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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया ८

इन्द्रियों की चंचलता मिटाने के उपाय

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी (१० दिसम्बर, १८२०) को रात्रि में श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था, सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी तथा श्वेत धोती धारण की थी। उनके समक्ष सभा में परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया, “कोई भोले मनुष्य को सन्त का कोई स्वभाव देखकर उनके विषय में दोषभाव उत्पन्न हो जाता है, परन्तु जो पुरुष बुद्धिमान-विवेकशील होता है, उसके अन्तःकरण में भी सन्त के प्रति दोषभाव क्यों आता है?”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जो विवेकशील पुरुष होता है, वह अपने ही कोई अनुचित स्वभाव को देखकर उसके साथ द्वेषभाव रखते हुए उसे टालने के लिए परिश्रम करता हो, तथा उस स्वभाव के प्रति उसे बहुत ही चिढ़ हो; ऐसा ही स्वभाव किसी दूसरे सन्त में जब वह देखता है, तब उससे अभाव हो जाता है। और जो मूर्ख होता है, वह तो अपने स्वभाव को तो नहीं मिटाता, और किसी अन्य सन्त में कुछ अल्प स्वभाव देखकर उसकी घृणा करता है, वह मूर्ख कहा जाता है।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज छोटे-छोटे परमहंसों को अपने पास बुलवाकर स्वयं उन्हें प्रश्न सिखलाने लगे और उनका उत्तर भी देने लगे। सबसे पहले उन्होंने यह पूछा कि, “काम, क्रोध एवं लोभादि शत्रुओं के वेग की तीव्रता तथा मन्दता बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था के कारण होती है। जैसे कि बाल्यावस्था में मन्दवेग होता है, युवावस्था में तीव्रवेग होता है और वृद्धावस्था में मन्दवेग हो जाता है। इस प्रकार कामादि की तीव्रता तथा मन्दता तो प्रतीत होती है, परन्तु विचार द्वारा दोषों की मन्दता रहती है या नहीं?”

उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर स्वयमेव दिया कि, “विचार द्वारा भी कामादि की मन्दता, तीव्रता और शिथिलता रहती है। वह विचार कैसा होता है तो बाल्यावस्था में दोषों की मंदता होती है। यौवन अवस्था में दोषों की तीव्रता होती है तथा वृद्धावस्था में पुनः दोषों के वेग में मंदता आ जाती है। वह तो मनुष्य के आहार के कारण ही होता है। जैसे कि बाल्यावस्था में आहार कम होने के कारण काम भाव (विकार) मंद होता है। तथा वृद्धावस्था में भी आहार कम हो होने के कारण कामभावना भी कम रहती है। किन्तु युवावस्था में आहार बढ़ जाता है, जिससे कामुकता में भी वृद्धि हो जाती है। यदि वह युवावस्था में आहार को कम कर दे और देह द्वारा सर्दी, गर्मी, वर्षा और भूख आदि को जान-बूझकर सहन करता रहे तथा ऐसा ही (संयम का) विचार रखते हुए महान संत का सत्संग करता रहे तो युवावस्था में भी उसकी कामभावना मन्द हो जाती है।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “जीव नाना प्रकार के व्यसनों से ग्रस्त होता है। जैसे, किसी को भाँग का, किसी को अफ़ीम का, किसी को शराब का और किसी को गाँजे का व्यसन होता है, ऐसे अनेक प्रकार के व्यसन करने से लगते हैं अथवा प्रारब्धवशात् लग जाते हैं?”

फिर इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने इस प्रकार दिया कि, “ये व्यसन व्यक्ति को प्रारब्धवश होने से नहीं लगते बल्कि वे तो ‘करने’ से होते हैं। यदि इन व्यसनों को दूर करने के लिए श्रद्धा सहित आग्रह रहे तथा शूरवीरता हो, तो ये व्यसन मिट जाते हैं। परन्तु बिना श्रद्धा के जो कायर होता है, उससे ऐसे स्वभाव मिटते ही नहीं।”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “कितने ही बालक ऐसे होते हैं, जिनका स्वभाव वृद्धों जैसा होता है, जबकि कितने ही बच्चों की प्रकृति अति चंचल होती है। क्या ऐसी प्रकृति का कारण संग है या उसके जीव में ही ऐसी प्रकृति का अस्तित्व बना रहता है?”

इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि, “प्रायः संग करने से ही अच्छी-बुरी प्रकृति बनी रहती है तथा कितने ही पुरुषों का अच्छा-बुरा स्वभाव पूर्वकर्मों के कारण भी बना रहता है।”

तब कपिलेश्वरानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! यह बात किस प्रकार मालूम हो कि अमुक स्वभाव पूर्वकर्मजन्य है और अमुक स्वभाव अभी का है?”

तब श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “जो स्वभाव अभी का है, वह अच्छे सन्त के संग में रहकर उसे मिटाने का थोड़ा-सा उपाय करने पर मिट जाता है। जैसे मुंडेर पर तृण उग आया हो और वे पाँच-छः दिन भी वर्षा न होने पर सूख जाता है, वैसे ही अभी का स्वभाव थोड़े दिनों में ही टल जाता है, किन्तु पूर्वकर्मजन्य स्वभाव को मिटाने के लिए तो अत्यन्त कठोर परिश्रम करे, तब भी वह बड़ी कठिनाई से मिट पाता है। जिस प्रकार किसान धरती में स्थित दूर्वा या छोटे बेर के वृक्षों को आग लगाकर जला देते हैं, फिर भी वे फिरसे अंकुरित हो जाते हैं। परन्तु वह कुदाली से उन्हें जड़ से ही खोद डाले, तब तो वे बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं। उसी प्रकार पूर्व का स्वभाव अच्छे सन्त के सत्संग में रहकर अधिकाधिक प्रयास करने पर बड़ी कठिनाई से टलता है।”

तब श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा, “जिसकी इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, उनकी चंचलता को टालने के लिए पृथक् पृथक् रूप से कौन से उपाय किए जाने चाहिए?”

इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया, “चक्षु-इन्द्रिय की चंचलता को टालने का उपाय यह है कि नासिकाग्र दृष्टि रखें और अपने चारों ओर इधर-उधर झांकते न रहें, अध्ययन करना हो तो वही करते रहें तथा भजन-स्मरण करते हों तो उसी में एकाग्र रहे। ऐसा करने पर भी अगर स्त्री आदि पर दृष्टि पड़ जाए और भले ही कोई अनुचित संकल्प न हुआ हो, पर नेत्रों को खुला रखकर अपलक आँखें रखकर आँखों में अच्छी तरह जलन होने तथा अश्रुधारा बहने तक घड़ी-दो घड़ी पर्यन्त यही क्रम जारी रखें, तब उसकी चंचल दृष्टि भी वश में हो जाती है। नासिका-इन्द्रिय द्वारा किसी के शरीर अथवा मुख या वस्त्र से आनेवाली दुर्गन्ध सह्य न हो, तो उस समय ऐसा विचार करना कि, ‘मेरी देह भी यद्यपि ऊपर से अच्छी है, फिर भी उसके भीतर रुधिर, मांस तथा हड्डियाँ भरी हुई हैं तथा पेट में मल, मूत्र और आँतें भरे पड़े हैं।’ ऐसा विचार करने से नासिका की चंचलता मिट जाती है।

“कान की चंचलता को टालने का उपाय यह है कि जब कहीं हँसी-मज़ाक होता हो और ‘नौटंकी’ होती हो, तो उसमें मन लग जाए तथा भगवान की कथा और कीर्तन सुनने में निद्रा आने लगे, तब वहाँ से उठ जाना चाहिए, निद्रा एवं आलस्य को टालकर भगवान की कथा सुनने में श्रद्धा रखनी चाहिए और उसी में स्नेहभाव रखना चाहिए तभी कर्णेन्द्रिय पर विजय हो सकती है। त्वचा-इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने का उपाय यह है कि जानबूझकर सर्दी, गर्मी और वर्षा को सहन करना, रजाई को सिरहाने रख देना, कदाचित् भारी ठंड लगे, तभी उसे ओढ़ लेना एवं जहाँ-तहाँ पड़े रहना। इस प्रकार से त्वग्-इन्द्रिय को वश में कर लेना चाहिए।

“हाथ की चंचलता को मिटाने का तरीका यह है कि जब हाथ खाली हो तब हाथ में माला रखकर श्वासोच्छ्वास में भगवान का नाम जप करते हुए माला फेरनी चाहिए, परन्तु द्रुतगति से माला नहीं फेरनी चाहिए। कितने ही लोग ऐसा कहते हैं कि मन द्वारा अधिक संख्या में नामजप हो सकते हैं, परन्तु यह बात मिथ्या है। जितने नामजप जिह्वा द्वारा लिए जाते हैं, उतने ही नाम मन द्वारा लिए जाते हैं। इस प्रकार का आचरण करने से हाथ की चंचलता मिट जाती है। यदि पैर चंचल हों, तो स्थिर आसन से बैठना, तब पैर जीत लिए जाते हैं। शिश्न की चंचलता को दूर करने के लिए इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि जिस प्रकार खाज या लाल दाद को खुजलाने से खून निकलता रहता है, किन्तु खाज नहीं मिट पाती, लेकिन यदि उसे नहीं खुजाया जाए, तो वह अपने आप मिट जाती है, वैसे ही शिश्न-इन्द्रिय के चंचल होने पर भी हाथ से उसको बिल्कुल स्पर्श नहीं करना। यदि वायु के प्रकोप से शिश्न चंचल बनता हो, तो आहार को नियंत्रित कर देना, उपवास करते रहना, तथा देह को बलहीन कर डालना चाहिए, इस प्रकार शिश्न को जीत लिया जाता है।

“जिह्वा-इन्द्रिय को जीतने के लिए यही उपाय है कि जो वस्तु जीभ को स्वादिष्ट लगती हो, वह उसे नहीं देनी चाहिए तथा युक्त आहार करने से जिह्वा की चंचलता मिट जाती है। वाणी की चंचलता को मिटाने का उपाय यह है कि जब मुक्तानन्द स्वामी जैसे सन्त वार्ता करते हों तथा कथा बांचते हों, तब बीच में ही अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने के लिए नहीं बोलना चाहिए। यदि बीच में बोला जाए, तो पच्चीस माला फेरनी चाहिए। ऐसा करने से वाणी की चंचलता मिट जाती हैं।”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा, “वह कौन-सी इन्द्रिय है, जिस पर परिपक्व रूप से विजय पा लेने पर समस्त इन्द्रियों को जीत लिया जाता है?”

इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि “एक जिह्वा को यदि परिपक्वतापूर्वक जीत लिया, तो अन्य समस्त इन्द्रियाँ भी विजित हो जाती हैं।”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा, “जिस पुरुष के हृदय में काम-वासना व्याप्त हो चुकी हो, उसे बाह्यरूप से किस प्रकार पहचाना जाए कि ‘यह कामोन्मत्त हो रहा है’ क्योंकि उसकी इन्द्रिय तो ढकी हुई रहती है?”

इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया, “जिसमें काम-वासना व्याप्त हो चुकी हो, उसकी नेत्रेन्द्रिय सहित समस्त इन्द्रियाँ चंचल हो जाती हैं। तब समझ लेना कि यह पुरुष कामाकुल हो गया है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “जिसका चंचल स्वभाव हो, उसे शान्त होना तथा जिसका शान्त स्वभाव हो, उसे चंचल होना - यह किस विचार द्वारा संभव होता है?”

इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि, “जो चंचल होता है, वह यह विचार करे कि, ‘मैं आत्मा हूँ, ब्रह्म हूँ तथा अलिंग हूँ और आकाश के समान स्थिर हूँ।’ ऐसा विचार करने से वह उपशमावस्था को प्राप्त होता है और तभी वह चंचलता मिटकर शान्त होती है। यदि शान्त स्वभाव वाले को चंचल होना है, तो उसे भगवान तथा भगवद्भक्त का माहात्म्य जानना, माहात्म्य जानने के पश्चात् वह भगवान की नौ प्रकार से भक्ति करे, तथा भगवान के भक्त की सेवा-शुश्रूषा करे तब उसका शांत स्वभाव चंचल (क्रियात्मक) बनता है।”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा, “श्रीमद्भागवत आदि जो आठ सत्-शास्त्र हैं, उनमें से कोई-कोई शास्त्र त्याज्य हैं, या फिर समस्त शास्त्र ग्रहण करने योग्य हैं?”

इसका उत्तर उन्होंने इस प्रकार दिया, “समस्त ग्रन्थों में भी अनेक प्रकार के प्रकरण हैं, जिनमें भगवान (की शरण) को प्राप्त कर चुके अनेक भक्तों के अंग दिखाए गये हैं। अतः वैसे तो सभी प्रकरण ग्रहण करने योग्य हैं। फिर भी, इन समस्त प्रकरणों में से जो प्रकरण अपने अंग से मिलता-जुलता हो, उसे ग्रहण कर लेना। और अवशिष्ट प्रकरणों का त्याग कर देना चाहिए तथा यह जान लेना चाहिए कि, ‘अन्य प्रकरण हैं तो सच्चे, किन्तु वे मेरे लिए नहीं, बल्कि अन्य भक्तों के लिए हैं।’”

फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “यहाँ तुम सब छोटे युवा सन्त बैठे हो, जिनमें से किन्हीं की तो समस्त सन्त प्रशंसा करते हैं और किन्हीं की नहीं करते। सबकी अवस्था और संग एक समान हैं। भोजन, वस्त्र, उपासना, शास्त्र, उपदेश तथा मन्त्र भी सबके एकसमान हैं। फिर भी जो न्यूनता तथा अधिकता रह गई है, उसका क्या कारण है? क्योंकि सन्त तो समदृष्टि वाले, निष्पक्ष और धर्मात्मा हैं। अतः जो जैसा होता है, उसको वैसा ही कहते हैं, अतः इसका उत्तर दें।”

फिर उन्होंने स्वयमेव इसका उत्तर दिया कि, “सन्त जिसकी प्रशंसा करते हैं, उसी को श्रद्धा है तथा धर्म का पालन करने में वह आगे बढ़ा हुआ है। सन्त की सेवा करने में तथा भगवान की वार्ता सुनने में भी उसी को श्रद्धा है और उसको सन्त के प्रति विश्वास भी है। इसलिए, उसकी प्रगति हुई है। जो (सन्त अथवा सत्संगी) ऐसे सत्संग में रहने पर भी अपनी उन्नति नहीं कर सका, वह श्रद्धारहित है, यही जानना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ८ ॥ ११६ ॥

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