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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया ७

ऋते ज्ञनान्न मुक्तिः

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष शुक्ला तृतीया (८ दिसम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में पलंग पर विराजमान थे। उनके मस्तक पर सफ़ेद पाग का छोर सुशोभित था। उन्होंने सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी, रुईभरा श्वेत चूड़ीदार पायजामा पहना था और सफ़ेद पिछौरी ओढ़ी थी। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय नित्यानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज को वचनामृत पुस्तक लाकर दी। इस पुस्तक को देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और परमहंसों से बोले कि, “आज तो कठिन-कठिन प्रश्न करें तो उन पर बातें करें।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा, “श्रुतियों में कहा गया है कि: ‘ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।’१५२ ‘तमेव विदित्वातिऽमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥’१५३ इन श्रुतियों में कहा गया है कि भगवान के स्वरूप का साक्षात् ज्ञान होने पर ही जीव का कल्याण होता है। फिर भी, शास्त्रों में कल्याण के लिए जो अन्य साधन बताए गए हैं, उनका क्या प्रयोजन है? क्योंकि कल्याण तो ज्ञान द्वारा ही होता है!”

इस प्रश्न को सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “ज्ञान का अर्थ है ‘जानना’।”

तब नित्यानंद स्वामी ने संदेह व्यक्त किया कि, “यदि ‘जानना’ ही ज्ञान है तो शास्त्र द्वारा पूरा जगत भगवान को जानता है, परंतु ऐसे जानने से उन सभी का कल्याण तो नहीं होता।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “शास्त्रों द्वारा परोक्षभाव से किसी ने भले ही भगवान को जान लिया, परंतु उसका कल्याण नहीं होता, उसी प्रकार रामकृष्णादिक भगवान के अवतार पृथ्वी पर थे, उस समय सभी लोगों ने उनको प्रत्यक्ष देखा था, तो क्या उनका कल्याण भी हुआ था?”

तब मुक्तानंद स्वामी ने कहा कि, “जिन लोगों ने भगवान को प्रत्यक्ष देखा हो, उनका तो कल्याण जन्मान्तर के बाद होता है।”

इस पर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि ऐसा ही है, तो जिन भक्तों ने शास्त्रों द्वारा भगवान को जान लिया है, उनका भी तो जन्मान्तर के बाद कल्याण हो सकता है! क्योंकि शास्त्रों द्वारा जिन भगवान के स्वरूप को जान लिया है, उसी भगवान को वे नेत्रों द्वारा देखते हैं तथा नेत्रों द्वारा जिन भगवान को देखते हैं, उसी भगवान को शास्त्रों द्वारा जानते हैं। अतः दोनों का बीजबल (संस्कार) बराबर होता है तथा दोनों का जन्मान्तर के बाद कल्याण भी समान रूप से ही होता है। क्योंकि श्रवणेन्द्रिय द्वारा भगवान को सुना, तो क्या उसमें ‘ज्ञान’ अन्तर्निहित नहीं है? परंतु ऐसा नही है। क्योंकि वह मात्र कहने के लिए ही ‘ज्ञान’ होगा, परन्तु वास्तविक रूप से तो वह केवल ‘श्रवण’ ही है! तथा क्या त्वचा द्वारा किये गए भगवान के स्पर्श में ‘ज्ञान’ नहीं है? परन्तु वह तो केवल ‘स्पर्श’ ही है। क्या नेत्रों द्वारा भगवान को देखने में ‘ज्ञान’ नहीं है? किन्तु वह तो केवल ‘देखना’ ही है। क्या नासिका द्वारा भगवान की सुगन्ध ली, तो सूंघने में ‘ज्ञान’ नहीं है? किन्तु उसे तो केवल ‘सूंघा हुआ’ ही कहा जाएगा। और, क्या जिह्वा द्वारा किए गए भगवान के वर्णन में ‘ज्ञान’ नहीं है? परन्तु, उसे तो ‘वर्णन’ ही कहा जाएगा।

“इसी प्रकार, बाह्य इन्द्रियों तथा अन्तःकरण द्वारा जीव को जो सामान्यतः जानकारी होती है, एक तो वह ज्ञान है, तथा दूसरा ‘अन्तःकरण एवं इन्द्रियों से परे जो जीवसत्ता-तदाश्रित अनुभव-ज्ञान’ है, इन दोनों में से किस प्रकार के ज्ञान के लिए आपका प्रश्न है? तथा भगवान ने जगत की उत्पत्ति के लिए ‘अनिरुद्ध’ स्वरूप धारण किया है, जिसमें स्थावर-जंगमरूपी विश्व अवकाश सहित रहा है।

“वही भगवान संकर्षणरूप से जगत का संहार करते हैं, और प्रद्युम्नरूप द्वारा विश्व की स्थिति का निर्धारण करते हैं तथा मत्स्य-कच्छपादि अवतार रूपों को धारण करते हैं। इस प्रकार जहाँ जैसा कार्य हो, वहाँ उस कार्य की सिद्धि के लिए वे वैसा ही स्वरूप ग्रहण करते हैं। उनमें कोई कार्य तो ऐसा होता है, जिसमें इन्द्रियों तथा अन्तःकरण की पहुँच नहीं होती। वे कार्य तो केवल अनुभव ज्ञान के द्वारा ही जाने जा सकते हैं। ऐसा कार्य सिद्ध करने के लिए भगवान भी वैसा ही स्वरूप धारण करते हैं। और कोई कार्य ऐसे हैं कि वे इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से जान पाते हैं। ऐसे कार्यों को सिद्ध करने के लिए भगवान भी वैसा ही स्वरूप धारण करते हैं। अतः आप भगवान के किस स्वरूप के ज्ञान से कल्याण होने की बात पूछते हो?”

तब नित्यानन्द स्वामी ने यह मन्तव्य प्रकट किया कि, “भगवान के जिस स्वरूप में इन्द्रियों, अन्तःकरण तथा अनुभव ये तीनों पहुँच सकें, ऐसे भगवान के स्वरूप का ‘ज्ञान’ होने की बात पूछते हैं, कि जिस ज्ञान से मोक्ष होता है।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “ऐसे भगवान तो श्रीकृष्णजी हैं। वे स्वयं अपने लिए इस प्रकार बताते हैं:

“यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥”१५४
“विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।”१५५
“मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय!
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥”१५६
“पश्य मे पार्थ! रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥”१५७

“इत्यादि वचनों द्वारा वे स्वयं को इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से अगोचर बताते हैं। इसलिए, भगवान को तत्त्वतः समझने का यही मार्ग है कि जो पुरुष इन्द्रियों, अन्तःकरण तथा अनुभव तीनों द्वारा प्रत्यक्ष भगवान को यथार्थ रूप से जान लेता है, वही पूर्ण ज्ञानी कहलाता है। यदि इन तीन प्रकारों में से एक भी प्रकार कम हो, तो वह आत्यन्तिक ज्ञान नहीं कहलाता है और वह जन्म-मृत्यु को भी पार नहीं कर सकता। यदि वह किसी साधन द्वारा ब्रह्मभाव को प्राप्त कर ले, किन्तु प्रत्यक्ष भगवान को इस प्रकार न जानता हो, तो भी पूरा ज्ञानी नहीं कहा जा सकता।

“अतएव, श्रीमद्भागवत में कहा गया है:

“नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।”१५८

“तथा गीता में कहा गया है:

“कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥”१५९

“अकर्मात्मक ज्ञान के सम्बंध में भी जानना शेष रहा है, अर्थात् जो ब्रह्मरूप हो चुका है, फिर भी उसे परब्रह्म पुरुषोत्तम को जानना शेष रहता है। और, जो ब्रह्मरूप हुआ है, उसे ही पुरुषोत्तम की भक्ति करने का अधिकार है। वह भक्ति क्या है? तो जिस प्रकार श्वेतद्वीपवासी निरन्नमुक्त हैं, वह ब्रह्मरूप होकर चन्दन-पुष्पादि नानाप्रकार की पूजा-सामग्री द्वारा वासुदेव का पूजन करते हैं, वैसे ही उसे भी ब्रह्मरूप होकर चन्दन-पुष्पों तथा श्रवण-मननादि द्वारा प्रत्यक्ष भगवान की भक्ति करनी चाहिए। वह गीता में भगवान ने कहा है:

“ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥”१६०

“वस्तुतः जो भक्त ब्रह्मरूप होकर परब्रह्म की भक्ति नहीं करता, उसके सम्बंध में यही कहा जाएगा कि उसका भी आत्यन्तिक कल्याण नहीं हुआ। तथा१६१

“भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥”१६२

“यह व्याप्य जडप्रकृति है, और:

“अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो! ययेदं धार्यते जगत ॥”१६३

“ऐसी व्यापक चैतन्य प्रकृति है। और प्रत्यक्ष भगवान कैसे हैं? वे आठ प्रकार की व्याप्य प्रकृति और उसमें व्यापक रहनेवाली चैतन्य प्रकृति, इन दोनों के आधार (धारक) हैं, ठीक उसी तरह जिस प्रकार आकाश पृथ्वी आदि चार तत्त्वों का आधार है। जब पृथ्वी की संकोचावस्था होती है, तब उसके साथ-साथ आकाश की भी संकोच अवस्था रहती है। इसी प्रकार जल, प्रकाश, वायु की संकोच-विकासावस्था के साथ ही आकाश की भी संकोच एवं विकास की अवस्था बनी रहती है तथा पृथ्वी आदि तत्त्वों की संकोच-विकासावस्था१६४ आकाश में होती है। उसी प्रकार, इन दोनों प्रकृतियों की संकोच-विकास अवस्था के साथ ही भगवान की भी संकोच-विकासावस्था होती है और इन दोनों प्रकृतियों की संकोच-विकास अवस्था भगवान में है, ऐसे भगवान सबकी आत्मा हैं।

“श्रुतियों में कहा गया है, ‘अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां सर्वात्मा,’१६५ ‘यस्याक्षरं शरीरं... एष सर्वभूतान्तरात्माऽपहतपाप्मा दिव्यो देव एको नारायणः,’१६६ ‘यस्यात्मा शरीरं य आत्मानमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः,’१६७ ‘यस्य पृथिवी शरीरं यः पृथिवीमन्तरो यमयति स त आत्मान्तर्याम्यमृतः,’ इत्यादि श्रुतियाँ हैं। तथा ब्रह्म को अन्नमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय कहा गया है। इस प्रकार ब्रह्मविद्या अनेक प्रकार से कही गई है। उसका यह तात्पर्य है कि भगवान सबके कारण तथा आधार हैं। इसलिए, इन सबको ब्रह्म कहा गया है। परन्तु, ये सब शरीर हैं तथा इन सबके शरीरी भगवान श्रीकृष्ण प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम हैं। उन भगवान में यह जड-चैतन्यरूपी दोनों प्रकृतियाँ संकोच-विकासावस्था द्वारा अपने कार्यसहित सुखपूर्वक रही हैं तथा इन सभी में भगवान अन्तर्यामीरूप तथा कारणरूप होकर रहे हैं। और, वे ही भगवान यह प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इस प्रकार से महिमा सहित भगवान को जानना और देखना, उसे ही परिपूर्ण ज्ञान कहते हैं।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “यदि इस प्रकार (भगवान को) न देखें, परंतु अन्तःकरण में तो उपरोक्त अनुसार ज्ञान की दृढ़ समझ हो तो उसे परिपूर्ण ज्ञान कहा जा सकता है या नहीं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जैसे अन्धकारमय घर में कोठी और खम्भों को यद्यपि देखते हैं, फिर भी उन्हें यथार्थ रूप से देखा हुआ नहीं कहा जाएगा, वैसे ही पुरुषोत्तम भगवान में जड-चित् प्रकृति रहती है और उस प्रकृति में वे स्वयं रहते हैं, उन्हें अनुमान द्वारा जान लिया, परन्तु यदि वे दीखने में नहीं आते, तो देखने वाले को परिपूर्ण ज्ञानी नहीं कहा जा सकता। यदि उसकी ज्ञान की समझ यथार्थ है, तो उसे कुछ अलौकिकता ज्ञात हुई होगी, नहीं तो उसकी प्रतीति आगे होगी। यद्यपि ऐसे ज्ञान की समझ असंदिग्ध रूप से है, फिर भी उसे ‘दिखाई’ नहीं पड़ता, तो वह यह समझता है कि, ‘भगवान में सब कुछ हैं, परन्तु वह मुझे नहीं दिखाते हैं, ऐसी ही उनकी इच्छा है।’ यदि वह ऐसा समझकर भगवान की भक्ति करता हुआ स्वयं को कृतार्थ मानता है, तो वह परिपूर्ण ज्ञानी है। अतः जो पुरुष इन्द्रियों, अन्तःकरण तथा अनुभव द्वारा भगवान को यथार्थरूप से जान लेता उसे ज्ञानी कहते हैं और भगवान ने ऐसे ज्ञानी को गीता में श्रेष्ठ बताया है।

“आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ!।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ॥”१६८

“ऐसा जो ज्ञानी है, वह तो सदैव साकारमूर्ति प्रत्यक्ष भगवान को प्रकृति, पुरुष एवं अक्षर से परे मानते हुए, सर्व के कारण तथा सर्व के आधार जानकर अनन्यभाव से उनकी सेवा करता रहता है। इस प्रकार की समझ को ‘ज्ञान’ कहते हैं। इस ज्ञान के द्वारा आत्यन्तिक मोक्ष होता है। जो मनुष्य ऐसा नहीं समझते और केवल शास्त्र द्वारा ‘अहं ब्रह्मास्मि’१६९ बनकर बैठते हैं तथा कहते रहते हैं कि, ‘मैं ब्रह्मरूप हूँ और रामकृष्णादि तो मेरी लहर हैं,’ ऐसे ब्रह्मकुदाल आधुनिक वेदान्ती अतिदुष्ट तथा महापापी हैं, जिन्हें मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है, जिसमें से उनका कभी भी छुटकारा नहीं होता।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७ ॥ ११५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१५२. अर्थ: “बिना ज्ञान के मुक्ति नहीं होती।” (हिरण्यकेशीयशाखा)

१५३. अर्थ: “परमात्मा के ज्ञान से ही संसार मृत्यु पर विजय हो सकती है, अतः मुक्ति के लिए ज्ञान के सिवा अन्य कोई मार्ग नहीं है।” (श्वेताश्वतरोपनिषद्: ३/८)

१५४. अर्थ: “पूर्वश्लोक में वर्णित स्वभाव से जीवों-ईश्वरों के लिए मैं अतीत हूँ। यानी उनके दोषों का स्पर्श मुझे नहीं होता तथा अक्षरब्रह्म से भी मैं उक्त कारणों से अतिशय उत्कृष्ट हूँ।” (गीता: १५/१८)

१५५. अर्थ: “मैं अपने सामर्थ्य के एक अंश से इस जड-चिदात्मक समग्र जगत को धारण किये हुए हूँ।” (गीता: १०/४२)

१५६. अर्थ: “हे अर्जुन! मुझसे अतिरिक्त कोई भी तत्त्व परतर नहीं है। जिस प्रकार डोरे में मणिमाला पिरोयी हुई रहती है, उसी प्रकार यह मेरा शरीर भूतचिदचिदात्मक समग्र जगत मुझमें समाया हुआ है, अर्थात् मेरा आश्रित है।” (गीता: ७/७)

१५७. अर्थ: “हे पार्थ! मेरे अनेक रूपों का तुम अवलोकन करो, जो नाना प्रकार के दिव्य एवं शुक्लादि विभिन्न वर्णवाले तथा नाना आकृतिवाले हैं।” (गीता: ११/५)

१५८. अर्थ: “यद्यपि नैष्कर्म्य यानी आत्मा की यथार्थ उपासनारूप ज्ञान निरंजन अर्थात् रागद्वेषादिरूप मायारहित है, फिर भी जो भगवान की भक्ति से रहित है, वह अत्यन्त शोभित नहीं लगता, अर्थात् भक्तियोग से विरत ज्ञानयोग शोभायमान नहीं होता।” (श्रीमद्भागवत: १/५/१२)

१५९. अर्थ: “मुमुक्षुओं द्वारा करने योग्य कर्म के सम्बंध में ज्ञान प्राप्त करना है तथा नाना प्रकार के विकर्मात्मक वैदिक काम्यकर्म के विषय में भी जानकारी शेष रही है। इसी प्रकार अकर्मात्मक ज्ञान के सम्बंध में भी ज्ञान प्राप्त करना शेष रहा है। इस रीति से कर्म की गति को गहन माना गया है, अर्थात् उसका स्वरूप ऐसा है कि वह बोधगम्य नहीं हो सकता।” (गीता: ४/१७)

१६०. अर्थ: “जो ब्रह्मरूप हुआ है, और प्रसन्नमन है, अर्थात् क्लेश-कर्मादि दोषों से जिसका मन कलुषित नहीं हुआ है, और जो किसी पर भी शोक नहीं करता, किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं करता तथा समस्त प्राणियों में समभाव रखता है, वही मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।” (गीता: १८/५४)

१६१. जिनकी भक्ति करने की बात कही गयी है, ऐसे परब्रह्म प्रत्यक्ष पुरुषोत्तम नारायण ही दोनों प्रकृतियों के आधार हैं, यही बात गीता में कही गयी है कि –

१६२. अर्थ: “पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन आदि इन्द्रियाँ, महत्तत्त्व तथा अहंकार इस आठ प्रकार की मेरी प्रकृति हैं। अर्थात् मैं अचेतन प्रकृति से विलक्षण हूँ।” (गीता: ७/४)

१६३. अर्थ: “यह मेरी अपरा (अप्रधानभूता) प्रकृति है, इस अचेतन प्रकृति से विलक्षण आकारवाली परा (प्रधानभूता) एवं चेतनरूप यह प्रकृति मेरी है। ऐसा समझिये कि जो चेतन प्रकृति है, उसने समग्र अचेतन जगत को धारण कर रखा है, अर्थात् मैं चेतन प्रकृति से विलक्षण हूँ।” (गीता: ७/५)

१६४. यद्यपि आकाश में संकोच-विकास की अवस्थाएँ वस्तुतः नहीं हैं तथापि वे स्वयं पृथिव्यादि भूतों में व्यापक रूप से रही हैं। उनसे उन भूतों में होनेवाली संकोच-विकास की प्रक्रियाएँ पारस्परिक रूप से आकाश में उपचारमात्र होती हैं। वैसे ही निर्विकारी परमात्मा के स्वरूप में साक्षात् संकोच-विकास नहीं हैं, परन्तु वे अपने शरीररूप जडाजड-संज्ञक दोनों प्रकृतियों में अन्तर्यामीरूप से स्वतः व्यापक होकर रहे हैं। इसीलिए, उन शरीरी परमात्मा में दोनों प्रकृतियों का संकोच-विकास उपचारमात्र होता है। यह भावार्थ समझना चाहिए।

१६५. अर्थ: “समस्त मनुष्यों के आत्मारूप भगवान सबमें अन्तःप्रवेश करके सबके शिक्षण प्रदाता तथा नियमन कर्ता बने हुए हैं।” (तैत्तिरीय आरण्यक: ३/११)

१६६. अर्थ: “जिस परमात्मा का ‘अक्षर’ शरीर है। वे समस्त भूतों के अन्तरात्मा हैं, निर्दोष हैं तथा दिव्य हैं। ऐसे एकमात्र देव नारायण हैं।” (सुबालोपनिषद्: ७)

१६७. अर्थ: “जो परमात्मा जीवात्मा में अन्तःप्रवेश करके नियमन करते हैं, वे अन्तर्यामी तेरी अमृत आत्मा हैं, अर्थात् निरुपाधिक अमृतशाली परमात्मा हैं।” (बृहदारण्यक: ३/७/३०)

१६८. अर्थ के लिए देखें: वचनामृत गढ़डा प्रथम ५६ की पादटीप।

१६९. मैं ब्रह्म हूँ (बृहदारण्यक: १/४/१०)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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