share

॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया १८

भगवत्स्वरूप का निश्चय

संवत् १८७७ में पौष शुक्ला प्रतिपदा (५ जनवरी, १८२१) को रात्रि के समय स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था। दूसरे सफ़ेद फेंटे को सिर से आकंठ गले में लपेटा था। गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी, सूती शाल सहित रजाई ओढ़ी थी तथा सफ़ेद धोती धारण की थी। उनके समक्ष सभा में परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। उस समय परमहंस सायंकालीन आरती और स्तुति कर रहे थे।

तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “कीर्तनगान करें।”

तब मुक्तानन्द स्वामी आदि परमहंस वाद्ययंत्रों द्वारा कीर्तन करने लगे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “कीर्तन स्थगित कर दीजिए। अब हम वार्ता करेंगे। हम जो बात करेंगे, उसमें यदि किसी को शंका उत्पन्न हो जाए, तो उसे पूछ लेना।” इतना कहकर वे बोले कि, “भगवान के स्वरूप को यथार्थरूप से समझकर निश्चय करना अत्यन्त कठिन है। उस निश्चय की बात भी बड़ी अटपटी है। इसलिए यह वार्ता करने में संकोच होता है, क्योंकि वार्ता कहते ही न जाने कोई उसमें से गलत सार निकाले! तथा उसने अपने मन में भगवान के सम्बंध में जो-जो मान्यता की हो, वह मान्यता टूट पड़े तो वह जड़ से ही सत्संग में से निकल जाए! परन्तु क्या करें! निश्चय की बात ही ऐसी महत्त्वपूर्ण है कि, उस विषय पर कहे बिना रहा नहीं जाता!

“इसके अतिरिक्त वह बात यदि समझ में न आए, तो दूषण भी बहुत बढ़ते हैं तथा उसके निश्चय में अपक्वता भी बहुत रहती है। इसी कारण बात कर रहे हैं कि, भगवान ने वराह अवतार धारण किया तो वह शूकर का रूप तो वाकई अति कुरूप था। मत्स्यावतार के समय वे मत्स्य के समान ही थे। कच्छपावतार के समय उनका रूप कछुवे की तरह ही था। नृसिंहावतार के समय वे सिंह के समान भयानक थे। वामनावतार में उनका रूप बौने आदमी की तरह था। उनके हाथ-पैर छोटे तथा कमर, तोंद और शरीर मोटा था। व्यासावतार में वे काले थे, शरीर में बहुत-से रोएँ थे और उनकी देह से दुर्गन्ध आ रही थी। इत्यादि आकृतियाँ भगवान ने धारण की थीं। तब उनको जो-जो मिले, उन्होंने उन अवतारों के जैसे-जैसे रूपों के दर्शन किए, वैसे-वैसे रूपों का ही ध्यान किया है। और, उस ध्यान द्वारा वे उन-उन भगवान के रूप को ही प्राप्त हुए हैं।

“इसमें प्रश्न यह उठता है कि जिनको भगवान वराह रूप में मिले, वे क्या धाम में भगवान को वराह-रूप में ही देखते हैं? और जिन्हें भगवान मत्स्यरूप में मिले, तो धाम में क्या वे भगवान को मत्स्य-रूप में ही देखते हैं? और जिनको कच्छप-स्वरूप में भगवान मिले, वे क्या धाम में भगवान को कच्छप रूप में ही देखते हैं? और यहाँ जो नृसिंहजी से मिले, वे धाम में क्या नृसिंह-रूप ही देखते हैं? और, हयग्रीव को मिलनेवाले क्या धाम में उन्हें घोड़े के रूप में ही देखते हैं?

“और, जिसने वराह का पति-भाव से भजन किया, वह क्या सुअरी हुई? और सखाभाव से भजनेवाला क्या सुअर हो गया? मत्स्य को पति-भाव से भजनेवाली स्त्री-भक्त क्या मछली हुई? और सखा-भाव से भजनेवाला पुरुष क्या मत्स्य हुआ? कछुवे को पति-भाव से भजनेवाली क्या कच्छपी हुई? और मित्र-भाव से भजनेवाला क्या कछुआ हुआ? नृसिंह को पति-भाव से भजनेवाली क्या सिंहनी हुई? और सखा-भाव से भजनेवाला क्या सिंह हुआ? हयग्रीव को पति-भाव से भजनेवाली क्या घोड़ी हुई? और सखाभाव से भजनेवाला क्या घोड़ा हुआ? अतः भगवान का मूल रूप वराह आदि के समान ही हों, तब तो उन-उन अवतारकालीन भक्त उनका ध्यान करने से तदाकार हो जाने चाहिए, परन्तु यह बात ऐसी नहीं है।

“आप यह पूछेंगे कि उन भगवान का स्वरूप कैसा है? तो वही बात बताते हैं कि भगवान सच्चिदानन्दरूप तेजोमयमूर्ति हैं। उनके एक-एक रोम में कोटि-कोटि सूर्यों जैसा प्रकाश रहता है। करोड़ों कामदेवों को लज्जित करे ऐसा भगवान का रूप है। ऐसे सौन्दर्यवान भगवान अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के अधिपति हैं, राजाधिराज हैं, सबके नियन्ता हैं, सबके अन्तर्यामी हैं तथा अतिशय सुख-स्वरूप हैं। और उनके सुख के आगे अनन्त रूपवती स्त्रियों को देखने का सुख भी तुच्छ हो जाया करता है। और, इहलोक तथा परलोक सम्बंधी जो पंचविषयों का सुख है, वह भगवान की मूर्ति के सुख के आगे तुच्छ हो जाते हैं, ऐसा भगवान का स्वरूप है।

“यद्यपि वह स्वरूप सर्वदा द्विभुज ही रहता है, फिर भी वे स्वेच्छा से कभी चतुर्भुज, कभी अष्टभुज और कभी सहस्रभुज भी दिखाई देते हैं। और, वे ही भगवान किन्हीं कार्यों को सम्पन्न करने के लिए मत्स्य-कच्छप-वराहादि रूपों और रामकृष्णादि अवतारों को धारण करते हैं; परन्तु वे अपने मूल स्वरूप को छोड़कर अवतार को धारण नहीं किया करते। वे ही भगवान स्वयं अनन्त ऐश्वर्य तथा अनन्त शक्ति के सहित ही मत्स्य-कच्छपादि रूपों को धारण करते हैं। और जिस कार्य के निमित्त उन्होंने जिस शरीर को धारण किया हो, उसके पूर्ण हो जाने पर वे उस शरीर का त्याग भी कर डालते हैं। इसके बारे में भागवत में बताया गया है

‘भूभार: क्षपितो येन तां तनूं विजहावजः।
कण्टकं कण्टकेनैव द्वयं चापीशितुः समम् ॥’१९०

“भगवान ने विविध शरीर धारण करके, उनके द्वारा पृथ्वी का भार उतारा तथा जीवों के चैतन्य में देहाभिमानरूपी काँटा गड़ा हुआ था, उसे निकालकर और उस काँटे को निकालनेवाली अपनी देह का भी परित्याग कर दिया। जब राक्षस को मारने के लिए भगवान ने नृसिंहरूप धारण किया, बाद में उस कार्य की समाप्ति होते ही उस देह का त्याग करने की इच्छा की। परन्तु उस सिंह को कौन मारे? अतः स्व-इच्छा से काल-रूप शिव ने शरभ का रूप धारण किया। तब नृसिंह तथा शरभ का भीषण युद्ध हुआ। बाद में दोनों ने देहोत्सर्ग कर दिया। इसके परिणामस्वरूप शिव शरभेश्वर महादेव स्थापित हुए और जहाँ नृसिंहजी ने देह त्याग किया था वहाँ ‘नारसिंही शिला’ देखी जाती है। अतः चित्रों में जहाँ-जहाँ भगवान के मत्स्य-कच्छपादि अवतारों का चित्रण किया जाता है, वहाँ-वहाँ मत्स्य-कच्छपादि के आकार अंकित करने के पश्चात् उन पर शंख, चक्र, गदा, पद्म, वैजयन्ती माला, पीताम्बर वस्त्र, किरीट-मुकुट, श्रीवत्सचिह्न आदि सहित भगवान की मूर्ति को चित्रांकित किया जाता है, क्योंकि भगवान का अनादि स्वरूप ऐसा ही है।

“और, श्रीकृष्ण भगवान ने अपने जन्म के समय वसुदेव-देवकी को चतुर्भुजरूप में दर्शन दिया था, तथा बाद में अक्रूर को जल में चतुर्भुजरूप का दर्शन दिया, एवं रुक्मिणी को मूर्च्छावस्था हुई, तब चतुर्भुजरूप से दर्शन दिया था, तथा अर्जुन ने भी ऐसा ही कहा है कि:

‘तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन, सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते!’१९१

“इस प्रकार अर्जुन भी चतुर्भुज-रूप को देखा करते थे; और यादवों के संहार के बाद जब श्रीकृष्ण भगवान पीपल वृक्ष के नीचे बैठे थे, उस समय उद्धवजी तथा मैत्रेय ऋषि ने शंख, चक्र, गदा, पद्म सहित पीताम्बरधारी भगवान का चतुर्भुज स्वरूप देखा था। यद्यपि श्रीकृष्ण भगवान श्यामवर्ण के थे, परन्तु उनका रूप तो ‘करोडों कामदेवों तक को लज्जित करनेवाला’ कहा गया है। इस प्रकार, वे मनुष्य-सदृश दिखाई पड़ते हैं, फिर भी उनमें ही पूर्वोक्त प्रकाश एवं दिव्य आनन्द पाया जाता है। जिस भक्त को ध्यान, धारणा और समाधि की स्थिति हो, उसको भगवान की मनुष्यमूर्ति कोटि-कोटि सूर्यों के प्रकाश से परिपूर्ण दिखाई पड़ती है, परन्तु उसे मशाल अथवा दीपक का काम नहीं पड़ता।

“और, भगवान का ऐसा प्रकाश होने पर भी दिखाई नहीं पड़ता, यह तो भगवान की ही ऐसी इच्छा है। यदि भगवान की इच्छा हो कि, ‘मैं इस भक्त को ऐसा प्रकाशवान दिखाई पडूँ,’ तब तो ऐसी प्रकाशयुक्त मूर्ति को वह भक्त देख पाता है। अतः जिसे भगवान के स्वरूप सम्बंधी निश्चय होता है, वह ऐसा मानता है कि, ‘ये भगवान गोलोक, वैकुंठ, श्वेतद्वीप, ब्रह्मपुर धामों के ऐश्वर्यों, समृद्धि तथा पार्षदों के सहित रहते हैं तथा राधिका, लक्ष्मी आदि इनकी सेवा करती हैं।’ इस प्रकार वह भगवान को परमभाव के साथ देखते हैं। किन्तु जो मूर्ख होता है, वह भगवान को मनुष्य सदृश ही देखता है। श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में भी कहा है:

‘अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥’१९२

“अतः मूढ़ पुरुष भगवान के परमभाव को बिना जाने ही भगवान में अपने समान मनुष्य-भाव की कल्पना किया करते हैं।

“यह मनुष्य-भाव क्या है? तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आशा, तृष्णा आदि अन्तःकरण के भाव हैं और हाड़, चाम, मलमूत्रादि तथा जन्म, मरण, बाल्यकाल यौवन और वृद्धावस्था आदि जो देहभावरूपी मनुष्यभाव हैं, उनकी कल्पना ऐसे पुरुष भगवान में भी किया करते हैं। ऐसे भावों की कल्पना करनेवालों को यदि भगवान के स्वरूप के सम्बंध में निश्चय-सा प्रतीत होता है, परन्तु उनका निश्चय अपरिपक्व है और उनका निश्चित रूप से सत्संग से पतन होगा।

“और वे भगवान तो परम दिव्यमूर्ति हैं और उनमें लेशमात्र भी मनुष्यभाव नहीं है। अतः उन भगवान में से मनुष्य-भाव को दूर करके देवभाव लाना, इसके पश्चात् ब्रह्मादि का भाव लाना, बाद में प्रधान-पुरुष का भाव, इसके पश्चात् प्रकृति-पुरुष का भाव और बाद में अक्षर का भाव लाना चाहिए। इसके पश्चात् भगवान में वे ‘अक्षरातीत पुरुषोत्तम’ है ऐसा भाव आता है। जैसे ब्रज के ग्वालों को श्रीकृष्ण भगवान के आश्चर्यरूप चरित्रों को देखकर पहले तो देवभाव हुआ, तत्पश्चात् गर्गाचार्य के वचनों का स्मरण करके नारायणभाव उत्पन्न हुआ। तब उन्होंने यह कहा कि, ‘आप तो नारायण हैं, इसलिए आप हमें अपना धाम दिखलाइए।’ तब भगवान ने उन्हें अक्षरधाम दिखाया। इस प्रकार, भगवान में जिसे दिव्यभाव रहता है, उसका निश्चय परिपक्व समझना चाहिए।

“और, जो पुरुष यह कहता है कि, ‘उसे भगवान सम्बंधी निश्चय पहले नहीं था, अब हुआ है,’ तो क्या इसका यह अर्थ है कि वह भगवान को पहले नहीं देखता था? वह उन्हें देखता तो था, किन्तु मनुष्यभाव से देखता था। बाद में जब उसे निश्चय हो गया, तब उसने दिव्यभाव से भगवान के दर्शन किए। ऐसा होने पर ही यह जान लेना चाहिए कि उसे निश्चय हो चुका है।

“और, जब तक वह भगवान में ऐसा दिव्यभाव नहीं मानता, तब तक उसको बात-बात में बुरा लगता है। वह भगवान में समय-समय पर गुण और दोष देखा करता है और यह समझता है कि, ‘भगवान इसका पक्ष लेते हैं और हमारा ध्यान नहीं रखते, इसको अधिकाधिक बुलाते हैं और हमें नहीं बुलाते, इस पर अधिक स्नेह रखते हैं, किन्तु हमसे स्नेह नहीं करते।’ इस प्रकार वह गुण और दोष देखा करता है, इसी कारण उसका अन्तःकरण दिन-प्रतिदिन सत्संग से पिछड़ने लगता है और अन्त में वह विमुख हो जाता है। इसलिए, न तो भगवान में ही मनुष्यभाव देखना और न भगवान के भक्तों में ही मनुष्यभाव की कल्पना करना चाहिए। क्योंकि भगवान के कोई भक्त दैहिक रूप से अन्ध, अपाहिज, कोढ़ी, वृद्ध या कोई कुरूप होता है, वे सभी देहत्याग के बाद भगवान के धाम में क्या ऐसे ही अन्ध और अपाहिज रहते हैं? नहीं, ये सब मनुष्य शरीर के भाव हैं। वास्तव में इस शरीर को छोड़कर वह भक्त तो दिव्यरूप हो जाता है, ब्रह्मरूप हो जाता है।

“अतः जब हरिभक्त तक में मनुष्यभाव की धारणा नहीं हो सकती, तब परमेश्वर में उसकी कल्पना किस तरह की जा सकती है? इस बात को चाहे आज समझें, तो भी इतना समझना है और चाहे सौ वर्षों में समझें, तो भी इतना ही समझना है। इस बात को समझकर इसकी दृढ़ता की गांठ बांधे बिना छुटकारा नहीं है। इसलिए सभी हरिभक्त हमारी इस बात को याद रखकर परस्पर करते रहना और जब किसी को अज्ञानवश कुछ बुरा लग जाए, तब उसे यह बात कहकर सावधान कर देना। और हमारी यह बात नित्य प्रति दिन में एक बार करना, ऐसी हमारी आज्ञा है। इसे भूलना नहीं, कभी भूलना नहीं।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज समस्त हरिभक्तों से ‘जय स्वामिनारायण’ कहकर हँसते हुए अपने निवासस्थान पर पधारे। इस प्रकार श्रीजीमहाराज की वार्ता को सुनकर सभी साधुओं तथा हरिभक्तों ने श्रीजीमहाराज को समस्त अवतारों के कारण अवतारी जानकर उनके स्वरूप में दिव्यभाव को अत्यन्त सुदृढ़ बनाया।

॥ इति वचनामृतम् ॥ १८ ॥ १२६ ॥

* * *

This Vachanamrut took place ago.


१९०. श्रीमद्भागवत: १/१५/३४-३५

१९१. अर्थ: “हे सहस्रबाहो, हे विश्वमूर्ते, आप वही चतुर्भुजरूप में हमें दर्शन दें।” (गीता: ११/४६)

१९२. अर्थ: “अपने किए हुए पापकर्मों के कारण मूढ़ पुरुष मेरे परमभाव को नहीं जानकर समस्त भूतों के महेश्वर तथा परम करुणापूर्वक सबके समाश्रय के लिए मनुष्यशरीर में स्थित मुझ भगवान की अवज्ञा करते हैं, अर्थात् वे मुझे प्राकृत मनुष्य तथा सजातीय मानकर मेरा तिरस्कार किया करते हैं।” (गीता: ९/११)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

Type: Keywords Exact phrase