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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य ५

पतिव्रता का धर्म

संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला सप्तमी (५ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने चबूतरे पर गद्दी बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्त बैठे हुए थे। उस समय साधुवृंद ताल-मृदंग द्वारा कीर्तनों का गायन कर रहा था।

श्रीजीमहाराज ने अपने नेत्रकमलों के संकेत से भजन बन्द करवा कर कहा कि, “भगवान के भक्त को पतिव्रता के धर्म का पालन करना चाहिए और दूसरी बात है कि उसे शूरवीरता भी रखनी चाहिए। जैसे पतिव्रता स्त्री अपने पति के सिवा, भले ही वह वृद्ध, रोगी, निर्धन तथा कुरूप क्यों न हो, किसी अन्य पुरुष के अच्छे गुणों को देखकर अपना मन विचलित नहीं करती। यदि गरीब परिवार की स्त्री पतिव्रता होती है, तो वह चाहे क्यों न बड़े राजा को देखे, परन्तु उसका मन चलायमान नहीं होता, उसी प्रकार भगवान के भक्त को भी भगवान के प्रति पतिव्रता-धर्म रखना चाहिए। अपने पति के सम्बंध में कहे गए किसी निन्दा वचनों को कायर की तरह सुन नहीं लेना चाहिए; बल्कि शूरवीरतापूर्वक उसका उत्तर दे देना चाहिए, ऐसे निम्न प्रकार के लोगों के प्रभाव में किसी भी प्रकार भगवान के भक्त को उससे दबना नहीं चाहिए। इस प्रकार शूरवीरता बनाए रखें।

“और, संसार में लोग कहते हैं कि, ‘साधु को समदृष्टि रखनी चाहिए।’ परन्तु, यह शास्त्रों का मत नहीं है। क्योंकि नारद-सनकादिक तथा ध्रुव, प्रह्लादजी आदि ने भी भगवान एवं उनके भक्तों के पक्ष का ही समर्थन किया है, किन्तु भगवान से विमुख लोगों का पक्ष नहीं लिया। और जो पुरुष विमुखों का पक्षधर बनेगा, वह इस जन्म में अथवा दूसरे जन्म में अवश्य ही विमुख हो जाएगा। इसलिए, भगवान के भक्तों को निश्चित रूप से भगवद्भक्त का ही पक्ष लेना चाहिए, तथा विमुख का पक्ष छोड़ देना चाहिए। हमारी इस बात को सभी अपने मन में सुदृढ़ करके रखना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ १३८ ॥

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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