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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

पंचाळा १

सुख की मीमांसा

संवत् १८७७ में फाल्गुन शुक्ला चतुर्थी (७ मार्च, १८२१) को श्रीजीमहाराज श्रीपंचाला ग्राम-स्थित झीणाभाई के राजभवन में चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर सफ़ेद फेंटा बाँधा था, श्वेत अंगरखा पहना था, सफ़ेद धोती धारण की थी, श्वेत पिछौरी ओढ़ी थी और मस्तक के फेंटे का पेच दायीं ओर लटक रहा था। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय सन्ध्याकालीन आरती हो चुकी थी। फिर श्रीजीमहाराज तकिया पर विराजमान होकर बोले कि, “हम ये सब बड़े परमहंसों तथा बड़े हरिभक्तों से प्रश्न पूछते हैं कि भगवान के प्रति प्रेम हो तथा धर्म में दृढ़ता हो, फिर भी यदि कोई भक्त विचारशील न हो, तो अति श्रेष्ठ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि पंचविषय अत्यंत कनिष्ठ प्रकार के शब्दादिक पंचविषयों के समान नहीं लगते अथवा उन कनिष्ठ पंचविषयों से भी अत्यन्त बदतर नहीं लगते। अतः वह कौन-सा विचार है कि जिससे अति श्रेष्ठ पंचविषय भी अतिशय कनिष्ठ पंचविषयों के समान लगने लगे? अथवा कनिष्ठ से भी अति बदतर लगने लगे? यह प्रश्न सभी बड़े-बड़े परमहंसों तथा बड़े-बड़े हरिभक्तों से हम पूछते हैं। अतः जिन्होंने अपने जिस विचार से श्रेष्ठ पंचविषयों को बुरे पंचविषयों के समान जाना हो अथवा उन्हें से भी अति तुच्छ जाना हो, ऐसे अपने विचार बताइए!”

तब समस्त परमहंसों तथा हरिभक्तों ने अपने-अपने विचार प्रकट किए। फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “आप सबके विचार तो हमने सुने, अब हमने जो विचार किया है, वह बताते हैं। जैसे विदेश से किसी का पत्र आता है, तब वह पढ़कर उस पत्र लेखक की बुद्धि का पता चल जाता है। जैसे पाँच पाँडव, द्रौपदी, कुन्तीजी तथा रुक्मिणी, सत्यभामा एवं जाम्बुवती आदि भगवान की पटरानियाँ तथा भगवान के सांब नामक पुत्र आदि भक्तों के रूपों एवं वचनों का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है, उनको सुनकर उनके रूपों का प्रमाण हमें दर्शन के समान ही होता है और उनके वचनों से उनकी बुद्धि का प्रमाण मिलता है। वैसे ही पुराणों तथा महाभारत आदि ग्रन्थों द्वारा यह सुना जाता है कि भगवान ही इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कर्ता हैं तथा सदा साकार हैं। यदि वे साकार न हों, तो उनमें कर्तृत्व संभव नहीं रहता। तथा जो अक्षरब्रह्म है, वह तो उन भगवान के निवास का धाम है। ऐसे दिव्य मूर्ति, प्रकाशमय और आनन्दरूप जो भगवान हैं, वह प्रलयकाल में जो जीव कारण शरीर सहित माया में लीन थे, उनको उत्पत्तिकाल में बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन तथा प्राण देते हैं। वह इसलिए देते हैं कि वह उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ विषयों को भोग सके, साथ ही अपना मोक्ष भी पा सके।

“और भगवान ने जीवों के लिए ऐसे भोग एवं भोगप्रद स्थानों की रचना की है। उनमें जो उत्तम पंचविषयों का निर्माण किया है, वे बुरे पंचविषयजन्य दुःखों की निम्नता दर्शाने के लिए किया है। जैसे कोई बड़ा साहूकार गरीबों की भलाई के लिए सड़क के दोनों ओर छाया के लिए वृक्षारोपण कराता है, पानी पिलाने के लिए जगह-जगह प्याऊ की व्यवस्था कराता है, अन्नदान के लिए सदाव्रत खुलवाता है और ठहरने के लिए धर्मशाला बनवाता है, वैसे ही ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्रादि देव उन भगवान के सामने भीषण अकाल के समय के उन दीनजनों की तरह हैं, जो पीपल वृक्ष के बट्टे पकाकर खाते हैं। उन ब्रह्मादि देवों तथा मनुष्यों के सुख के लिए भगवान ने उत्तम पंचविषयों की रचना की है। परन्तु अनुमान से यही ज्ञात होता है कि जिस साहूकार ने गरीबों की सुविधा के लिए सदाव्रत तथा धर्मशाला आदि की व्यवस्था कर रखी है, उसके अपने घर में कितनी उत्तम सुख-सुविधा होंगी! वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को यह ज्ञात हो जाता है कि जिन भगवान ने ब्रह्मादि देवों के लिए ऐसे-ऐसे सुखों की व्यवस्था की है, तब भगवान के धाम में इसकी अपेक्षा कितना सर्वोत्कृष्ट आनन्द होगा! इस प्रकार भगवान के धाम के सुख का आधिक्य बुद्धिमान को ज्ञात हो जाता है! जिसके कारण उसे अच्छे विषय भी बुरे मालूम होने लगते हैं।

“और, संसार में पशु, मनुष्य, देवता तथा भूत आदि में जहाँ कहीं भी पंचविषय सम्बंधी जो सुख दिखाई पड़ता है, वह सुख धर्मसहित भगवान का किंचित् सम्बंध रहने से दिखाई पड़ता है, फिर भी स्वयं भगवान से मिलनेवाला जो सुख है, वह कहीं और किसी में भी नहीं है। जैसे यह मशाल जलती है, उसके समीप जितना प्रकाश है, उतना प्रकाश उससे थोड़ी दूर जाने पर नहीं दिखता और उससे अधिक दूरवर्ती स्थान पर तो वह बिल्कुल नहीं दीख पड़ता। वैसे ही अन्य स्थल में किंचित् सुख तो मिलता है, परन्तु सम्पूर्ण सुख भगवान के सान्निध्य में ही उपलब्ध रहता है। और, भगवान से जितनी ही दूरी बढ़ती जाती है, उतनी ही सुख में कमी भी होती रहती है। इसलिए, मुमुक्षु अपने हृदय में यह विचार करे कि, ‘मैं भगवान से जितना दूरी बढ़ाता रहूँगा, उतना ही मुझे दुःख मिलेगा और मैं महादुःखी हो जाऊँगा। जबकि भगवान के साथ थोड़ा सम्बंध रहनेमात्र से ही ऐसा सुख मिलता रहता है, तो मुझे भगवान के साथ अधिकाधिक सम्बंध बनाए रखना है। और यदि मैं उनके साथ अतिशय सम्बंध बनाए रखूँगा, तो मुझे उत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होगी।’ ऐसा विचार करके, और भगवान सम्बंधी सुख का लोभ रखकर जो भक्त भगवान के साथ अतिशय सम्बंध रखने का उपाय करता रहता है, उसे ही बुद्धिमान कहा जाता है।

“तथा पशु के सुख से मनुष्य में अधिक सुख है, और उससे अधिक राजा का सुख है, और उससे अधिक देवता का सुख है, और उससे अधिक इन्द्र का सुख है, और उससे अधिक बृहस्पति का, तथा उससे अधिक ब्रह्मा का, उससे अधिक वैकुंठलोक का, और उससे अधिक गोलोक का सुख है और गोलोक से भी भगवान के अक्षरधाम का सुख अत्यन्त ही अधिक है!

“इस प्रकार बुद्धिमान पुरुष को भगवान सम्बंधी अतिशय सुख की प्रतीति होने के पश्चात् पंचविषयजन्य सुख में तुच्छता प्रतीत होने लगती है। वास्तव में भगवान सम्बंधी सुख के समक्ष ब्रह्मादि का सुख वैसा ही है जैसे कि सम्पन्न गृहस्थ के घर पर कोई रंक ठीकरा लेकर भीख माँगने आया हो। और, उन भगवान के धाम के आनन्द पर जब हम विचार करते हैं, तब अन्य समस्त सुखों के प्रति हमें उदासीनता हो जाती है, और मन में ऐसा लगता है कि, ‘इस देह को छोड़कर उस आनन्द को कब प्राप्त करेंगे!’ यदि स्वाभाविक रूप से पंचविषयों को हम ग्रहण करते हैं, तो उन पर कोई अधिक विचार नहीं होता, परन्तु जब उन विषयों की कुछ श्रेष्ठता प्रतीत होती है, तब तुरन्त ही भगवान के आनन्द की ओर दृष्टि पहुँच जाती है और मन अत्यन्त उदास हो जाता है। बुद्धिमान पुरुष ही इन सब बातों को समझ पाता है। अतः बुद्धिमान पुरुष पर हमारा स्नेह बना रहता है, क्योंकि हम बुद्धिमान हैं, इसलिए इस आनन्द के विचार में हमारी दृष्टि पहुँची है। अतएव, बुद्धिमान की भी दृष्टि वहाँ अवश्य पहुँचती है। इस प्रकार हमारा यह विचार आप सबके विचारों की अपेक्षा हम अधिक श्रेष्ठ प्रतीत हुआ है। इसलिए हमारे इस विचार को आप सब अत्यन्त दृढ़ता के साथ हृदय में बनाए रखना।

“और, इस विचार के बिना रमणीय पंचविषयों में लगी हुई अपनी मनोवृत्ति को अगर बलपूर्वक हटाया जाए, तो वह बड़ी कठिनाई से हट पाती है। किन्तु यदि मुमुक्षु ने उक्त विचार को प्राप्त कर लिया, तो उसे ऐसी निकृष्ट मनोवृत्ति को मिटाने में लेशमात्र भी प्रयास नहीं करना पड़ता और उसे सहज ही पंचविषयों की तुच्छता प्रतीत होने लगती है। यह हमारी बात उसी को समझ में आती है, जिसे अधिक बुद्धि हो तथा जो अधिकाधिक सुखप्राप्ति का लोभी हो। जैसे कि कौड़ी की अपेक्षा पैसे का अधिक महत्त्व है, उससे अधिक रुपये का, उससे विशेष स्वर्ण मोहरों का और उससे अधिक चिन्तामणि का महत्त्व बना रहता है, वैसे ही पंचविषयजन्य सुखों की अपेक्षा भगवान के धाम में भगवान का आनन्द अति अधिक है। अतः जो बुद्धिमान हो और जिसकी दृष्टि भगवान के आनन्द में पहुँच गई हो, उसके हृदय में यह विचार दृढ़ होकर जमता है। और यह विचार जिसके हृदय में ऐसी दृढ़ता से गड़ गया हो, फिर वह यदि वन में बैठा हो, तो भी स्वयं को मानता है कि, ‘मैं असंख्य मनुष्यों तथा राज्य-समृद्धि से घिरा हुआ हूँ।’ इस प्रकार वह स्वयं को सुखी समझता है, न कि दुःखी! और, वह यदि इन्द्रलोक में गया हो, फिर भी यह मानता है कि, ‘मैं वन-जंगल में बैठा हूँ।’ लेकिन वह स्वयं को इन्द्रलोक के सुखों से सुखी नहीं समझता! वह ऐसे सुखों को तुच्छ समझता है। अतः इस विचार को हृदयंगम करके सब ऐसा निश्चय कर लेना कि, ‘अब हमें सीधे भगवान के धाम में ही पहुँचना है, परन्तु बीच में कहीं भी तुच्छ पंचविषय सम्बंधी सुख के लोभ में नहीं फँसना है।’ इस प्रकार सभी अपने मन में दृढ़ निश्चय रखिएगा। यही हमारा सिद्धांत है जिसे हमने आप सबको बताया है, अतः उसे दृढ़तापूर्वक मानना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ १२७ ॥

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