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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य २

विषयों की उत्पत्ति तथा उनकी निवृत्ति का उपाय

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला तृतीया (१ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे रेशम की गद्दी पर विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए थे और उनके समक्ष स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। उस समय मुनि झाँझ और मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “अब भजनगान को स्थगित करें। हम कुछ बातें करना चाहते हैं।” फिर श्रीजीमहाराज ने बताया कि, “जिसे आत्यन्तिक कल्याण प्राप्त करना हो तथा नारद-सनकादि के समान साधु बनना हो, उसे यह सोचना चाहिए कि इस देह में ही जीव स्थित है। जीव के साथ इन्द्रियाँ और अन्तःकरण हैं तथा इन्द्रियाँ और अन्तःकरण भी भौतिक पंचविषयों से जकड़े हुए हैं। इस प्रकार के अज्ञान से जीव ने इन्द्रियों एवं अन्तःकरण को ही अपना स्वरूप मान लिया है। परन्तु वास्तविकता यह है कि जीव इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से भिन्न है। पंचविषय भी अन्तःकरण से अलग हैं, परन्तु पंचविषयों के अभ्यास के कारण अन्तःकरण में पंचविषयों की एकता दिखाई पड़ती है। और, विषयों की उत्पत्ति अन्तःकरण से नहीं, बल्कि इन्द्रियों से होती है। जैसे बहुत तेज़ धूप हो या कड़ाके की ठंड हो तो सबसे पहला असर बाह्य रूप से इन्द्रियों पर होता है, फिर इन्द्रियों द्वारा ही शरीर में उसका प्रभाव पड़ता है; परन्तु दोनों प्रकार की स्थिति का उद्‌भव शरीर के अन्दर से नहीं होता। उसी प्रकार पंचविषय प्रारंभ में अंतःकरण से नहीं उत्पन्न होते। सर्वप्रथम इन्द्रियों को बाह्यरूप से विषयों का सम्बंध होता है, इसके पश्चात् ही पंचविषयों का प्रवेश अन्तःकरण में होता है। जैसे शरीर के फोड़े पर दवा लगाने से ही आराम होता है, केवल बातचीत सुनने से आराम नहीं होता। जैसे भूख और प्यास भोजन तथा पानी से ही मिटती है, किन्तु अन्न एवं जल की चर्चा करने मात्र से कुछ नहीं होता। वैसे ही पंचविषयरूपी रोगों का शमन उसकी औषधि द्वारा ही हो सकता है।

“उस रोगोपचार की रीति इस प्रकार है कि जिस समय त्वचा का स्त्री आदि विषयों से स्पर्श होता है, उस समय विषयों का त्वचा द्वारा अन्तःकरण में और अन्तःकरण द्वारा जीव में प्रवेश होता है। जबकि विषयों की उत्पत्ति का मूल स्थान जीव तथा अन्तःकरण भी नहीं है। जिन-जिन विषयों की स्फूरणा अंतःकरण से होती है, वे भी पूर्वजन्म में इन्द्रियों द्वारा बाहर से ही आए हैं। इसलिए विषयों को मिटाने का एकमात्र उपाय यही है कि त्वचा द्वारा स्त्री आदि का स्पर्श नहीं करना चाहिए, नेत्रों से उनका रूप नहीं देखना चाहिए, जिह्वा द्वारा उनकी बात नहीं करनी चाहिए तथा कानों द्वारा उनकी बात भी नहीं सुननी चाहिए। नासिका से उनकी गन्ध भी नहीं लेनी चाहिए। इस प्रकार, पंचइन्द्रियों द्वारा दृढ़तापूर्वक विषयों का परित्याग करें, तो बाहर से विषयों का प्रवाह अंतःकरण में प्रविष्ट नहीं हो पाएगा। जैसे, कुएँ में आनेवाली जलधारा गुदड़ी जैसे मोटे कपड़े की डाट लगाने से बन्द हो जाती है, तभी कुएँ को स्वच्छ किया जाता है; उसी प्रकार से बाह्य इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखने से, अन्तःकरण में बाहर से विषयों का प्रवेश नहीं हो पाता। जैसे उदर की बीमारी उदर में औषधि जाने पर ही मिट सकती है, उसी प्रकार से अन्तःकरण में इन्द्रियों द्वारा पहले से ही प्रविष्ट हुए विषयों को आत्मविचार द्वारा मिटा देना चाहिए। वह आत्मविचार इस प्रकार करें कि, ‘मैं आत्मा हूँ तथा मेरा इन्द्रियों तथा अन्तःकरण से कोई भी सम्बंध नहीं है।’ इस प्रकार दृढ़ विचार रखकर उस चैतन्य में भगवान की मूर्ति को धारण करके, आत्मा के आनन्द से परिपूर्ण रहना चाहिए। जैसे पानी से लबालब भरे कुएँ का जल बाहर से आनेवाली पानी की धाराओं को रोके रखता है, किन्तु जब वह कुआँ खाली हो, तभी बाहर की धाराएँ भीतर आ पाती हैं। उसी प्रकार आत्मा के आनन्द से भीतर परिपूर्ण रहना तथा पंच इन्द्रियरूपी विषयों के बाह्य मार्ग को बंद रखना; वही कामादि को जीतने का सुदृढ़ उपाय है; किन्तु बिना ऐसा किए केवल उपवास द्वारा कामादि को पराजित करना संभव नहीं है। अतः इस विचार को सुदृढ़ करके आत्मसात् करें।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २ ॥ १३५ ॥

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