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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
पंचाळा ४
मनुष्यभाव में दिव्यभाव
संवत् १८७७ में फाल्गुन कृष्णा तृतीया (२१ मार्च, १८२१) को श्रीजीमहाराज श्रीपंचाला ग्राम-स्थित झीणाभाई के राजभवन में चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था, सफ़ेद धोती धारण की थी तथा श्वेत पतली पिछौरी ओढ़ी थी। अपने करकमल में श्रीहरि तुलसी की माला फेर रहे थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “सभी परमहंस परस्पर प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ करें।”
इसके बाद मुनिबाबा ने ब्रह्मानन्द स्वामी से प्रश्न पूछा कि, “एक भक्त को भगवान के सम्बंध में निश्चय भी हो, तथा वह भजन-स्मरण करता रहता हो, किन्तु भगवान के मनुष्य-चरित्रों को देखकर उसे भगवत् स्वरूप में संशय हो जाता है, इसका क्या कारण है?”
इस प्रश्न का उत्तर ब्रह्मानन्द स्वामी देने लगे, परन्तु वे यथार्थ रूप से उत्तर न दे सके। तब श्रीजीमहाराज काफ़ी देर तक विचार करने के पश्चात् बोले, “इस प्रश्न का उत्तर हम देते हैं: वेदों, पुराणों, महाभारत तथा स्मृतियों आदि शास्त्रों में अक्षरधाम स्थित भगवान के सनातन, अनादि, दिव्य मूलरूप का वर्णन किया गया है कि वस्तुतः भगवान कैसे हैं! तो इस चक्षु-इन्द्रिय द्वारा दिखाई दे रहे जितने भी रूप हैं, उनके समान भगवान का रूप नहीं है; श्रवणेन्द्रिय द्वारा जितने शब्दमात्र सुने जाते हैं, वैसे भगवान के शब्द नहीं है; त्वचा द्वारा जो कुछ स्पर्श किया जाता है, वैसा उनका स्पर्श नहीं है; नासिका द्वारा जितने प्रकार की सुगन्ध सूँघी जाती है, वैसी उनकी सुगन्ध नहीं है; तथा जिह्वा द्वारा जो कुछ भी वर्णित किया जाता है, वैसे भी वे भगवान नहीं हैं। और, मन के संकल्प से भी भगवान ग्राह्य नहीं हो सकते, चित्त भी भगवान के स्वरूप का वैसा चिन्तन नहीं कर सकता, बुद्धि भगवान के स्वरूप का निश्चय नहीं कर सकती, अहंकार द्वारा भी कि, ‘मैं इन भगवान का हूँ और वे मेरे हैं,’ वैसा अहंभाव भी नहीं हो सकता। इस प्रकार भगवान इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से अगोचर रहते हैं।
“और, भगवान का जैसा रूप है, वैसा रूप इस ब्रह्मांड में ब्रह्मादि स्तम्बपर्यन्त किसी का भी नहीं है कि उनके रूप के साथ किसी की उपमा दी जा सके! तथा उनके जैसे शब्द हैं, जैसी सुगन्ध है, जैसा स्पर्श है और जैसा रस है, वैसे इन पाँचों विषय ब्रह्मांड में अन्य किसी के भी नहीं हैं। वे वास्तव में अनुपमेय हैं। तथा उन भगवान का जैसा धाम है वैसा स्थान इस ब्रह्मांड में अन्य किसी का भी नहीं है, जिससे उसकी उपमा दी जा सके। सप्तद्वीपों, नौ खंडों में जो-जो स्थान हैं तथा मेरु के ऊपर ब्रह्मादि के अत्यन्त शोभायुक्त जो स्थान हैं, लोकालोक पर्वत पर जो अनेक स्थल हैं; इन्द्र, वरुण, कुबेर, शिव, ब्रह्मा के जो स्थान हैं और जो भी अन्य अनेक स्थान हैं, उन सबमें ऐसा एक भी स्थान नहीं है, जिसके साथ भगवान के धाम की उपमा हो सके। और, उन भगवान के धाम में निवास करनेवाले भगवद्भक्तों को जितना सुख उपलब्ध है, उतना सुख इस ब्रह्मांड में अन्यत्र कहीं भी नहीं है, जिससे उसकी उपमा कही जा सके। उन भगवान का जैसा आकार है, वैसा आकार इस ब्रह्मांड में और किसी का नहीं है। वे अनुपमेय हैं, क्योंकि इस ब्रह्मांड में पुरुष-प्रकृति से उत्पन्न हुए जितने भी आकार हैं, वे सब मायिक हैं, किन्तु भगवान तो दिव्य एवं अमायिक हैं।
“इसी कारण उन दोनों में अतिशय विलक्षणता है, तब मायिक और अमायिक में सादृश्य कैसे हो सकता है? जैसे किसी मनुष्य के सम्बंध में यह कहा जाए कि, ‘यह मनुष्य भैंस जैसा है, साँप जैसा है तथा चकवा, गधा, कुत्ता, कौवा और हाथी जैसा है,’ तो ऐसी उपमा मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है, क्योंकि मनुष्य से भिन्न ये जितने भी जीव हैं, वे सभी विजातीय हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य-मनुष्य में भी अतिशय में सदृशता नहीं होती कि जिससे ऐसी उपमा दी जा सके कि, ‘यह तो इसके समान ही है।’ फिर भी यदि वह वैसा ही मनुष्य हो, तो उसकी अलग पहचान कैसे हो सकती है? अतः मनुष्य-मनुष्य में सजातीय होने पर भी विलक्षणता दिखाई देती है। देखिए न, ये दो भक्त भगा और मूला, दोनों ही एकसमान दिखते हैं, फिर भी यदि अधिक दिनों तक कोई उनके साथ में रहे, तो दोनों में से प्रत्येक को पहचाना जा सकता है कि, ‘यह भगा है और यह मूला है।’ यदि विलक्षणता ही न हो, तो किसी को किस प्रकार पहचाना जा सकता है? अतः जब मनुष्य-मनुष्य में भी सदृशता नहीं है, तो मायिक-अमायिक में सदृशता कैसे हो सकती है कि जिसकी उपमा भगवान से करें, अथवा भगवान के धाम के साथ करें! क्योंकि ये जो भगवान हैं, वे इन्द्रियों तथा अन्तःकरण के लिए अगोचर हैं। ऐसा समस्त शास्त्रों में कहा गया है।
“वे भगवान जब जीव को अपना दर्शन न देने की इच्छा करते हैं, तब उक्त प्रकार से दिव्यरूप एवं अगोचर होकर अपने अक्षरधाम में रहते हैं। वे भगवान महाराजाधिराज हैं। वे दिव्यरूप असंख्य समृद्धि एवं अगण्य पार्षदों से युक्त हैं तथा अनन्तकोटि ब्रह्मांडों के स्वामी हैं। जैसे कि इस लोक में कोई बड़ा चक्रवर्ती राजा हो, उसका सूर्योदय और सूर्यास्तपर्यन्त राज्य हो तथा वह राजा अपने तपोबल द्वारा देवताओं के सदृश ऐश्वर्यों को प्राप्त करके स्वर्गलोक, मृत्युलोक और पाताललोक - इन तीनों लोकों पर शासन करता हों, जैसे अर्जुन स्वर्ग में सदेह जाकर इन्द्रासन पर कई वर्षों तक आसीन रहे थे। नहुषराजा भी इन्द्र हुआ था। ऐसे प्रतापी चक्रवर्ती राजा के आधीन इतने अधिक गाँव होते हैं कि उनकी गणना ही नहीं हो पाती, क्योंकि ये असंख्य हैं। इसी प्रकार ऐसे गाँव-गाँव के पटेलों की भी गिनती नहीं हो सकती, ऐसे गाँव-गाँव के असंख्य पटेल उनके राजभवन में उनका अभिवादन करने आते हैं और उस राजा के धन, माल, भोगों, स्थानों तथा समृद्धियों की भी जिस प्रकार गणना नहीं हो पाती, वैसे ही भगवान भी असंख्यकोटि ब्रह्मांडरूप गाँवों के राजाधिराज हैं। ब्रह्मांडरूप गाँवों के मुख्य पटेल तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। जैसे एक गाँव में एक बड़ा पटेल होता है, उसे उस गाँव के सभी लोग आकर नमस्कार करते हैं और उसकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। वह पटेल राजा को नमस्कार करता है। वैसे ही प्रत्येक ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीन अग्रणी हैं, तथा अन्य जो उस ब्रह्मांड के देव, दैत्य, मनुष्य, ऋषि और प्रजापति आदि ब्रह्मा, विष्णु और शिव का भजन-स्मरण करते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, लेकिन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव तो भगवान पुरुषोत्तम को भजते हैं तथा उनकी आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहते हैं। प्रत्येक ब्रह्मांड के ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भगवान से प्रार्थना करते हैं कि, ‘हे महाराज! कृपा करके आप हमारे ब्रह्मांड में पधारिए।’
“जिस प्रकार किसी गाँव का पटेल चक्रवर्ती राजा के समक्ष उपस्थित होकर प्रार्थना करता है कि, ‘हे महाराज! मैं गरीब हूँ, आप मेरे घर पधारें। मुझसे आपकी जो कुछ सेवा-चाकरी बनेगी, वह मैं करूँगा।’ उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भगवान से प्रार्थना करते हैं कि, ‘हे महाराज! आप दया करके हमें दर्शन दीजिए और हमारे ब्रह्मांड में पधारिए।’ तब वे भगवान उस ब्रह्मांड में देह-धारण करते हैं। उन्हें जहाँ जैसा कार्य करना होता है, वहाँ वे वैसी देह धारण करते हैं और तदनुसार आचरण करते हैं। यदि वे देवाकृतिवाली देह धारण करते हैं, तो देव-सदृश चेष्टा करते हैं तथा पशु-शरीर धारण करने पर पशु जैसा आचरण करते हैं। जब भगवान ने वराहरूप देह धारण की, तब उन्होंने सूँघकर पृथ्वी को खोज डाला था; हयग्रीवरूप धारण करने पर वे घोड़े की तरह हिनहिनाने लगे थे; जब उन्होंने मत्स्य-कच्छपादि जलजन्तुओं की देहों को धारण किया, तब वे जल में ही घूमते रहे, किन्तु उन्होंने पृथ्वी पर भ्रमण नहीं किया; नृसिंहरूप धारण करने पर उन्होंने सिंह की तरह आचरण किया, परन्तु मनुष्यसदृश चेष्टा नहीं की।
“और वे भगवान जब मनुष्यदेह धारण करते हैं, तब मनुष्यसदृश ही क्रिया करते हैं। जैसे कि जब सत्युग आता है, तब मनुष्य की एक लाख वर्ष की आयु होती है, तब भगवान भी एक लाख वर्ष तक अपनी देह को रखते हैं। उस सत्युग के मनुष्य जब मनोवांछित भोगों का उपभोग करते हैं, तब भगवान भी उनके समान भोग भोगते हैं, किन्तु अधिक नहीं। त्रेतायुग में मनुष्य की आयु दस सहस्र वर्ष की होती है। भगवान भी उतने वर्षों तक ही देह की आयु रखते हैं। द्वापरयुग में मनुष्य की आयु एक सहस्र वर्ष की होती है तथा तत्कालीन मनुष्य में दस सहस्र हाथियों का बल होता है। तब भगवान में भी उतना बल होता है और उतना आयुष्य भी होता है। और, कलियुग में जब भगवान देह धारण करते हैं, तब वे कलियुगी प्रमाण के अनुसार आयुष्य एवं बल धारण करते हैं।
“जिस प्रकार बालक गर्भ में आता है और गर्भ के बढ़ने पर उसका जन्म होता है तथा उसके पश्चात् उसकी क्रमशः बाल्यावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था होती है और इसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है; उसी प्रकार भगवान भी वैसी ही मनुष्य सदृश चेष्टा करते हैं। जैसे मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, मान, स्नेह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, राग, मोह, सुख, दुःख, भय, निर्भयता, शूरता, कायरता, भूख, प्यास, आशा, तृष्णा, निद्रा, पक्षपात, पराया, अपना, त्याग एवं वैराग्य आदि सूचक स्वभाव होते हैं, वैसे ही ये सभी स्वभाव भगवान द्वारा मनुष्य देह धारण करने पर उनमें भी दिखाई पड़ते हैं।
“समस्त शास्त्रों में भगवान के उस मनुष्य स्वरूप तथा उनके मूल दिव्यस्वरूप का भी वर्णन किया गया है। जिसने भगवान के इन दोनों स्वरूपों का यथार्थ रूप से श्रवण-मनन करके दृढ़ निश्चय कर लिया हो, उसको तो भगवान के मनुष्य स्वरूप में किसी भी प्रकार का संशय नहीं होता। किन्तु जिसकी इस प्रकार की समझ में कोई कसर रह गई हो, उसे भगवान में संशय उत्पन्न हो जाता है। और, वे दिव्यरूप भगवान मनुष्य-शरीर को धारण करते हैं, तब मनुष्य जैसा स्वभाव रखते हैं, किन्तु बुद्धिमान मनुष्य को इतना विवेक अवश्य रहता है कि, ‘उन भगवान में यद्यपि काम है, परन्तु वह अन्य मनुष्य जैसा नहीं है, तथा क्रोध, लोभ, स्वाद, मान आदि स्वभाव तो हैं, परन्तु वे अन्य मनुष्यों जैसे नहीं हैं,’ उनमें जो कुछ दिव्यभाव है, वह बुद्धिमान को समझ में आ जाता है; अतः तदनुसार वह भगवान के स्वरूप का निश्चय करता है।
“जैसे शंकराचार्य ने शृंगार रस के विषय में जानकारी के लिए राजा के शरीर में प्रवेश किया था, तब ठीक उस राजा के समान ही शृंगारिक हावभाव प्रकट किया तथा दैहिक चेष्टा भी उसी के अनुसार की थी। किन्तु रानी बुद्धिमती थी, उसने भाँप लिया कि, ‘मेरे पति में ऐसा चमत्कार नहीं था। अतः यही प्रतीत हो रहा है कि इस देह में किसी अन्य जीव ने प्रवेश किया है।’ वैसे ही मनुष्य देहधारी भगवान में दिव्यभाव प्रतीत होता है, उसी से भगवान का निश्चय हो जाता है।
“तब आप यह कहेंगे कि भगवान ने किंचित् दिव्यभाव दिखाया और उससे मनुष्य को भगवान के स्वरूप का निश्चय हो गया। यदि अधिकाधिक दिव्यभाव दिखलाया जाए, तो अनेक मनुष्यों को ऐसा निश्चय हो जाए। इसका तात्पर्य यह है कि सूर्य को समस्त शास्त्रों में नारायण बताया गया है और वह समग्र मानवजाति को दृष्टिगोचर भी होता है, सभी मनुष्य प्रतिदिन उसका दर्शन करते हैं; फिर भी, उसके दर्शन से मनुष्य को अपने आत्मकल्याण का निश्चय नहीं होता कि ,‘मेरा कल्याण हो गया।’ जबकि मनुष्याकार रामकृष्णादि अवतारों तथा नारद-शुकादि सन्तों के दर्शन करने से मनुष्य को ऐसा निश्चय हो जाता है कि, ‘मेरा कल्याण निश्चित रूप से हो गया और मैं कृतार्थ हुआ हूँ।’ यद्यपि उन भगवान तथा सन्त में स्वयं का कोई प्रकाश नहीं है, दीप जलाने पर उनका दर्शन होता है, तो भी उसे कल्याण का निश्चय हो जाता है। अग्नि भी साक्षात् भगवान हैं, क्योंकि भगवान ने यह कहा भी है:
‘अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।प्राणापानसमायुक्तःपचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥’२०३
“इसी प्रकार अग्नि के भी सबको दर्शन होते हैं, परन्तु मनुष्य को उससे आत्मकल्याण का निश्चय नहीं होता। जबकि भगवान तथा सन्त के दर्शन से उसे ऐसा निश्चय हो जाता है। इसका क्या कारण है? तो मनुष्य तथा सूर्य एवं अग्नि में पूरी तरह भिन्नता है। दोनों एक दूसरे से विजातीय हैं। इसलिए उनके दर्शन करने से कल्याण होने का निश्चय नहीं होता। क्योंकि मनुष्य यदि अग्नि का स्पर्श करे, तो वह जलकर मर जाए। जैसे कुन्तीजी ने दुर्वासा के दिए गए मन्त्र द्वारा जब सूर्य को बुलाया, तो सूर्य मनुष्यरूप से उनके पास आये, तभी उसे शरीर-सम्बंध सुख उपलब्ध हुआ और उसे कर्णरूप गर्भ रहा। परन्तु, यदि सूर्य अपने पूर्ण प्रकाशसहित वहाँ आए होते, तो कुन्तीजी जलकर मर जाती और उन्हें स्पर्शजन्य सुख भी नहीं मिल पाता। सत्राजित यादव के पास सूर्य मनुष्यरूप धारण करके ही आते थे। जब सूर्य कुन्तीजी और सत्राजित के पास आए, तब क्या वे आकाश में नहीं थे? वे आकाश में भी थे तथा अन्य रूप द्वारा वही कुन्तीजी और सत्राजित के पास भी आए थे। यद्यपि उनके पास अपना पूर्ण प्रकाश था, परन्तु वे अपने उस प्रकाश का संकोचन करके मनुष्य की भाँति आए थे।
“वैसे ही भगवान यदि अपने पूर्ण दिव्यभाव सहित जीव को दर्शन दें, तो मनुष्य दुविधा में पड़ जाएगा कि, ‘यह कोई भूत-प्रेत है? या कुछ और है?’ वस्तुतः भगवान अपने ऐश्वर्यों का संकोचन करके मनुष्य-सदृश होकर ही भक्त को दर्शन देते हैं। वे अपने धाम में भी विराजमान हैं और उनके मनुष्यरूप के कारण ही भक्त उनके दर्शन, स्पर्श आदि नौ प्रकार की भक्ति कर सकता है। यदि भगवान मनुष्य-सदृश न हों और दिव्यभाव सहित ही रहें, तो उनके प्रति मनुष्यों को स्नेह नहीं होगा तथा उनका सुख भी नहीं मिलेगा। जिस प्रकार मनुष्य-मनुष्य में स्वाभाविक स्नेह होता है और सुख भी मिलता है, परन्तु पशु और मनुष्य में परस्पर उस प्रकार का स्नेह नहीं होता और सुख भी नहीं मिलता। पशु-पशु में ही परस्पर स्नेह होता है और सुख भी मिलता है, क्योंकि सजातीय में ही स्नेह होता है, विजातीय में नहीं। वैसे ही भगवान भी अपने दिव्यभाव का संकोचन करके अपने भक्त को अपने प्रति स्नेह कराने के लिए मनुष्यरूप धारण करते हैं, किन्तु उसे दिव्यभाव नहीं दिखलाते। यदि वे दिव्यभाव दिखलायें, तो विजातीय भाव उत्पन्न हो जाता है, जिससे भक्त को उनके प्रति स्नेह नहीं होता और सुख भी नहीं मिल पाता।
“इसलिए, भगवान जब मनुष्यरूप धारण करते हैं, तब वे अपने दिव्यभाव को छिपाये रखते हैं। अपनी दिव्यता को छिपाये हुए जब कभी वे अति शीघ्रता में कोई कार्य करने लगते हैं, तब उनका दिव्यभाव अचानक प्रकट हो जाता है। कभी-कभी वे अपनी इच्छा से भी अपने किसी भक्त को अपना दिव्यभाव दिखला देते हैं। जब श्रीकृष्ण भगवान भीष्म को मारने के लिए उतावले हुए, तब वे अपने मनुष्यभाव को भूल गए और दिव्यभाव प्रकट हो गया। जिससे पृथ्वी उनके भार को सहन करने में असमर्थ हो गई। इसी प्रकार अर्जुन को भी भगवान ने अपना दिव्यभाव दिखलाया था। किन्तु वह दिव्यभाव उन्होंने अपनी इच्छा से ही दिखाया था। उस दिव्यभाव को देखकर अर्जुन को कोई आनन्द नहीं मिला और वे अत्यन्त व्याकुल हो गए। बाद में श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने मनुष्य-स्वरूप का दर्शन कराया, तब अर्जुन आश्वस्त हुए और उन्होंने यह उद्गार प्रकट किया:
‘दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन!इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥’२०४
“इसका सारांश यह है कि भगवान का मनुष्यरूप ही जीव के लिए अनुकूल और सुखद रहता है। इसी कारण भगवान जब मनुष्यभाव से आचरण करने लगते हैं, तब जो मनुष्य इस प्रकार की समझ नहीं रखता, उसको भगवान का मनुष्यभाव देखकर भ्रान्ति हो जाती है। यदि भगवान सदैव अपना दिव्यभाव ही प्रकट करते रहें, तो वे सहज ही मन-वाणी से अगोचर हैं, अतः जीव के लिए बोधगम्य नहीं हो सकते! इसलिए, शास्त्रों में भगवान के स्वरूप का दो प्रकार से वर्णन किया गया है; उसके अनुसार जिसने भगवान को यथार्थ रूप से जान लिया है, उसको कोई संशय नहीं होता है, किन्तु जो ऐसा नहीं समझता, उसे अवश्य संशय हो जाता है।
“और, जो पुरुष यह कहता है, कि, ‘मैंने भगवान को जान लिया है और मुझे निश्चय भी हो चुका है,’ फिर वह यदि इस बात को नहीं समझा, तो यही कहना पड़ेगा कि उसका निश्चय अपरिपक्व है। जैसे कोई श्लोक और भजन वह सीख चुका हो, उससे यह पूछा जाए, कि, ‘क्या तूने यह श्लोक तथा भजन सीख लिया?’ तो वह कहेगा कि, ‘हाँ, सीख लिया है।’ वह कंठस्थ किया गया पाठ बोलकर भी बता देता है। परन्तु, कुछ दिनों के बाद वह उस श्लोक तथा भजन को भूल जाता है। इसका अर्थ यह है कि उसने वह श्लोक और भजन कंठस्थ तो किया था, पर यथार्थ रूप में नहीं किया था; क्योंकि श्रवण-मनन द्वारा दृढ़ अभ्यास करके उसने इस श्लोक और भजन को हृदयंगम नहीं किया था; इसी कारण वह विस्मृत हो गया। कुछ बातें बाल्यावस्था से ही अभ्यास करने के कारण इतनी सुदृढ़ हो जाती हैं कि युवावस्था तथा वृद्धावस्था में भी उसका काम पड़ने पर उस बात की याद आ जाती है। वैसे ही उसने जब भगवान सम्बंधी निश्चय किया था, तभी उसके निश्चय में कमी रह गई थी। यदि उसमें कोई कमी नहीं रही होती, तथा इस प्रकार पहले से ही श्रवण करके, उसका मनन कर उसी का सुदृढ़ अभ्यास उसके अंदर आत्मसात् हो गया होता, तो उसे कभी भगवान के स्वरूप में संशय होता ही नहीं।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ १३० ॥
This Vachanamrut took place ago.
२०३. अर्थ: “मैं वैश्वानर (जठराग्नि) बनकर समस्त प्राणियों की देहों में रहता हूँ और प्राणियों द्वारा खाये गए चार प्रकार के अन्नों को प्राणापानवृत्ति से समायुक्त होकर पचाता हूँ।” (गीता: १५/१४)
२०४. अर्थ: “हे जनार्दन! अब मैं आपके इस अतिसौम्य मनुष्यरूप के दर्शन करके स्वस्थ और प्रसन्नचित्त हुआ हूँ।” (गीता: ११/५१)