ में कार्तिक कृष्णा अमावास्या (५ दिसम्बर, १८२०) को रात के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत चूड़ीदार पायजामा पहना था, सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी और मस्तक पर श्वेत पाग बाँधी थी। उनके समक्ष सभा में परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने समस्त परमहंसों से प्रश्न किया कि, “कितने संकल्प कहने पर भक्त निष्कपट कहलाता है, और कितने संकल्प नहीं कहने पर उसे कपटी कहा जाता है?” परन्तु परमहंस इस प्रश्न का उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “स्वयं में पंचव्रत सम्बंधी जो शिथिलता हो, वह यदि अपने विचार द्वारा भी न मिटती हो, तो उसे ऐसे संत के पास जाकर बता देना चाहिए कि जिनके जीवन में कोई आचार-सम्बंधी शिथिलता न हो। तथा अपने मन में किसी सन्त के प्रति कोई दोषभाव उत्पन्न हो गया हो, तो उसे भी बता देना चाहिए; तथा भगवान सम्बंधी निश्चय में भी यदि कोई अनिश्चय का संकल्प हो गया हो, तो उसे भी प्रकट कर देना चाहिए; तभी उसे निष्कपट कहा जाएगा। यदि इनमें से कोई संकल्प हुआ हो और उसे सन्त के आगे नहीं कहा तो उसे कपटी समझना चाहिए।”

श्रीजीमहाराज ने पुनः पूछा, “यदि कोई ऐसा कपटी पुरुष हो और वह सयाना हो, तो उसे किस प्रकार की बुद्धि से पहचाना जा सकता है?”

जब परमहंस इस प्रश्न का भी उत्तर न दे सके, तब श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “इसकी पहचान इस प्रकार हो सकती है कि उसका सहवास किसी कपटी से होता हो, तथा खाते-पीते, बैठते-उठते और चलते-फिरते समय स्वयं उसकी देखभाल हो, और जब वह अपने से अलग होता हो, तब भी किसी अन्य मनुष्य द्वारा गोपनीय रूप से उस पर निगरानी रखवाता हो, तभी उसके कपट का पता लग सकता है।”

तब श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “जो दम्भपूर्वक पंचव्रतों का पालन करता हो, और दम्भपूर्वक ही भगवान सम्बंधी निश्चय रखता हो, और वह बुद्धिमान हो, तथा अभिमानी हो, तथा अन्य भक्तों के व्रतपालन एवं निश्चय की अपेक्षा अपने व्रतपालन और निश्चय की दृढ़ता को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रदर्शित करता हो, तब उसके बारे में कैसे जान सकते हैं कि यह तो दम्भपूर्वक ही व्रतपालन और निश्चय रखता हैं?”

जब परमहंस इस प्रश्न का भी उत्तर न दे सके, तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब उसकी प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता है, तभी उसके दम्भ का पता लग जाता है, अन्यथा नहीं लगता।”

फिर श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “कैसा मनोभाव हो, जो भगवान सम्बंधी निश्चय तथा व्रतपालन, इन दोनों से भक्त को पतनोन्मुख करे, और कौन-सा संकल्प होने पर भी पतन नहीं होता? और किस अवधि तक उस संकल्प के रहने से भक्त धर्मच्युत हो जाता है तथा भगवान सम्बंधी निश्चय से भी उसका पतन हो जाता है?” परमहंस इस प्रश्न के भी उत्तर नहीं दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “कोई संकल्प ऐसा होता है, जो मिटाने का यत्न करने पर भी नहीं मिट पाता, ऐसा कोई अनुचित संकल्प धर्मपालन करने में विघ्न कर रहा हो, जो पन्द्रह दिन या एक मास तक मन में नहीं आता, किन्तु न जाने कब वह उत्पन्न हो जाता है! ऐसा जो संकल्प होता है, वह व्यक्ति को धर्मच्युत कर डालता है। और, भगवान सम्बंधी निश्चय के विषय में भी यही समझना चाहिए। तथा बुरे संकल्प को उत्पन्न होने के बाद तुरन्त यदि विचार द्वारा ऐसे मिटाया जाए, जो पुनः उत्पन्न ही न होने पाए, तो ऐसा संकल्प न तो धर्म से और न ही निश्चय से उस पुरुष को पतन के गर्त में गिरा सकता है।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “सत्संग में किसकी नींव सुदृढ़ रहती है और किसकी सुदृढ़ नहीं रहती?” इस प्रश्न का भी उत्तर परमहंस न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर दिया कि, “जिस प्रकार दत्तात्रेय ने पंचभूत, चन्द्रमा, पशु, वेश्या, कुमारी तथा अपनी देह आदि में से भी गुण ग्रहण किये थे। ठीक उसी तरह, सन्त में से गुण ग्रहण करने का जिसका स्वभाव बन गया हो, उसी की नींव सत्संग में सुदृढ़ होती है। जिसे सन्त से गुण ग्रहण करने का स्वभाव नहीं होता, वह तो सत्संग में रहा है फिर भी उसकी नींव सुदृढ़ नहीं है।”

आगे श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “क्या सन्त, शास्त्रों तथा अपना विचार-तीनों के होने पर ही इन्द्रियों और अन्तःकरण को विजित किया जा सकता है या इनमें से कोई एक साधन रहने पर भी उन पर विजय प्राप्त की जा सकती है? यदि आप ऐसा कहेंगे कि इन तीनों साधनों के द्वारा ही विजय मिल सकती है; तब सन्त से कैसी युक्ति सीखी जाए, शास्त्रों से क्या सीखा जाए तथा अपने विचार द्वारा कौन-सी युक्ति सीखी जाए? यह बताइए।” परमहंस इस प्रश्न का भी उत्तर नहीं दे पाये।

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर दिया कि, “शास्त्रों से भगवान तथा सन्त के माहात्म्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सन्त से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि वे इन्द्रियों को जीतने की जो युक्ति बताएँ कि, ‘इस प्रकार नेत्र की दृष्टि नासिकाग्र रखनी चाहिए तथा सांसारिक ग्राम्यवार्ता नहीं सुननी चाहिए।’ आदि युक्तियाँ उनसे सीख लेनी चाहिए। फिर सन्त द्वारा सिखाई गई युक्ति को अपने विचारों के द्वारा अपने कल्याण के लिए उपयोगी समझकर मानना और उसके अनुसार बरतना शुरू कर देना चाहिए। इस प्रकार तीनों उपायों द्वारा इन्द्रियों तथा अन्तःकरण पर विजय प्राप्त की जा सकती है।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “इन्द्रियों के जीतने पर अन्तःकरण विजित हो जाता है? या अन्तःकरण को जीत लेने पर इन्द्रियों पर विजय होती है?” परमहंस इस प्रश्न का भी उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज ने इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया कि, “बाह्य इन्द्रियों को देहदमन द्वारा जीत लिया हो, फिर भी (मुमुक्षु) पंचव्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करता रहे, तब बाह्य इन्द्रियों को जीत लेने पर अन्तःकरण पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। परन्तु, अकेले अन्तःकरण पर जीत होने से बाह्य इन्द्रियों पर विजय नहीं मिल सकती। बाह्य इन्द्रियों को जीत लेने पर ही अन्तःकरण पर विजय हो सकती है, क्योंकि जब पुरुष बाह्य इन्द्रियों को जीतकर उन्हें विषयोन्मुख होने का अवसर नहीं देता, तब अन्तःकरण आन्तरिक रूप से निराश हो जाता है कि, ‘इस देह द्वारा यह बात नहीं बनेगी।’”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “बाह्य इन्द्रियाँ किस प्रकार जीती जा सकती हैं, तथा अन्तःकरण पर किस प्रकार विजय प्राप्त हो सकती है?” इस प्रश्न का भी उत्तर परमहंस न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “धर्मशास्त्र में त्यागियों के लिए जो नियम बताए गए हैं, उनका पालन करता रहे, आहार में संयम रखे, तप्तकृच्छ्र-चान्द्रायणादि व्रत करे, जानबूझकर शीत, धूप, क्षुधा एवं तृषा भी सहन करता रहे तथा भगवान का कथा-कीर्तन वार्ता करे एवं भजन-स्मरण के लिए स्थिरतापूर्वक आसन जीतकर बैठे आदि साधनों द्वारा बाह्य इन्द्रियाँ जीती जा सकती है। एवं भगवान के माहात्म्य का विचार, भगवान का ध्यान करना तथा आत्मनिष्ठा रखना इनसे अन्तःकरण जीता जा सकता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ ११३ ॥

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