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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
पंचाळा २
सांख्ययोग
संवत् १८७७ में फाल्गुन शुक्ला सप्तमी (१० मार्च, १८२१) को श्रीपंचाला ग्राम-स्थित झीणाभाई के राजभवन में चबूतरे पर पलंग बिछा हुआ था उस पर श्रीजीमहाराज विराजमान थे। उन्होंने सिर पर श्वेत फेंटा बाँधा था, सफ़ेद धोती धारण की थी तथा श्वेत पिछौरी ओढ़ी थी। उस समय श्रीजीमहाराज के समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “मोक्षधर्म का ग्रन्थ मँगवाइए, तो सांख्य के अध्याय तथा योग के अध्याय की कथा करवाएँ!”
आज्ञा के अनुसार ग्रन्थ लाया गया। नित्यानन्द स्वामी ने कथा करना प्रारम्भ किया।
उस समय श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “योगमत में जीव और ईश्वर तत्त्व को पच्चीसवाँ कहते हैं और परमात्मा को छब्बीसवाँ तत्त्व बताते हैं। सांख्यमत में चौबीस तत्त्वों में जीव और ईश्वर की गणना करते हैं और पच्चीसवाँ तत्त्व परमात्मा को कहते हैं। उनमें योगमतानुयायियों का ऐसा मत है कि आत्मा-अनात्मा के सम्बंध में चाहे कैसा ही विचार करें, साधना करें, परन्तु प्रत्यक्ष भगवान का आश्रय ग्रहण किए बिना मोक्ष नहीं होता। जबकि सांख्यमत का सिद्धान्त है कि जो पुरुष देव-मनुष्यादि की गतियों को जानकर और विषयों से वैराग्य पाकर तीन देहों से परे जो आत्मा है, उसको जाने तभी वह मुक्त हो सकता है। ये दो प्रकार के जो मत हैं, और इनमें जो अपनी त्रुटियाँ हैं, उसका निवारण करने के लिए युक्ति का ग्रहण करना चाहिए।
“योगमत में दूषण यह है कि जीव और ईश्वर को पचीसवें स्थान पर बताए गए हैं तथा जीव एवं ईश्वर का भी चौबीस तत्त्वों का शरीर कहा गया है, इस प्रकार इन दोनों के प्रति तुल्यभाव हो जाते हैं। जैसे स्थूल और विराट, सूक्ष्म एवं सूत्रात्मा, कारण तथा अव्याकृत तुल्य है। जाग्रत तथा स्थिति अवस्था तुल्य हैं, स्वप्न तथा उत्पत्ति अवस्था, सुषुप्ति और प्रलय अवस्था; और विश्व, तैजस और प्राज्ञ एवं विष्णु, ब्रह्मा तथा शिव तुल्य हैं। ऐसा समझकर योगमत वाले छब्बीसवें तत्त्व के रूप परमात्मा का भजन करते हैं। इस प्रकार जीव और ईश्वर में तुल्यभाव रूप दोष को टालने के लिए किसी अभिज्ञ से युक्ति सीखना कि, ‘ईश्वर के देह के जो पंचभूत हैं, उनकी महाभूत संज्ञा है। वही भूत समस्त जीवों के शरीरों को धारण कर रहे हैं। और जीव की देह में जो पंचभूत हैं, वे अल्प हैं और अन्य को धारण करने में समर्थ नहीं हैं। तथा जीव अल्पज्ञ है और ईश्वर तो सर्वज्ञ हैं।’ ऐसी युक्ति सीखकर जीव तथा ईश्वर में तुल्यभाव नहीं समझना चाहिए। यदि ऐसी युक्ति न सीखी हो और कोई प्रतिवादी प्रश्न पूछे, तो उसको उत्तर देने में कठिनाई हो सकती है तथा बुद्धिविभ्रम हो जाता है। यदि और कोई प्रश्न करे तो वह प्रश्नकर्ता उसे जीव और ईश्वर में समानता१९३ नहीं रहने देगा। इसलिए, ऐसी युक्ति सीखना तथा ऐसे ही वचन सुनना ताकि जीव और ईश्वर में समभाव न आने पाये।
“और, सांख्यमत में यह दोष है कि उसमें चौबीस तत्त्व कहे गए हैं तथा परमात्मा को पच्चीसवाँ तत्त्व बताया गया है तथा उन चौबीस तत्त्वों को मिथ्या कहा गया है और परमात्मा को सत्य बताया गया है; जब ऐसा हो, तो उन परमात्मा को प्राप्त ही कौन करता है? क्योंकि परमात्मा को प्राप्त करनेवाले जीव को तत्त्वों से भिन्न नहीं कहा गया है! अतः इस दोष को मिटाने के लिए किसी बड़े अनुभवी से इस प्रकार युक्ति सीखना कि, ‘जो ये चौबीस तत्त्व कहे गए हैं, वे जीव-विहीन नहीं हो सकते; अतः उन तत्त्वों के साथ ही जीव और ईश्वर को बताया गया है। वे जीव और ईश्वर उन तत्त्वों से पृथक् हैं तथा वे परमात्मा को पाते हैं।’ यदि यह युक्ति न सीखी हो और कोई प्रतिपक्षी प्रश्न पूछ बैठे, तो यह संशय हो जाता है कि, ‘तत्त्व तो मिथ्या हैं। तब परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य आदि जो धर्म बताए गए हैं तथा श्रवण, मनन और निदिध्यास आदि जो साधन कहे गए हैं, उनका प्रयोजन ही क्या रह गया?’ इसलिए, तत्त्वों के तादात्म्य को प्राप्त जीव एवं ईश्वर को तत्त्वरूप में भले ही बताया गया हो, परन्तु वे इन तत्त्वों से अति विलक्षण हैं और वे परमात्मा को भी प्राप्त कर सकते हैं। सांख्यमतानुयायियों को ऐसी युक्तियाँ बड़े अभिज्ञ से सीखनी चाहिए।
“और, योगमतानुयायी तो ऐसी युक्ति ग्रहण करते हैं कि, ‘भगवान के प्रत्यक्ष मूर्तिमान मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, राम तथा कृष्णादिक जो अवतार हैं, उनका ध्यान करने से मोक्ष हो जाता है।’ जबकि सांख्यमतानुयायी यह युक्ति ग्रहण करते हैं कि, ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह इत्यादि श्रुतिशास्त्रों द्वारा भगवान का जो स्वरूप बताया गया है, उस भगवान को पूर्ण अनुभव से यथार्थ रूप में जाने, तभी मोक्ष होता है।’ ऐसी युक्ति ग्रहण करते हैं। उपरोक्त दोनों मत अच्छे हैं और बड़े (व्यासादिक) ने भी मान्य किये हैं। और, इन दोनों मतों का यथार्थ रूप से जो कोई पालन करता है, वह परमगति को प्राप्त करता है। इन दोनों मतों में साधन समान बताये गये हैं, परन्तु उपासना की रीति समान नहीं है, वे अत्यन्त पृथक् है।”
ऐसी वार्ता कहने के बाद श्रीजीमहाराज परमहंसों से बोले कि, “अब कीर्तनगान करिए।”
इसके पश्चात् मुक्तानन्द स्वामी आदि परमहंस वाद्य-यंत्रों को लेकर कीर्तन करने लगे।
बाद में श्रीजीमहाराज पुनः बोले, “अब कीर्तनगान रोकिए। जब तक आप कीर्तन कर रहे थे, तब तक हमने सांख्य तथा योग के सिद्धान्तों पर विचार किया, उन्हें सुनिए। योगमतानुयायियों का मन्तव्य यह है कि आत्यन्तिक प्रलय के समय अक्षरधाम में भगवान की जो तेजोमय दिव्यरूप मूर्ति है, वह ध्यान करने योग्य है। उससे निम्न कक्षा पर रहे प्रकृति-पुरुषरूप भगवान ध्यान करने योग्य हैं। उसके नीचे प्रकृति-पुरुष के कार्यमूलक चौबीस तत्त्वरूपी भगवान ध्यान करने योग्य हैं। उसके नीचे हिरण्यगर्भ और उसके नीचे चौबीस तत्त्वों से उत्पन्न विराट ध्यान करने योग्य हैं। उसके नीचे ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा पृथ्वी पर अवतरित भगवान के मत्स्य, कूर्म, नृसिंह, वराहादि अवतार एवं शालिग्राम आदि प्रतिमाएँ ध्यान करने योग्य हैं। ऐसा योगमत का तात्पर्य है। और, सांख्यमतावलम्बी ने आकारमात्र का खंडन कर दिया है। उसे ऐसा प्रतीत होता है कि, ‘इस सबका विचार करनेवाला जो यह जीव है, उसके समान अन्य कोई शुद्ध नहीं है, इसलिए जीव का ध्यान करना ठीक है।’ सांख्यमत का यह दोष दूर हटाने के लिए पुनः योगमत के बारे में सोचा कि ऐसे परात्पर पुरुषोत्तम भगवान का प्रकृतिपुरुषादि में अन्वयभाव है। इसलिए, वे सब भगवान ही हैं और दिव्यरूप हैं, सत्य हैं एवं ध्येय हैं। इस बात को सुदृढ़ करने के लिए श्रुति कहती है कि ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म,’१९४ ‘नेह नानास्ति किञ्चन’१९५ तथा ‘इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो यतो जगत्स्थाननिरोधसंभवाः।’१९६ इस प्रकार के योगमार्ग का अनुसरण करनेवाले मुमुक्षु के मार्ग में कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि वह स्थूल मार्ग है और उसमें प्रत्यक्षमूर्ति भगवान का आलम्बन है। इसलिए सामान्य प्रकार का मुमुक्षु भी उस मार्ग द्वारा निर्विघ्न होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
“परन्तु, इस योगमार्ग में एक दोष यह है कि उन सबसे परे जो पुरुषोत्तम भगवान हैं, उनमें तथा प्रकृतिपुरुषादि में इस प्रकार अंश-अंशीभाव आ जाता है कि भगवान के अंश प्रकृति-पुरुष हैं तथा उनके अंश हिरण्यगर्भ और विराट आदि हैं। इस प्रकार समझने में बड़ा दोष होता है, क्योंकि भगवान अच्युत, निरंश, निर्विकार, अक्षर एवं अखंड हैं। उनके स्वरूप में च्युतभाव तथा अंश-अंशी भाव का दोष आने देना नहीं चाहिए और ऐसा समझना चाहिए कि, ‘उन भगवानसदृश तो भगवान ही हैं तथा अन्य प्रकृतिपुरुष आदि उनके भक्त हैं और उनका ध्यान करते हैं। इसलिए, वे भी भगवानरूप हैं। जैसे कोई बड़े सन्त हों और वे भगवान का ध्यान करते हों, तो वह भगवानरूप माना जाता है, वैसे ही वे प्रकृतिपुरुषादि भी भगवानरूप हैं। उन सबसे परे पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धरूप होते हैं तथा राम, कृष्ण आदि अवतारों को ग्रहण करते हैं। इसलिए वे ध्यान करने योग्य हैं।’ यदि ऐसा समझा जाए, तो यह योगमार्ग अतिशय निर्विघ्न तथा श्रेष्ठ है।
“और, सांख्यमत में यह दोष है कि वह ऐसा कहता है कि, ‘अन्तःकरण तथा इन्द्रियों द्वारा जो जो पदार्थ ग्रहण किए जाते हैं, वे सब मिथ्या हैं, परन्तु अनुभव द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सत्य है।’ इस प्रकार, वह आकारमात्र को मिथ्या कर डालता है। उसके साथ जीव के कल्याण के लिए प्रकट हुए भगवान के रूप को और अनिरुद्ध, प्रद्युम्न एवं संकर्षण के रूपों को भी मिथ्या कर देता है, केवल निर्गुण वासुदेव को ही ग्रहण करता है; ऐसा यह बड़ा दोष है। इसलिए सांख्यमतानुयायी यदि ऐसा समझ लें तो ठीक रहेगा कि, ‘सांख्यविचार को ग्रहण करके प्रकृतिपुरुष से जो-जो उत्पन्न हुआ, उसे मिथ्या करके अपनी आत्मा को सबसे पृथक् शुद्ध ब्रह्मरूप मानकर जीव के कल्याण के लिए प्रकट हुए भगवान के रूप को सत्य जानकर उनका ध्यान करना चाहिए।’ इस प्रकार ये दो विचार यदि कोई हमारे समान महान अभिज्ञ से सीखेगा, तो सीख पाएगा, अन्यथा शास्त्रों को पढ़ने और सुनने पर भी ये विचार समझ में नहीं आ पाते। यथार्थतः बात यह है कि प्रथम सांख्यविचार द्वारा जो ब्रह्मरूप हुआ हो, उसके लिए योग का यह उपदेश बताया गया है कि:
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥१९७
“तथा
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः ॥१९८ परिनिष्ठितोऽपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया।
गृहीतचेता राजर्षे! आख्यानं यदधीतवान् ॥१९९
“इस प्रकार सांख्यमत को योग की अपेक्षा रहती है, क्योंकि ये सांख्यमतानुयायी विचार करके अपनी आत्मा से व्यतिरिक्त इन पाँच इन्द्रियों तथा चार अन्तःकरणों द्वारा भोग्य विषयभोगों को अतिशय तुच्छ जानते हैं। इसीलिए, वे किसी भी पदार्थ के असर से विस्मित नहीं होते, तथा उनके बन्धन में नहीं आते। जब कोई उनके पास आकर यह कहे कि, ‘यह पदार्थ बहुत अच्छा है,’ तब वे ऐसा विचार करते हैं कि, ‘यह पदार्थ चाहे कितना ही अच्छा होगा, फिर भी यह इन्द्रियों तथा अन्तःकरण द्वारा ग्राह्य है। अतः इन्द्रिय-अन्तःकरण द्वारा ग्राह्य पदार्थ असत्य और नाशवान है।’ ऐसी दृढ़ समझ सांख्यमतानुयायियों में रहा करती है और वे अपनी आत्मा को शुद्ध मानते हैं। ऐसे सांख्यमतानुयायियों को योगमार्ग द्वारा भगवान की उपासना, ध्यान तथा भक्ति करनी चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उनमें अति न्यूनता आती है।
“इस प्रकार सांख्यशास्त्र तथा योगशास्त्र के जो सनातन सिद्धान्त हैं, उन पर हमने यथार्थरूप से विचार करके उन्हें बताया है। जो आधुनिक योग और सांख्यमतानुयायी हैं, उन्होंने इन दोनों मार्गों को दूषित कर दिया है। जो योगमतानुयायी हैं, वे जब भगवान को साकार समझते हैं, तब वे अन्य जीवों के आकार तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं रामकृष्णादि अवतारों के आकार एक समान मानते हैं, और सांख्यमतानुयायी जब आकार को मिथ्या समझते हैं, तब वे तीर्थ, व्रत, प्रतिमा, यम-नियम, ब्रह्मचर्यादि धर्म तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं रामकृष्णादि अवतारों का भी खंडन कर डालते हैं। इसलिए, ये आधुनिक सांख्य और योगमतानुयायी इन दोनों मार्गों को छोड़कर कुमार्गगामी हो जाते हैं, इस कारण वे नारकी होते हैं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ १२८ ॥
This Vachanamrut took place ago.
१९३. पूर्वापर सन्दर्भों का समन्वय करने से यहाँ ‘विषम भाव’ शब्द होना चाहिए। परंतु प्राचीनतम प्रतों में भी ‘समानता’ शब्द ही प्राप्य है।
१९४. अर्थ: “यह समस्त जगत ब्रह्म-ब्रह्मात्मक है।” (छान्दोग्योपनिषद्: ३/१४/१)
१९५. अर्थ: “इस जगत में जो कुछ दृश्यमान है, सर्वत्र भगवान का निवास है, इसके बिना विविध पदार्थों का मानो अस्तित्व ही नहीं है।” (बृहदारण्यकोपनिषद्: ४/४/१९)
१९६. अर्थ: “यह समग्र विश्व भगवानरूप है, स्वरूप तथा स्वभाव से भगवान विश्व-विलक्षण हैं, तथापि भगवान से ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है, इसलिए जगत भगवान है, ऐसा कहा जाता है। वस्तुतः भगवान विश्व से विलक्षण हैं।” (श्रीमद्भागवत: १/५/२०)
१९७. अर्थ के लिए देखिए: वचनामृत लोया ७ की पादटीप।
१९८. अर्थ: “आत्माराम तथा रागद्वेषादिरूप ग्रन्थियों से रहित मुनि भी भगवान की निष्काम भक्ति करते हैं। ऐसे भगवान में कारुण्य, सौशील्य एवं वात्सल्यादि गुण रहे हैं।” (श्रीमद्भागवत: १/७/१०)
१९९. अर्थ: “हे राजर्षे! सत्त्वादि गुणों के कार्यभूत तीन देहों से विलक्षण आत्मस्वरूप में सम्यक् रूप से निष्ठा प्राप्त करके भी मैं (शुक) उत्तमश्लोक भगवान की लीला से आकृष्ट होकर श्रीमद्भागवत को पढ़ चुका हूँ।” (श्रीमद्भागवत: २/१/९)