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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया १६

वासना का कुंठित और निर्मूल होना

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्दशी (३ जनवरी, १८२१) को सन्ध्या-आरती होने के बाद श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी, मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था और दूसरे सफ़ेद फेंटे से सिर को आकंठ लपेटा था। उनके समक्ष सभा में परमहंसों तथा स्थान-स्थान से आए हरिभक्त बैठे हुए थे।

उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “समस्त परमहंस प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।” ऐसा कहकर उन्होंने स्वयमेव प्रश्न किया, “जिसकी वासना कुंठित न हुई हो और जिसकी वासना कुंठित हो गई हो तथा जिसकी वासना निर्मूल हो चुकी हो, उन पुरुषों के क्या लक्षण हैं?”

मुक्तानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, किन्तु वे यथार्थ उत्तर न दे सके। तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसकी वासना कुंठित नहीं है, उसकी इन्द्रियों की वृत्तियाँ, विषयों में लगती हैं तो विचार करने पर भी विषय से नहीं हटतीं। तथा जिसकी वासना कुंठित है, उसकी वृत्ति विषयों में तत्काल प्रवेश नहीं करती। कदाचित् वृत्ति विषयों में प्रवेश कर भी जाए, तो उस वृत्ति को लौटाने के प्रयास किए जाने पर वह तुरन्त हट जाती है। वह विषयों में आसक्त नहीं होता। तथा जिसकी वासना निर्मूल हो गई है, उसे तो जाग्रत अवस्था में भी सुषुप्ति की भाँति विषयों से अरुचि बनी रहती है। उसे भले-बुरे विषयों के प्रति समान भाव रहता है और स्वयं गुणातीत रूप से रहता है।”

इसके पश्चात् गोपालानन्द स्वामी ने पूछा कि, “यद्यपि वासना कुंठित हो, परन्तु वह जड़ से नहीं मिटती इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर यह है कि आत्मनिष्ठारूप ज्ञान तथा प्रकृति के कार्यरूपी पदार्थमात्र में अनासक्तिरूप वैराग्य तथा ब्रह्मचर्यादिरूप धर्म तथा माहात्म्यसहित भगवान की भक्ति, ये चार गुण जिनमें सम्पूर्ण रूप से रहते हैं, उनकी वासना निर्मूल हो जाती है। इन गुणों में जितनी न्यूनता रहती है, उतनी हद तक वासना निर्मूल नहीं हो पाती।”

फिर श्रीजीमहाराज ने आगे कहा कि, “लीजिए एक और प्रश्न पूछते हैं कि मुमुक्षु को भगवान की प्राप्ति के लिए जो अनेक साधन बताए गए हैं, उनमें ऐसा महान साधन कौन-सा है, जिसका उपयोग करने से सभी दोष नष्ट हो जाते हैं और समस्त गुण आ जाते हैं?”

परमहंस इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके। तब श्रीजीमहाराज ने इसका यह उत्तर दिया कि, “कपिलदेवजी ने देवहूती को भगवान का माहात्म्य इस प्रकार बताया है:

‘मद्भयाद्वाति वातोऽयम्, सूर्यस्तपति मद्भयात्।’१८८

“इस तरह, जो अनन्त प्रकार के माहात्म्य सहित भगवान की भक्ति करता है, उसके समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं। यदि उसमें ज्ञान, वैराग्य तथा धर्म नहीं हो, तो भी ये सब गुण आ जाते हैं। इसलिए, यह साधन अन्य सभी साधनों में बड़ा माना गया है।”

श्रीजीमहाराज ने पुनः प्रश्न पूछा, “जो पुरुष कपटी तथा बुद्धिमान होता है, वह अपने कपट को मालूम नहीं होने देता। अब यह बताइए कि उसकी कपट-भावना किस प्रकार ज्ञात हो सकती है?”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने इसका यह उत्तर दिया कि, “जिसका उठना-बैठना उस सत्संगद्वेषी तथा सन्त एवं भगवान के विरुद्ध आक्षेप करनेवाले के साथ होता है, उससे उसके स्वभाव का पता लग जाता है, किन्तु अन्य प्रकार से उसका स्वभाव मालूम नहीं होता।”

तब श्रीजीमहाराज ने इस उत्तर को सुनकर सहमत होकर पुनः प्रश्न पूछा कि, “यदि उस सत्संगद्वेषी का वह संग न करता हो, तो उसे किस ढंग से पहचान सकते हैं?”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी ने कहा कि, “देशकाल की कोई विषमता रहने पर उसका कपट ज्ञात हो जाता है।”

श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “यह ठीक उत्तर दिया।”

फिर श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया, “यह बताइए कि ऐसा कौन-सा दोष है, जिसके कारण समस्त गुण दोषरूप हो जाते हैं?”

तब श्रीपात् देवानन्द स्वामी बोले कि, “जो पुरुष भगवान के भक्त से द्रोह करता है, उसके समस्त गुण दोषरूप हो जाते हैं।”

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह उत्तर भी सत्य है, परन्तु हमने तो दूसरे ढंग से इस प्रश्न का यह उत्तर सोचा है कि यदि कोई सर्वगुणसम्पन्न पुरुष हो, परन्तु यदि वह भगवान को अलिंग समझता हो परन्तु मूर्तिमान न मानता हो, तो यह एक बड़ा दोष है, जिसके कारण उसके समस्त गुण दोषरूप हो जाते हैं।”

पुनः श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “यह बताइए कि सन्त के प्रति असद्भाव किस कारण होता है?”

परमहंस इसका यथार्थ उत्तर न दे सके। तब श्रीजीमहाराज ने हि इसका उत्तर इस प्रकार दिया कि, “जो अहंकारी होता है, उसे संत के प्रति असद्भाव हो जाता है। ऐसे अहंकारी का तो ऐसा स्वभाव होता है कि: जो आदमी उसकी प्रशंसा करता है, उसके एक सौ दोषों की भी उपेक्षा करके वह उसके एक गुण को भी अत्यधिक महत्त्व प्रदान करता है। परन्तु, जो पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करता, उसमें यदि एक सौ गुण भी क्यों न हों, फिर भी वह उसको महत्त्व नहीं देता और उसके साधारण दोष को भी बड़ा दोष मान लेता है। इस प्रकार, पहले तो वह मन एवं वचन द्वारा द्रोह करता है, तत्पश्चात् देह द्वारा भी द्रोह करता है। अतः मानरूप बड़ा दोष है। और, ऐसी बात नहीं है कि अहंकार की भावना भोले आदमी में नहीं होती, और बुद्धिमान में अधिक होती है। वस्तुतः, बुद्धिमान पुरुष की अपेक्षा भोले आदमी में मान की भावना अधिक होती है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! ऐसा अहंकार किस प्रकार मिट सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो भगवान का अतिशय रूप से समझ लेता है, उसमें मान की भावना नहीं रहती। देखिये, उद्धवजी कितने चतुर तथा नीतिशास्त्र में कुशल थे। शारीरिक रूप से भी वे राजा जैसे लगते थे। फिर भी, वे भगवान के माहात्म्य को समझते थे। अतः जब उन्होंने भगवान के प्रति गोपियों का स्नेह देखा, तब उनके समक्ष अहंभाव नहीं रखा और वे इस प्रकार बोले कि, ‘मेरी यह इच्छा है कि, इन गोपियों की चरणरज का जिन वृक्षों, लताओं, तृणों तथा गुच्छों से स्पर्श होता हो, उनमें से मैं भी कोई हो जाऊँ।’ और तुलसीदास ने कहा है कि:

‘तुलसी जाके मुखन से भूले निकसे राम।
ताके पग की पेहेनियाँ मेरे तनकी चाम ॥’१८९

“इस प्रकार जिस पुरुष के मुख से भगवान का नामोच्चार भूल से भी हो जाता है, उसके लिए वे अपने शरीर की चमड़ी का जूता बनवाने के लिए भी उद्यत हो जाते हैं। तब जो भगवान का भक्त हो, तथा जो भगवान का निरन्तर नामस्मरण एवं भजन-कीर्तन-वन्दन कर रहा हो, और भगवान का माहात्म्य जानता हो, तो उनके सामने क्या मान रहेगा? कभी नहीं रहेगा! अतः माहात्म्य को समझ लेने पर अहंभाव मिट जाता है, परन्तु उसको हृदयंगम किए बिना मान का मूलोच्छेद नहीं हो पाता। अतएव, अपने मान को मिटाने के लिए भगवान तथा सन्त का माहात्म्य समझ लेना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १६ ॥ १२४ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१८८. अर्थ: “मेरे भय से वायु चलती है तथा मेरे भय से सूर्य प्रकाशित हो रहा है।” (श्रीमद्भागवत: ३/२५/४२)

१८९. पाठांतर: तुलसी जाके बदनत धोखेउ निकसत राम, ताके पगकी पगतरी मेरे तनुके चाम। (कल्याण, वर्ष: ३९, पृष्ठ: २४९)

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