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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

पंचाळा ६

उपासना की दृढ़ता

संवत् १८७७ में फाल्गुन कृष्णा नवमी (२८ मार्च, १८२१) को रात्रि के समय श्रीजीमहाराज श्रीपंचाला ग्राम-स्थित झीणाभाई के राजभवन में चबूतरे पर पलंग बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने सिर पर श्वेत फेंटा बाँधा था, सफ़ेद अंगरखा सहित गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी, सफ़ेद धोती धारण की थी तथा श्वेत पिछौरी ओढ़ी थी। उनके समक्ष परमहंस तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “हमने बहुत देर तक विचार किया और समस्त शास्त्रों में दृष्टि की, तब हमें ऐसा ज्ञात हुआ कि, ‘श्रीकृष्ण जैसा सर्वशक्तिसम्पन्न कोई अन्य अवतार नहीं हुआ है।’ क्योंकि अन्य जो अपनी अनन्त मूर्तियाँ भिन्न-भिन्न रूप से रही हैं, उन सबका भाव श्रीकृष्ण भगवान ने अपने स्वरूप में दिखलाया था। वह किस प्रकार? तो सर्वप्रथम स्वयं श्रीकृष्ण भगवान ने जब देवकी की कोख से जन्म लिया, तब शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर उन्हें चतुर्भुज-रूप में दर्शन दिया। जिसके द्वारा उन्होंने लक्ष्मीपति वैकुंठनाथ का भाव अपने स्वरूप में दिखलाया। फिर उन्होंने माता यशोदा को अपने मुख में विश्वरूप का दर्शन करवाया; इससे सहस्रशीर्षरूप द्वारा अनिरुद्धभाव का दर्शन अपने स्वरूप में करवाया। तथा अक्रूर को उन्होंने यमुना के जलाशय में दर्शन दिया, उससे अपने स्वरूप में शेषशायीभाव दिखाया; एवं युद्धस्थल में अर्जुन को विश्वरूप दिखलाया और कहा कि:

‘पश्य मे पार्थ! रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ॥’२०५

“इस प्रकार अनन्त ब्रह्मांडों के दर्शन करवाकर अपना पुरुषोत्तमभाव बताया। इसके उपरांत श्रीकृष्ण ने कहा भी है कि:

‘यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥’२०६

“इस प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं अपना पुरुषोत्तमभाव दिखाया। जबकि गोलोकवासी राधिका सहित श्रीकृष्ण तो वे स्वयं थे। जब वे मृत ब्राह्मण बालक को लेने के लिए भूमापुरुष के लोक में गए, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भूमापुरुषरूप में अपना दर्शन करवाया। तथा, श्वेतद्वीपवासी वासुदेव ने स्वयं ही यह अवतार धारण किया था। और, समग्र महाभारत तथा भागवत में उन्ही श्रीकृष्ण को ‘नरनारायण’ बताया गया है। इसलिए, श्रीकृष्ण अवतार में भिन्न-भिन्न रूप से रहीं उन भगवान की मूर्तियाँ, शक्तियाँ तथा ऐश्वर्य समग्र रूप से विद्यमान हैं। इसलिए, वह अवतार अति महान हुआ है। अन्य मूर्तियों में थोड़ा ऐश्वर्य है, परन्तु उसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य है। अतः कृष्णावतार जैसा कोई अवतार नहीं है, यह अवतार सर्वोत्कृष्ट है। और, अन्य अवतार द्वारा थोड़ी ही शक्ति प्रकट की है, किन्तु इस अवतार द्वारा सम्पूर्ण ऐश्वर्यों तथा शक्तियों को प्रकट किया गया है। इसलिए, यह अवतार सर्वोत्कृष्ट है। इस प्रकार प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण के स्वरूप में जिसकी अचल मति सदैव बनी रहती हो, वह मति कभी भी व्यभिचरित न होती हो, फिर उससे किसी कुसंगवश कभी कुछ अनुचित आचरण हो गया, तो भी उसका कल्याण-मार्ग से पतन नहीं होता, परन्तु उसका कल्याण ही होता है। इसलिए, आप सब परमहंस हरिभक्त भी यदि इस प्रकार भगवान में उपासना की दृढ़ता रखते रहेंगे, तो कदाचित् कोई अनुचित आचरण हो गया, फिर भी अन्त में तो कल्याण ही होगा।”

यह बात सुनकर समस्त साधुओं तथा हरिभक्तों ने श्रीजीमहाराज में सर्वकारण भाव जानकर उपासना की दृढ़ता की।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ १३२ ॥

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२०५. अर्थ के लिए देखिए: वचनामृत लोया ७ की पादटीप।

२०६. अर्थ के लिए देखिए: वचनामृत लोया ७ की पादटीप।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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