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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया ९

धर्मादि चार गुणों की उत्पत्ति

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष शुक्ला षष्ठी (११ दिसम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत छींट की बगलबंडी पहनी थी, सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा पहना था और मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

श्रीजीमहाराज बोले कि, “समस्त परमहंस परस्पर प्रश्नोत्तर करना प्रारम्भ करें।”

तब आत्मानन्द स्वामी ने अखंडानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा कि, “वैराग्य, ज्ञान, भक्ति तथा धर्म इन चार गुणों के उत्पन्न होने का हेतु क्या है?”

तब श्रीजीमहाराज ने इसका उत्तर दिया कि, “काल का स्वरूप जानने पर वैराग्य उत्पन्न होता है। उस काल का स्वरूप क्या है? तो नित्यप्रलय को जाने, नैमित्तिक प्रलय को जाने, प्राकृत प्रलय को जाने, एवं आत्यन्तिक प्रलय को जाने तथा ब्रह्मादि स्तम्बपर्यन्त समस्त जीवों के आयुष्य को जाने, और ऐसा जानकर पिंड-ब्रह्मांड के सभी पदार्थों को काल का भक्ष्य समझे, तब वैराग्य उत्पन्न होता है।

“और, जब बृहदारण्यक, छान्दोग्य तथा कठवल्ली आदि उपनिषदों और भगवद्‌गीता, वासुदेवमाहात्म्य एवं व्याससूत्र आदि ग्रन्थों का सद्‌गुरु द्वारा श्रवण करे तब ज्ञान उत्पन्न होता है। और, याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति, पाराशरस्मृति तथा शंखलिखित स्मृति आदि स्मृतियों का श्रवण करने से ‘धर्म’ उत्पन्न होता है और धर्म के प्रति निष्ठा रहती है।

“तथा भगवान की विभूतियों को जाने, जैसे कि खंड-खंड के प्रति भगवान की जो मूर्तियाँ रहती हैं, उनके सम्बंध में श्रवण करता रहे; तथा भगवान के गोलोक, वैकुंठ, ब्रह्मपुर तथा श्वेतद्वीपादि धामों की कथा सुने, और जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयरूपी भगवान की लीला को माहात्म्यसहित सुने तथा भगवान के रामकृष्णादि अवतारों की कथाओं का स्नेहपूर्वक श्रवण करे तब भगवान की भक्ति उत्पन्न होती है।

“इन चारों गुणों में जो धर्म है, उसकी उत्पत्ति अपरिपक्व बुद्धि के कारण पहले से ही कर्मकांडरूपी स्मृतियों का श्रवण करने से होती है। धर्म में दृढ़ता होने के पश्चात् उपासना ग्रन्थों का श्रवण करना, तभी उस पुरुष के हृदय में ज्ञान, भक्ति और वैराग्य तीनों गुण उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार इन चारों गुणों के उत्पन्न होने के ये ही उपरोक्त हेतु हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ९ ॥ ११७ ॥

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