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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया १७

स्तुति एवं निंदा

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष कृष्णा अमावास्या (४ जनवरी, १८२१) को श्रीजीमहाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था, दूसरे श्वेत फेंटे को सिर से आकंठ लपेटा था, गरम पोस की लाल बगलबंडी अन्दर सफ़ेद अंगरखे के साथ पहनी थी, श्वेत धोती धारण की थी और सूती शाल ओढ़कर पीली रजाई उस पर ओढ़ी थी। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों बैठे थे। इस प्रकार श्रीजीमहाराज प्रसन्नतापूर्वक रात्रि के समय विराजमान थे।

श्रीजीमहाराज अपनी इच्छा से बोले कि, “देखिये न, भगवान की माया का बल कैसा है! जिससे अत्यन्त ही विपरीत परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि पहले तो कितना अच्छा दिखता हो, किन्तु बाद में वह बहुत बुरा हो जाता है।” इतना कहकर वे परमहंसों से पुनः बोले कि, “आज प्रश्न पूछिए तो वार्ता करें।”

तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! पहले कोई अच्छा प्रतीत होता हो और स्तुति करता हो, किन्तु बाद में वही निन्दा करने लगता है। अतः देश, काल, क्रिया, संग आदि की चाहे कितनी ही विषमता उत्पन्न हो जाए, परन्तु वह अच्छा ही बना रहे तथा किसी भी प्रकार से उसमें विपरीत मति उत्पन्न न हो, इसका कौन-सा उपाय हो सकता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसे अपनी देह के प्रति अनादर हो, दृढ़ आत्मनिष्ठा हो, पंचविषयों में वैराग्य हो तथा माहात्म्य सहित भगवान का यथार्थ निश्चय हो, तो देशकालादि की चाहे जितनी विषमता हो जाए, फिर भी उसकी मति विपरीत नहीं होती। और, जो पुरुष देहाभिमानी हो, और पंचविषयों के प्रति अतिशय अरुचि न हुई, तब यदि सन्त उन्हीं विषयों का खंडन करें, तो उसके मन में ऐसे बड़े संत के प्रति भी असद्भाव उत्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं, भगवान के प्रति भी असद्भाव उत्पन्न हो जाता है। यदि भगवान का निश्चय यथार्थ हो, फिर भी अगर उन्हें पंचविषयों का अत्यंत अभाव न हो गया हो और उनकी आसक्ति भी यथावत् हो, उस समय यदि मुक्तानंद स्वामी जैसे सन्त उन विषयों के खंडन करें, तो वह ऐसे बड़े सन्त का भी शस्त्र द्वारा शिरच्छेद करने-जैसा द्रोह करेगा।”

नित्यानन्द स्वामी ने पुनः पूछा, “कोई पुरुष देहाभिमान तथा पंचविषयों में आसक्ति रहने पर भी यदि सत्संग में निभता जाता है, उसके विषय में क्या समझना चाहिए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जब तक उसे कोई धक्का नहीं लगा, तब तक तो वह निभता जाता है, किन्तु कोई बड़े सन्त अथवा भगवान जब उसके मान का खंडन करेंगे तथा स्वाद, देहाभिमान, लोभ, काम तथा क्रोधरूपी दोष का खंडन करेंगे, तब उसे सन्त के प्रति अवश्य असद्भाव हो जाएगा और बाद में वह निश्चय ही सन्त का द्रोह करने लगेगा और सत्संग से विमुख हो जाएगा। जैसे सर्प द्वारा डाली गयी लार से मिश्रित दूध-शक्कर को जिसने पी लिया, वह जीवित रहते हुए भी घड़ी-दो घड़ी शाम-सबेरे एक-दो दिन के भीतर ही मृत्यु के मुख में चला जाएगा, वैसे ही जो देहाभिमानी है, वह महीने-दो महीने, वर्ष-दो वर्ष व दस वर्ष में अथवा प्राणान्त के समय अथवा देहत्याग करके भी निश्चित रूप से सन्त के प्रति असद्भाव रहने के कारण सत्संग से गिर जाएगा! जिसको देहाभिमान न हो और ऐसा समझता हो कि, ‘जो अन्तःकरण तथा इन्द्रियों का प्रकाशक है तथा जिससे देह चलती-फिरती है, ऐसी सत्तारूप आत्मा मैं हूँ। ऐसा मैं धन-स्त्री आदि पदार्थों द्वारा सुखी होनेवाला नहीं हूँ, और न मैं इन पदार्थों के न मिलने से दुःखी हो सकता हूँ।’ इस प्रकार की दृढ़ समझ जिसे हो, उसके समक्ष सन्त द्वारा चाहे जिस किसी भी प्रकार से पंचविषयों तथा देहाभिमान का खंडन किया जाए, तो भी उसे किसी भी तरह से उन सन्त के प्रति असद्भाव नहीं होता, और तुच्छ पदार्थों के लिए सन्त के साथ क्लेश नहीं होता और उसके हृदय में अनबन की कोई गांठ नहीं पड़ती।”

तब नित्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जिस पुरुष को पंचविषयों के प्रति अरुचि हुई हो उसकी पहचान किस प्रकार की जा सकती है?”

प्रश्न सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसे विषयों के प्रति अरुचि हो, वह इस प्रकार पहचानी जाती है कि, जब कुछ उत्तम खाद्य पदार्थ मिले, तो उसे वह स्वीकार करता है, परन्तु साधारण चीज़ को खाने में जैसा आनन्द होता है, वैसा आनन्द उसमें नहीं रहता और उद्विग्न हो जाता है। ऐसे ही साधारण वस्त्रों में उसे जितना आनन्द होता है, उतना आनन्द उत्तम वस्त्रों के पहनने से नहीं रहता और मन उद्विग्न हो जाता है। इसी तरह, उसे अच्छा बिछौना मिले अथवा किसी के द्वारा सम्मान मिले आदि उत्तम पदार्थों का योग उपस्थित हो तब उसका मन उद्विग्न हो जाता है, परन्तु उनसे उसे किसी प्रकार का आनन्द नहीं मिलता। तभी यह समझ लेना चाहिए कि उसे विषयों में अरुचि हो गई है।”

फिर मुक्तानन्द स्वामी ने प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! इन पंचविषयों में अरुचि किस प्रकार होती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “विषयों में अरुचि होने का मुख्य साधन परमेश्वर का माहात्म्य है, इसके पश्चात् आत्मनिष्ठा तथा वैराग्य का स्थान आता है। यह माहात्म्य कैसा है? सुनिए, ‘भगवान के भय से इन्द्र वर्षा करता है, सूर्य, अग्नि तथा चन्द्रमा प्रकाश प्रदान करते हैं, पृथ्वी सबको धारण कर रही है, समुद्र मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, औषधियाँ ऋतुओं को प्राप्त करके फलदायी बनती हैं। और, जो भगवान जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं, उनकी शक्ति काल, माया, पुरुष और अक्षर हैं।’ इस प्रकार, जो पुरुष भगवान की महत्ता को समझता है, उसके लिए जगत में ऐसा कौनसा पदार्थ है जो उसे बन्धनकारी हो सके? उसे तो काम, क्रोध, लोभ, मान, ईर्ष्या, स्वाद, उत्तम वस्त्र, धन, स्त्री तथा पंचविषय सम्बंधी जो अन्य पदार्थ हैं, उनमें से कुछ भी उसे बन्धनकारी नहीं बनता। क्योंकि उसने तो पहले से ही सबका परिमाण कर रखा है कि, ‘भगवान तो ऐसे हैं, तथा ऐसा उन भगवान के भजन, स्मरण एवं कथा-वार्ता में आनन्द होता है तथा अक्षर तो ऐसा है और उस अक्षर का सुख ऐसा है, और गोलोक, वैकुंठ तथा श्वेतद्वीप सम्बंधी सुख ऐसा है, तथा प्रकृति-पुरुष सम्बंधी सुख इस प्रकार का है, ब्रह्मलोक सम्बंधी सुख ऐसा है, स्वर्ग का सुख इस तरह का है तथा राज्यादि का सुख ऐसा है।’

“इस प्रकार सभी सुखों का अनुमान लगाकर भगवान सम्बंधी आनन्द को ही सर्वाधिक मानता हुआ जो भगवान की सेवा में ही तत्पर रहता है, उसके लिए ऐसा कौन-सा पदार्थ शेष रह जाता है, जो उसे भगवान के आश्रय से वियुक्त कर दे? कोई भी पदार्थ उसे पतनोन्मुख नहीं कर सकता। जैसे पारसमणि अपने स्पर्श से किसी लौहखंड को सोना बना देती है, उसे वह पुनः लोहा नहीं बना सकती, वैसे ही जिसने भगवान का ऐसा माहात्म्य जान लिया है, वह भगवान द्वारा गिराए जाने पर भी भगवान के चरणारविन्दों से पतनोन्मुख नहीं होता, तब क्या वह किसी अन्य पदार्थ से पतित हो सकता है? नहीं, उसका पतन नहीं हो सकता।

“और, उन भगवान का भजन करनेवाले सन्त का माहात्म्य भी वह इस तरह समझता है कि, ‘ऐसे बड़े जो भगवान हैं, उनके साक्षात् उपासक यह संत हैं, इसीलिए यह भी बहुत महान हैं।’ जैसे उद्धवजी स्वयं कितने महान थे! फिर भी वे भगवान के माहात्म्य को इस प्रकार समझते थे, तो अपने मन में अपनी दक्षता का कोई भी अहंकार नहीं रहा, और उन्होंने गोपियों की चरणरज को प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की, तथा अगले जन्म में वृन्दावन में वृक्ष तथा लता होने की याचना की, क्योंकि जिसके मार्ग का अन्वेषण वेदों और उपनिषदों की श्रुतियाँ करती हैं, ऐसे भगवान के प्रति गोपियों की अतिशय प्रीति उद्धवजी ने देख ली थी। ठीक उसी प्रकार ऐसे भगवान के संत की महिमा हो, तब उसे उन संत के समक्ष अहंकार कैसे रहेगा? तथा उनको वह नमन क्यों नहीं करेगा? उनके सामने तो वह दासानुदास होकर रहेगा। और यदि वह संत पाँच-पाँच जूते भी मारें तो उसे सहन करता हुआ यही समझे कि, ‘मेरा यह अहोभाग्य है कि मैं ऐसे सन्त का तिरस्कार सहन करता हूँ, अन्यथा दुर्भाग्यवश मुझे स्त्री और पुत्रों के तिरस्कार सहन करने पड़ते। और माता-पिता या राजा के तिरस्कार सहन करने पड़ते। और, दुर्भाग्यवश कोई तुच्छ भाजी को अथवा अति साधारण कंदमूल को खाना पड़ता, उसकी अपेक्षा मेरे तो धन्यभाग्य हैं कि मैं इन सन्त के संग में रहते हुए निःस्वाद व्रत का पालन करता हूँ! तथा प्रारब्धवशात् मुझे मामूली वस्त्र और चिथड़े पहनने पड़ते, उसकी अपेक्षा आज मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन सन्त के साथ रहकर गुदड़ी ओढ़ने मिलती है!’

“ओर, कोई पुरुष यदि सन्त की सभा में जाता है और वहाँ उसका सत्कार नहीं होता, उस समय वह उस सन्त के अवगुण की आलोचना करने लगता है। क्योंकि उन सन्त की महानता उसकी समझ में आई ही नहीं है! अन्यथा वह उन पर दोष नहीं मढ़ता। जैसे बम्बई के गवर्नर साहब कुर्सी पर बैठे हों और उनकी सभा में किसी गरीब आदमी के जाने पर यदि वे उसे कुर्सी पर नहीं बिठाते और उसका कुछ भी आदर नहीं करते, तो क्या उसे उस अंग्रेज के इस व्यवहार पर क्रोध होगा? तथा मन में उसको गाली देने की इच्छा होगी? लेशमात्र भी नहीं, क्योंकि उसने उस अंग्रेज के पद-गौरव को समझ लिया है कि, ‘यह तो मुल्क का हाकिम है और मैं तो कंगाल हूँ।’ ऐसा समझकर उसे दुःख नहीं होगा। उसी प्रकार उसने यदि सन्त की महत्ता को जान लिया हो, तो वे सन्त चाहे कितना ही तिरस्कार करें, फिर भी उसे दुःख नहीं होगा। वह सदैव अपने ही अवगुणों को देखेगा, परन्तु सन्त का अवगुण तो किसी भी प्रकार से देखेगा ही नहीं! अतः जिसको भगवान और सन्त का माहात्म्य समझ में आ गया है, उसकी स्थिति सत्संग में अचल बनी रहती है और जिसको इनका माहात्म्य ज्ञात नहीं हुआ है, उसकी स्थिति का कोई भरोसा नहीं!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १७ ॥ १२५ ॥

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