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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

पंचाळा ५

निर्मानी–भाव

संवत् १८७७ में फाल्गुन कृष्णा अष्टमी (२७ मार्च, १८२१) को श्रीजीमहाराज श्रीपंचाला ग्राम-स्थित झीणाभाई के राजभवन में चबूतरे पर बिछे हुए पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी, गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी, मस्तक पर श्वेत फेंटा बाँधा था और सफ़ेद चादर ओढ़ी थी। उनके समक्ष परमहंसों तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

तब स्वयंप्रकाशानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “किस स्थान पर मान रखना उचित है और किस जगह उचित नहीं है तथा किस ठिकाने पर निर्मानी-भाव उचित है और किस स्थान पर वह उचित नहीं है?”

उत्तर में श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो मनुष्य सत्संग का द्रोही हो तथा परमेश्वर एवं बड़े सन्त के विरुद्ध बातें करता हो, उसके आगे तो मान रखना ही अच्छा है और उसके अभद्र व्यवहार पर उसके प्रति तीखे बाण जैसा वचन बोलना ही ठीक है, किन्तु विमुख के आगे निर्मानी-भाव नहीं रखना ही उचित है। परन्तु, भगवान एवं भगवान के सन्त के समक्ष मान रखना उचित नहीं है। उनके आगे तो मान छोड़कर और दासानुदास होकर निर्मानीभाव से आचरण करना, वही श्रेयस्कर है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ १३१ ॥

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