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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया ११

सत्पुरुष तथा असत्पुरुष की समझ

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी (२८ दिसम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में प्रातःकाल विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में साधु तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय शुकमुनि ने श्रीजीमहाराज से पूछा, “श्रीमद्भागवत तथा भगवद्‌गीता आदि सत्-शास्त्रों से असत्पुरुष कैसा ज्ञान अर्थात् कैसी समझ ग्रहण करते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर यह है कि असत्पुरुषों की ऐसी समझ है कि इस विश्व में स्थावर-जंगमरूपी स्त्री-पुरुषों की समस्त आकृतियाँ विराटरूप आदिपुरुष नारायण की माया से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए, ये सब आकृतियाँ नारायण की ही हैं। अतः जो मुमुक्षु कल्याण का इच्छुक हो, उसे सर्वप्रथम अपने मन को वश में करना चाहिए। वह मन स्त्री-पुरुष-रूपी उत्तम तथा नीच आकृतियों के प्रति जब आसक्त हो, तब उसे उन्हीं आकृतियों का ध्यान करना चाहिए। इससे उसे सद्य समाधि लग जाती है। यदि मन उन आकृतियों में दोषों की परिकल्पना करे, तो उसमें ब्रह्म की भावना लानी चाहिए कि, ‘समग्र जगत ब्रह्म है।’ ऐसा विचार करके उस संकल्प को मिथ्या कर देना चाहिए! इस प्रकार सत्-शास्त्रों से अनुभव ग्रहण करना यह असत्पुरुष की समझ है। इस प्रकार की समझ रखना, वह तो उनके मन का अतिदुष्ट भाव है, जिसका फल अन्तकाल में घोरतम नरक तथा संसृति है।”

फिर श्रीजीमहाराज से शुकमुनि ने पुनः पूछा कि, “यह बताइए कि उन सत्शास्त्रों से सत्पुरुष कैसी शिक्षा ग्रहण करते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सत्-शास्त्रों में ही इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि मोक्ष की इच्छा रखनेवाले को एकमात्र पुरुषोत्तम नारायण के सिवाय शिव, ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं का ध्यान नहीं करना, तथा मनुष्य एवं देवतारूप में पुरुषोत्तम नारायण की जो रामकृष्णादि मूर्तियाँ हैं, उनका ध्यान करना। और उसमें भी जो बुद्धिमान हैं, वे जिस स्थान में भगवान की रामकृष्णादि मनुष्याकार मूर्तियाँ रही हैं, वहाँ वैकुंठ, गोलोक, श्वेतद्वीप तथा ब्रह्मपुर नामक लोकों की धारणा करते हैं। उन लोकों में रहनेवाले पार्षदों की भावना वे रामकृष्णादि के पार्षदों हनुमान, उद्धवादि में करते हैं। वे उन लोकों में कोटि-कोटि सूर्य-चन्द्रमा एवं अग्नि के प्रकाश के समान प्रकाशमान पुरुषोत्तम नारायण की दिव्यमूर्तियों की भावना राम-कृष्णादि में करते हैं। इस प्रकार वे सत्-शास्त्रों से ज्ञान ग्रहण करके दिव्यभाव सहित भगवान की मनुष्याकार मूर्ति का ध्यान करते हैं। उन्हें भगवान के अवतारों की मूर्तियों तथा उनके अतिरिक्त अन्य आकारों में समभाव रहता ही नहीं। वस्तुतः भगवान के अवतारों की जो मूर्तियाँ हैं, वे द्विभुज हैं, फिर भी उनमें चार भुजाओं तथा अष्ट भुजाओं की भावना रखने की बात तो इसलिए कही गयी है कि भगवान की मूर्तियों तथा उनके अतिरिक्त अन्य आकारों में अविवेकी पुरुषों को जो समभाव रहता है, उसकी निवृत्ति के लिए कही गई है।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “भगवान की जैसी मूर्ति हमें मिली है, उसी का ध्यान करना चाहिए। किन्तु भगवान के पूर्व अवतारों की मूर्तियों का ध्यान नहीं करना चाहिए। हमें भगवान की जो मूर्ति मिली हो, उसी में पतिव्रता स्त्री की तरह टेक रखना चाहिए। इस प्रसंग में पार्वती के ये वचन मननीय हैं:

‘जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु नत रहउँ कुआरी ॥’१७५

“पतिव्रता की ऐसी टेक भी इसलिए कही है कि अविवेकी लोगों को भगवान तथा अन्य जीव के रूप में जो समभाव हो जाता है, उसे दूर करने के लिए यही उपाय है। क्योंकि स्वयं को प्राप्त हुई मूर्ति को छोड़कर यदि वह पहले हो चूके परोक्ष अवतारों का ध्यान किया जाए, तो देव-मनुष्यादि आकारों का भी ध्यान कर लिया जाता है। इसी कारण पतिव्रता-जैसी टेक रखने की बात कही गई है। परन्तु, भगवान की मूर्तियों में भेद नहीं है, ऐसी सत्पुरुषों की समझ है। अतः सत्-शास्त्रों का श्रवण सत्पुरुष से ही करना चाहिए, किन्तु असत्पुरुष द्वारा कभी भी सत्-शास्त्र नहीं सुनना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ११ ॥ ११९ ॥

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१७५. रामचरितमानस - बालकांड: ९४/५

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