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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया १३

अचल सिद्धान्त

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी (३० दिसम्बर, १८२०) को प्रातः काल श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था, दूसरे सफ़ेद फेंटा को मस्तक से आकंठ लपेटा था, गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी, श्वेत धोती धारण की थी और सूती शाल ओढ़ी थी। उनके मुखारविन्द के समक्ष परमहंसों तथा देश-देशान्तर के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “बड़े-बड़े परमहंस परस्पर प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।”

तब गोपालानन्द स्वामी ने ब्रह्मानन्द स्वामी से प्रश्न किया, “कैसे पुरुष का देश, काल, क्रिया तथा संगादि द्वारा पराभव नहीं होता और कौन-सा पुरुष पराजित हो जाता है? तथा सुनने में तो ऐसा आता है कि सरस्वती को देखकर ब्रह्मा भी मोहित हो गए थे; तथा शिवजी को भी मोहिनी को देखकर मोह हो गया था। इसलिए, विचार करके उत्तर दीजिए। क्योंकि ऐसे बड़े-बड़े भी देशकालादि द्वारा पराभूत हुए।”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, परन्तु वे यथार्थ उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “इसका उत्तर यह है कि नाड़ियों और प्राणों को समेटकर निर्विकल्प स्थिति सिद्ध करके जो श्रीनारायण के चरणारविन्दों में स्थित हुआ हो, तो यदि वह तुच्छ जीव भी क्यों न हो, उसका भी देशकाल-संगादि द्वारा पराभव नहीं होता, और इसी प्रकार ब्रह्मादि रहे तो उनका भी पराभव नहीं होता। परन्तु यदि ऐसी स्थिति सिद्ध न हुई हो, और देहासक्त ही रहते हों, तो अन्य जीवों का भी पराभव होता है। तथा ऐसे महान ब्रह्मादि देवों का भी पराभव हो जाता है। यदि ऐसा न हो तो –

‘तत्सृष्टसृष्टसृष्टेषु कोन्वखंडितधीः पुमान्।
ऋषिं नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया ॥’१७७

“इस श्लोक का अर्थ उचित नहीं ठहरता। इसलिए, यह कहा गया है कि देशकालादि के कारण तो केवल नारायण ऋषि का पराभव नहीं होता, उनके सिवा अन्य कोई भी चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, वह यदि नारायण के चरणारविन्दों में निमग्न नहीं रहता, तो उसका पराभव हो जाता है, और यदि चरणारविन्दों में वह निमग्न रहता है, तो उसका देशकालादि के कारण पराभव नहीं हो सकता। इसलिए, हमने अपने अन्तःकरण में यह सिद्धान्त अचल करके रखा है। और, भागवत में कहा गया है कि:

‘एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्‌गुणैः।
न युज्यते सदात्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥’१७८

“भगवान ने भी कहा है:

‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥’१७९

“इस प्रकार, एकमात्र केवल नारायण ही इस माया से निर्लेप होते हैं अथवा उन नारायण को निर्विकल्प रूप से प्राप्त हुआ पुरुष भी माया से पराभूत नहीं होता। परन्तु यदि कोई भक्त सविकल्प रूप से नारायण को प्राप्त हुआ तो वह चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, फिर भी उसका पराभव हो जाता है।”

तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा, “हे महाराज! जब तक इन मुक्तों का गुणों के साथ सम्बंध रहता है, तब तक इनमें देशकालादि द्वारा विपर्ययभाव होता है, तथा नारायण तो (मायिक) गुणों में रहते हुए भी देशकालादि द्वारा पराभव को प्राप्त नहीं होते, यह बात भी ठीक है; परन्तु जब मुक्तों का भी गुणों से सम्बंध न रहे तथा निर्गुणभाव से वे सब अक्षरधाम में रहे हों और नारायण भी वहाँ उसी रूप में रहे हों, तब वे सब चैतन्यमय एवं निर्गुण ही होते हैं। ऐसे समय में ‘मम साधर्म्यमागताः’१८० के अनुसार वे नारायण के साधर्म्यभाव को प्राप्त हो चुके हैं। ऐसे मुक्तों तथा नारायण के बीच किस प्रकार से भेद समझें?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “चन्द्रमा तथा तारागणों में भेद है कि नहीं? देखिए! वे प्रकाश की दृष्टि से भी वे एकसमान नहीं हैं तथा बिम्ब (आकार) में भी बड़ा भेद है। और समस्त औषधियों का पोषण चन्द्रमा द्वारा होता है, न कि तारागण से! तथा रात्रि का घना अंधकार भी चन्द्रमा से दूर होता है, जो तारागण से संभव नहीं है! उसी प्रकार नारायण तथा मुक्तों में भी भेद है। और जैसे राजा और उसके नौकर-चाकर मानवजाति से एकसमान हैं! फिर भी राजा के सामर्थ्य, ऐश्वर्य, रूप एवं लावण्य सभी सर्वोपरि होते हैं। और जो काम राजा कर सकता है, वह चाकरों से नहीं हो सकता, भले ही वे कितने ही बड़े क्यों न हों! उसी प्रकार पुरुषोत्तम नारायण तो सर्वकर्ता हैं, सर्वकारण हैं, सर्वनियन्ता हैं, अतिरूपवान हैं, महातेजस्वी हैं, अतिसमर्थ हैं, तथा ‘कर्तुम्, अकर्तुम् और अन्यथा-कर्तुम्’ शक्ति के धारक हैं।

“यदि वे चाहें, तो अक्षरधाम स्थित समस्त मुक्तों को अपने तेज में विलीन करके स्वयं अकेले ही विराजमान रह सकते हैं। यदि वे इच्छा करें, तो मुक्तों द्वारा की गई उनकी परमात्मा के प्रति भक्ति को अंगीकार करके उनके सहित विराजमान हो सकते हैं। और जिस अक्षरधाम में वे स्वयं रहते हैं, उस अक्षर को भी लीन करके स्वतः स्वराट् रूप से अकेले ही विराजमान रह सकते हैं। यदि वे चाहें तो अक्षरधाम के बिना ही अनन्तकोटि मुक्तों को अपने ऐश्वर्य द्वारा धारण करने में समर्थ होते हैं। जैसे पृथु भगवान ने पृथ्वी से कहा था कि, ‘मैं अपने धनुष से निकले हुए बाणों द्वारा तुझे मारकर अपनी सामर्थ्य से इस समस्त जगत को धारण करने में समर्थ हूँ।’ वैसे ही वे नारायण भी अपने ऐश्वर्य द्वारा सर्वोपरि हैं। जो पुरुष उन्हें तथा अन्य अक्षरादि मुक्तों को एक समान बताते हैं, उन्हें दुष्टबुद्धिवाला तथा अतिपापी समझना चाहिए, और उनका दर्शन भी नहीं करना चाहिए। ऐसी विपरीत समझ रखनेवालों को देखनेमात्र से पंचमहापाप के सदृश पाप लगता है। तथा नारायण को लेकर तो किसी की भी महत्ता सम्भव हो जाती है। नारायण के कारण ही ब्रह्मा, शिव, नारद तथा सनकादि को भगवान कहा जाता है। नारायण को लेकर ही उद्धव को भगवान कहते हैं। और यह मुक्तानन्द स्वामी जैसे सन्त को भी नारायण को लेते हुए भगवान के समान कह सकते हैं, परन्तु बिना नारायण के सम्बंध के तो अक्षर को भी भगवान नहीं कहा जा सकता, तो दूसरों की तो बात ही क्या कहनी?

“और ‘अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगतास्तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव! नेतरथा’१८१ वेदस्तुति के इस गद्यांश का भी यही अर्थ है। यदि ऐसा न हो, तो हम सब देह से भिन्न आत्मा को ब्रह्मरूप मानते हैं तथा ज्ञान, वैराग्य आदि साधनों से युक्त हैं, फिर भी उन नारायण को प्रसन्न करने के लिए रात-दिन जागरण करते हैं, उंगलियाँ फट जाएँ ऐसे ज़ोर-जोश से तालियाँ बजाकर कीर्तन एवं नामस्मरण करते हैं तथा कथा-कीर्तन भी रातदिन करते-करवाते रहते हैं। यदि उन नारायण के समान हुआ जा सकता हो, तो ऐसी साधना का मतलब क्या? अतः उन नारायण के समान तो एक नारायण ही हैं। परन्तु, उनके जैसा दूसरा कोई भी नहीं हो सकता।

“और ‘एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म’१८२ इस श्रुति का भी यही अर्थ है कि, ‘इन नारायण जैसे तो एक नारायण ही हैं।’ यूं समस्त शास्त्रों का यही सिद्धान्त है।”

इस प्रकार, भक्तजनों को शिक्षा देने के लिए श्रीजीमहाराज ने यह वार्ता की, वास्तव में वे तो स्वयं साक्षात् पुरुषोत्तम नारायण हैं।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १३ ॥ १२१ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१७७. अर्थ: “ब्रह्मा द्वारा सृजित मरीच्यादि तथा उनके द्वारा उद्भूत कश्यपादिक तथा उनके द्वारा सृजित देवमनुष्यादि के मध्य इस लोक में नारायण ऋषि के सिवा ऐसा कौन-सा पुरुष है, जिसका मन स्त्रीरूपी माया से आकर्षित नहीं होता? अन्य समस्त मनुष्यों का मन ऐसी माया से आकर्षित हो ही जाता है।” (श्रीमद्भागवत: ३/३१/३७)

१७८. अर्थ: “जिस प्रकार भगवान के भक्त का भगवत्स्वरूप सम्बंधी ज्ञान देह में रहनेवाले दोषों तथा जीव में स्थित अविद्यादि दोषों से लिप्त नहीं होता, वैसे ही परमेश्वर भी प्रकृति तथा जीववर्ग में व्याप्त होकर रहने के बावजूद प्रकृति के सत्त्वादि गुणों तथा जीव के अविद्या, अस्मिता एवं रागद्वेषादि दोषों से लिप्त नहीं होते। परमेश्वर की इतनी ही परमेश्वरता है, अर्थात् जब भक्त का भगवत्स्वरूप सम्बंधी ज्ञान, देहात्मा के दोष से लिप्त नहीं होता, तब जड तथा चैतन्य में अन्यर्यामी रूप से रहनेवाले भगवान जड या चेतन प्रकृति के दोषों से लिप्त न हों, इस विषय में कहने की बात ही क्या है?” (श्रीमद्भागवत: १/११/३८)

१७९. अर्थ: “जो मेरी ही शरण में आते हैं, वे मेरी गुणमयी तथा दुर्लंघ्य माया को पार कर लेते हैं।” (गीता: ७/१४)

१८०. अर्थ: “मेरे साधर्म्य (समान गुण-योग) को प्राप्त किए हुए हैं।” (गीता: १४/२)

१८१. अर्थ: “हे नित्य, हे भगवन्, आप अपरिमित एवं सर्वव्यापक हैं। यदि असंख्य जीव आपकी तरह अपरिमित एवं सर्वव्यापक हो जाएँगे, तब तो वे आपके समान ही कहलाएँगे! फिर तो कौन नियामक तथा कौन नियम्य? यह (नियामक - नियम्य) तब ही स्थिर हो सकता है, जब आप ही नियामक हो। अन्यथा शाश्वत नियम का लोप हो जाए।” (श्रीमद्भागवत: १०/८७/३०)

१८२. छांदोग्योपनिषद्: ६/२/१

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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