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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ४

भगवान का अखंड चिन्तन

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला पंचमी (३ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे तथा उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्त के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। परमहंस दुकड़, सरोद और सितार बजाकर मल्हार राग में कीर्तन कर रहे थे।

ऐसे समय पर श्रीजीमहाराज बोले कि, “भजन-गान के बदले, चलें हम परमेश्वर की वार्ता करें।”

तब परमहंसों ने कहा, “अच्छा, महाराज!”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “यदि कोई मुमुक्षु शास्त्रकथित धर्म का पालन करता हो तथा भगवान की भक्ति भी करता हो, उसके समक्ष आपत्काल उपस्थित हो जाए कि भक्ति की दृढ़ता रखने पर धर्म से विचलित होना पड़े और धर्म की दृढ़ता रखने पर तो भक्ति से विचलित होना पड़े, ऐसे समय में उसे दोनों में से किसे रखें और किसका त्याग करें?”

तब ब्रह्मानन्द स्वामी बोले कि, “यदि भगवान भक्ति रखने से प्रसन्न रहते हैं, तो उसे भक्ति रखनी चाहिए और वे यदि धर्म का पालन करने से प्रसन्न रहते हैं, तो उसे धर्म का पालन करते रहना चाहिए।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसे भगवान प्रकट मिले हों, उसके लिए तो वही ठीक है कि जिससे भगवान प्रसन्न रहें, उसी तरह का आचरण करे। परन्तु जब भगवान प्रत्यक्ष उपस्थित न हो, तब क्या करना चाहिए?”

इस प्रश्न का उत्तर मुक्तानन्द स्वामी देने लगे, परन्तु वे यथार्थ उत्तर नहीं दे पाए।

तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “जब भगवान प्रत्यक्ष उपस्थित न हों, तब यदि आपात्काल आ गया और कोई न बचा, तब तो भगवान का अखंड रूप से चिन्तन करना। ऐसा करने से वह मुमुक्षु भगवत्पथ से गिरता नहीं है।”

श्रीजीमहाराज ने पुनः प्रश्न किया कि, “भगवान की महिमा जो अतिशय समझता हो और यह मानता हो कि, ‘चाहे कितने ही पाप किए हों, परन्तु यदि भगवान का एकबार भी नामस्मरण कर ले, तो उसके सभी पाप जलकर भस्म हो जाते हैं,’ ऐसी महिमा समझनेवाले को किस प्रकार दृढ़ता रखनी चाहिए, ताकि वह धर्म-पालन से विचलित न हो जाए?”

मुक्तानन्द स्वामी इस प्रश्न का उत्तर देने लगे, परन्तु वे यथार्थ उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जो मुमुक्षु भगवान की महिमा को अधिकाधिक समझता हो, वह इस प्रकार समझेगा, तब जाकर वह धर्म-पालन की दृढ़ता रख पाएगा। वह समझ इस प्रकार है कि, ‘मुझे निरन्तर भगवान का चिन्तन करके एकान्तिक भक्त होना है। यदि मेरी वृत्ति काम-क्रोध-लोभादि विकारों में जितनी अधिक बनी रहेगी, उतना ही अधिक मुझे भगवान के चिन्तन में विक्षेप बना रहेगा।’ ऐसा समझकर वह कुमार्ग से अत्यन्त भयभीत रहे और अधर्माचरण में कभी भी प्रवृत्त न रहे, इस प्रकार की समझ रखनेवाला चाहे भगवान का कितना ही माहात्म्य क्यों न समझे, परन्तु वह धर्ममार्ग से कभी भी च्युत नहीं हो सकता। और, भगवान का अखंड चिन्तन होना भी कोई साधारण बात नहीं है। यदि कोई भगवान का चिन्तन करते हुए देह का त्याग करता है, तो वह अति महान पद को प्राप्त कर लेता है।”

फिर ब्रह्मानन्द स्वामी ने पूछा, “कुमार्ग से भयभीत रहकर ऐसी समझ ही रखते हैं, फिर भी भगवान का निरन्तर चिन्तन नहीं रह पाता, इसका क्या कारण है?”

तब श्रीजीमहाराज ने उत्तर देते हुए कहा कि, “भगवान का निरन्तर चिन्तन होता रहे, ऐसी श्रद्धा भी तो चाहिए। यदि ऐसी श्रद्धा नहीं रही तो समझ लें कि उतनी माहात्म्य जानने में भी न्यूनता ही है; और जब माहात्म्य जानने में कमी है, तो भगवान के स्वरूप सम्बंधी निश्चय में भी उतनी ही न्यूनता है। अतः भगवान के स्वरूप का यथार्थ माहात्म्य एवं श्रद्धा जिसके भीतर बनी रही, तो भगवान का निरन्तर चिन्तन भी रहेगा। वह माहात्म्य इस प्रकार जानना चाहिए कि, ‘भगवान जिस प्रकार प्रकृति-पुरुष से परे हैं, वैसे ही परभाव के साथ प्रकृति-पुरुष में आए हैं, फिर भी पूर्ववत् प्रताप से युक्त हैं, तथा प्रकृति-पुरुष के कार्यरूप ब्रह्माण्ड में आने पर भी वे भगवान वैसे ही प्रताप से युक्त हैं, परन्तु भगवान की मूर्ति को माया लेशमात्र भी स्पर्श नहीं कर सकती। जैसे अन्य धातुओं के साथ स्वर्ण रखकर पृथ्वी में गाड़ दिया जाए, तो बहुत समय के बाद स्वर्ण के सिवा अन्य सभी धातुएँ मिट्टी के साथ मिट्टी हो जाती हैं। परन्तु स्वर्ण और भी विशुद्ध होता रहेगा, घटेगा नहीं। वैसे ही भगवान तथा अन्य ब्रह्मादिक देवता एवं मुनि कभी एक समान नहीं हैं। क्योंकि जब विषयरूपी मिट्टी का योग उपस्थित होता है, तब भगवान के सिवा अन्य देवादिक, भले ही कितने ही बड़े क्यों न हों, विषय में एकरस हो जाते हैं। परन्तु, भगवान यद्यपि मनुष्य-जैसे दिखाई पड़ते हैं, फिर भी उनके समक्ष कोई भी मायिक पदार्थ बाधा डालने में समर्थ नहीं हो पाता तथा वे किसी भी प्रकार के विषयों में कभी भी लिप्त नहीं होते। ऐसा भगवान का अलौकिक सामर्थ्य है।’

“इस प्रकार भगवान का माहात्म्य जानने पर भगवान के भक्त को भगवान का अखंड चिन्तन होता रहता है। और, जब तक विषय में बद्ध जाता है, तब तक यही मानना चाहिए कि वह भक्त भगवान की अलौकिक महिमा को समझ ही नहीं पाया है। और, भगवान ने उद्धवजी से कहा था कि, ‘हे उद्धव! मुझ से तुम अणुमात्र भी न्यून नहीं हो।’ इसका कारण क्या है? उद्धवजी ने भगवान का अलौकिक माहात्म्य जान लिया था और वे पंचविषयों के प्रति आसक्त नहीं होते थे। इस प्रकार जो भगवान की महिमा को समझ लेता है, उसे यदि राज्य-वैभव मिल जाए या दीनतापूर्वक भिक्षा माँगनी पड़े, दोनों स्थितियों में उसे समान भाव रहता है। तथा बालिका, युवती अथवा अस्सी वर्ष की आयुवाली वृद्धा - सभी में उसका समभाव हो जाता है; और संसार में जो भी अच्छे-बुरे पदार्थ हैं, उन सबके सम्बंध में उसकी समतापूर्ण भावना रहती है; किन्तु वह अच्छे पदार्थों को देखकर पतंगे की भाँति आकृष्ट नहीं हो जाता और वह भगवान के सिवा अन्य किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता। वह तो एकमात्र भगवान की मूर्ति में ही तन्मय रहता है। जो भक्त इस प्रकार का आचरण करता है, वह किसी भी प्रकार के बड़े विषयों में बद्ध नहीं होता। यदि यह मर्म समझ में नहीं आया, तो फटी हुई लंगोटी या टूटी हुई तुम्बी से भी मन को हटाना अत्यंत कठिन हो जाता है। अतः भगवान की मूर्ति का माहात्म्य जाने बिना कोई अन्य कोटि उपाय करता है, परन्तु भगवान की मूर्ति का अखंड चिन्तन नहीं हो पाता। वस्तुतः जो भी भगवान के ऐसे स्वरूप की महिमा जानता है, उसी को भगवान का अखंड चिन्तन हुआ करता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ४ ॥ १३७ ॥

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