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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १२

तत्त्वों के लक्षण तथा उनकी उत्पत्ति

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा (१ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्वेत वस्त्र धारण करके विराजमान थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष हो रही सभा में साधु-संत तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त उपस्थित थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जब जीव जगत के कारणीभूत पुरुष, प्रकृति, काल तथा महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्वों को जान लेता है, तब स्वयं के सम्बंध में रहनेवाली अविद्या और उसके कार्यरूप चौबीस तत्त्वों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।”

मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! उन सभी के स्वरूपों का बोध किस प्रकार से हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “उनके स्वरूपों का बोध तो उनके लक्षणों द्वारा हो सकता है। उनके लक्षण ये हैं कि ‘पुरुष’ तो प्रकृति के नियन्ता और प्रकृति से विजातीय,१२ अखंड, अनादि, अनन्त, सत्य,१३ स्वयंज्योति, सर्वज्ञ, दिव्यविग्रह, समग्र आकारमात्र की प्रवृत्ति का कारण और क्षेत्रज्ञ१४ कहा जाता है। जो प्रकृति है, वह त्रिगुणात्मक, जडचिदात्मक,१५ नित्य एवं निर्विशेष१६ है। महदादि समग्र तत्त्व और जीवमात्र का क्षेत्र है और भगवान की शक्ति भी है। तथा ‘काल’ तो यह है, कि गुणसाम्यरूप१७ और निर्विशेष माया में जो विक्षेप करता है, वही काल है।

“अब महत्तत्त्वादि तत्त्वों के लक्षणों को सुनिए। चित्त तथा महत्तत्त्व को अभेद रूप से जानना तथा महत्तत्त्वों में समग्र जगत सूक्ष्मरूप से रहा है, तथा वह स्वयं निर्विकार, प्रकाशमान, स्वच्छ तथा शुद्धसत्त्वमय१८ एवं शान्त है। अब अहंकार के लक्षण कहते हैं कि अहंकार त्रिगुणात्मक है तथा वह भूतमात्र, इन्द्रियों, अन्तःकरण, देवता तथा प्राण आदि की उत्पत्ति का कारण है। अहंकार में शान्तपन, घोरपन और विमूढ़ता है।

“अब मन के लक्षण कहते हैं। मन स्त्री आदि की समग्र कामनाओं की उत्पत्ति का क्षेत्र है तथा संकल्प-विकल्पात्मक है। वह समस्त इन्द्रियों का नियन्ता भी है। अब बुद्धि के लक्षण कहते हैं। बुद्धि में पदार्थमात्र का ज्ञान रहता है और समस्त इन्द्रियों में जो विशेष ज्ञान है, वह बुद्धि के कारण है तथा बुद्धि में संशय, निश्चय, निद्रा तथा स्मृति का समावेश रहता है। श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण, वाक्, पाणि, पाद, पायु (गुदा) और उपस्थ, इन दस इन्द्रियों के लक्षण ये हैं कि वे अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त रहती हैं।

“अब पंच मात्राओं (पंचतन्मात्रा) के लक्षण कहते हैं। इनमें शब्द के लक्षण तो ये हैं कि शब्द अर्थमात्र का आश्रय तथा व्यवहारमात्र का कारण है। वह बोलनेवाले की जाति तथा स्वरूप का द्योतक, आकाश में रहनेवाला और आकाश की मात्रा१९ है तथा श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है। ये शब्द के लक्षण हैं। अब स्पर्श के लक्षण कहते हैं - स्पर्श वायु की तन्मात्रा है। वह कोमलता, कठोरता, शीतलता, उष्णतायुक्त है तथा त्वचा द्वारा ग्राह्य है। यही स्पर्श के लक्षण हैं। अब रूप के लक्षण कहते हैं - पदार्थमात्र के आकार का बोध कराना, पदार्थों में गौणभाव से व्याप्त रहना, पदार्थ की रचना के द्वारा परिणाम की निष्पत्ति प्राप्त करना, और जो तेजतत्त्व की तन्मात्रा है तथा चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है इत्यादि रूप के लक्षण हैं। अब रस के लक्षण कहते हैं - मधुरता, तिक्तता, कषायता, कड़वापन, खट्टापन, खारापन, जल की तन्मात्रा तथा रसना इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य तत्त्व को ही रस कहा गया है। अब गन्ध के लक्षण कहते हैं - सुगन्ध, दुर्गन्ध, पृथ्वी की तन्मात्रा तथा घ्राण इन्द्रिय द्वारा ग्रहण करने के तत्त्व को ही गन्ध का लक्षण बताया गया है। अब पृथ्वी के लक्षण कहते हैं - समस्त जीवमात्र को धारण करना, लोकरूप द्वारा स्थान (आश्रयदाता) होना, आकाशादि चार भूतों का विभागीकरण करना तथा समस्त भूतप्राणिमात्र के शरीर को प्रकट करना ही पृथ्वी का लक्षण है। अब जल के लक्षण कहते हैं - पृथ्वी आदि द्रव्यों का पिंडीकरण करना, पदार्थों को कोमल करना, आर्द्रता, तृप्ति प्रदान करना, प्राणिमात्र को जीवन-शक्ति देना, तृषा की निवृत्ति तथा उष्णता को दूर करना एवं विपुलता ये जल के लक्षण हैं। अब तेज के लक्षण कहते हैं - प्रकाशत्व, अन्नादि को पचाने की शक्ति होना, रस का ग्रहण करना, काष्ठ एवं हुतद्रव्यादि को ग्रहण करने की शक्ति होना, शीत को दूर करना, शोषण करना, तथा क्षुधा एवं तृषा को उद्दीप्त करना, ये तेज के लक्षण हैं। अब वायु के लक्षण कहते हैं - वृक्षादि में कम्पन उत्पन्न करना, तृणादि को एकत्र करना, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक पाँच विषयों को श्रोत्रादि पाँच इन्द्रियों के प्रति उन्मुख करना तथा समस्त इन्द्रियों का प्राणस्वरूप होना आदि वायु के लक्षण हैं। अब आकाश के लक्षण कहते हैं - समस्त जीवमात्र को अवकाश प्रदान करना, भूतप्राणि-मात्र की देह का आन्तरिक और बाह्य व्यवहार का कारण होना तथा प्राण, इन्द्रियों एवं अन्तःकरण में स्थान होना ये आकाश के लक्षण कहे गये हैं। इस प्रकार चौबीस तत्त्वों, प्रकृति, पुरुष तथा काल के लक्षणों को जान लेने पर जीव अज्ञान से मुक्त हो जाता है।

“इन सब तत्त्वों की उत्पत्ति को भी जानना चाहिए। इनकी उत्पत्ति का वर्णन करते हैं: अपने धाम में विराजमान श्रीकृष्ण भगवान ने अक्षरपुरुष द्वारा माया में गर्भ-स्थापन किया। तब उस माया से अनन्तकोटि प्रधान तथा पुरुष उत्पन्न हुए। वे प्रधान एवं पुरुष अनन्तकोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति के कारण हैं। उनमें एक ब्रह्मांड की उत्पत्ति के कारणीभूत प्रधानपुरुष२० का वर्णन करते हैं कि पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण भगवान ने प्रथम पुरुषरूप के द्वारा प्रधान में गर्भ स्थापन किया। बाद में प्रधान से महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ और महत्तत्त्व से तीन प्रकार के अहंकार की उत्पत्ति हुई। उनमें सात्त्विक अहंकार से मन तथा इन्द्रियों के देवता, राजस अहंकार से दस इन्द्रियाँ, बुद्धि एवं प्राण तथा तामस अहंकार से पंचभूत और पंचतन्मात्राएँ उत्पन्न हुए। इस प्रकार ये समस्त तत्त्व उत्पन्न हुए।

“इसके पश्चात् उन्होंने परमेश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर अपने-अपने अंशों के द्वारा ईश्वर और जीव की देहों का सृजन किया। ईश्वर की तीन देह विराट, सूत्रात्मा तथा अव्याकृत हुई और जीव की तीन देह स्थूल, सूक्ष्म और कारण हुई। उस विराट नामक ईश्वर की देह का आयुष्य द्विपरार्ध काल पर्यन्त है। उस विराट पुरुष के एक दिवस में चौदह मन्वन्तर होते हैं। तथा जितना प्रलम्ब उनका दिन है, उतनी ही लम्बी उसकी रात्रि है। जब तक उनका दिवस होता है, तब तक त्रिलोक की स्थिति रहती है। जब उनकी रात्रि होती है, तब त्रिलोक का नाश होता है, उसे निमित्त२१ प्रलय कहते हैं। जब विराट पुरुष का द्विपरार्ध काल पूरा होता है तब विराट देह का सत्यादि लोकों सहित नाश हो जाता है। महदादि चौबीस तत्त्व, प्रधान, प्रकृति तथा पुरुष, ये सभी महामाया में विलीन हो जाते हैं, इस स्थिति को प्राकृत प्रलय कहते हैं। तथा जिस प्रकार रात्रि का दिन के प्रकाश में लय होता है, उसी प्रकार महामाया का अक्षरब्रह्म के प्रकाश में विलय हो जाता है, उसे आत्यन्तिक प्रलय कहते हैं। देवों, दैत्यों और मनुष्यों आदि की देहों का प्रतिक्षण जो नाश होता है, उसे नित्य प्रलय कहते हैं। जिसे इस प्रकार विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का ज्ञान होता है, उसे संसार के प्रति वैराग्य हो जाता है तथा भगवान की भक्ति उत्पन्न हो जाती है। जब समस्त ब्रह्मांड का प्रलय होता है, तब सभी जीव माया में रहते हैं और भगवद्भक्त भगवान के धाम में जाते हैं।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा, “भगवान का धाम कैसा है?”

श्रीजीमहाराज बोले, “भगवान का धाम तो सनातन, नित्य, अप्राकृत, सच्चिदानन्द, अनन्त तथा अखंड है। उसका दृष्टान्त द्वारा वर्णन करते हैं - जैसे पर्वतवृक्षादि सहित तथा मनुष्यों, पशुओं और पक्षियों आदि को आकृतियों से युक्त समस्त पृथ्वी कदाचित् शीशे की हो और आकाश में व्याप्त समग्र तारे स्वयं सूर्य हों, फिर उनके तेज से समस्त आकृतियों सहित शीशे की पृथ्वी देदीप्यमान होकर जैसी शोभायमान होती है, वैसी हो शोभा भगवान के धाम की बनी रहती है। ऐसा ही धाम भगवान के भक्त समाधि में देखते हैं और देहत्याग के पश्चात् वह भगवान के उसी तेजोमय धाम को प्राप्त होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१२. स्वरूप-स्वभाव से अत्यन्त विलक्षण।

१३. तीन कालों में भी जिसके स्वरूप का लोप नहीं होता।

१४. माया और उसके कार्य को जाननेवाले।

१५. स्वयं जड है, तथा प्रलयकाल में जीव एवं ईश्वररूप चैतन्य को अपने गर्भ में समाविष्ट करनेवाली चित् है, इस प्रकार जड-चिदात्मक।

१६. कारण अवस्था में पृथ्वी आदि विशेष तत्त्वों से रहित।

१७. सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की समता रखनेवाली।

१८. जिसमें रजोगुण, तमोगुण के स्पर्श से रहित शुद्धसत्त्वगुण की प्रधानता रहती है।

१९. मात्रा अर्थात असाधारण गुण।

२०. ‘प्रधानपुरुष’ शब्द से बहुवचन समझना।

२१. विराट का दिन पूर्ण होता है उस निमित्त को लेकर ‘निमित्त’ शब्द कहा गया है।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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