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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १३

बड-पीपल की शाखा का रोपण

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा (२ दिसम्बर, १८१९) को रात के समय श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के समीप नीम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। वे लाल चूड़ीदार पायजामा तथा बगलबंडी पहने हुए थे। उन्होंने मस्तक पर ज़रीदार शेला बाँधा था और इसी प्रकार कमर में सुनहरी शेला कसा था। कंठ में मोतियों की मालाएँ पहनी थीं और पाग में मोती का तुर्रा (फँदना) लटक रहा था। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त उपस्थित थे।

उस समय श्रीजीमहाराज से नित्यानन्द स्वामी ने यह प्रश्न पूछा, “प्रत्येक शरीर में जीव एक है या अनेक हैं? यदि इसे ‘एक’ कहेंगे तो बरगद, पीपल आदि जो वृक्ष हैं, उनकी डालें काट कर उन्हें दूसरी जगह पर लगाते हैं, तब भी बिल्कुल उसी प्रकार का वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार एक जीव दो तरह से हुआ या दूसरे जीव ने प्रवेश किया? यदि यह कहेंगे कि ‘यह तो एक ही जीव है,’ तो जीव को तो अखंड एवं अच्युत कहा गया है, फिर वह कट कर दो भाग में कैसे बँट गया?”

श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिये, इसका उत्तर देते हैं कि श्रीकृष्ण भगवान की दो शक्तियाँ हैं: पुरुष तथा प्रकृति। ये दोनों जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का कारण हैं। भगवान ने पुरुष-प्रकृतिरूपी अपनी दोनों शक्तियों को ग्रहण करके स्वयं विराट रूप धारण किया। ऐसे विराट रूपवाले भगवान ने सबसे पहले ब्राह्मकल्प२२ में अपने अंगों से ब्रह्मादि से लेकर घास के स्तम्ब तक समस्त जीवों का सृजन किया, और पाद्मकल्प२३ में ब्रह्मा-रूप होकर मरीच्यादि तथा कश्यप का सृजन किया एवं दक्ष-रूप द्वारा देवों, दैत्यों, मनुष्यों और पशु-पक्षियों आदि समग्र स्थावर-जंगम जीवों का सृजन किया। ऐसे श्रीकृष्ण भगवान पुरुष-प्रकृति-रूपिणी अपनी शक्तियों के साथ प्रतिजीव में अन्तर्यामी स्वरूप में रहते हैं। और जिस जीव ने जैसे कर्म किए हैं, उसे वे उसी प्रकार की देह प्रदान करते हैं।

“इस जीव ने पूर्वजन्म में कितने ही सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुणप्रधान कर्म किए हैं, जिनके अनुसार भगवान उसे उद्भिज (वृक्ष-लता आदि), जरायुज (मनुष्य, पशु आदि), स्वेदज (कीड़े, मकोड़े आदि) तथा अंडज (पक्षी, सर्प आदि) जातियों की देह प्रदान करते हैं; और उन्हें सुख-दुःखरूपी कर्मफल देते हैं और उस जीव के कर्मानुसार उसकी देह से अन्य देह का सृजन करते हैं। जिस प्रकार कश्यप आदि प्रजापतियों की देह से अनेक जातियों की देहों का सृजन उन्होंने किया, उसी प्रकार वही भगवान अन्तर्यामीरूप द्वारा प्रत्येक जीव में रहते हुए, जिस देह से जैसे शरीर की उत्पत्ति करने की विधि होती है, उसी के अनुसार वे दूसरी देह उत्पन्न करते हैं। परन्तु, वे जिस जीव से दूसरी देह उत्पन्न करते हैं, वह जीव ही अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, ऐसी बात नहीं है। जिस जीव को जिस देह से उत्पन्न करने का कर्म-सम्बंध प्राप्त हुआ हो, उस जीव की उत्पत्ति तो वे उसी के द्वारा करते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १३ ॥

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२२. वैराजपुरुष की आयुष्य के प्रथम अर्ध भाग को परार्ध कहा जाता है। उस परार्ध का प्रथम दिन अर्थात् प्रथम कल्प को ब्राह्मकल्प कहते हैं। (श्रीमद्भागवत: ३/११/३३-३४)

२३. उपरोक्त प्रथम कल्प के अंतिम दिन को पाद्मकल्प कहते हैं। (श्रीमद्भागवत: ३/११/३५)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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