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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा मध्य ६
हुंडी; चित्त का स्वभाव
संवत् १८७८ में श्रावण शुक्ला अष्टमी (६ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के सामने वेदी पर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंस तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। परमहंस ताल-मृदंग के साथ भजन कर रहे थे।
उस समय श्रीजीमहाराज बोले कि, “भजन बन्द कीजिए। अब भगवद्वार्ता करते हैं।” तत्पश्चात् समस्त मुनिगण हाथ जोड़ कर बैठ गए।
तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “इस संसार में यवन-प्रकृतिवाले कितने ही जीव हैं, जो कहते हैं कि, ‘गंगाजी का जल और दूसरा पानी, दोनों ही एकसमान हैं, तथा शालिग्राम एवं दूसरे पत्थर एक ही तरह के हैं, तुलसी और अन्य वृक्ष एक ही प्रकार के हैं, ब्राह्मण तथा शूद्र भी एक-सरीखे हैं, ठाकुरजी का प्रसादी-अन्न तथा अन्य खाद्य वस्तुएँ एकसमान हैं; एकादशी के दिन भूखे रहने और किसी अन्य दिन भूखे रहने में समानता ही है तथा साधु और दुर्जन एक समान ही हैं। अतः महापुरुष कहे जानेवाले लोगों ने शास्त्रों२१९ में यह विधिनिषेध किस कारण किया होगा?’ दुर्मतिवाले लोग ऐसा ही कहते हैं। इसीलिए, हम समस्त सन्तों से प्रश्न पूछते हैं कि महापुरुषों ने शास्त्रों में विधिनिषेध का जो प्रावधान रखा है, वह सत्य है या कल्पित? इस प्रश्न का उत्तर छोटे-छोटे परमहंस उपस्थित हो, वही करें।”
तत्पश्चात् छोटे-छोटे परमहंस कहने लगे कि, “विधिनिषेध का भेद सत्य है। यदि ऐसा न होता, तो स्वर्ग-नरक का वर्गीकरण किसके लिए किया गया होता?”
यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यद्यपि छोटी उम्र के हैं, पर सही दिशा में सोच रहे हैं।” इतना कहकर श्रीजीमहाराज ने उस प्रश्न का उत्तर देना प्रारम्भ किया कि, “महापुरुषों ने शास्त्रों में जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह पूर्णतः सत्य है। इस प्रसंग में एक दृष्टान्त विचार करने लायक है कि, जब कोई बड़ा साहूकार किसी को हुंडी लिखकर देता है, तब उस कागज़ में एक रुपया भी नज़र नहीं आता, परन्तु उल्लिखित रकम बिलकुल सच्ची है। क्योंकि वह हुंडी जिस धनाढ्य पुरुष के नाम पर लिखी गयी है, उसे जब वह कागज मिलेगा, तो वह रुपये की भुगतान अवश्य करेगा, और रुपयों का ढेर लग जाएगा। वैसे ही महापुरुष की आज्ञा से जो धर्म का पालन किया करता है, उसे पहले पहल तो उन विधिनिषेधों में कोई विशेषता नहीं दिखाई पड़ेगी, परन्तु सत्पुरुष की आज्ञा के पालन करनेवाले का अन्त में कल्याण ही होता है। जैसे हुंडी के भुगतान से रुपये प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार।
“और जिस समर्थ धनवान व्यक्ति ने हुंडी लिखी है, उस पर जिसे विश्वास नहीं होता, उसे मूर्ख ही समझना चाहिए, क्योंकि उसे उस धनवान पुरुष के प्रताप की जानकारी ही नहीं है। इसी प्रकार जिसको नारद-सनकादिक एवं व्यास, वाल्मीकि आदि महापुरुषों के वचनों में विश्वास नहीं है, उसे नास्तिक और घोर पापी मानना चाहिए। ऐसी नास्तिक बुद्धिवाले यह समझते हैं कि, ‘अन्य पत्थर और भगवान की मूर्ति में क्या अन्तर है? सभी पत्थर एक ही तरह के होते हैं। इसी प्रकार विवाहित स्त्री और अविवाहित स्त्री में क्या फर्क है? सभी स्त्रियाँ एकसमान हैं। पत्नी हो या माता अथवा बहन हो, तीनों में क्या अन्तर है? इन सभी का एक जैसा ही आकार है। और, रामकृष्णादि भगवान की मूर्तियाँ भी मनुष्याकार हैं, अतः यह उच्च अथवा निम्न का भाव मनुष्य ने अपनी कल्पना द्वारा प्रस्तुत किया है। किन्तु क्या करें? लोगों के साथ रहना है, अतः सबकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलानी ही पड़ती है, परन्तु विधिनिषेध का मार्ग तो झूठा ही है।’ पापी जो नास्तिक हैं, वे अपने मन में इस प्रकार ही समझते हैं। इसलिए जिसकी ऐसी विपरीत बोली है, उसे पापी जानना, तथा नास्तिक समझना और उसे चांडाल जानकर उसका किसी भी तरह से संग नहीं करना।”
इसके बाद श्रीजीमहाराज ने पुनः अन्य वार्ता कही कि, “मनुष्यमात्र का चित्त कैसा होता है? जैसे शहद, गुड़, शक्कर और चीनी मिला हुआ पानी हो, उसी प्रकार का मनुष्य का चित्त होता है। ऐसे मीठे-चिकने पानी में अगर मक्खी, चींटी, चींटा गिर गया तो वे वहीं चिपक जाते हैं। कोई मनुष्य वहाँ हाथ लगाये, तो उसकी उँगली में भी वह पानी चिपक जाता है। उसी तरह, चित्त का भी ऐसा स्वभाव है कि जिस-जिस पदार्थ के सम्बंध में वह जो कुछ सुनता है, उस उस पदार्थ में वह लग जाता है। यदि वह पत्थर, कूड़ा-कचरा अथवा कुत्ते का मल आदि जो निकम्मी चीजें हैं, वे यद्यपि लेशमात्र भी सुखदायी नहीं हैं, फिर भी उनमें चित्त लग जाता है, तो कभी ऐसी चीज़ों की याद आ गई, तो उनका ही चिन्तन करने लगता है। ऐसा उसका चिपकने का स्वभाव है। जिस प्रकार बड़े दर्पण के सामने बड़े सन्त आ गए, तो उनका प्रतिबिम्ब भी दिखाई पड़ता है, और कुत्ता, गधा, चांडाल आदि आ गए तो उनका भी प्रतिबिम्ब उसी प्रकार दिखाई देता है। वैसे ही चित्त में अतिनिर्मलता रहती है।
“इसलिए उसमें जिस पदार्थ की स्मृति आ जाती है, वही दिखाई पड़ने लगता है। उसमें अच्छे-बुरे का कोई मेल नहीं रहता। अतएव, किसी भी मुमुक्षुजन को ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि, ‘मुझे वैराग्य नहीं है, इसी कारण मेरे चित्त में स्त्री आदि पदार्थों की स्फुरता होती रहती है।’ वस्तुतः बात यह है कि वैराग्यवान पुरुष के चित्त में भी जब जिस पदार्थ की स्मृति जाग उठती है, तो सहज ही उसका स्वरूप सामने उभर आता है। इसलिए राग या वैराग्य का कोई कारण नहीं है। वास्तव में चित्त का स्वभाव ही ऐसा है कि वह सुनी हुई भली-बुरी बात का चिन्तन करता रहता है। जब वह जिस पदार्थ का चिन्तन करता है, तब वही पदार्थ दर्पण के समान उसके सामने उभर आता है। इसलिए यह समझ लेना चाहिए कि, ‘मैं इस चित्त से भिन्न हूँ तथा मैं इसको देखनेवाली आत्मा हूँ।’ यह जानते हुए अच्छे-बुरे संकल्पों से ग्लानि नहीं करनी चाहिए। और, स्वयं को चित्त से पृथक् जानकर भगवान का भजन करते हुए सदैव आनन्द-मग्न रहना चाहिए।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ १३९ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२१९. स्मृतिग्रंथ, गृह्यसूत्र तथा अन्य सदाचार प्रेरक ग्रंथ।