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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ३

रसिक भक्ति एवं आत्मज्ञान

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला चतुर्थी (२ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे गादी पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्त के हरिभक्त उपस्थित थे, तथा परमहंस झाँझ-मृदंग लेकर कीर्तन कर रहे थे।

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने अपने नेत्रकमलों से संकेत करके सबको मौन रहने का संकेत दिया। फिर कहा कि, “जो बड़े-बड़े परमहंस हों, वे आगे आकर स्थान लें, हमें बात करनी है।”

इतना कहकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “जो मुमुक्षु भगवान की साधना करते हों, उन्हें बड़ा पद प्राप्त करने के लिए दो उपाय हैं और उनके पतन के भी दो उपाय हैं। उसे कहते हैं - एक तो रसिक मार्ग है, जिससे भगवान की भक्ति करना तथा दूसरा आत्मज्ञान का मार्ग। ये दोनों महान पद (मोक्षपद) प्राप्त करने के उपाय भी हैं, तो मुमुक्षु के पतन के कारण भी होते हैं।

“इन दोनों में रसिक मार्ग से सहस्रों-लाखों लोग गिर चुके हैं और उस पर चलकर कोई एकाध ही भगवान को पा सका होगा। बड़े आचार्यों ने रसिक मार्ग द्वारा भक्ति कराई है, लेकिन उससे बहुत से लोगों का अहित हुआ है और भला तो किसी का ही हुआ है। क्योंकि, रसिकमार्ग पर चलते हुए जब कोई भगवान के स्वरूप का वर्णन करता है, तब भगवान के साथ-साथ राधिकाजी, लक्ष्मीजी तथा उनकी सखियों के सौन्दर्य का भी वर्णन किया जाता है; तब तो उनके अंग-अंग का वर्णन होता है, उस वर्णन करनेवाले का मन निर्विकार कैसे रह सकता है? और इन्द्रियों का तो स्वभाव ही है कि वे अच्छे विषयों की ओर आकृष्ट हो ही जाती हैं।

“यह कौन नहीं जानता कि तीनों लोकों में राधिकाजी तथा लक्ष्मीजी जैसा सौन्दर्य किसी स्त्री का नहीं होता! उनकी जैसी मधुर वाणी भी किसी की नहीं होती और उनकी देहों की सुगन्ध भी अत्यन्त चित्ताकर्षक होती है। तब ऐसे लावण्य को देखकर अथवा सुनकर मोह क्यों नहीं उत्पन्न होगा? यह तो होता ही है। ऐसे समय व्यक्ति के मन में यदि लेशमात्र भी विकार उत्पन्न हो गया, तो कल्याण मार्ग से उसका पतन निश्चित है। अतः रसिकमार्ग द्वारा भगवान की उपासना करना अत्यन्त विघ्नकारी सिद्ध होता है।

“दूसरा मार्ग है ब्रह्मज्ञान का। ब्रह्मज्ञान के मार्ग पर चलते हुए मुमुक्षु की जो विपरीत मति होती है, वह इस प्रकार होती है कि, ‘जो ब्रह्म है, वही प्रकृति-पुरुषरूप होता है और बाद में वही ब्रह्म - ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप हो जाता है। आगे चलकर वही ब्रह्म स्थावर-जंगम का रूप धारण कर लेता है और वही ब्रह्म स्थावर-जंगम में रहनेवाले जीवों का रूप लेता है। इस प्रकार ब्रह्मज्ञान को उलटा समझकर वह स्वयं को भी भगवान समझने लगता है। इस समझ के कारण उसकी उपासना-निष्ठा भंग हो जाती है। अतः वह भी भगवान के मार्ग से भटक जाता है। इस तरह ब्रह्मज्ञान में उपासना का खंडित हो जाना, ऐसे ही सबसे बड़ा विघ्न है। क्योंकि अंततोगत्वा सर्व के कारण तथा समस्त जीवों के स्वामी ऐसे भगवान का ही खंडन हो जाता है। अतः ऐसी समझ रखनेवाले भी कल्याण मार्ग से गिर जाते हैं।

“वैसे तो ये दोनों मार्ग कल्याणकारी हैं, परन्तु इन दोनों में विघ्न भी बहुत बड़े हैं। ऐसी स्थिति में कल्याण की इच्छा रखनेवाले को क्या करना चाहिए? यह प्रश्न है। उसका उत्तर दीजिए।”

फिर समस्त परमहंस इस प्रश्न पर विचार करने लगे, किन्तु उत्तर नहीं दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इसका उत्तर यह है कि जिस तरह अपनी माता, बहन अथवा पुत्री के परम रूपवती होने पर भी उन्हें देखकर, उनसे बातचीत करने पर अथवा उनका स्पर्श करने पर भी मन में लेशमात्र विकार उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही भगवान की भक्त स्त्रियों में माँ, बहन और पुत्री की भावना रहने पर किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता। रसिक मार्ग द्वारा वह भगवान का भजन करके अभयपद प्राप्त करता है। परन्तु, जिसकी ऐसी समझ नहीं होती, वह भगवान की महान भक्त स्त्रियों को देखकर यदि विकार की दृष्टि से देखने लगता है, तब उसे भारी दोष लग जाता है। अन्य स्त्री को देखने से जो दोष लगता है, वह भगवान के भक्त का दर्शन करने से टल जाता है, किन्तु भगवान के भक्त को विकार की दृष्टि से देखने से जो दोष लगता है, उसे मिटाने का उपाय शास्त्रों में कहीं भी नहीं बताया गया है। उसी प्रकार भगवान के भक्त पुरुष को देखकर यदि कोई भी स्त्री अनुचित भावना रखने लगती है, तो वह उस पाप से कभी भी मुक्त नहीं हो पाती। इस विषय पर यह श्लोक उल्लेखनीय है:

‘अन्यक्षेत्रे कृतं पापं तीर्थक्षेत्रे विनश्यति।
तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥’२१८

“इस श्लोक का अर्थ यह है कि अन्य स्थान में किया गया पाप भगवान अथवा भगवद्भक्त के सान्निध्य में जाने से मिट जाता है, परन्तु भगवान या उनके भक्त के पास जाकर किया गया पाप तीर्थक्षेत्र में किया गया पाप माना जाता है और वह वज्रलेप हो जाता है। अतः जिसको रसिकमार्ग द्वारा भगवान की भक्ति करनी हो, उसे हमारी बताई गई बात के अनुसार निर्दोषबुद्धि रखनी चाहिए।

“और, ब्रह्मज्ञान के मार्ग को इस प्रकार समझें कि जो ब्रह्म निर्विकार तथा निरंश (अखण्डित) है, वह विकार को प्राप्त नहीं होता और उसके अंश भी नहीं बनते। उस ब्रह्म को जो ‘सर्वरूप’ कहा गया है वह इस प्रकार है कि, ‘यह ब्रह्म प्रकृति-पुरुष आदि सबका कारण तथा आधार है और अन्तर्यामी शक्ति द्वारा सबमें व्यापक है।’ अतः जो कारण, आधार और व्यापक हो, वह कार्य से पृथक् हो ही नहीं सकता। ऐसी समझ से शास्त्रों में ब्रह्म को ‘सर्वरूप’ बताया गया है, किन्तु ऐसा नहीं मानना चाहिए कि वह ब्रह्म ही विकार को प्राप्त कर चराचर जीवरूप हो गया। तथा इस ब्रह्म से परब्रह्म पुरुषोत्तम नारायण सर्वथा भिन्न हैं और उस ब्रह्म के भी कारण, आधार तथा प्रेरक हैं। ऐसा समझकर उस ब्रह्म के साथ अपनी जीवात्मा का तादात्म्य स्थापित करके परब्रह्म की स्वामी-सेवक भाव से उपासना करें। इस प्रकार का विवेक ही ब्रह्मज्ञान है, तथा वही परमपद को प्राप्त करने का निर्विघ्न मार्ग है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३ ॥ १३६ ॥

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२१८. अर्थ के लिए देखिए वचनामृत गढ़डा प्रथम १ की पादटीप।

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