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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
लोया १०
निर्विकारिता
संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष शुक्ला अष्टमी (१३ दिसम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम भक्त सुराखाचर के राजभवन में प्रातःकाल पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत छींट की बगलबंडी पहनी थी, सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा पहना था तथा मस्तक पर सफ़ेद फेंटा बाँधा था। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न किया, “इस जगत में कितने ही मनुष्यों को स्त्री आदि सम्बंधीजनों से ऐसा स्नेह होता है कि उनसे वियोग होने पर प्राणान्त हो जाए। कितने ही मनुष्य ऐसे हैं, जिन्हें स्त्री-आदि से साधारण प्रेम है, अतः उनके वियोग से उनका प्राणोत्सर्ग नहीं होता। इस प्रकार दो तरह के जीव हैं। जैसे ये जीव संसार में ऐसा उत्कट प्रेम करते हैं, वैसे ही यदि इन लोगों को भगवान मिल जाए तो वे उनमें भी वैसे तन्मय हो जाते हैं कि भगवान का वियोग होने पर उनका प्रणान्त हो जाए। जिन्हें संसार में साधारण प्रेम होता है, उन्हें यदि भगवान मिल जाएँ, तो उनके साथ उनका साधारण प्रेम होता है। इन दो प्रकार के मनुष्यों में कर्म द्वारा भेद है? या वे जीव अनादि काल से ऐसे ही हैं?”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “यह भेद जीव में स्वाभाविकरूप से नहीं है। ये तो कर्म द्वारा ही भेद उत्पन्न हुए हैं। जब जीव कर्म करता है, तब उसकी वृत्ति का वेग तीन प्रकार से होता है। इनमें से पहला मन्द वेग, दूसरा मध्यम वेग तथा तीसरा तीव्र वेग है। इनमें से जिस वेग द्वारा उसकी वृत्ति पदार्थों में लग जाती है, उस पर उसी प्रकार का कर्म लागू हो जाता है। उस कर्म द्वारा स्नेह के भी तीन प्रकार हो जाते हैं।”
नित्यानन्द स्वामी ने पुनः पूछा, “वृत्तिजन्य वेग के ये तीन प्रकार हुए, उनमें गुण ही कारणरूप हुए हैं या किसी अन्य भी कारण है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “तीन प्रकार के ये भेद गुण द्वारा नहीं, परन्तु इन्द्रियों की प्रवृत्ति के द्वारा होता है। जिस पदार्थ में केवल इन्द्रियाँ ही प्रवृत्त रहती हैं, वह मन्द वेग होता है। जब पदार्थ में मनसहित इन्द्रियाँ लग जाती हैं, तब मध्यम वेग होता है। जब इन्द्रियाँ, मन तथा जीव, ये तीनों एकत्र होकर पदार्थों में प्रवृत्त हो जाते हैं, तब उस वृत्ति का तीव्र वेग हो जाता है। यदि यह में तीव्र वेग केवल चक्षु इन्द्रिय में लगा हो, तो अन्य इन्द्रियाँ भी उसी का अनुगमन करती हैं और तब समस्त इन्दियों में वेग की तीव्रता बढ़ जाती है। इस प्रकार, जिस-जिस इन्द्रिय में मुख्यतः तीव्र वेग लगा तब अन्य इन्द्रियाँ भी उसी की अनुवर्तिनी हो जाती हैं। यह तीव्र वेग रजोगुणी, सत्त्वगुणी तथा तमोगुणी तीनों प्रकार के मनुष्यों की इन्द्रियों पर लागू होता है। तथा एक-एक इन्द्रिय में तो सबको तीव्र वेग होता है, तथा तदनुसार पदार्थ के प्रति स्नेहभाव भी बना रहता है।”
फिर नित्यानन्द स्वामी ने पूछा, “जीव को भगवान से तीव्र वेग द्वारा स्नेह क्यों नहीं होता?”
श्रीजीमहाराज बोले, “देश, काल, क्रिया, ध्यान, शास्त्र, दीक्षा, मन्त्र तथा संग – इनके द्वारा शुभ अथवा अशुभ आचरण होता है। यदि शुभ देश, शुभ काल तथा शुभ संगादि प्राप्त हुए हों, तो भगवान के प्रति भी तीव्र वेग से स्नेह हो जाता है। परन्तु यदि अशुभ देशादि का योग हुआ, तो भगवान को छोड़कर अन्य सभी पदार्थों से प्रीति हो जाती है।”
फिर चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “यदि ‘काल’ विषम हो, तब क्या किया जाए?”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “जब जिस स्थान में काल की विषमता रहे, तब उस स्थान से अन्य स्थान में चले जाना चाहिए, परन्तु विषमकाल में नहीं रहना चाहिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलि के रूप से काल बाहर तो व्याप्त रहता है, परन्तु अन्तःकरण में भी उसकी स्थिति वैसी ही बनी रहती है। अतः जब हृदय में कलि की व्यापकता बनी रहती हो, तब भगवान की मूर्ति को हृदय में धारण नहीं करना। उस समय तो उसे नेत्रों के आगे धारण कर लेना।”
फिर मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “इस बात की जानकारी किस प्रकार मिलती है कि हृदय में मन्दवेग, मध्यमवेग अथवा तीव्रवेग बना हुआ है?”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि “जब मन्दवेग रहता है तब छोटी बालिका, नवयुवती तथा वृद्ध स्त्री को देखकर उनके सम्बंध में समान भाव रहता है, क्योंकि वहाँ अकेली इन्द्रिय की ही वृत्ति पहुँच पाती है। यह स्थिति मन्दवेग की द्योतक है। और, जब मन भी इन्द्रियों से मिल जाता है, तब इन तीनों प्रकार की स्त्रियों में से बालिका तथा वृद्ध स्त्री को देखकर तो अशुभ संकल्प नहीं होता, किन्तु युवती को देखकर उसके प्रति अवश्य ही बुरा संकल्प हो जाता है और वह विकारग्रस्त हो जाता है, इसे मध्यमवेग कहते हैं। जब इन्द्रिय में मन तथा जीव एकसाथ मिलकर तीनों प्रकार की स्त्रियों को देखते हैं, तब उसके हृदय में उन तीनों के प्रति अशुभ संकल्प होते हैं और वह विकार-प्राप्त हो जाता है। वैसी दशा में तो पुरुष अपनी माता तथा बहन तक को देखकर भी मनोविकार से ग्रस्त हो जाता है। ऐसी स्थिति तीव्रवेग की द्योतक है।”
फिर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “तीनों प्रकार की स्त्रियों को देखने पर तथा तीनों के भेद मालूम हो जाने पर उनके रूप-कुरूप तो ज्ञात होता है, परन्तु मन में विकार उत्पन्न नहीं होता, तो उसे कौन-सा वेग मानना चाहिए?”
तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिस पदार्थ को अत्यन्त दुःखदायी जानकर इसका मनन हुआ हो तो उस पदार्थ में भली भाँति दोषज्ञान हो जाता है, तथा वही दोष जब मनन द्वारा जीव में प्रवेश करता है तब जीव से परे रहनेवाला ‘साक्षी’ भी उसके दोष को प्रमाणित करता है। यही कारण है कि सांसारिक पदार्थों के प्रति दोषभाव की अत्यंत दृढ़ता हुई है। अतः पदार्थ में जब इन्द्रिय की वृत्ति पहुँचती है, तब उस वृत्ति के साथ-साथ मन और जीव दोनों आ जाते हैं। परन्तु जीव में दोष विषयक जो अत्यंत दृढ़ता रहती है, उसका प्रभाव मन तथा इन्द्रियों पर अत्यंत ही गहरा पड़ जाता है। अतएव, उसको पदार्थ का यथार्थ रूप भी दृष्टिगोचर हो जाता है तथा उस पदार्थ के प्रति अत्यंत अरुचि भी हो जाती है। जैसे शक्करमिश्रित दूधभरे पात्र में साँप ने अपनी लार डाल दी और उसको लार डालते हुए देख लिया, तो भले ही दूध पूर्ववत् दिखाई देता हो, परन्तु देखनेवाले के हृदय में उसके प्रति अत्यंत अरुचि हो जाएगी! क्योंकि उसके सम्बंध में यह ज्ञात हो गया है कि, ‘इस दूध को पीने से तुरन्त प्राणान्त हो जाएगा।’
“इसी तरह जिसकी ऐसी समझ है कि, ‘यह रूपवती स्त्री कल्याण के मार्ग में बाधक है, तथा इह लोक और परलोक में यह परम दुःखदायिनी है। और, स्त्री की प्राप्ति तो मुझे पशु आदि के रूप में जन्म लेने पर अनेक बार हो चुकी है, तथा अब भी यदि मैं परमेश्वर का भजन नहीं करूँगा, तो भी मुझे कई जन्म में अनेक स्त्रियों की प्राप्ति होती रहेगी! अतः वह दुर्लभ नहीं है। और भगवान तथा उनके सन्त का संग महादुर्लभ है। ऐसी दुर्लभ प्राप्ति में स्त्री ही परम विघ्नरूप है।’ ऐसा जानकर हृदय में उसके प्रति दोषभाव की दृढ़ता हुई हो, तब उसे चाहे कितनी ही रूपवती स्त्री दिखाई दे परन्तु उसे मनोविकार नहीं उत्पन्न होगा।”
श्रीजीमहाराज बोले, “ऐसे अविकारी बने रहने का दूसरा भी कारण है। जैसे विदेही जनक जैसे भगवान के जो महान भक्त राजा थे, जो राज्य में रहकर रमणीय पंचविषयों का उपभोग करते हुए भी ज्ञान की दृढ़ता रहने से निर्विकार बने रहे। वस्तुतः जनकसदृश जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे यह विचार करते हैं कि, ‘मैं आत्मा हूँ, शुद्ध हूँ, चेतन हूँ, निर्विकार हूँ, आनन्दरूप हूँ तथा अविनाशी हूँ, परन्तु स्त्री आदि विषय तो दुःखरूप हैं, तुच्छ हैं, जड हैं तथा नाशवान भी हैं।’ ऐसा विचार कर वह केवल अपने आत्मस्वरूप को ही आनन्दरूप मानता है। वह यह भी जानता है कि, ‘शब्दादि विषयों में जो सुखाभास होता है और सुंदरता मालूम होती है, वह तो आत्मा के साथ सम्बंध के कारण ही है। जब देह से आत्मा निकल जाती है, तब सुखरूप वस्तु भी दुःखद हो जाती है।’ इस प्रकार वह अपनी आत्मा के सम्बंध में विचार करता रहे। और, आत्मा से परे परमात्मा के सम्बंध में भी विचार करता रहे कि, ‘माया से परे शुद्ध आत्मज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है, वह सन्त के प्रताप से ही प्राप्त हुआ है; और वे सन्त तो परमेश्वर के भक्त हैं और वह परमेश्वर तो सर्वात्मा ब्रह्म की भी आत्मा हैं, और अक्षर की भी आत्मा है तथा अनन्तकोटि मुक्तों की भी आत्मा हैं। ऐसे परब्रह्म परमात्मा नारायण का मैं ब्रह्मरूप दास हूँ।’ और उन भगवान की महिमा को इस प्रकार समझे कि, ‘धुपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया त्वमपि,’१७० इत्यादि श्रुतियों ने भगवान की महिमा का अधिकाधिक प्रतिपादन किया है।
“इस प्रकार जिसे अपने स्वरूप तथा परब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान है, उसे चाहे कैसे भी विषय प्राप्त हों, तो भी उसका मन लेशमात्र भी विकार-वान नहीं होता। वह आवश्यक शब्दादि विषयों को अवश्य ग्रहण करता है, परन्तु उन विषयों के अधीन नहीं हो जाता, तथा उन विषयों को स्वतन्त्ररूप से ग्रहण करता है। जैसे मकड़ी अपनी लार को फैलाकर पुनः स्वतन्त्र रूप से स्वेच्छापूर्वक निगल लेती है, वैसे ही ऐसा ज्ञानी भी अपनी इन्द्रियों की वृत्तियों को विषयों में फैलाकर पुनः स्वतन्त्रतापूर्वक समेट लेता है। ऐसा पुरुष भले ही राज्य में रहता हो, तो भी मानो वन में ही है! वन में रहता हो तो भी उसे राज्य में रहनेवालों से भी अधिक आनन्द है। ऐसा ज्ञानी पुरुष राज्य में रहता हो और हज़ारों मनुष्य उसकी आज्ञा में रहते हों तथा समृद्ध भी हो, फिर भी वह स्वयं को ऐसा नहीं मानता कि, ‘मैं बहुत बड़ा आदमी हो गया।’ और, अपने पूरे राज्य का नाश हो जाए या हाथ में मृत्तिका-पात्र लेकर घर-घर जाकर भीख माँगकर अपनी क्षुधापूर्ति करनी पड़े, तो भी वह ऐसा नहीं समझता कि, ‘अब मैं गरीब हो गया।’ क्योंकि वह निजानन्द में महा-अलमस्त रहता है और उसने अपने स्वरूप तथा भगवान के स्वरूप की महिमा को जान लिया है, इसलिए उसे सोना, कचरा, लोहा और पाषाण आदि में समबुद्धि रहती है।
“तथा मान-अपमान में भी उसकी समान बुद्धि रहती है। और ऐसे ज्ञानी को कोई भी पदार्थ बन्धन में रखने में समर्थ नहीं होता। इसका कारण यह है कि उसकी दृष्टि बहुत विशाल हो चुकी है तथा समस्त मायिक पदार्थों को उसने तुच्छ मान लिया है। जैसे कोई पुरुष पहले कंगाल रहा हो और बाद में उसे राज्य मिल जाए, तो उसकी दृष्टि विशाल हो जाती है। तब वह सब बातें भूल जाता है कि कभी वह लकड़ी के गट्ठर बेचा करता था अथवा अन्य तुच्छ काम किया करता था। वे बातें भूलकर अब वह राज्य सम्बंधी बड़े-बड़े कार्य करने लगता है। वैसे ही ऐसे ज्ञानी पुरुष को सभी पदार्थ तुच्छ प्रतीत होते हैं। ऐसे ज्ञान के सम्बंध में उसकी दृष्टि विशाल हो जाती है। जिसने ऐसा समझ लिया है, वही सुखी है। तथा जो विश्वासी हो, अर्थात् जो ऐसा समझता हो कि, ‘ऐसे महान सन्त तथा भगवान जो उपदेश देते हैं, वह यथार्थ है, लेकिन उसमें कोई संशय नहीं है।’ ऐसा समझकर भगवान तथा सन्त उसे जिस प्रकार आदेश दें, उसी प्रकार कार्य करने लगता है। ये दो प्रकार के पुरुष ही सुखी हैं, उसके सिवा अन्य कोई सुखी नहीं हैं। इस प्रसंग में यह श्लोक है:
“यश्च मूढ़तमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः।तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यन्त्यन्तरितो जनाः॥”१७१
“भगवद्गीता में भी कहा गया है:
“विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥”१७२
“इस प्रकार जिसकी दृष्टि अलौकिक हो जाती है, उसके लिए परमेश्वर के सिवा अन्य समस्त पदार्थ तुच्छ हो जाते हैं। इन दोनों श्लोकों का भी एकसमान भावार्थ है।”
फिर मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से कहा कि, “हे महाराज! आप जो प्रश्न पूछते हैं, उसे अब पूछिए।”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “माया में केवल दुःख ही है या कुछ सुख भी है? यह प्रश्न है।”
मुक्तानन्द स्वामी ने कहा कि, “माया तो केवल दुःखदायी है।”
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “माया से उत्पन्न सत्त्व, रज तथा तम - इन तीनों गुणों में सत्त्वगुण को तो सुखरूप बताया गया है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि ‘सत्त्वं यद्ब्रह्मदर्शनम्।’१७३ सत्त्वगुण की सम्पत्ति ज्ञान, वैराग्य, विवेक तथा शम-दमादि है। ऐसी जो माया है, वह किस प्रकार दुःखरूप है? तथा श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में भी कहा गया है:
“विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव! शरीरिणाम् ।बन्धमोक्षकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ॥”१७४
“तो प्रश्न यह है कि मोक्ष देनेवाली माया किस प्रकार दुःखदायी होती है?”
इस प्रश्न को सुनकर मुक्तानन्द स्वामी आदि समस्त परमहंस बोले कि, “हे महाराज! इस प्रश्न का उत्तर देने में हम असमर्थ रहेंगे। इसलिए, कृपया आप इसका उत्तर दीजिए।”
तब श्रीजीमहाराज उत्तर देने लगे कि, “जिस प्रकार पापी जीवों को यमराज का स्वरूप अति भयानक और विकराल दिखाई पड़ता है तथा उनके बड़े-बड़े दाँत और बड़ा मुख काजल जैसा काला, पर्वत-सदृश बड़ा और काल जैसा भयानक एवं त्रासदायी दीख पड़ता है, किन्तु पुण्यात्मा जीवों को यमराज का स्वरूप अत्यन्त सुखदायी विष्णु के समान दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही माया भी भगवान से विमुख रहनेवाले जीवों के लिए अतिबन्धनकारी तथा अत्यन्त दुःखदायी है, जबकि भगवान के भक्तों के लिए वही माया अत्यन्त सुखदायी है। इसी प्रकार, माया की कार्यरूप जो इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा देवता हैं, वे सभी भगवान की भक्ति को अतिपुष्ट करते हैं। इसलिए, भगवान के भक्तों के लिए तो माया दुःखदायी नहीं, वरन् परम सुखदायी है।”
तत्पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि “जब माया सुखदायी है, तब जो भगवान की मूर्ति को हृदय में धारण करके भजन करने बैठता है, ऐसे परमेश्वर के भक्त को अन्तःकरणरूपी माया संकल्प-विकल्प द्वारा दुःख क्यों देती है?”
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिस भक्त ने भगवान के माहात्म्य को अच्छी तरह समझकर अतिशय दृढ़ता के साथ भगवान का आश्रय ग्रहण कर लिया है, उसको तो अन्तःकरणरूपी माया दुःख नहीं देती। किन्तु, जिसको ऐसे आश्रय में शिथिलता रहती है, उसी को यह माया दुःख देती है। जैसे कुसंगी पुरुष अपरिपक्व सत्संगी को पतनोन्मुख करने का आग्रह करता है, किन्तु परिपक्व सत्संगी को गिराने के लिए वह कोई भी लालच नहीं रखता और उसके सुनते कोई भी पुरुष सत्संग की गौणता नहीं कर सकता, वैसे ही जिस भक्त ने परिपक्वरूप से परमेश्वर का आश्रय लिया है, उसे गिराने का लालच अन्तःकरणरूपी माया नहीं रखती। वह तो उसकी भक्ति की पुष्टि ही करने लगती है। जिसके जीव में वैसा आश्रय ग्रहण करने में कुछ अपरिपक्वता रह गई हो, उसी को वह माया पथभ्रष्ट कर डालती है और दुःख भी देती है। जब वही जीव इस प्रकार परिपक्वरूप से भगवान का आश्रय ग्रहण कर लेगा, तब माया उसे गिराने और पीडित करने में समर्थ नहीं हो पाएगी। इसलिए, इस प्रश्न का उत्तर यही है कि: जिसे भगवान सम्बंधी ऐसा परिपक्व निश्चय हो चुका है, उसे माया किसी भी प्रकार से दुःख देने में समर्थ होती ही नहीं है।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ १० ॥ ११८ ॥
This Vachanamrut took place ago.
१७०. अर्थ: “ब्रह्मादि देव भी आपकी महिमा का पार नहीं पाते, क्योंकि आपकी महिमा अपार है। किंबहुना, आपने भी अपनी महिमा का अन्त नहीं पाया।” (श्रीमद्भागवत १०/८७/४१)
१७१. अर्थ: “जिस भक्त को भले ही शास्त्रज्ञान न हो परंतु दृढ़ विश्वासपूर्वक (मूढ़ रूप से) भगवान एवं संत के उपदेशानुसार भगवद्भजन करता है तथा जिस भक्त ने बुद्धि से परे रहनेवाले आत्मा एवं परमात्मा के स्वरूप को जान लिया है वही ज्ञानी भगवान के सुख को प्राप्त करता है परंतु जो विश्वासी भी नहीं है और ज्ञानी भी नहीं है ऐसा अंतरित भक्त हमेशा क्लेश प्राप्त करता है।” (श्रीमद्भागवत: ३/७/१७)
१७२. अर्थ: “इन्द्रियों के आहार न करनेवाले मनुष्य की विषयवृत्ति आत्मा तक नहीं पहुँचती है। भक्त के लिए विषय निवृत्त हो जाते हैं। किन्तु उसकी आसक्ति निवृत्त नहीं होती। वह तो परमात्मा के साक्षात्कार से ही मिटती है।” (गीता: २/५९)
१७३. अर्थ: “सत्त्वगुण परब्रह्म का दर्शन करानेवाला है।” (श्रीमद्भागवत: १/२/२४)
१७४. अर्थ: “हे उद्धव! विद्या तथा अविद्या मेरे शरीरभूत है। मेरी माया से निर्मित हुई है। उसमें विद्याशक्ति मोक्षदायिनी है तथा अविद्याशक्ति बन्धनकारी है।” (श्रीमद्भागवत: ११/११/३)